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रचना प्रसंग

 

हिंदी कविता के दो अतिवाद
- विमलेश त्रिपाठी


पिछले दिनों समकालीन कविता के लगभग सबसे वरिष्ठ और चर्चित कवि केदारनाथ सिंह के साथ पन्नागढ़ जाना हुआ। पन्नागढ़ पश्चिम बंगाल का एक शहर तो क्या कस्बा है। वहाँ के एक हिन्दी विद्यालय में समकालीन कविता पर आयोजन था। साथ में भाई निशांत, निर्मला तोदी और राज्यवर्धन भी थे। आयोजन में कोई ताम-झाम न था जैसा कि अक्सर इस तरह के आयोजनों में दिखता है। श्रोता के नाम पर आस-पास के कुछ लोग और ढेर संख्या में स्कूल के विद्यार्थी थे। समकालीन कविता पर बोलने का मैं आधिकारिक विद्वान नहीं हूँ – हाँ अपने अनुभव और कुछ पढ़ने लिखने की बदौलत जो बातें कहीं उनमें महत्वपूर्ण यह था कि हिन्दी कविता को दो तरह के अतिवाद से मुक्त करने की जरूरत है।

पहला तो यह कि कविता के नाम पर आजकल जो कॉमेडी शो हो रहे हैं, या बड़े-बड़े कवि सम्मेलनों और मुशायरों में चुटकुल्ले सुनाए जा रहे हैं, दुर्भाग्यबस देश की आम जनता उसे ही कविता समझ ले रही है। उससे हिन्दी कविता की मुख्य धारा को अलगाकर लोगों को यह बताना जरूरी है कि सही मायने में हिन्दी कविता की जमीन क्या है और उसका मिजाज क्या है। यह इसलिए भी जरूरी है कि हिन्दीतर भाषी क्षेत्रों के लोग आसानी से यह कहते पाए गए हैं कि हिन्दी कविता तो बहुत मजेदार होती है, उसे सुनकर बहुत ‘मजा’ आता है उनके लिए कुमार विश्वास जैसे लोग ही हिन्दी के प्रतिनिधि कवि बन जाते हैं। जबकि हिन्दी कविता का परिदृश्य अलग और विशाल है जिससे लोगों को परिचित कराना हमारी जिम्मेदारी बनती है। हिन्दी कविता को ‘मजे’ की चीज की मिथ्या धारणा से निकालना जरूरी है। इसके लिए यह जरूरी है कि चुटकुल्लेबाज कवि सम्मलनों के सामानांतर मुख्य धारा के कवियों को लेकर बड़े कवि सम्मेलनों का आयोजन किया जाय और उसमें आम पाठकों-श्रोताओं की भागीदारी सुनिश्चित की जाय। यहाँ यह बाताना जरूरी है कि कोलकाता की ही एक संस्था ‘नीलांबर’ ‘एक साँझ कविता की’ नाम से एक कविता सम्मेलन श्रृंखला की शुरूआत कर चुकी है जहाँ गंभीर कविताओं को पाठकों तक रोचक तरीके से पहुँचाने का सार्थक प्रयास किया जा रहा है। अब तक इस संस्था के इस तरह के दो आयोजन हो चुके हैं। उस पर फिर कभी विस्तार से बात की जाएगी।

बहरहाल दूसरा जो अतिवाद है वह हिन्दी कविता का बौद्धिक आतंक है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हिन्दी के कुछ कवि विश्व कविता लिखने की फिराक में कविता में बिंब और भाषा का घटाटोप पैदा कर रहे हैं। ‘आकाश के चेहरे पर खिजाब लगाने की बात’ और दूर की कौड़ी लाने के चक्कर में ये इतने अस्पष्ट और दुरूह हो जाते हैं कि पाठक इनसे घबरा कर भागता है। यह अफसोसजनक बात है कि इस तरह की कई कविताओं को पुरस्कृत देखकर कुछ युवतर कवि भी उसी तरह की भाषा और बिंबों के प्रयोग की होड़ में लगे हुए दिखते हैं। इस तरह के लेखन और कुछ खास किस्म के कलावादी लेखकों द्वारा इनकी प्रशंसा ने भी हिन्दी कविता का कम नुकसान नहीं किया है।

उपरोक्त दोनों तरह की प्रवृति घोर अतिवादी है और ‘ट्रू पोएट्री’ के पक्ष में कतई नहीं है। मैंने जोर देकर कहा कि क्या सरल और सहज भाषा में बड़ी कविता नहीं लिखी जा सकती। अब तक के अनुभव से जो सीख पाया हूँ वह यही है कि कोई भी कला स्वयं को जटिल बनाकार अपना ही नुकसान करती है। आखिर कलाएँ किस लिए हैं – मान लिजिए आपके सामने गीत के नामपर कोई शोर परोसे या प्रवचन की रिकॉर्डिंग बजा दे तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी। जाहिर है कि आप एक-न-एक दिन उससे घबरा कर भागेंगे ही। इस संबंध में हमें लोक कुछ सीखें देता है। हजारों वर्ष पुराने गीत क्यों आज भी गाये और सराहे जाते हैं, क्यों आज भी महेंदर मिसिर और भिखारी ठाकुर के गीत इतने लोकप्रिय हैं। क्यों आज भी प्रेमचंद का साहित्य सबसे अधिक छपता और बिकता है।

यह सब इसलिए कि हमें दोनों तरह के अतिवाद से हिन्दी कविता को मुक्त कर उसे सरल-सहज बोधगम्य बनाना होगा – और यह कवित्व की कीमत पर कतई नहीं करना होगा। सहजता के साथ कवित्व आज की हिन्दी कविता का लक्ष्य होना चाहिए। उक्त समारोह में केदार जी ने एक महत्वपूर्ण बात यह भी कही कि हमें छंद से घबराना नहीं है, हमें फिर से छंद के पास लौटना होगा, यह कविता के दीर्घायु होने के लिए जरूरी है। छंद, लय, गीत ये कविता के अंग हैं और सहजता उसकी आत्मा है। यह बात आज के कवियों को समझनी होगी। 

 

१ अप्रैल २०१७

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