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अभी जो है, वही जीवन है
(मिजोरम
से)
- सतीश जायसवाल
कहते हैं कि
सांध्य तारा मनोकामना पूरी करता है।
सांध्य तारा ठीक मेरे सामने उदित हुआ। मैंने कामना की कि शाम
की यह अतल उदासी संगीत में बजने लगे और जहाँ भी एकांत व्याप्त
है वहाँ जगमग रोशनी हो जाए। फिर मैंने सर झुकाया और आँखें मूँद
लीं। मेरे अपने मन की उदासी, शाम को निपट अकेलेपन में डुबो रही
थी। और मुझे निराशा घेर रही थी कि आइजल के सौंदर्य का स्पर्श
पाये बिना कल की सुबह यहाँ से चले जाना है़?
अपनी निराशा से उबरने के लिये मैंने आँखें खोलकर देखा तो
सांध्य-तारे का चमत्कार घटित होने लगा था। चाँदमारी के पहाड़ी
कटाव पर आइजल की साँझ गहरा रही थी और वह रोशनियों के जागने का
समय था। नीचे, गहरी खाई में अँधियारे का सागर लहरा रहा था। और
लहरें उठ रही थीं। उठ रहीं लहरें आसमान को छू रही थीं। और उन
पर असंख्य फूल खिल रहे थे। नीचे, अँधेरे विशाल विवर में इतने
सारे जहाज एक साथ ऊभ चूभ कर रहे थे, जितने संसार के किसी भी
बंदरगाह पर एक समय में नहीं देखे गये होंगे। ये जहाज कई-कई
मंजिलों जितने ऊँचे हैं और उनके भीतर की रोशनी छन-छनकर बाहर आ
रही है। ऐसा लगा, जैसे यह सृष्टि मायावी मय की रची हुई है। मय
ने इसे अपनी माया से रचा है।
लेकिन ऐसा लगना सही नहीं क्योंकि, इस समय जो भी आँखों के सामने
है, वह सब की सब मनुष्य के ही पुरुषार्थ की रचना है। इस समय,
चाँदमारी के इस कटाव के ठीक सामने आइजल की शाम जगमगा रही है।
और लोहे की ठंडी रैलिंग के सहारे झुककर मैं नीचे गहरी खाई में
झाँक सकता हूँ। जगमग रोशनी से भरे पूरे घर अपने लोगों के लौटने
की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वहाँ, जिनकी प्रतीक्षा हो रही है वे
लोग दिन भर के बाद अब घर लौट रहे होंगे। घर लौट रहे लोग जल्दी
में हैं और तेज तेज चल रहे हैं। इस समय आइजल के सारे वाहनों के
मुँह घरों की तरफ हैं। हेड लाइट्स की रोशनियों ने एक दूसरे के
साथ गुंथकर जंजीर बना ली है और पूरी सडकों पर खिंच गई हैं। इन
जंजीरों के बीच से होकर सड़क पार करने के लिये थोड़ी सी जगह भी
खाली नहीं दिख रही है।
मिजोरम में पढ़े लिखे लोगों का प्रतिशत बहुत ऊँचा है, ये पढ़े
लिखे लोग किसी न किसी रोजगार, धंधे से जुड़े मिलेंगे। चाहे वह
सरकारी नौकरी हो या खुद का अपना रोजगार। स्त्री पुरूष, दोनों
किसी न किसी काम धंधे में लगे मिलेंगे। वही लोग अब, दिन भर के
बाद अपने घरों को वापस लौट रहे हैं। घर, जो जगमग रोशनी से भरे
पूरे हैं और लोगों के लौटने की प्रत़ी़क्षा में हैं। यहाँ शाम
जल्दी पड़ती है और रात गहरी होती है। गहरी रात में रोशनी आवाज
देकर घर बुलाती है।
मुझे अपनी ही कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं -
दिया बाती के ऐसे समय में
घर पहुँचने को बेचैन
वैसी भीड़ में
एक मैं क्यों ना हुआ
साईकल थामे
सड़क पार होने की प्रतीक्षा में
साईकल के हैंडल से लटकाए
सब्जियों वाला थैला
मेरी हाथ घड़ी में नहीं हुआ
घर वापस लौटने का समय कभी...
आइज़ल सुंदर है। मैंने सुना था। आइज़ल सुंदर है। उसका सौंदर्य
मैंने जी लिया। जीने के लिये एक शाम पर्याप्त होती है, यदि
उसमें जीवन का स्पर्श हो। आइज़ल के सौंदर्य में जीवन का स्पर्श
है।
स्कूल के दिनों में, प्रारंभिक भूगोल में पढ़ा था कि जहाँ पहाड़
होते हैं वहाँ भूकंप आने की आशंका बनी रहती है। इसलिए, पहाडी़
बस्तियाँ बाँस और लकड़ियों के हल्के फुल्के घरों में बसती हैं।
लेकिन आइजल कई कई मंजिलों वाली ऊँची और आलीशान इमारतों से आबाद
है। इन पर साँझ की छाया पड़ती है तो ये इमारतें कई-कई मंज़िलों
वाले जहाजों की तरह लगने लगती हैं। शायद यहाँ के लोग भूकंप से
निशंक हो चुके हैं। या, यहाँ के लोगों ने जीवन को समझ लिया है
कि अभी जो है वही जीवन है।
पूर्वोत्तर के जिन राज्यों में प्रवेश के लिए ‘इनर लाइन परमिट’
की अनिवार्यता लागू है, मिज़ोरम उनमें से एक है। लेकिन मिज़ोरम
ने इसे सरल बनाया है। और अपने यहाँ प्रवेश के लिए ‘इनर लाइन
परमिट’की जगह, भारतीय नागरिकता को प्रमाणित करने वाले किसी भी
वै़ध ‘परिचय पत्र’को मंज़ूर कर लिया है। मिज़ोरम को यह बात समझ
में आ चुकी है कि प्रतिबंध लगाकर पर्यटकों को अपने यहाँ नहीं
बुलाया जा सकता।
यहाँ, मिज़ोरम पर्यटन विभाग के निदेशक, एक आई. ए. एस. अधिकारी
हैं। उन्हें नजदीक से जानने वाले यहाँ के और यहाँ से बाहर के
भी लोग साम पुइया कहते हैं। मिज़ोरम के एक और आई़. ए. एस.
