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					 अजब 
					लगता है सोच कर कि किस्मत ने मुझे ज़िंदगी के आखि़री मुहाने पर 
					अपने घर के इतना नज़दीक पहुँचा दिया, फिर भी इतना दूर। थोड़ा सा 
					टहल कर उस घर के आस-पास जाने की इच्छा तक नहीं होती। कौन है 
					भला मेरा वहाँ। मुझे तो कुछ भी नहीं पता कैसी थी बापू की 
					पत्नी। कितने बच्चे थे उनके। जाऊँ उस घर में तो क्या बताऊँ उन 
					सबको? 
 ईंट गारे से बने मकान भर को क्या घर पुकारा जा सकता है? सोचती 
					हूँ बगल में अब कौन रहता होगा? ओम प्रकाश या कोई और? क्या करना 
					है मुझे। अब तो कुछ जानने सोचने की इच्छा भी नहीं होती। इसी 
					सड़क पर कोठियों के पीछे बनी गली के उस ओर था हमारा छोटा सा घर। 
					यहीं के गर्वन्मैंट गर्ल्स स्कूल में पढ़ती थी मैं। उस घर के 
					आँगन और सामने की गली में खेलते-कूदते सोचा था कहीं, कि थोड़ी 
					ही दूर पर बने इस वृद्धा आश्रम में बीतेंगे मेरी ज़िन्दगी के 
					आखि़री दिन।
 शाम होती है तो आकर खिड़की पर खड़ी हो जाती हूँ। धुंधलका होने से 
					पहले ही पूरे बाजार की रोशनियाँ जल जाती हैं। इतनी तेज़ चमक के 
					साथ कि आँखें चौंधियाने लगती हैं। इतने सालों से उजियाले की 
					आदत छूट गई है न। पचपन साल से रोशनी के लिये तरसती रही आँखें। 
					अब चारों तरफ झिलमिल करता इतना उजियाला, इतना शोर। पर अब क्या 
					देखें, क्या सुनें। देखा, सुना तो सब पीछे छूट गया। आगे के 
					लिये बचा ही क्या है।
 
 मेरी भी कैसी किस्मत? मैं तो सारी ज़िंदगी रास्ते से हटाकर 
					फेंकी ही जाती रही। छोटी थी तो बापू ने अपने सुख के लिये मुझे 
					अपने रास्ते से हटा कर फेंक दिया था उस अँधेरे गाँव में। फेंका 
					ही तो था। वह दिन आज भी याद आते हैं तो मन हाहाकार करने लगता 
					है।
 बापू ने सख्त निगाहों से अम्मा को देखा था, "जिज्जी को कहला 
					दिया है अपने जेठ के लड़के से बिट्टो की बात तय करने को। शनिवार 
					को जा रहा हूँ सब तय करने को। महीने भर के अंदर सब काम निबटा 
					देंगे। अच्छा है तुम अपने हाथों से कर दो यह काम।"
 
 अम्मा एकदम काँप गयी थीं, "कैसी बात कर रहे हो जी? चौदह साल की 
					बच्ची क्या शादी की उमर है इसकी। फिर वे गँवई गाँव के लोग। 
					जिज्जी को बिदा कराने जाते हो तो दुपहर को पहुँच कर दुपहर में 
					ही वापिस हो लेते हो। रात को नहीं रुकना चाहते। तुम ही तो कहते 
					हो कि वहाँ रात को घबराहट होती है। मीलों तक अँधेरा, कहीं 
					रोशनी नहीं दिखती।
 पर बापू तय कर चुके थे सब कुछ। उन्होंने तेज़ निगाहों से अम्मा 
					की तरफ, फिर मेरी तरफ देखा था, "जैसी इसकी किस्मत" वे कुछ क्षण 
					रूके थे, "और जैसे इनके करम।"
 अम्मा गिड़गिड़ाती रही थीं, "छोटी सी लड़की को इत्ती बड़ी सजा मत 
					दो जी। मैं वायदा करती हूँ मैं ध्यान रखूँगी उसका। थोड़ा सा भी 
					हील हवाला नहीं होने दूँगी अब।"
 बापू ने सख्त निगाहों से देखा था उन्हें, जैसे पूछ रहे हों कब 
					तक? कितना जीना है भला तुम्हें?
 
 उस अनबोले चेहरे को देख कर अम्मा एकदम सकपका गई थीं जैसे बापू 
					का एक-एक मौन शब्द सुना हो। जैसे मौत के कगार पर खड़े होने का 
					कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो उन्होंने। उसी सख्त चेहरे को 
					लिये बापू घर में इधर-उधर अपने काम निपटाते रहे थे और फिर बाहर 
					चले गए थे। अम्मा देर तक रोती रही थीं। देर तक क्या उन दिनों 
					तो वह पूरे समय रोती ही रहती थीं। एक-एक आँख से कई-कई धार 
					आँसू। अकेली होतीं तो बड़बड़ातीं, "माँ सौती हो तो बाप तो पहले 
					ही सौता हो जाता है पर तुम्हारे बापू? मेरे मरने से पहले ही, 
					सौती माँ के देहरी में कदम रखने से पहले ही सौते हो गए।" मेरा 
					हाथ पकड़ कर उनकी हिचकी बंध जाती, "क्या करूँ बेटा।" वे जैसे 
					मुझे सफाई देती हों। मुझे बाहों में भर मेरी पीठ सहलाने लगतीं 
					जैसे मेरे आने वाले पूरे जीवन के दर्दो को सहला रही हों।
 मैं जब तब उनकी गोदी में सिर रख देती, "मुझसे भूल हो गई 
					अम्मा," मैं जैसे उनसे माफ़ी माँगने लगती।
 अम्मा मेरा सिर सहलाती रहतीं, "भूल क्या हुई बेटा तेरे बापू को 
					तुझसे छुटकारा पाने का मौका मिल गया। मैं कित्ते दिन की 
					मेहमान? आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों जाना ही है। तू ही थी 
					उनके रास्ते की रुकावट, उसे भी हटा दिया उन्होंने।"
 
