महिमा नौ सौ ग्यारह की
(बारहवाँ भाग)
बच्चे ने घुमाया नंबर
बाबा–दादी अंदर
नौ सौ ग्यारह की महिमा अमेरिका मे अनंत है। बड़े काम का
नंबर है। दमकल, ऐंबुलेंस या फिर पुलिस को बुलाने के
लिए नौ सौ ग्यारह नंबर घुमाया नहीं कि मिनट भर में
पुलिस की गाड़ी दरवाजे पर होती है। एक बार तो किसी नये
रंगरूट को कंपनी से मिली निर्देश पुस्तिका में लिख
दिया गया था कि आपातकाल में यह नंबर मिलाओ। भाई ने
हवाई अड्डे पर कंपनी की भेजी टैक्सी न पाकर हड़बड़ाहट
में नौ सौ ग्यारह घुमा दिया। फिर तो लालनीली बत्ती
वाली टैक्सी के ड्राइवर यानि कि पुलिसवाले ने जो
लेक्चर पिलाया कि पूछिए मत।
बड़े तो बड़े अक्सर बच्चे भी यह हरकत करते हैं। पहली ही
कक्षा में इस नंबर का महत्व सिखा दिया जाता है। हमारे
मित्र अहलूवालिया जी पर बड़ी बुरी मार पड़ी इस नंबर की।
उनके दोनों नटखट पुत्र स्कूल से घर आकर कुरुक्षेत्र का
मैदान बना डालते हैं। पिछली गर्मियों में उन्होंने बड़े
चाव से माता–पिता को भारत से बुलाया। लंबी हवाई–यात्रा
से थके वरिष्ठ अहलूवालिया जी फिलाडेल्फिया की गुनगुनी
धूप में सुस्ता रहे थे कि स्कूल से शैतानों की टोली आ
धमकी। इन शैतानों के माता–पिता दोनों काम करते थे और
बच्चों को स्कूल के बाद डेकेयर जिसे भारत मे क्रेच
कहते हैं में रहना होता था। पर अब तो देखभाल के लिए
दादी–बाबा थे। दोनों शरारतियों को दादी ने बड़े प्यार
से खाना खिलाया। पर खाना खिलाने में दादी को दोनों ने
बहुत हैरान किया। खाने के बाद दोनों की धमाचौकड़ी शुरू
हो गई। जोर से टी.वी. चलाना, उछलकूद, गुलगपाड़ा।
बेचारे थके हारे दादाजी हैरान होकर पहले तो समझाते रहे
फिर डाँटने लगे। पर इन अमेरिकन लंगूरों को सब बेअसर।
बेचारे दादाजी ने आज़िज़ आकर समस्या का हिंदुस्तानी इलाज
करने की ठानी और बच्चों के बाप को बचपन में पढ़ाया पाठ
अपने पोतों पर आज़मा डाला। दादाजी ने दो तमाचे रसीद
करके उनके कान उमेठ दिए। छुटका पोता तो बुक्का फाड़के
रोने लगा और बड़े वाले ने आव देखा न ताव नौ सौ ग्यारह
घुमा दिया। दो मिनट में पुलिस देख कर दादाजी हैरान।
पुलिस घर में मकान मालिक को गैरहाज़िर देख और बच्चों का
क्रंदन देख कर दादा–दादी को थाने उठा ले गई और बच्चों
को पड़ोसी के हवाले कर दिया। शाम को अहलूवालिया जी आफ़िस
से घर पहुँचे तो पड़ोसी ने रामकथा सुनाई, सुनकर
अहलूवालिया जी के हाथ के तोते उड़ गए। बेचारे उल्टे
पाँव थाने भागे। बहुत मुश्किल से पुलिस वालों को अपने
पिताश्री के स्थानीय कायदे–कानूनों से नावाकिफ़ होने और
वृद्ध होने का वास्ता देकर छुड़वाया। पर उनके पिताजी का
पारा तो सातवें आसमान पर था। सारे रास्ते पिताश्री
लेक्चर देते रहे कि 'ऐसी जगह रहने के क्या फ़ायदा जहाँ
आप बच्चों को काबू में नहीं रख सकते, पुलिस भी बेअक्ल
है। चोरों और शरीफ़ों में फ़र्क की तमीज़ तक नहीं
वगैरह–वगैरह।' अगली ही फ्लाइट से दोनों प्राणी अपने उस
वतन वापस चले गए जहाँ उनका कानून चलता है।
दिल्ली स्टेशन पर चाँटों की बौछार
अहलूवालिया जी मन मसोस कर रह गए। लड़का उज्जड होता जा
रहा था। दादाजी को थाने पहुँचा कर शेर हो गया था।
अहलूवालिया जी पिताजी के गुस्सा होकर चले जाने से बड़े
दुखी थे, पर कुछ कर नहीं सकते थे क्योंकि नौ सौ ग्यारह
नंबर का जिन्न उन्हें समस्या का हिंदुस्तानी तरीके से
इलाज करने से रोक देता था। खैर, अगली छुट्टियों में
अहलूवालिया जी सपरिवार भारत यात्रा पर गए। हवाई अड्डे
पर रात के वक्त विमान पहुँचा। बच्चों ने लिम्का फैंटा
जो माँगा अहलूवालिया जी ने सब दिलाया। हवाई अड्डे से
दिल्ली रेलवे स्टेशन पर जाने वाली बस में सब बैठे।
अचानक अहलूवालिया जी ने अपने लिम्का पीते बड़े लड़के को
तड़ातड़ तीन तमाचे रसीद कर दिए। लड़का बुक्का फाड़ के रोने
लगा। यह देख कर कंडक्टर बोला 'अरे भाईसाहब, लड़का तो
चुपचाप बैठा है, क्यों उसे आप खाली पीली पीट रहे हैं?'