अधिकारी, रॉबर्ट हरंगडोला छत्तीसगढ़ कैडर में हैं, उनसे मेरा
पुराना परिचय है। साम पुइया उन्हें अच्छे से जानते हैं। मिज़ोरम
को जानने के लिये रॉबर्ट हरंगडोला ने मुझे एक पुस्तक दी थी-
‘मिज़ोरम व्हेयर बैंबू फ़्लॉवर्स’ (मिज़ोरम जहाँ बाँस फूलता है)।
उससे पहले मैंने बाँस के फूल नहीं देखे थे। न, मुझे यह पता था
कि बाँस के फूल अपने साथ कैसी विभीषिका लाते हैं। मिज़ो लोग
मानते हैं कि वे (बर्मा) म्याँमार से पलायन करके यहाँ आए हैं।
और एक दिन वहाँ लौटेंगे। वहाँ, उनके पूर्वज, पहचान के लिये
बरगद का एक पेड़ लगाकर आए थे। जब उस पेड़ की छाया इतनी फैल जाएगी
कि सबके सब उसके नीचे आश्रय पा सकें, तब ये लोग वहाँ लौट
जाएँगे। वहाँ इनके देवता का वास है। वह देवता पवित्र पर्वत की
एक चट्टान मे विद्यमान हैं। जऩ़श्रुति है कि एक बार वहाँ
बाँसों में अरअरा के फूल आये थे। और बाँस के फूलों के पीछे
पीछे अकाल, भूख और महामारी। तब इनके पूर्वजों ने वहाँ से पलायन
किया था। और यहाँ आए थे। अब, यहीं के होकर रह गए। वहाँ की
बातें अब, बस जनश्रुतियों में ही बचीं।
मिज़ोरम ने ईसाई मत और अंग्रेज़ी को पूरी तरह अपना लिया है।
लेकिन अपनी आंतरिक संरचना और परंपराओं में मिज़ो लोग अभी तक
आदिवासी हैं। किसी आदिवासी समाज का, आधुनीकरण में, यह रूपांतरण
सचमुच एक संतुलित आदर्श प्रस्तुत करता है। आधुनिक शिक्षा के
साथ सहज जुड़ाव के लिये, मिज़ोरम के आदिवासी क़बीलों ने
सर्वसम्मति से निर्णय लेकर रोमन लिपि को अपना लिया है, लेकिन,
अपनी निज भाषा को बनाए रखा है, जो मिज़ो ही है। ईसाई धर्म और
अ्रग्रेज़ी व्यवहार के बावजूद इन आदिवासी क़बीलों ने अपनी लोक
संस्कृति और कलाओं को भी उनके पारंपरिक रूपों में सुरक्षित
बचाए रखा है।
चापचर कुट मिजोरम का सबसे बड़ा वार्षिक सांस्कृतिक कार्यक्रम
है, जो मिज़ो माह ‘वाउ थ्ला’ के किसी दिन आयोजित होता है। मिज़ो
लोगों ने अपने यहाँ दिन, माह और तिथियों को ग्रेगोरियन कैलेंडर
के साथ मिला लिया है। इस वर्ष चापचर कुट ‘वाउ थ्ला’ के १२ वें
दिन, अर्थात मार्च माह की बारहवीं तारीख को पड़ेगा। इस
सांस्कृतिक उत्सव में मिज़ोरम की सभी जनजातियाँ आज भी अपनी
रंग-बिरंगी कबीलाई साज सज्जा में शामिल होती हैं और अपनी
पारंपरिक कला प्रस्तुतियों के साथ उत्सव मनाती हैं। इसमें
मिज़ोरम का वह बाँस नृत्य ‘चीरो’ भी शामिल होगा जिसमें ध्वनि की
लयबध्दता और गति की चपलता का आश्चर्यजनक कलात्मक सामंजस्य होता
है।
लेकिन १२ मार्च को तो इंफाल-कोलकाता फ़्लाइट से मेरी वापसी की
बुकिंग है।
लोककला के शुध्द आनंद को मैंने अपने अंधविश्वास से जोड़ रखा है,
जो भाग्य होने पर ही हिस्से में आता है। इसके लिए, चलकर वहाँ
उस नैसर्गिक प्रसार में पहुँचना होगा जहाँ लोक-कला का कोई रूप
अपनी दिव्यता में हमारे सामने अकस्मात् प्रस्फुटित होता है। उस
दिव्य क्षण में वहाँ, हमारी अपनी उपस्थिति भी अकस्मात होती है,
नियोजित नहीं। मेरा यह अंधविश्वास लोककलाओें के नियोजित
प्रायोजित कार्यक्रमों को नामंजू़र करता है। मिज़ोरम के इस लोक
महोत्सव चापचर कुट के विषय में मैं दुविधा में हूँ कि इसे
नियोजित कार्यक्रम मानूँ या मिज़ो जनजातियों का लोक समागम? इस
समागम में उनकी स्वाभाविक कला अभिव्यक्तियों का सामूहिक
प्रदर्शन होता है। समझ लें कि अपने यहाँ के पारंपरिक मेले
-मड़इयों जैसे।
चापचर कुट मेरे भाग्य में नही हैं। इससे कुछ निराशा भी हुई।
मेरी निराशा को कुछ कम करने के लिए साम पुइया ने मुझे, मिज़ोरम
सरकार के जन सम्पर्क विभाग का रंग बिरंगा कैलेंडर और सुंदर सी
डायरी भेंट की। कैलेंडर के मार्च माह वाले पृष्ठ पर चापचर कुट
का चित्र प्रकाशित है। तो, मुझे तसवीर से दिल बहलाना है? कल का
आधा दिन तो रास्ते में ही निकल गया था। बकाया आधा दिन, यहाँ
पहुँचकर अपना ठौर ठिकाना करने में लग गया।
दोपहर में कहीं पहुँचना, आदमी को न इधर का छोड़ता है, न उधर का
बचाता है। लेकिन सिलचर से आइज़ल के बीच चलनेवाली टैक्सियाँ
दोपहर तक आइज़ल का एक फेरा करके, शाम ढलते-ढलते सिलचर वापस हो
जाती हैं। और वहाँ रात रुकती हैं। इस रास्ते में, कोलासिब में
‘इनर लाइन परमिट’और दूसरे परिचय प़त्रों की जाँच होती है।
सामान असबाब की तलाशी भी होती है। सिलचर की तरफ़ से आने पर
कोलासिब, एक तरह से, मिज़ोरम का प्रवेश द्वार है।
आइज़ल में, मेरा रास्ता देखते हुए, वूजा कैप टैक्सी वाले के
ऑ़फ़िस में ही मिल गए। यह भी वहाँ, इंफाल में बैठे डॉ. राम लखन
राय का ही सौजन्य-सहयोग है। डॉ. राय अपने सेल फ़ोन से
रिमोट-कंट्रोल बनाये हुए हैं। और मुझे कहीं भी अकेला नहीं पड़ने
दे रहे हैं। मैंने, यहाँ से, इंफाल जाने के लिए सड़क का रास्ता
सोच रखा था। लेकिन उन्होंने एक झटके में मेरा उत्साह ठंडा करके
रख दिया -रास्ते भर पहाड़ और बस पहाड़। कितना देखेंगे? और रास्ते
इतने घुमावदार कि यहाँ पहुँचते पहुँचते हड्डियाँ हिल जाएँगी।