 उस दिन अचानक अम्मा की ऑखों में उम्मीद की आखि़री लौ चमकी थी 
					जैसे डूबता इंसान तिनके का सहारा ढूँढता हो, "तू उसी के साथ 
					चली जा सरस्वती।"
 "किसके साथ अम्मा?" मैंने उनकी तरफ देखा था।
 "उसी ओम प्रकाश के साथ, जिसके साथ तू थी उस दिन छत पर जिस दिन 
					तेरे बापू ने..."
 मैंने लाचार निगाहों से अम्मा की तरफ देखा था, "मैं तो उसको 
					ठीक से जानती भी नहीं अम्मा। क्या कहूँगी उससे?"
 "फिर?"
 "मेरी तो उससे एक दो बार छत पर ही बात हुई थी।" मैं जैसे 
					उन्हें सफाई देती हूँ "उस दिन न जाने क्या हुआ कि वह हमारी छत 
					पर कूद आया। हम उत्ती दूर खड़े थे अम्मा।" मैंने अपने और दीवाल 
					के बीच की दूरी इशारे से दिखाई थी, "पर बापू ने कुछ सुना ही 
					नहीं।"
 अम्मा लाचार सी साँस लेकर फिर लेट गई थीं। पर शायद अभी भी 
					उन्होंने तिनके का वह सहारा छोड़ा नहीं था। घर के अंदर तक चलने 
					फिरने में लाचार अम्मा को उस दिन मैंने घर के बाहर जाते देखा 
					था।
 
 ...और बापू ने मेरी शादी कर दी थी।
 विदा से पहले बापू ने बहुत सारे उपदेश दिए थे। इसके अलावा उनके 
					पास देने के लिये और था ही क्या? न प्यार, न ममता, न अपनापन। 
					कहा था-
 "अब वही तुम्हारा घर है। वहीं खुशी ढूँढना। वहाँ वालों से 
					तुम्हारी शिकायत न सुनूँ कभी।" उनका सख्त चेहरा और सख्त हो गया 
					था। वह थोड़ी देर तक आस-पास बैठे लोगों की तरफ देखते रहे थे 
					जैसे अपनी सूझ-बूझ पर खुद अपने आप को शाबाशी दे रहे हों। स्वर 
					ऐसा जैसे डाँट रहे हों, "औरत को पानी की तरह होना चाहिए। जिस 
					बर्तन में डालो उसी की शक्ल ले ले।"
 मैं चुप रही थी। वैसे भी क्या बोलती। मन आया था पूछूँ-
 "और मर्द को?" पत्थर की तरह सख्त, चालाक, मक्कार। जिन अम्मा के 
					साथ सत्रह साल रहे हैं उनके लिये ज़रा सी दया ममता नहीं। दिन 
					में दसियों बार उनके साथ खड़ी मौत को उनके मुँह पर फेंक के 
					मारते हैं। कैसे इंसान हैं यह? अम्मा के पास जीने के लिये बहुत 
					थोड़े से दिन बचे हैं। कौन जाने कुछ घण्टे ही हों बाकी। पर। 
					मेरे जाने के बाद वह कैसे जिएँगी इनके साथ अकेले और ऊँची आवाज़ 
					में हिचकियों के साथ मेरी रुलाई फूट पड़ी थी। बगल के पलंग पर 
					लेटी अम्मा ने अपने काँपते हाथों में मेरा हाथ थाम लिया था।
 उस पल आखि़री बार अम्मा का हाथ थामा था। विदा होकर उस देहरी से 
					बाहर निकली थी सो भी आखि़री बार। बापू ने अम्मा के मरे की ख़बर 
					चिट्ठी से भेजी थी। जाती भी तो किसके लिये? वहाँ तो अम्मा की 
					राख तक बची हुई न मिलती।
 
