मीठी नींद के झोंकों में रेखा ने
सहसा महसूस किया कि दरवाज़े की घंटी बज रही है। हल्के से आँखें
खोलीं और सामने रैक पर रखी डिजिटल घड़ी में समय देखा - पौने
पाँच हो रहे थे। यह इतनी सुबह कौन घंटी बजा रहा है? सुखद,
गुदगुदे बिस्तर पर सुबह की नींद का मज़ा ही कुछ और है, फिर आज
रविवार भी है, सोचते हुए वह अलसाई-सी लेटी रही।
दरवाज़े की घंटी निरंतर बजती गई
- हरेक बार और अधिक तेज़ी से। अंतत: वह बिस्तर से उठी। अपने
कमरे से निकल कर गैलरी में आई। बगल के कमरे में यों ही झाँका-
ईशा निश्चिंत सो रही थी। कौन होगा दरवाज़े पर? दूध वाला या फिर
बाई...। मगर इतनी सुबह...। असमंजस से वह दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी
और जितनी भी चिटकनियाँ लगी थीं, खोल दीं।
सामने सी.आर.पी.एफ़. के दो
ऑफ़िसर गंभीर भाव लिए, विमूढ़ से खड़े, हाथों में कैप। रेखा ने
हैरत भरी प्रश्नात्मक दृष्टि से उन्हें देखा। जवाब में उनकी
आँखों में आँसू उमड़ आए।
''रवि. . .ठीक तो है न?''
वह बौखलाई-सी बोली। उन्होंने अपनी आँखे बंद कर लीं। आँसू बंद
आँखों से बह कर गालों पर ढुलकने लगे। |