उनका सुझाव है कि आइज़ल- इंफाल फ्लाइट के लिये तुरंत टिकट ले
लूँ। अभी मिल जाएगी। मुश्किल से ५० मिनट की फ़्लाइट है। आराम
रहेगा। वूजा केप टिकट बुक करा देंगे। वूजा केप एक वृद्ध सज्जन
हैं। लेकिन, स्थानीय होने के कारण मेरे लिये काफी सहायक होंगे।
वूजा केप यहाँ नेहरू युवा केन्द्र के साथ जुड़े हुए हैं।
उन्होंने मेरे लिये होटल अहिंसा में पहले से बुकिंग करा रखी
थी। होटल अहिंसा, मध्यम दर्जे में, आइजल के अच्छे होटलों में
गिना जाता है। मुझे लगा था कि यह किसी जैनी का होटल होगा।
इसलिए, इसका नाम अहिंसा है। और वूजा़ केप ने शायद मुझे महात्मा
गाँधी का अनुयायी समझा होगा। इसलिये, इसे बुक किया।
मैं खुद नहीं समझ पा रहा हूँ कि होटल अहिंसा मुझे किसी जैनी का
होटल क्यों लगा? और वूजा़ केप ने मुझे महात्मा गाँधी का
अनुयायी कैसे समझ लिया? यह एक दिलचस्प पहेली की तरह लगता है।
होटल अहिंसा की दीवारों का रंग लाल और खूब गाढ़ा है। जैसे, सीधे
किसी चीनी ड्रैगन का चि़त्र उतरकर अभी-अभी आया हो। चीनी ड्रैगन
का यह गाढ़ा लाल, पीला, नीला रंग आइज़ल की सजावट में खूब मिलता
है।
होटल की खिड़की से बाहर पहाड़ों की छायाएँ अमूर्तन चित्रकारी की
तरह वैचारिक जटिलताएँ रच रही हैं। मन को किसी एक जगह टिकने
नहीं देतीं। समूचा शहर जगमग रोशनी की झालर बना इन छायाओं पर
लटक रहा है। रोशनी की इन झालरों और छायाओं के बीच कहीं, होटल
अहिंसा की वह रिसेप्शनिस्ट भी होगी, अभी थोड़ी देर पहले ही
जिसकी ड्यूटी पूरी हुई थी और दिन भर के बाद वह मुक्त हुई थी।
होटल के खाली समय में मैंने उसे गुनगुनाते हुए सुना था। तभी
मेरा ध्यान उसकी तरफ़ गया था। देखने में वह भली और लगने में
अच्छी है। उसका गला सुरीला है। वह कोई मिजो गीत गा रही थी।
मैंने उससे गीत का अर्थ पूछा। उसने बताया कि यह एक प्रेम गीत
है। यह बताते हुए उसकी आँखों से प्रेम छलक रहा था।
मैं अनुमान कर रहा हूँ कि इस समय, वह जहाँ भी होगी वह गा रही
होगी और उसका प्रेमी गिटार बजा रहा होगा। मिजोरम संगीत से
भरपूर है। यहाँ, जन्म से लेकर मृत्यु तक, सभी संस्कारों के
लिये संगीत की निर्धारित संहिता है। मिजो़रम प्रेम से भरपूर
होगा, क्योंकि संगीत और प्रेम एक दूसरे से आबद्ध होते हैं।
मार्च महीने के दूसरे हफ्ते में आइज़ल अभी ठंडा है। होटल से
बाहर निकलते समय ऊपर से विंडशीटर डालना ज़रूरी लगा। वापस लौटकर
कमरे मे आया तो रूम ब्वॉय खिड़की के शीशे पर पर्दे डालकर और
बिस्तर ठीक करके जा चुका था। कंबल ओढ़कर सोना आरामदायक लगा।
वूजा केप ठीक नाश्ते के समय होटल पहुँच गये। लेकिन खुद घर से
नाश्ता करके आये हैं। अलबत्ता, हम साथ-साथ चाय पियेंगे।
आइज़ल के रास्ते खूब उतार चढ़ाव वाले और घुमावदार हैं। वूजा़ केप
को, इनके बीच से निकलने वाली संकरी गलियाँ पता हैं। इन गलियों
से होकर कहीं पहुँचने के रास्ते छोटे हो जाते हैं और जल्दी
पहुँचाते भी हैं। किसी कंडक्टेड टूर के साथ यहाँ आया होता तो
इन सँकरी गलियों को देखे बिना, दिखावटी सजावटी आइज़ल में भटक कर
बाहर ही बाहर निकल गया होता। मुझे लगता है कि मैं असल आइज़ल को
देख रहा हूँ। एक आइजल इन सकरी गलियों में भी बसता है। इन
गलियों में घरों के पिछवाडे़ खुलते हैं, पतली सड़कें और नालियाँ
हैं। फिर भी साफ़ सफाई है। कोनों में सब्जी भाजी और रोजमर्रा के
सामानों की छोटी छोटी दुकानें हैं। इन दुकानों में सामानों के
दाम, मुख्य सड़क की बडी़ दुकानों से कम होंगे। यहाँ की पढ़ी लिखी
युवतियाँ इन दुकानों को चलाती हैं। जब दुकानों पर ग्राहक नहीं
होते तब ये पढ़ी लिखी युवतियाँ आपस में हँसती बोलती और मन
बहलाती हैं या गीत गाती हैं। यह हँसना बोलना और गीत गाना किसी
अजस्त्र रस धार की तरह उनकी आंतरिकता में से प्रस्फुटित होता
है।
घरों के पिछवाड़े वाले इन रास्तों पर, यहाँ भी, बच्चे अपने खेल,
खेल रहे हैं और उनकी देखभाल करने वाली उनकी माएँ या बहिनें
उनकी तरफ़ से पूरी तरह निश्चिंत हैं। घरों से निकलकर स्कूल
जानेवाले बच्चे अलग से नज़र आते हैं। उनके स्कूली यूनिफ़ॉर्म और
किताब कापियों से भरे बस्ते अलग से उनकी पहचान करा देते हैं।
इनमें लड़कियाँ अधिक हैं। मुख्य सड़क पर इन्हें स्कूल जाने वाली,
पीली बस मिल जाएगी। थोड़ी देर मे वूजा केप थक गये और हाँफने
लगे। उन्होंने बताया कि दो तीन दिनों से उनके घुटनों में दर्द
भी है। इस उम्र मे, इस तरह के दर्द होंगे ही। सच तो यह है कि
मै कुछ अधिक ही थका हूँ, क्योंकि इतने उतार चढ़ाव वाले रास्तों
का मुझे अभ्यास नहीं है। फ़र्क है तो बस इतना कि मेरे घुटनों मे
दर्द अभी शुरू नहीं हुआ है और मैंने अपनी थकान को छिपाकर रखा
है इसलिए हाँफ नहीं रहा हूँ। मेरा मन कर रहा है कि टैक्सी ले
ली जाए। दिन भर के लिए आराम हो जाएगा। लेकिन वूजा केप का कहना
है कि सिटी बस से काम चल सकता है तो फिर टैक्सी पर फ़िजूलख़र्ची
क्यों की जाए?