 गाँव का यह घर इलाहाबाद वाले हमारे घर से तो बड़ा ही है। सच 
					कहूँ तो काफी बड़ा। आधा कच्चा आधा पक्का बना हुआ। चारों तरफ 
					फैलान हैं। दूर-दूर तक खेत और कच्ची सड़कें, पगडंडियाँ दिखती 
					रहती हैं। घर के बगल में ही बाएँ हाथ वाली दीवाल से सटा 
					गाय-भैसों का बाड़ा है। जब कभी हवा उधर से चलती है तो गोबर 
					गंदगी की गंध घर में भर जाती है। वैसे तो इस गंध की धीरे-धीरे 
					आदत पड़ती जा रही है। इन जानवरों का कितना काम है। सुबह-सुबह 
					दूध दुहा जाता, गोबर उठाते लोग, भैसों को चारा डालना। भीड़ के 
					भीड़ लोग दूध खरीदने आते हैं। उन की बातों की खाँसने खखारने और 
					बाल्टियों बर्तनों के खड़कने की आवाजें। थोड़ा शांति हो जाने पर 
					कैनिया में भरकर नौकर दूध बाँटने निकल पड़ते। बचे दूध का दही 
					जमता, पनीर बनता और उसमें से घी मट्ठा बिलोया जाता। आदमी 
					उन्हें पास के शहर बेचने ले जाते। यह जीवन मेरे लिये बिल्कुल 
					नया है। जानवरों का काम मुझे नहीं करना पड़ता। सब कुछ अम्मा, 
					लाला, बुआ-फूफा सँभालते हैं। फिर भी उतना काम, उतना फैलाव देख 
					कर ही घबराहट होने लगती है। फिर घर के अंदर भी दूध दही का थोड़ा 
					बहुत तो देखना, समेटना तो हो ही जाता है।
 
 कितने दिन हो गए यहाँ आए। धीरे-धीरे शायद यहाँ रहने की आदत पड़ 
					रही है। सच कहूँ तो सुबह सबेरे कभी-कभी अच्छा ही लगता है। 
					दूर-दूर तक फैली हरियाली, गाय भैंसों के रंभाने की आवाज़ें, 
					उनकी खनकती हुयी घंण्टियाँ। खेतों के पार से उगता हुआ सूरज 
					लगता जैसे अपने ही घर में उतर आया हो। पर शाम होने लगती तो मन 
					बुझने लगता। अब थोड़ी देर में रात उतरेगी घर पर। अँधेरा होगा। 
					फिर, फिर। अँधेरे से मुझे डर लगता है। और भी बहुत सी चीज़ों से। 
					उस दिन आधी रात को गाय भैसों के तेज-तेज रंभाने की आवाजें 
					अचानक आने लगी थीं। घर में सब लोग उठ कर बैठ गए थे। लाला, फूफा 
					ये और घर के सब मर्द लाठी, डंडा, लालटेन और टार्च लेकर बाहर 
					निकल आए थे। लगता है जानवरों के बाड़े में साँप निकल़ आया है। 
					मैं डर से काँपने लगी थी। फिर उसी रात नहीं कई रात मैं ठीक से 
					सो नहीं पायी थी। लगता था कहीं कुछ रेंग रहा है।
 
 पर आखि़र कब तक न सोती।
 घर में कोई बुरा नहीं। बापू की तरह कोई डाँट कर, आँखें तरेर कर 
					भी बात नहीं करता। पर किसी के बुरा न होने से जिंदगी अच्छी 
					थोड़ी हो जाती है। उसके लिये तो और भी बहुत कुछ चाहिए होता है।
 सोचती हूँ यहाँ बुआ न होतीं तो कैसे रहती। जब भी मौका लगता मैं 
					बुआ के पास लेट जाती। बुआ मुझे अपने सीने से लिपटा लेतीं और 
					मेरी पीठ सहलाती रहतीं। जब मेरी ऑखों में आँसू भरने लगते तो 
					मेरे माथे पर हाथ रख कर पुचकारतीं "घर की याद आ रही है 
					बिट्टो।"
 
 मैं क्या बोलूँ? अब वहाँ याद करने के लिये है कौन? अम्मा इस 
					दुनिया में नहीं हैं। बापू ने सुना है दूसरी शादी कर ली है। उस 
					घर से मेरा नाता अब रह ही क्या गया है भला। फिर भी सिर्फ अम्मा 
					ही नहीं अपनी मिट्टी, अपने लोग, अपना स्कूल, वह गली मोहल्ला सब 
					याद आते रहते हैं। मैं और चिपक कर बुआ के सीने से अपना सिर सटा 
					लेती। वे वैसे ही लेटे-लेटे मेरा सिर, मेरा माथा सहलाती रहतीं। 
					अक्सर मन आता कि पूछूँ बुआ से कि इलाहाबाद शहर में रहते हुए भी 
					बाबा ने उनकी शादी इस अँधेरे गाँव में क्यों कर दी। पर चुप 
					रहती। किसी के जख़्म कुरेदने से वैसे भी क्या फायदा भला। फिर डर 
					भी तो लगता है। जानती हूँ कि बुआ के जख़्म खुलते ही मेरी अपनी 
					चोट भी तो रिसने लगेगी। वैसे भी बुआ के चेहरे को देखकर कुछ समझ 
					नहीं आता कि वे खुश हैं या दुखी हैं या कुछ भी नहीं बस 
					उन्होंने उन्हीं हालात में जीने की आदत डाल ली है। सोचती हूँ 
					बाबा और बापू के लिये घर की बेटियाँ क्या मानुष थीं ही नहीं? 
					चाहे जहाँ उठा कर उन्हें फेंक दिया। सुना है पुराने ज़माने में 
					लोग लड़कियों के पैदा होते ही उन्हें मार देते थे। बापू और बाबा 
					से तो अच्छे ही थे वे लोग। कम से कम सपनों के पंख फड़फड़ाने से 
					पहले ही किस्सा ख़त्म कर देते थे। बस एक क्षण का दर्द फिर 
					छुटकारा।
 