अहलूवालिया जी दहाड़े 'तू चुप बैठ। यह मेरे घर का निजी
मामला है।' कंडक्टर सहम गया। अब अहलूवालिया जी अपनी
विलापरत संतान से मुख़ातिब हुए, 'ओये खोते दे पुत्तरए!
अब मिला नौ सौ ग्यारह। साले यहाँ तो पुलिस भी तुझे ही
कूटेगी मुझे नहीं।'
चटोरा कुत्ता
हमारे एक मित्र हैं विजय श्रीवास्तव, बड़े रोचक स्वभाव
के जीव हैं। भारत माँ के सच्चे पुत्र। अमेरिका में
रहकर भी भारतीयता का झंडा पूरी शान से बुलंद किए हुए
हैं। उनको फोन करिए तो हैलो की जगह 'जय माता दी' का
उदघोष सुनने को मिलता है। भारतीय परंपरा के साथ भारतीय
भोजन के भी शौकीन हैं। एक बार बड़ी मज़ेदार समस्या से
दो–चार हुए हमारे विजय भाई। उनके पड़ोसी के प्यारे
कुत्ते ने खाना पीना छोड़ दिया। चिंताग्रस्त पड़ोसी अपने
कुत्ते को पशुचिकित्सक के पास ले गया। पशुचिकित्सक ने
जाँच–पड़ताल के बाद फ़रमाया कि कुत्ता तो एकदम भला चंगा
है। अब पड़ोसी सिर खुजाने लगा कि आख़िर कुत्ते का पेट
भरता कैसे है। उसने घर के आसपास वीडियो कैमरे फिट कर
दिए, कुत्ते पर निगरानी रखने के लिए। कुछ दिन की
जासूसी के बाद उसे पता चल गया कि क्यों उसके पड़ोसी
श्रीवास्तव साहब रोज़ अपने कूड़ेदान के गिरने और कूड़ा
फैलने पर हैरान होते हैं? यह उसका प्यारा कुत्ता ही था
जिसे कुत्तों के लिए बना पौष्टिक पर बेस्वाद खाना पसंद
नहीं आता था। किसी दिन इस कुत्ते ने श्रीवास्तव साहब
के कूड़ेदान से बचीखुची पूड़ी–कचौड़ी और मसालेदार सब्जी
क्या खा ली, उस श्वान का शाश्वत सच से साक्षात्कार हो
गया।
बेचारे कुकुर को पता चल गया कि वह और उसका मालिक दोनों
पौष्टिक खाने के नाम पर ताउम्र बकवास खाते रहे और
कितने स्वादिष्ट खाने से महरूम रहे। अब वह बेचारा
बेजुबान अपने मालिक को तो समझा नहीं सकता था, इसलिए
अपनी पेटपूजा श्रीवास्तव साहब के कूड़ेदान में कर लेता
था और अपने मालिक को बेस्वाद पास्ता सलाद वगैरह लीलते
देख उनकी किस्मत पर तरस खाता था। कुत्ते के मालिक को
उसकी यह हरकत नागवार गुज़री और उसने श्रीवास्तव जी को
घुड़का कि अगर उन्होंने कुड़ेदान को ठीक से बंद नहीं रखा
और उनका कूड़ा खाने से कुत्ता बीमार पड़ा तो वह मुकदमा
ठोक देगा। श्रीवास्तव जी डर गए और बेचारे कूड़ा घर के
अंदर ही रखने लगे। इधर कुत्ते ने भूख हड़ताल कर दी।
बेचारा पड़ोसी फिर दौड़ा पशु-चिकित्सक के पास। उसने पूरी
रामकहानी सुनकर कहा, 'कुत्ते को वही दो जो वह खाना
चाहता है वरना वह भूखे ही दम तोड़ देगा।' सुना है आजकल
श्रीवास्तव जी का पड़ोसी उनसे छोले भटूरे और कचौड़ियाँ
बनाना सीख रहा है।
अनोखेलाल जी खो गये?