आइज़ल की सिटी बसें आरामदायक और बिना भीड़ भाड़ वाली मिलीं। ये
३०-३५ सीटों वाली छोटी बसें हैं। लेकिन, आइज़ल के घुमावदार
पहाड़ी रास्तों के लिये छोटी बसें अधिक उपयुक्त हैं। आइज़ल में
टैक्सियाँ ख़ूब हैं। यहाँ के पढ़े लिखे युवकों में नई कारें
ख़रीदकर टैक्सी चलाने का शौक भी खूब है। इसमें रोजगार और शौक
दोनों साथ साथ पूरे होते हैं। टैक्सियाँ हों या निजी कारें,
यहाँ प्रायः सभी पर, देवनागरी के ४ (चार ) अंक से मिलते जुलते
प्रतीक चिन्ह वाले लाल रंग के स्टिकर दूर से दिखाई देते हैं।
यहाँ ‘एड्स’ का प्रकोप इतना फैला हुआ है या, यह एड्स नियंत्रण
कार्यक्रम के विज्ञापन का फैलाव है?
आइज़ल हरे भरे पहाड़ों पर बसा है। और दूर दिख रहे हरे भरे पहाड़ों
ने आइजल को घेर रखा है। दिन के इस समय आइज़ल धूप में खिला-खिला
दिख रहा है। मार्च महीने की धूप का रंग धुला, धुला और पनीला
है। आाइजल धूप में बसा है। और इसे बसाने के लिए धूप ने ख़ुद
पहाड़ों की हरियाली को तराशा है। सूत सूत नापकर और ज़रूरत से एक
सूत कम, न ज्यादा। हरियाली पिघल रही है और पहाड़ों से नीचे उतर
रही है और धुली हुई सफेद पनीली धूप के साथ -साथ घुल मिल रही
है। पहाड़ ऊपर भी हैं और पहाड़ नीचे भी हैं। जहाँ पहाड़ नहीं हैं
वहाँ अतल गहरी खाइयाँ हैं। इनमें नीला पारदर्शी आसमान उतर रहा
है। खाइयाँ दिन के इस समय भी नीले कोहरे से डबडबाई हुई हैं।
हिलोरें लेता हुआ कोहरा खाइयों में समा नहीं पा रहा है। कगारों
को तोड़कर उफ़न रहा है। ऊपर से पिघल कर नीचे आती हुर्इ्र हरियाली
और नीचे, अतल गहरी खाइयों से उफ़न कर सड़क पर फैला हुआ नीला
कोहरा। दोनों के बीच धूप में बसा हुआ एक शहर। आइज़ल दिन भर ऐसा
ही रहता है या, मुझे ऐसा मिला? दिन के इस समय आइज़ल की सड़कों पर
चलना ऐसा लग रहा है जैसे नीले आसमान पर सड़कें खिंची हुई हैं।
और लोग उन पर चल रहे हैं। या, मुझे ऐसा लगा?
आइज़ल के लोगों ने आइजल की सबसे ऊँची पहाड़ी पर प्रभु यीशु का
चर्च बनाया है। यह चर्च, जापान के माउंट फू़जी को बारहों मास
ढँककर रखनेवाले हिम शिखर की तरह, हर व़क्त दिखता रहता है। यह
कब बना और इसे किसने बनवाया? मुझे नहीं मालूम। न ही यह पता
करने के लिये मैं वहाँ तक गया। वहाँ तक जाने की ज़रूरत ही नहीं
है। आइज़ल की हर दिशा इस भव्य चर्च की तरफ़ से खुलती है और हर
सड़क यहाँ पहुँचकर रुकती है। लगभग पूरा मिजोरम प्रभु यीशु का
उपासक है। यहाँ राजधानी के इस शहर में प्रभु यीशु के श्रेष्ठ
ओैर ‘प्रभुं सत्ता युक्त उपासक’ वास करते होंगे। उन्होंने ही
मिलकर ऐसा भव्य चर्च यहाँ बनवाया होगा ताकि यहाँ के समाज में
उनकी उपस्थिति और उनके वर्चस्व का ठीक ठीक पता चल सके।
मिजो़रम में थोड़े बहुत बौ़द्ध धर्मावलंबी भी हैं। ये लोग
प्रायः आदिवासी हैं और भीतर की तरफ़ बसे हुए गाँवों में रहते
हैं।
वूजा केप ने बताया कि आइज़ल में यहूदी भी हैं और यहाँ उनका अपना
अलग चर्च है। मेरे लिए यह अप्रत्याशित जानकारी है। ओैर
जबर्दस्त तरीके से मेरी उत्सुकता को जगाने वाली। वूजा केप ने
मुझे वहाँ तक पहुँचाया और उन लोगों से मिलवाया भी। वे लोग यहाँ
अपना एक स्कूल भी चलाते हैं। वहाँ हिब्रू भाषा भी पढ़ाई जाती
है। मैं यहूदियों के धार्मिक कर्मकांड और उनकी आनुष्ठानिक
विधियाँ देखना चाहता था। क्योंकि उनमें आज भी अपनी अति
प्राचीनता ओैर पारंपरिक विशिष्टता का निर्वाह है। लेकिन वह
पूजा और धार्मिक अनुष्ठानों के लिये निर्धारित समय नहीं था।
मुझे उनके शिक्षक और शिक्षिकाओं से मिलकर संतोष करना पडा़। वे
लोग अपने पारंपरिक, यहूदी तौर -तरीकों के कपड़े पहने हुए थे। उस