 मैं बुआ को ध्यान से देखती हूँ। वह एकदम देहाती लगती हैं। काफी 
					कुछ वैसा ही पहनावा उढ़ावा। बात करने का ज़्यादातर वही ढंग। बस 
					कभी-कभी उनमें शहरातू होने की झलक आ जाती है। बुआ को यहाँ रहते 
					हुए भी तो हो गए कित्ते साल। मुझे अजब तरह से घबराहट होने लगती 
					है। सोचती हूँ जो थोड़ा सा निजपन बचा है मेरे पास उसे कस कर पकड़ 
					लूँ। सारी उम्र पकड़े रहूँ। और मेरे पास अपना है ही क्या?
 
 गॉव में रहते कितने साल हो गए। पलट कर शहर देखने के लिये है ही 
					कौन? अम्मा नहीं कोई भाई नहीं, बहन नहीं। बेटा न होने का ग़म 
					बाबा, दादी, बापू सभी को था। बस अम्मा ही मुझमें बेटा बेटी 
					दोनों के अरमान पूरे करने के सपने देखतीं। कहतीं, अपनी बेटी को 
					डाक्टर बनाऊँगी। उनकी ऑखों में सपने तैरने लगते। मेरी तरफ 
					प्यार से देखतीं, "हॉ तो डाक्टर सरस्वती सिंह।"
 हम दोनों हँसते रहते। हम दोनों के सपने एक हो जाते। दिल और 
					दिमाग में सपने पक्षी बन कर अपने पंख फड़फड़ाने लगते। ऊँचे और 
					ऊँचे। सपनों की कोई सीमा थोड़ी होती है। सीमा तो ज़िन्दगी की 
					होती है। कभी-कभी तो यह एकदम आकाश से पाताल में गिरा देती है।
 "डाक्टर सरस्वती सिंह।" याद करती हूँ तो हूक उठने लगती है। उन 
					सपनों को टूटे तो सालों बीत गये। उन किरचों को कहाँ समेट पायी 
					हूँ अभी तक। वैसे भी सपने और ज़िन्दगी एक कहाँ होते हैं कभी। पर 
					सबके लिये तो इतने दूर भी नहीं होते कि सपनों को ज़िन्दगी और 
					ज़िन्दगी को सपने दिखाई तक देना बंद हो जाएँ। मैं तो डाक्टर 
					सरस्वती सिंह से न जाने कब सुरसती बन गई। अपना असली वजूद तो 
					पूरा याद आता ही नहीं। वैसे भी क्या याद करूँ? मेरा वजूद था ही 
					क्या?
 
 रघु के बाबू की शहर में नौकरी लगी थी तो मैं बहुत खुश हुई थी। 
					रघु तब एक साल का था। कुछ ही क्षणों में एक बार फिर मैंने सपने 
					देखना शुरू कर दिये थे। रोशनी के सपने, रघु की पढ़ी लिखी 
					ज़िन्दगी के सपने। पर उन्होंने साफ मना कर दिया था। गुस्से में 
					आँखें बाहर को निकल आई थीं, "शहर चलोगी तुम? फिर यहाँ गाँव में 
					लाला, अम्मा की देखभाल कौन करेगा भला?"
 मैं रोई थी। गिड़गिड़ाई थी। बुआ से सिफारिश कराई थी। रघु की पढ़ाई 
					का वास्ता दिया था मैंने।
 उन्होंने हामी में सिर हिलाया था, "बच्चों के थोड़ा बड़ा होते ही 
					मैं उन्हें पढ़ाने के लिये अपने साथ शहर ले जाया करूँगा। दफ्तर 
					के बगल में ही मेरा क्वार्टर है सो दिक्कत नहीं होगी।"
 "बच्चे" मैंने सोचा था। एक ही तो बेटा है हमारे। और उसी क्षण 
					मैंने तय कर लिया था कि मुझे बुआ की तरह इस घर के लिये बच्चे 
					पैदा करने वाली मशीन नहीं बनना है। थोड़ा बड़ा होते तक यह रघु को 
					अपने साथ शहर ले गए थे और मैं रह गई थी ठूठ की ठूठ, सेवा करने 
					के लिये।
 
 त्यागा ही तो था उन्होंने मुझे। यों महीने डेढ़ महीने में एकाध 
					दिन के लिये आ कर रात के अँधेरे में शरीर पर हक जताना भी कोई 
					रिश्ता होता है? क्या कहते हैं शास्त्रों में पति को? 
					परमेश्वर, पालनहार? स्त्री के शरीर से अपने बच्चे पैदा करते 
					रहना, उसे दो जून की रोटी दे देना और तन पर कपड़ा ढँक देना ही 
					पालनहार होना होता है क्या? औरत के तन के अंदर मन नहीं होता 
					क्या? उसकी कौन जाने?
 