यह संवेदनशील घटना हमारे मित्र अनोखेलाल आहूजा जी के
साथ घटी। अनोखेलाल जी हमारी फिलाडेल्फिया की
मित्र–मंडली के अभिन्न सदस्य हैं। हर समोसा पार्टी
उनके बिना अधूरी मानी जाती है। आहूजा जी आजकल घर खरीद
रहे हैं। अपने निर्माणाधीन घर में कभी भूमि पूजन तो
कभी कुदाली पूजन के नाम पर उन्होंने अमेरिकन कारीगरों
को भारतीय संस्कृति और वास्तुशास्त्र से भली–भाँति
परिचित करा दिया है। आहूजा जी अक्सर वाशिंग मशीन,
रेफ्रिजरेटर की डील वगैरह ढूँढते पाए जाते हैं। हमारी
समोसा पार्टियाँ अक्सर उनके बिना वीरान रहती हैं। अगर
कभी भूले भटके आ भी गए तो नाना प्रकार की जानकारी के
सागर में हम सबको डुबो देते हैं। अब हमें पता हो चला
है कि घर कि घास कितनी महत्वपूर्ण चीज़ है। उसे कितनी
बार काटना चाहिए, कब छोड़ना चाहिए वगैरह–वगैरह।
एक बार किसी मित्र की पैंतीस वर्षीया बीबी के
अठ्ठाईसवें जन्मदिवस की पार्टी में आहूजा जी की बीबी
तो पहुँच गई पर आहूजा जी नदारद। सेलफोन भी नहीं उठा
रहे थे। हमने अंदाज़ लगाया कि शायद आफ़िस में कोई मीटिंग
लंबी खिंच गई थी। पार्टी ख़त्म होने के बाद सब घर चले
गए। रात दस बजे श्रीमती आहूजा का फोन आया। आहूजा जी घर
नहीं पहुँचे थे। आफ़िस का फोन कोई उठा नहीं रहा था।
उनका सेलफोन भी आफ़ लग रहा था। हम सपत्नीक आहूजा जी के
घर पहुँचे तो श्रीमती आहूजा रुआँसी हो गईं। बात वाकई
चिंताजनक थी, मैं सोच रहा था कि कभी–कभी विदेश में
व्यक्ति कितना असहाय हो जाता है तकलीफ़ आते ही।
रिश्तेदार तो होते नहीं, मित्र भी न हों तो कितना
मुश्किल हो जाए विपत्ति का सामना करना। मैंने एक मित्र
को फोन लगाया, वह चौंका 'अरे अभी दस बजे तक तो हम सब
साथ थे, क्या याद आ गया?' मैंने कहा, 'अनोखेलाल जी खो
गए।' मित्र चौंका, 'अरे यार क्या मज़ाक कर रहे हो?'
मैंने सारी रामकहानी बताई। हमने यह फ़ैसला किया कि
मित्र उनके निर्माणाधीन घर की तरफ़ जाकर देखें कि कहीं
वे घर में कोई नापजोख करने गए हों और कार वगैरह खराब
हो गई हो।
मेरी पत्नी उनके बच्चों को सँभालने लगीं और मैं
श्रीमती आहूजा जी के साथ आहूजा जी के आफ़िस चल दिया।
रास्ते में पत्नी का फोन आया कि आहूजा जी मिल गए हैं
और आप दोनों के पास आफ़िस आ रहे हैं। उनके आफ़िस के
पार्किंग लाट में आहूजा जी के दर्शन हुए। आहूजा जी
हैरान थे कि उनके देर से आने पर इतनी त्राहि–त्राहि
क्यों मची है? श्रीमती आहूजा जी की हालत बाँध टूटने से
पहले क्षणभर ठहरी नदी की थी। इससे पहले यह नदी बहे,
मैंने पूछा, 'महाराज आप कहाँ थे?' पता चला आहूजा जी को
शाम को आफ़िस में किसी हाट डील का पता चल गया। जनाब
सीधे दौड़ लिए स्टोर। सेलफोन की बैटरी दिन में ही चुक
गई थी। दुकान के सेल्समैन भी उस दिन शायद खाली बैठे
थे। आहूजा जी पहले विस्तार से वाशिंग मशीन के विविध
फीचर समझते रहे, फिर सौदेबाज़ी करते रहे और तकरीबन तीन
घंटे झेलने के बाद सेल्समैन ने अपने मैनेजर को बुला
लिया। मैनेजर ने कुछ ऐसे प्रस्ताव फेंके कि आहूजा जी
ने उस दिन वाशिंग मशीन, रेफ्रिजरेटर, सोफा और न जाने
क्या–क्या खरीद डाला। इस सबमें दस बजने का पता ही नहीं
चला। अब पार्किंग लाट में आहूजा दंपत्ति के मध्य तानों
और शिकवों के बादल गरज रहे थे। इतने गर्जन–तर्जन के
बाद बरसात होनी अवश्यंभावी थी अतः मैंने फूट लेने में
भलाई समझी।
एच ओ वी लेन की यह यात्रा तो अभी भी जारी है, अक्सर
खट्टे–मीठे अनुभव होते हैं। वक्त ने चाहा तो इन
अनुभवों की दूसरी किस्त लेकर फिर हाज़िर होऊँगा।
९
नवंबर २००५ |