दिन उनके स्कूली छात्र- छात्राओं का सांस्कृतिक कार्यक्रम वहाँ
हो रहा था। मुझे उनके साथ शामिल होने का मौका अनायास ही मिल
गया। मैंने उनके गीत सुने और नृत्य देखे। मुझे अनुमान हुआ कि
इन गीतों में यहूदियों के आराधना गीत भी शामिल होंगे। वूजा केप
ने मेरे अनुमान को सही बताया।
मुझे लगा कि यहाँ सभी लोग वूजा केप को जानते हैं और उन्हें
सम्मान देते हैं। तब वूजा केप ने बताया कि वह खुद यहूदी हैं।
और उनका एक बेटा इज़रायल मे रहता है। वूजा़ केप मिज़ो भी नहीं
बल्कि मेइती हैं। मेइती मणिपुर की एक प्रमुख जन जाति है। मुझे
लगा कि मणिपुर में वूजा केप अपने नाते-रिश्तेदारों के लिए मेरे
साथ कोई संदेश भेजना चाहेंगे। लेकिन ऐसी कोई बात नहीं हुई।
इंफाल के लिए कल सुबह १० बजे की फ़्लाइट है। ओैर मुझे सुबह ८
बजे एयरपोर्ट पर रिपोर्ट करना है। लेकिन वूजा़ केप ने तब तक भी
मुझे कोई संदेश नहीं दिया। शायद अब वहाँ उनका कोई संपर्क न बचा
हो।
यह कैसे हो सकता है? और यदि ऐसा है तो यह कितनी अजीब बात होगी।
ज़रूर कोई बात होगी। शायद उनकी पत्नी यहाँ, मिज़ोरम की रहने वाली
हो। ओैर वहाँ नहीं जाना चाहती हो। वूजा़ केप अपनी पत्नी को
खू़ब प्यार करते हों। इस उम्र तक पहुँचकर उन दोनों का प्यार
इतना पक चुका होगा कि अब कोई और ज़रूरत नहीं बची होगी।
सुबह से बादल घिरे हुए हैं। और बारिश का अंदेशा है। मार्च
महीने मे भी, बारिश अभी तक पीछा नहीं छोड़ रही है। होली की सुबह
मैं धर्म नगर से निकला था तो वहाँ अपने पीछे बारिश छोड़ता आया
था। लेकिन दोपहर में सिलचर पहुँचा तो सिलचर सुबह से बरस रहा
था। सिलचर, वैसे ही, साल के बारहों महीने बारिश वाला ही है।
मिजोरम का, सुना था कि मौसम यहाँ खुला और खुशगवार होता है।
मेरे लिए ये तो बादल और इनकी सुरमई भी आइजल का एक मिजाज है।
जाते जाते वह भी देख लिया।
यहाँ का एयरपोर्ट २०- २२ कि.मी. दूर, लेंगपुई में है। इसके लिए
अभी, नई सड़क बनाई गई है। पुरानी सड़क के मुकाबले यह रास्ता
१०-१२ कि.मी. की बचत वाला है। झिरझिराती बारिश ने आँकी बाँकी
सड़क को धो दिया है। और रास्ते के किनारे, पहाड़ी कटावों पर खड़े
घरों को बाहर से भिगो दिया है। भीगी सड़क भीगे घर अपने असल
रंगों से अलग दिख रहे हैं। और रंगों के व्याकरण में दो नये रंग
जोड़ रहे हैं- सूखा और गीला। जहाँ सूखा है, उसे भूरे में शामिल
करने से काम चल जाता था। लेकिन, जहाँ गीला है, वहाँ कौन सा रंग
हुआ? यही ठीक रहेगा कि दो नये रंग मंजूर कर लूँ- सूखा और गीला।
ये घर, आइजल की शानदार बहुमंजिला इमारतों से अलग, ऐसे हैं जैसा
अपने स्कूल के दिनों में प्रारंभिक भूगोल की पुस्तकों में पढ़ा
था। बाँस के ढाँचे वाले वैसे ही हल्के मकान जो अपने दो पिछले
पायों के सहारे पहाड़ी कगारों पर लटके हुये से दिखते हैं। ऊपर
आसमान, नीचे अतल खाई और इनके बीच यहाँ से वहाँ तक हवा में तने
हुए तार। खूब ढलवाँ छतें, जिन पर बारिश का पानी टिकने न पाये।
प्रायः सभी घरों की, ऊपर वाली मंजिलों की खिड़कियाँ सुबह के इस
समय खुली हुई दिख रही हैं। भीगी हवाओं को भीतर बुला रही हैं।
इन खुली हुई खिड़कियों से, दूर तक फैले हुए पहाड़ और वहाँ से
ढलानों पर उतरते हुए जंगल दिखाई देते होंगे। रास्ते भर सड़क के
दोनों किनारों से उतर कर जंगलों तक फैलते हुए, हरे भरे बाँसों
के भिरे। बाँस के इन गझिन भिरों को देखकर भरोसा होता है कि
मिजोरम के बाँस कभी खत्म नहीं होंगे क्योंकि उन पर मनुष्य को
आश्रय देने का दायित्व है।
एयरपोर्ट पहुँचते-पहुँचते बारिश ने जोर पकड़ लिया। और बादलों का
रंग सुरमई से स्याह होने लगा। ऐसे में हवाई जहाज कैसे उतरेगा?