 मन में मान रह गया था कि एक बार उन्होंने मुझसे राय तो की 
					होती। अपनी मजबूरी बताई होती। मुझे अपने साथ न ले चल पाने का 
					अफसोस किया होता। क्या समझती नहीं तब? रहती तो मैं तब भी 
					अकेली। पर किसी के मन के आसपास होने का एक मीठा सा एहसास तो रह 
					जाता। उनसे दूर होने की कसक तो रहती। पर नहीं। वह तो अपने 
					निर्णय को मेरे मुँह पर फेंक कर चले गए। मुझे भी। जैसे मैं तो 
					घर में पड़ी हुई ढोर डंगर थी।
 
 पार्वती जब-तब मुझसे लिपट कर लेट जाती है। मुझे बहुत अच्छा 
					लगता है। अजब अपनेपन से भरी मानुष गंध में डूब जाती हूँ मैं। 
					इस बेगानी ज़िन्दगी में कोई तो है मेरा अपना। बेटा तो कभी पास आ 
					कर बैठता तक नहीं। पार्वती मेरी बहू हुई तो क्या, मेरे बेटे से 
					ज़्यादा सगी है मेरी। बेटे से ज़्यादा ख़्याल करती है। उससे 
					ज़्यादा प्यार करती है। पार्वती मुँह की बात झट से मुँह पर ले 
					आती है। रघु भी एक कहे तो दस में जवाब देती है। तेज़ बोले तो वह 
					और तेज़ बोलती है। मैंने तो सारा जीवन चुप रह कर ही काट दिया। 
					पर पार्वती बराबर से भिड़ती है। शुरू में मैं डर जाती थी। डरती 
					थी कि कहीं रघु आपे से बाहर न हो जाए। पर पार्वती की तेज़ 
					निगाहों के आगे टिक नहीं पाता वह। सच कहूँ तो पार्वती की तेज़ी 
					अब अच्छी ही लगती है मुझे। कम से कम मानुष की तरह जी तो रही 
					है। सोचती है तो बोलती भी है। ढोर डंगर की तरह हाँकी तो नहीं 
					जाती।
 
 मैं तो डरती ही रही पहले बापू से, फिर रघु के बाबू से, अब, अब 
					रघु से। उससे कुछ भी कहना पूछना हो तो पार्वती से ही कहती हूँ। 
					रघु तो कभी पूरी तरह से मेरा हुआ ही नहीं। पाँच साल का था तो 
					अपने बाबू के साथ साथ शहर चला गया। महीने डेढ़ महीने में आता तो 
					खेलकूद, खेत खलिहान और अपने दोस्तों में ही मस्त रहता। मेरी 
					तरफ तो उसे देखने की भी फुर्सत नहीं होती। रात होती तो इत्ते 
					बड़े घर में किसी के भी पास सो जाता, बाबा, दादी, बुआ के बेटों, 
					पोतों किसी के भी पास। मैं तो जैसे उसके अपने निकट आने की बाट 
					ही जोहती रहती। वह शहर में होता तब भी और गाँव में होता तब भी।
 
 इधर कई दिन से रघु परेशान लगता है। बेचैन सा अंदर बाहर करता 
					रहता है। ब्याह लायक तीन-तीन बिटियाँ, पर एक की बात भी कहीं तय 
					नहीं हो रही है। पहले मुँह लटकाए लौटता था तो पार्वती से खुसुर 
					पुसर कुछ बात करता रहता था। पर इधर तेज़-तेज़ बड़बड़ाने लगा है, "न 
					जाने यह कैसे दाने हैं इनके हाथ पैर में कि जब-तब रिसते रहते 
					हैं। इनके होते बिटियों की शादी नहीं हो पाएगी कहीं।"
 पार्वती उसे चुप करती,"धीरे बोलो। अम्मा सुन लेंगी तो कैसा तो 
					लगेगा उन्हें।" उसकी आवाज़ पसीजने लगती है, "कोई जान कर तो नहीं 
					पका लिये उन्होंने हाथ पैर। खुद भी तो तकलीफ़ में हैं बेचारी।"
 रघु और ज़ोर से झल्लाया था, "उनकी तकलीफ नहीं जानता पर अपनी 
					सोचो। कहीं बात आगे नहीं बढ़ती। अभी तो आसपास ही चर्चा है। पूरी 
					बिरादरी में बात फैल गई तो कुँआरी ही रह जाएँगी यह लड़कियाँ।"
 पार्वती चुप नहीं होती, "कोई कोढ़ नहीं खाज है।" वह फिर बड़बड़ायी 
					थी "कोढ़ भी होता तो उन्हें कहीं फेक तो नहीं आते न।"
 "पता नहीं" रघु ने पार्वती पर ही अपना गुस्सा निकाला था, 
					"बैठाए रहो इन लड़कियों को अपनी छाती पर। अम्मा को भी।" और वह 
					बड़बड़ाता बाहर चला गया था।
 
