इस सप्ताह—
समकालीन कहानियों में भारत से कामतानाथ की
दो अंकों में समाप्य लंबी कहानी
संक्रमण
क्या
नहीं किया मैंने इस घर के लिए! बाप मरे थे तो पूरा डेढ़ हज़ार का
कर्ज़ छोड़कर मरे थे। और यह आज से चालीस-पैंतालीस साल पहले की बात
है। उस ज़माने का डेढ़ हज़ार आज का डेढ़ लाख समझो, लेकिन एक-एक पाई
चुकाई मैंने। माँ के ज़ेवर सब महाजन के यहाँ गिरवी थे। उन्हें छुड़ाया। जवान बहन थी
शादी करने को। उसकी शादी की। मानता हूँ, लड़का बहुत अच्छा नहीं
था। बिजली कंपनी में मीटर रीडर था। लेकिन आज? बेटे-बेटियाँ
अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं। फूलकर कुप्पा हो रही है। पूरी
सेठानी लगती है। मकान तो अपना है ही, बिजली फ्री सो अलग। जितनी
चाहो, जलाओ। तीन-तीन कूलर चलते हैं गर्मियों में।
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हास्य-व्यंग्य में दीपक राज कुकरेजा
"भारतदीप" का प्रश्न
पेन माँगने में शर्म नहीं आती!
पेन
माँगते समय लोगों को शर्म आती है पर वापस करते समय उनमें बेशर्मी का भाव
इस तरह होता है कि वह हमसे पेन लेकर कोई अहसान कर रहे हों। उस दिन बैंक
में एक सज्जन आकर मेरे पास खड़े हुए। उनके कंधे पर दोनाली टँगी हुए थी।
वह मेरी जेब की तरफ़ इशारा करते हुए बोले, ''भाई साहब, ज़रा आप अपना
दूसरा पेन दे दीजिए। मैं अपनी जेब से पेन निकालते हुए उनकी बंदूक देखने
लगा। वह मुस्कराकर कर बोले, ''सब काम बंदूक से नहीं होते। कभी-कभी पेन की
भी ज़रूरत पड़ ही जाती है।'' . . .''क्या यह आज तुम्हें पता चला है?''
मैंने कटाक्ष करते हुए पूछा। वह मुस्कराता हुआ पेन लेकर चला गया।
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संस्कृति में अशोक श्री श्रीमाल का आलेख
शब्दकोश का जन्म
व्यक्ति
व्यवस्था का साधन भी है और प्रयोजन भी। व्यक्ति के अभाव में न तो
समाज की कल्पना की जा सकती है और न ही राज्य की। इसलिए आवश्यक है कि
सर्वप्रथम व्यक्ति के अस्तित्व से जुड़े हुए प्रश्नों को हल किया
जाए। उन्हें नकार कर आगे बढ़ जाना संभव नहीं। बालक ने उचित ही कहा
है. . . व्यवस्था की सार्थकता तभी है जब वह व्यक्ति के अस्तित्व की
रक्षा करने में समर्थ हो। स्वयं के कर्तव्य की अवहेलना कर दूसरों से
कर्तव्यपालन की अपेक्षा करना बुद्धिमानी नहीं। बालक को मुक्त ही नहीं
किया जाना चाहिए, अपितु, इसके परिवार को पर्याप्त भरण-पोषण भी राज्य
द्वारा प्रदत्त किया जाना चाहिए।
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आज सिरहाने कमलेश्वर का उपन्यास
अम्मा
- राजेंद्र दानी के शब्दों में
दरअसल,
मूलतः सिनेमा के लिए लिखे गए बड़े कैनवस के इस छोटे उपन्यास पर दृष्टि
डालने के पूर्व लेखक के 'कुछ शब्द' पढ़ लेना ज़रूरी है, ''यह उपन्यास
मेरे आंतरिक अनुभव और सामाजिक सरोकारों से नहीं जन्मा है और इसका प्रयोजन
और सरोकार भी अलग है. . .यह उपन्यास साहित्य के स्थायी या परिवर्तनशील
रचना विधान और शास्त्र की परिधि में नहीं समाएगा क्योंकि यह सिनेशास्त्र
के अधीन लिखा गया है।'' निस्संदेह एक लंबी कालावधि के ओर-छोर में बसी इस
द्रुतगामी कथा को रचना विधान इन तथ्यों को काफ़ी गंभीरता और स्वतःस्फूर्त
ढंग से स्पष्ट कर देता है।
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रचना प्रसंग में ललित निबंध के मानदंड बता रहे हैं
श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी और डॉ. विनय कुमार पाठक
लालित्य
और भाव प्रवणता में काव्य के सबसे अधिक निकट की विधा ललित निबंध अंतर्मुखी
वृत्ति की बहिर्मुखी गद्यात्मक अभिव्यक्ति है। अभिधा के स्थान पर लक्षण और
व्यंजना पर अधिक आश्रित, इसमें सब कुछ ललित हैं- भाषा ललित, शब्दावली ललित,
वाक्य-विन्यास ललित, भाव ललित, अभिव्यक्ति ललित, विचार ललित. . . इसमें
अत्यंत बारीक पच्चीकारी करनी पड़ती है, इसलिए यह सबसे कठिन विधा है। काव्य में
तो आठ-दस पंक्तियाँ भी पर्याप्त हो सकती है, पर इसमें कम से कम तीन-चार पृष्ठ
लिखने-पड़ते हैं और उतनी दूर तक ललित भाव बनाए रखना अत्यंत दु:साध्य कार्य है। |