मौसम का मिजाज देखकर यहाँ के लोग वहाँ बतायेंगे तभी हवाई जहाज
दमदम से उड़ेगा। अन्यथा आज की फ्लाईट रद्द भी हो सकती है।
एयरपोर्ट के भूगोल और मौसम के मिजाज के, यहाँ के जानकार लोग
बारिश को कोहरे से बेहतर बता रहे हैं। बारिश कोहरे को छाँटती
है और रन वे दिखाई देने लगता है। लेकिन बारिश, कोहरे को छाँट
नहीं पा रही है। उल्टे कोहरा और घना होता जा रहा है।
बारिश और कोहरे के बीच, एक मिजो़ युवती रोशनी की लकीर की तरह
किसी तरफ़ से आर्इ और सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपरी लाउंज की तरफ़ निकल गई।
तब ध्यान आया कि बारिश और कोहरे का खेल वहाँ से बेहतर दिखाई दे
रहा होगा। रनवे के खुलने के आसार भी वहाँ से, पहले दिखेंगे।
वहाँ सुनसान अकेलापन है। और ऐसे में किसी सुंदर युवती को इस
तरह, वहाँ अकेली छोड़ देना मुझे ठीक नहीं लगा। मिजो युवती ने
नेवी ब्लू रंग की लंबी स्कर्ट के ऊपर कत्थई रंग का गर्म कोट
पहन रखा है। और इसमें, वह बेहद किताबी दिख रही है। समझ में
नहीं आ रहा है कि उसे भी इसी फ्लाइट में इंफाल जाना है, जो
मौसम की अनिश्चितता के कारण अधर में लटकी हुई है या इसमें उसका
कोई आने वाला है? सर्दी बढ़ गई हैं। सर्दी की वजह से, वैसे ही,
उसके गाल लाल-लाल हो रहे हैं ऊपर से वह पान चबा रही है। पान
उसके भीतर एक आँच उकसा रहा है। और एक गुलाबी लपक, पूरी की पूरी
उसे गुलाबी बना रही है। उसे इसका पता भी नहीं चल रहा है। ऐसे
में, उसे छूने की एक जबर्दस्त इच्छा मुझमें जाग रही है ओैर अवश
कर रही है।
मैंने एक चाल चली और एक खेल खेला। मैंने अपनी जेब से एक सिक्का
निकालकर हवा में उछाला, फिर उसकी हथेलियों में दबाकर उससे पूछा
-'चित या पट?’ चित में फ्लाइट आती,
पट में नहीं। लेकिन खेल को समझे बिना उसने पहले एक हथेली खोली
फिर दूसरी भी खोल दी। अबकी बार मैंने अपनी दो उँगलियाँ उसकी
तरफ बढ़ाकर, कोई एक पकड़ने के लिए कहा। एक में फ्लाइट को आना था,
दूसरी में नहीं। लेकिन उसने फिर वही किया। पहले उसने एक उँगली
पकड़ी, फिर दूसरी भी पकड़ ली।
पता नहीं, इस खेल को वह समझ भी रही थी या नहीं? बस, हर बात पर
हँस रही थी। वह ठीक से हिंदी नहीं समझ पा रही थी। इंग्लिश भी
उसकी समझ में नहीं आ रही थी। लेकिन इतना तो समझ ही रही थी कि
उसे छूने के लिए ही मैं यह सारा प्रपंच रच रहा हूँ। उसने अपना
नाम बताया-मैरी। मैरी ३२ वर्ष की है। उसकी हथेलियाँ सुंदर और
मुलायम हैं। बारिश, कोहरा और ठंडक के ऐसे समय में उन हथेलियों
को अपने हाथों में लेना सुखद था। आखिरकार, १२ बजे के आसपास
एयरपोर्ट के लोगों ने दमदम एयरपोर्ट को सूचित कर दिया कि यहाँ
का मौसम सुधरने की कोई उम्मीद नहीं है। और इंफाल फ्लाइट रद्द
हो गई।
इसने मुझे बहुत अधिक निराश किया। और इतना ही मेरे उन मित्रों
को भी निराश किया, जो वहाँ मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। इंफाल का
‘रास महोत्सव’ कितने दिनों से मुझे ललचा रहा था। और अब ऐसा दिख
रहा है कि वह केवल ५० मिनट की दूरी से छूटने जा रहा है। दिलासा
दिलाने के लिए एयरपोर्ट के लोग कह रहे हैं कि कल स्पेशल फ्लाइट
आ सकती है। यहाँ से इंफाल के लिए नियमित फ्लाइट आड़े दिनों पर
है। आज की छूटी, अब परसों मिलेगी। और परसों, इंफाल से कोलकाता
वापसी की मेरी फ्लाइट पहले से ही बुक है।
मैंने डॉ. देवराज से बात की। उन्होंने बताया कि वहाँ, डॉ. राम
लखन राय इंफाल एयरपोर्ट पहुँचकर मेरा रास्ता देख रहे होंगे। और
हिंदी साहित्य से जुड़े हुए अन्य मित्र, मेरे लिए, डॉ.देवराज के
पास बैठे हैं। एयरपोर्ट के अधिकारियों ने बताया कि कैंसल्ड
फ्लाइट के यात्रियों को कल तक ठहराने के लिए दो इंतजाम किए गए
हैं। वापस, आइजल में, होटल रिट्ज में। और यहाँ, लेंगपुई में,
टूरिस्ट रिसॉर्ट में। मैंने लेंगपुई के टूरिस्ट रिसॉर्ट में
ठहरना पसंद किया।
लेंगपुई
गाँव, एयरपोर्ट से काफी दूर है। लेकिन, अपनी बुनावट और वहाँ की
सामाजिक बसाहट में, लेंगपुई किसी पारंपरिक मिजो गाँव का एक
आदर्श नमूना ही है। और रिसॉर्ट? गाँव से भी आगे जंगल में। बड़ी
देर से एक महिला मेरा ध्यान बंटा रही थी। और मैं कुछ तय नहीं
कर पा रहा था कि उसके चेहरे पर चश्मा, उसे ध्यान देने योग्य
बना रहा है या चश्मे से झाँकती उसकी आँखें? उसकी आँखों में
पढ़ी-लिखी बुद्धिमत्ता और दुनियादार समझदारी बराबर-बराबर झलक
रही है। उससे बात करने को मन कर रहा था। वह खुद ही चलकर मेरे
पास आई। और उसने मुझसे पूछा -क्या आप भी रिसॉर्ट में रुक रहे
हैं?
यह तो उसने पहले से ही पता कर लिया होगा। अब, मुझसे पूछकर अपनी
तसल्ली कर रही है। दरअसल, वह खुद भी आइजल वापस जाकर वहाँ, होटल
रिट्ज में, ठहरने के बदले यहाँ, लेंगपुई के टूरिस्ट रिसॉर्ट
में रहने की इच्छुक थी। लेकिन मन में आशंकित थी कि कहीं, जंगल
के बीच, रिसॉर्ट में वह अकेली तो नहीं छूट जानेवाली है। उसने
अपना नाम बताया-यास्मीन किचलू। और अपना हाथ मुझे दिया। यास्मीन
की हथेली, मुझे, मैरी की हथेलियों से अलग मिली। इसमें एक महिला
की कोमलता तो है लेकिन, इसका स्पर्श बताता है कि यह, आदतन
लोगों से हाथ मिलाते रहने वाली किसी बिजनेस एक्जिक्यूटिव की
हथेली है।
मुझे भूख लग रही थी। लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या
करूँ? अभी तक सारा ध्यान इस बात में था कि हवाई जहाज आएगा या
नहीं? लेकिन अब, जब फ्लाइट रद्द हो चुकी है तो अपनी तरफ ध्यान
जा रहा है। सुबह से लेकर अब तक चाय नाश्ते के लिए न समय मिला
था, न जगह मिली थी। यास्मीन ने दो एग-रोल्ज बनवाए और अपनी
प्लेट मेरी तरफ बढ़ाई। आखिर, अब २४ घंटों के लिए हमें एक जगह,
एक साथ रहना है तो क्यों न दोस्ती की शुरुआत यहीं से और इस तरह
की जाए?