 पार्वती अंदर की कोठरिया में आई तो मैंने सोने का बहाना करके 
					आँखें बंद कर ली थीं। उसके मन का क्लेश क्यों बढ़ाऊँ।
 आजकल इस तरह के झगड़े रोज़ की बात हो गए हैं। मैं अपने ही घर में 
					रघु और बच्चों से छिपी-छिपी घूमती रहती हूँ। किसी के सामने 
					पड़ने की हिम्मत ही नहीं होती। लगता है जैसे मुझसे कोई बहुत बड़ी 
					भूल हो गई हो। प्रभू कौन से पापों की सजा दे रहे हो मुझे? पर 
					करूँ क्या? हलक में उँगली डाल कर अपने प्राण भी तो नहीं ले 
					सकती। हर एक के पास उतनी हिम्मत कहाँ होती है? या फिर शायद 
					मेरी पीड़ा उतनी नहीं बढ़ी कि जी ही न सकूँ। रघु को परेशान देखती 
					हूँ तो अजब तरह से जी मसोसने लगता है उसके लिये। मन घबराता 
					रहता है। इन बिटियों की शादी नहीं हुई तो क्या होगा भगवान। 
					गाँव की लड़कियाँ अपने घर द्वार की नहीं हुईं तो करेंगी क्या? 
					हे प्रभु, मैं किसके सीने पर सिर रख कर रोऊँ आज? अम्मा नहीं, 
					बुआ नहीं। पार्वती! वह तो खुद ही परेशान है उसकी पीड़ा कैसे बढ़ा 
					दूँ।
 
 उस दिन रघु हड़बड़ाया हुआ सा घर में घुसा था, "अम्मा काम से 
					इलाहाबाद जा रहा हूँ अर्ध कुंभ का मेला चल रहा है वहाँ। 
					चलोगी?"
 इलाहाबाद! कित्ते बरस हो गए। याद करती हूँ तो एक हूक उठती है। 
					पर आज मन में कोई इच्छा नहीं जगती। क्या करूँगी जा कर? किसके 
					लिये जाऊँगी? मैं वैसे ही बैठी रही थी, "न बेटा, तू जा। मुझे 
					नहीं जाना। वैसे भी मेला-ठेला, भीड़-भाड़ में जी घबराता है 
					मेरा।"
 "अरे वाह। इतने बरस से इलाहाबाद की रोशनियों को याद करती हो और 
					आज कह रहा हूँ तो तुम..."
 मैं जवाब दूँ उससे पहले ही पार्वती बोल पड़ी थी "चली जाओ 
					अम्मा।" उसने रघु की तरफ देखा था "सुनते हो जी, अम्मा के यह 
					दाने वहाँ के किसी डाक्टर को दिखा कर दवा भी ले लेना।"
 
 और मेरे मन में एकदम से आस जागी थी। गाँव के तो हकीम वैद्य 
					डाक्टर किसी से कोई फायदा होता ही नहीं।
 सारे दिन पार्वती मुझे दुनिया भर की हिदायतें देती रही थी जैसे 
					मैं कोई छोटा सा बच्चा हूँ। चलने लगी तो मेरे गले लग कर रोती 
					रही थी। मेरा जी भी अजब तरह से हल्काने लगा था। शायद इतने 
					सालों बाद पहली बार गाँव से बाहर जा रही हूँ, इसलिये।
 चलते-चलते पार्वती ने मुझे कंधे से पकड़ लिया था, "मत जाओ 
					अम्मा। मुझे अच्छा, नहीं लग रहा।"
 आस पास खड़े सब लोग हँसने लगे थे और मैं चली आई थी। सारे रास्ते 
					रघु किसी छोटे बच्चे जैसी सार-सँभाल करता रहा था, "सो जाओ 
					अम्मा, कुछ खा लो, क्या खाओगी? और मुझे लगा था घर से बाहर 
					निकलते ही मेरा रघु मुझे मिल गया।
 
 संगम के किनारे मैं चकित सी खड़ी रही थी। इतनी भीड़। नदी का इतना 
					चौड़ा पाट। गंगा, जमुना दोनों नदियों का अलग-अलग रंग का पानी। 
					साफ अलग-अलग दिख रहा है। कहते हैं कि सरस्वती नाम की एक तीसरी 
					नदी भी तो छिपी है भीतर। किसी ने कभी देखा क्या उसे? देखा नहीं 
					तो फिर जाना कैसे? बहुत अच्छा लगता है जैसे पहली बार देख रही 
					हूँ संगम को। इत्ते बरस पहले का कहीं कुछ याद रह जाता है? सब 
					कुछ तो मन की आँखों के सामने धुंधला चुका होता है। अम्मा बापू 
					के साथ आती थी हर साल, शिवरात्रि पर, गंगा स्नान पर और। अचानक 
					दिल में जैसे हाहाकार होने लगता है। लगता है जैसे किसी ने बोझ 
					वाली सिल्लियाँ रख दी हों छाती पर। उँगलियों पर हिसाब लगाती 
					हूँ, पूरे पचपन साल बाद आ रही हूँ यहाँ। मन में हूक सी उठती है 
					जैसे अम्मा को कहीं से पा जाऊँ। पर कहाँ? बीता हुआ समय तो आधे 
					घण्टे पहले का भी लौटता नहीं, यहाँ तो इत्ते बरस बीत गए। मेरी 
					आखों में पानी भरने लगता है।
 "क्या हुआ अम्मा?" रघु पूछ रहा है।
 "कुछ नहीं बेटा" मैं दूसरी तरफ देखने लगती हूँ। पार्वती होती 
					तो समझती भी। रघु से क्या बोलूँ।
 