हम कुल चार जन लेंगपुई के टूरिस्ट रिसॉर्ट में ठहरने वाले हैं।
यास्मीन -एक महिला बिजनेस एक्जिक्यूटिव एक रिटायर्ड बैक
अधिकारी, ऑटोमोबाइल्स स्पेयर पार्ट्स का रोजगार करने वाला एक
व्यापारी और यह- मैं, हिंदी का एक लेखक। मुझे पूरा भरोसा है कि
यास्मीन, मुझसे पहले, किसी लेखक से नहीं मिली होगी। और यहाँ,
ऐसे में किसी लेखक से मिलना उसकी दिलचस्पियों को कैसे नहीं
जगाएगा? जैसे, उससे मिलने से पहले मैंने सिगरेट पीनेवाली
महिलाओं को देखा तो था, लेकिन दूर से। और अब हम, २४ घंटों के
लिए एक जगह, एक साथ रहेंगे। यास्मीन सिगरेट पीती है और यहाँ
रिसॉर्ट में पहुँचते ही उसने सबसे पहला काम यह किया कि जेब से
सौ रुपए का नोट निकाल कर रिसॉर्ट के किसी कर्मचारी को दिया और
उसे सिगरेट लाने के लिए एयरपोर्ट भेज दिया।
रिसॉर्ट एक ऊँची पहाड़ी टेकरी पर है। लेकिन, बाँस के घने जंगलों
के बीच कुछ ऐसा ढँका-मुँदा है कि यहाँ पहुँचे बिना, कहीं और से
दिखाई नहीं देता। पीछे की तरफ ढलानों में बाँस की सुन्दर कॉटेज
बनी हुई हैं। हम इन्हीं में रहेंगे बाहर से देखने में ये कॉटेज
बिलकुल, बाँस के उन पारंपरिक मिजो घरों के जैसी हैं, जो
एयरपोर्ट के रास्ते में खड़े, सुबह की झिरझिराती बारिश में भीग
रहे थे। भीतर सूखा है। बाहर सब कुछ भीगा-भीगा है। मैंने अपने
कॉटेज की खिड़की खोल दी और पहाड़ों की तरफ से आनेवाली भीगी हवा
को भीतर आने दिया। भीगी हवा थरथर काँप रही है। और उसकी छुअन
ठंडी है। खिड़की से बाहर, जहाँ तक दिख रहा है, जंगल फैला हुआ
है। और पहाड़ों पर बादल उतरे हुए हैं।
दोपहर भर बारिश होती रही। ऐसे में गरम कंबल लपेटकर सोना अच्छा
लग रहा था। लेकिन यास्मीन ने, दोपहर में खाने के समय ही कह
दिया था कि शाम को हम सब पैदल टहलने के लिए निकलेंगे। जब से हम
यहाँ पहुँचे हैं, वह इसी तरह हुकुम चला रही है। और हम सब उसकी
ही सुन रहे हैं। यहाँ, इस जंगल में २४ घंटों के लिए एक घर उपज
गया है। और एक स्त्री उसकी जतन कर रही है। कल, इस वक्त यह घर,
यहाँ नहीं होगा। कहीं भी नहीं होगा। सब अपने -अपने घरों में
पहुँच चुके होंगे, जो उनका यथार्थ है। और यह? एक ‘फिक्शन’ है।
इसका निर्धारित जीवन कुल २४ घंटे के लिए है।
और मैं? मैं तो ‘फिक्शन’ जीता हूँ। वही मेरा यथार्थ है। यथार्थ
का जीवन मेरे हिस्से में नहीं आया। इसलिए मैं ‘फिक्शन’ में
जीवन का यथार्थ ढूँढ लेता हूँ। कभी कोई सचमुच की, कथास्थिति
ऐसी भी बनेगी जिसमें जीने के लिए एक छोटी -सी जगह मेरे हिस्से
में भी आएगी? मैंने नहीं सोचा था। लेकिन यहाँ, ऐसा ही हो रहा
है। इसमें एक स्त्री है और तीन पुरुष हैं। और हम, चार के
चारों, २४ घंटे के लिए जंगल में छोड़ दिए गए हैं। यहाँ केवल हम
हैं और एक साथ हैं। जहाँ संग साथ है, वहाँ इच्छाओं और स्पर्धा
का द्वंद्व भी होना ही है। इनके बीच, एक स्त्री अद्भुत कौशल के
साथ संतुलन का नैसर्गिक खेल, खेल रही है। और तीनों पुरुषों को
साध रही है।
ऑटोमोबाइल्स स्पेयर पार्ट्स के व्यापारी ने मेरी थाह ली -आपने
तो पूरा नार्थ ईस्ट देखा है। सबसे सुंदर कहाँ लगा?
मुझे सोचने की जरूरत भी नहीं हुई- "मणिपुर, ऑफ कोर्स।" इस पर
वह उखड़ गया - "मणिपुर, जहाँ जिंदगी बदशक्ल हो चुकी है, वह
नर्क, उसे आप सुंदर बता रहे हैं?"