 रघु ने नदी से दूर एक छाँव वाली जगह देख कर दरी बिछा दी थी, 
					"थकान लग रही हो अम्मा तो लेट जाओ यहाँ।"
 मैं सच में थक गई हूँ। गाँव में तो मेरी जैसे चलने फिरने की 
					आदत भी छूट सी गई है। घर का सारा काम पार्वती करती है। घर से 
					बाहर कहीं जाने की मेरी आदत नहीं। रघु मेरे लिये खाने पीने का 
					सामान ले आया था।
 "इत्ता सारा खाना। इत्ते सारे फल। कौन खाएगा बेटा।"
 रघु फीक़ा सा मुस्कुराया था, "खा लो अम्मा।" उसने मुँह फेर लिया 
					था "ज़रा सा घूम कर आता हूँ।" और अचानक उसने झुक कर मेरे पैर छू 
					लिये थे। मैं अचकचा गयी थी, "अरे बेटा।"
 रघु चला गया था। उसकी आँखों में आँसू थे क्या? मुझे भरम हुआ था 
					क्या? पर सुस्त लग रहा था वह मुझे।
 मेरी आँख लग गयी थी। जगी तो देखा धूप ढल रही है। मैं उठ कर बैठ 
					गयी थी। रघु अभी तक नहीं आया। क्यों भला। मुझे घबराहट होने लगी 
					थी। इत्ता बड़ा शहर, इत्ते लोग। कारें, बसें, ट्रकें। रघु आया 
					क्यों नहीं? रात घिरने लगी थी और मैं घबराहट में रोने लगी थी। 
					क्या हुआ मेरे रघु को?
 
 मुझे रोता देख कर एक दो लोग मेरे पास आकर खड़े हो गए थे। वे लोग 
					मुझे समझाने लगे थे। धीरे-धीरे मेरे आसपास भीड़ बढ़ने लगी थी। दो 
					चार पुलिस वाले भी आकर खड़े हो गए थे, "कब गया आपका बेटा? क्या 
					कह कर गया? यहाँ कोई रहता है आपका? मेरे मुँह से बोल कम आँखों 
					से आँसू ज़्यादा निकलने लगे थे। हे भगवान इत्ते बड़े शहर में 
					मैं अपने रघु को कहाँ ढूँढूँगी। तभी एक पुलिस वाला दूसरे से 
					बोला था, "साहब यहाँ तो रोज़ ही एकाध किस्से हो रहे हैं। गाँव 
					से आते हैं यह लोग और अपने बूढे़ माँ-बाप को संगम किनारे छोड़ 
					कर चले जाते हैं।"
 
 मैं सन्न रह जाती हूँ, "नहीं, नहीं।" मेरे मुँह से निकला था 
					तभी मन ने चेताया था, हाँ रघु छोड़ ही गया शायद। कल से रघु का 
					वह प्यार, मेरे आस पास फिरते रहना, सोने का, आराम का, मेरे 
					खाने का उतना ख्याल। कहाँ करता था रघु कभी वैसा। जाते समय उसका 
					उदास चेहरा। हाँ... उस पल शायद उसकी आँखों में आँसू ही थे। 
					क्यों किया रघु ने ऐसा? ऊब गया था मुझसे? नहीं बिटियों के लिये 
					डर गया था। उसे छुटकारा चाहिए था मुझसे।
 
 समय बीतता गया था। देर रात हो गई थी। पुलिस वाले जमा हो गए थे, 
					पुलिस की वर्दी में औरतें भी। एक ने धीमे से मेरा हाथ पकड़ा था, 
					"चलो अम्मा।"
 "कहाँ?" मैं घबरा गई थी।
 वह फीका सा हँसी थी, "आश्रम ले चल रहे हैं आपको। वहाँ चल कर 
					आराम करिए।" उसने मेरी दरी और सामान समेटना शुरू कर दिया था।
 "और रघु?" मन के पिछवाड़े कोई आस चमकी थी।
 "नहीं आएगा अब आपका बेटा।" एक लंबा चौड़ा पुलिस वाला हँसता हुआ 
					मेरे पास आ कर खड़ा हो गया था।
 "वह आएगा तो उसे वहीं भेज देंगे।" उस औरत ने मेरा कंधा थपथपाया 
					था।
 क्षण भर में बुझ गई थी वह आस। मुझे पता है नहीं आएगा वह अब। 
					मैं रोती रही थी और उन लोगों के साथ चल दी थी।
 
 मुझे पहुँचा कर उस औरत ने एक रजिस्टर निकाल लिया था, "अम्मा 
					तुम्हारा नाम?"
 मैं एक क्षण को झिझकी थी, "सुरसती"
 "पता मालूम है?"
 मेरे दिमाग में अपना पता कौंधा था ग्राम, जनपद, तहसील, और...
 "मालूम है आपको अपना पता?" वह औरत फिर पूछ रही है। मैं कुछ 
					कहती नहीं। इंकार में अपना सिर हिला देती हूँ।
 वह औरत परेशान चेहरे से अपने आस पास देखती है, "यही तो समस्या 
					है। यह गाँव के लोग एकदम अनपढ़, इसी का तो फायदा उठाते हैं इनके 
					बच्चे।"
 
 और उसने मेरा अँगूठा पकड़ कर उस पर स्याही लगानी शुरू कर दी थी। 
					रजिस्टर पर मेरा नाम लिखा है सुरसती। उसके आगे मेरे अँगूठे का 
					निशान। कितने वर्षों तक अपनी इस पहचान को नकारती रही मैं। मैं 
					तो मन से सरस्वती ही बनी रही। आज स्वीकार कर ली मैंने अपनी 
					पहचान। सुरसती-सामने अँगूठे का निशान।
 दूसरे दिन सबेरे डाक्टर साहब आए थे। उन्होनें मेरी जाँच की थी 
					आँख, गला, सीना। यहाँ सब बताते हैं कि जो कोई भी इस आश्रम में 
					नई भर्ती होती है उसकी डाक्टरी जाँच की जाती है। फिर डाक्टर ने 
					मेरे हाथ पैर के दाने देखे थे, "अम्मा जी यह दाने कब से हैं 
					तुमको?"
 
 मैं एकदम डर गई थी। हे भगवान क्या यहाँ से भी निकाल कर फेंका 
					जाएगा मुझे? कहाँ जाऊँगी अब?
 डाक्टर साहब ने कंपाउडर की तरफ देखा था, "इलर्जी है यह।" और 
					उन्होंने कंपाउडर से दाने साफ करवा कर दवा लगवा दी थी। खाने को 
					भी दवा दी गई थी। मुझे दवा लगते ही आराम महसूस होने लगा था। 
					हाथ पैरों की तड़तड़ाहट कम होने लगी थी। लगता है पार्वती की 
					उत्ती बात तो सही हो जाएगी कि हो सकता है शहर के डाक्टर की दवा 
					से फायदा हो जाए।
 यहाँ रहते चार छः दिन में समझ आ गया था कि सिविल लाइन्स से 
					चर्च की तरफ जो सड़क जाती है उसी के आखि़री किनारे पर बना है यह 
					वृद्धा आश्रम। जिनका कोई नहीं या जो मेरी तरह छोड़ दी गयी हैं 
					ऐसी चौदह वृद्ध स्त्रियाँ रहती हैं यहाँ। मेरी भी किस्मत। जिस 
					घर को याद करके तड़पता रहा मन इतने सालों तक उसी के एकदम पड़ोस 
					में आ गई बुढ़ापे में। पर दूर रहकर याद करना तो एकदम अलग की बात 
					है। पास रहकर तो एक बार उधर जाने तक का मन नहीं करता। किसके 
					लिये जाऊँ? जा कर क्या बोलूँ? तुम्हारे बापू मेरे भी बापू होते 
					थे। जब बापू ने ही रिश्ता नहीं रखा तो फिर उनकी औलाद से कैसा 
					रिश्ता।
 
 मुझे अक्सर रात को नींद नहीं आती। थोड़ी सी झपकी आई तो लगता है 
					कोई रो रहा है। कौन रोया? मैं उठकर बैठ जाती हूँ। बेचैन सी 
					बिस्तर के आस पास थपथपाती रहती हूँ ‘पार्वती मत रो बेटा, मैं 
					ठीक हूँ।' मुझे पता है वहाँ गाँव के अँधेरे में पड़ी पार्वती 
					मेरे लिये रो रही है। रघु ने क्या बताया होगा उसे? अम्मा को 
					हैजा हो गया, मर गई दो दिन में। या फिर नदी में बह गई या भीड़ 
					में खो गयी। क्या समझ गयी होगी पार्वती कि छोड़ आया रघु मुझे 
					वहाँ। न समझी हो तभी भला।
 
 यहाँ आई तो शुरू-शुरू में मैं भी बहुत रोती थी। अब रोना नहीं 
					आता। सच कहूँ तो अच्छा लगता है अब यहाँ। सबके अपने-अपने दुख, 
					अपनी-अपनी यादें। थोड़ी देर साथ बैठ कर बोला बतियाया, नहीं 
					अच्छा लगा तो उठ कर चल दिए। कोई अपना नहीं तो क्या हुआ किसी का 
					कोई बंधन भी तो नहीं। किसी को किसी बात के लिये जवाब और सफाई 
					तो नहीं देनी। वहाँ तो खाँसते, खखारते, कराहते सबमें डर सा 
					लगता था, रघु से, बच्चों से, जैसे मुझसे कोई ग़लती हो गयी हो। 
					जैसे घर के किसी फालतू सामान की तरह पड़ी थी मैं वहाँ। बेचारी 
					पार्वती। मेरे लिये सबसे जूझते पस्त सी दिखती थी।
 
  रे रघु! सच कहूँ तूने तो मुझे छुटकारा दे दिया। तेरी मजबूरी भी 
					समझती हूँ मैं। एक बार कहता मुझसे, "अम्मा तेरे रहते लड़कियों 
					की शादी नहीं ठहरती। तू चली जा। आँख ओझल होगी तो भूल जाएँगे 
					गाँव वाले तेरी बीमारी को, तुझे।" मैं तेरी बात नहीं समझती 
					क्या? वे बच्चे मेरे भी तो थे। पर तूने मुझे अपना समझा ही कब? 
					तू तो मेरा बेटा था रघु, मेरे पेट का जाया। पीड़ा तो बस इसी बात 
					की है, तू तो मुझे ऐसे फेंक के न जाता, पहुँचा के जाता।
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