वह उखड़ना ही चाहता था। और इसके लिए वह बहाना ढूँढ रहा था। वह,
उसे मिल गया। तब, यास्मीन ने बात को सँभाला - "इसमें, ऐसे
उखड़ने की क्या जरूरत है? तुमने वहाँ नर्क देखा। वह तुम्हारा
अनुभव। इन्होंने वहाँ स्वर्ग देखा होगा। वह इनका अनुभव। किसी
के अनुभव पर तो विवाद नहीं हो सकता।"
उस समय तो बात सँभल गई। लेकिन मन में जो था, वह बाहर अपनी झलक
दिखा चुका था। और साथ -साथ चल रहा था।
टहलते टहलते हम, लेंगपुई गाँव तक निकल आए। फिर भी शाम का
अँधेरा पड़ने के बदले, बिन बरसे बादलों की सफेदी से उजाला अभी
बचा हुआ है। और यास्मीन का मन, अभी भी, रिसॉर्ट लौटने का नहीं
है। सड़क की दाहिनी तरफ से एक पगडंडी नीचे उतर रही है और सीधे,
बाँस के जंगलों के भीतर जा रही है। यहाँ से दिखता है कि यह
पगडंडी हमें पहाड़ के कटाव तक पहुँचाएगी। वहाँ, गहरी खाई होगी
और सामने एक और पहाड़ होगा। फिर कितने सारे पहाड़। मैंने उसी
पगडंडी की तरफ यास्मीन को दिखाया। लेकिन ऑटोमोबाइल्स स्पेअर
पार्ट्स के व्यापारी ने इशारे को झटक दिया। वह रिसॉर्ट लौटना
चाहता है। शाम के इस मादक समय में मद उसे अपने पास बुला रही
है। और मद वहाँ रिसॉर्ट में है।
यास्मीन सिगरेट पीती है। लेकिन शराब में उसकी दिलचस्पी नहीं
है। चाहे वह, शराब नहीं पीती, लेकिन किसी को पीने से मना भी
नहीं कर सकती। उसने कुछ नहीं कहा। और बिना कुछ कहे, पगडंडी
वाले रास्ते पर उतर गई।
जंगल के बीचों-बीच एक बहुत बड़ा आश्रम जैसा है। शांत, सुरम्य और
चित्रमय। सामने रंग बिरंगे फूलों की फुलवारी और पीछे, जोती बोई
जमीन खूब दूर तक फैली हुई है। वहाँ, दो शिकारी कुत्ते बंधे हुए
हैं। हमें देखकर जोर -जोर से भौंकने लगे। उनका भौंकना सुनकर,
एक अधेड़ सी महिला बाहर आई। उसके एक हाथ में पीतल का यंत्र है।
इसे घुमाते रहने से बुद्ध के पवित्र मंत्र की आवृत्ति होती
रहती है-ओम म्हने पद्मे हुम
यहाँ, इस एकांत वन में, किसी भोटिया का आश्रम कहाँ से आया?
पूछने पर पता चला कि तिब्बत से दलाई लामा के साथ भारत आए हुए
कुछ भोटिया परिवार मिजोरम में भी बसे हैं। वही, कुछ लोग यहाँ,
लेंगपुई में हैं। और छोटी मोटी दुकानें चलाते हैं या खेती करते
हैं। ये लोग बौद्ध धर्म को अपनाए हुए हैं। जहाँ से यह पगडंडी
जंगल के रास्ते उतरती है वहीं, कोने में इनका अपना एक छोटा सा
मंदिर भी है। तब ध्यान में आया कि हाँ, वहाँ रंग बिरंगी
पताकाएँ हवा में लहरा रही थीं, जिन पर पवित्र मंत्र चित्रित
होते हैं। ये मंत्र दुष्ट आत्माओं से उनकी रक्षा करते हैं।
रात खूब ठंडी हो गई है। और भारी भी है। भारी है इसलिए महसूस हो
रही है। जंगल एकदम चुप है। रातों को निकलनेवाले जानवर भी इस
समय, भीतर की तरफ, कहीं दुबके हुए होंगे। रात बिरात नींद टूटने
पर या सपने में चौंककर कभी कभी पक्षी पंख फटफटाते हैं। वह
फटफटाहट तक नहीं हो रही है। बारिश में, बाँस दिन भर भीगे थे और
उनकी पत्तियों पर पानी ठहरा हुआ था। पत्तियाँ रह-रहकर सिहरती
हैं। और बदन झड़ाती हैं। तब यही ठहरा हुआ पानी बूँद-बूँद बिखरता
है और सन्नाटा तोड़ता है।
भीगी रात का सन्नाटा नींद में चला आया। सन्नाटा टूटा तो न रात
बची थी, न नींद।
एकदम सफेद रंग की सुबह फैली हुई है। बाहर धुंध पड़ी हुई है। और
पूरी घाटी उसमें तैर रही है। धुंध इतनी गहरी है कि ठीक सामने
का मोड़ तक दिखाई नहीं देता। और अपने कंधों के ठीक ऊपर, अगल-बगल
की पहाड़ियाँ धब्बों की तरह दिख रही हैं। ऐसे में, किसी देखने
वाले को मैं कैसा दिख रहा होऊँगा? लेकिन मुझे देखने की किसे
पड़ी है?
पिछली शाम, चहलकदमी करते हुए, हम लेंगपुई गाँव की तरफ निकल गए
थे। अभी सफेद, धुँधली सुबह के इस अगम अगोचर समय में, उससे
बिलकुल विपरीत दिशा में चल रहा हूँ और अपनी एकांत सत्ता से
सीधे साक्षात्कार कर रहा हूँ। चौबीस घंटों की निर्धारित अवधि
वाले फिक्शन का यही हिस्सा मेरा निजी यथार्थ होगा। यह रास्ता
सीधी चढ़ाई वाला और खूब मोड़दार है। रास्ते भर कहीं कोई नहीं,
कुछ भी नहीं। बस, सुनसान में उफनती हुई खूब गाढ़ी सफेद धुंध।
ऐसे सुनसान में, अचानक इस सुनसान से भी सूना एक अकेला घर दिखा
जिस पर, मालूम नहीं कब से ताला पड़ा हुआ है। ऐसा लगता है कि इस
घर में रहने वाले लोगों को कहीं गए बहुत दिन हुए। और नहीं
मालूम कि वे लोग कब लौटेंगे। अब, यहाँ से लौट चलने के लिए वह
मुझे एक उपयुक्त जगह लगी। मैंने उस सूने घर को अपनी पहचान के
लिए एक निशान बना लिया। अब रास्ते भर मेरा मन वहाँ अटका रहेगा
कि उस सुनसान में वह सूना घर, उन लोगों का रास्ता देखता कितना
अकेला होगा?
रिसॉर्ट वापस पहुँचा, तब तक धुंध छँट चुकी थी। और चमचमाती धूप
निकल आई थी। इस धूप में रन वे साफ दिखाई देगा। इसलिए हवाई जहाज
आएगा। फिर भी इंफाल केवल ५० मिनट की दूरी से छूट जाएगा।
एयरपोर्ट के लोगों ने कहा था कि इंफाल के लिए स्पेशल फ्लाइट
अरेंज होने पर वे लोग हमें रिसॉर्ट में खबर करेंगे। हम समझ रहे
थे कि यह दिलासा दिलानेवाली बात है। फिर भी, पिछली शाम, देर तक
हमने उनकी तरफ से खबर का रास्ता देखा था। लेकिन कोई खबर नहीं
आई थी। सीधी सी बात है कि अब कोलकाता फ्लाइट में हमारे लिए जगह
बना दी जाऐगी। और कोई रास्ता भी तो नहीं है। |