मैं कुबेर प्रसाद।
भुखमरी की ज़मीन से चल कर आज वातानुकूलित कक्ष और हवाई जहाज़
तक की यात्रा को मुड़कर देखता हूँ तो पीछे छूटी हुई सारी
पगडंडियाँ, कँटीली, सर्पीली, डरावनी, सुहावनी, एक-एक कर उभरने
लगती हैं।
स्कूली जीवन
की पहली ही पगडंडी दंश देनेवाली साबित हुई थी। मैं एक
सवर्णबहुल मास्टरों और विद्यार्थियों वाले स्कूल में अक्सर आगे
की बेंच से धकियाकर पीछे की बेंच पर पहुँचा दिया जाता था। मैं
गलचुटका और सीकिया-सा असहाय दिखनेवाला कमज़ोर लड़का इसका
अभ्यस्त हो गया था। मुझे बाउजी ने कहा था कि किसी भी
दुत्कार-फटकार और दाँव-पेंच का बुरा नहीं मानना है और सिर्फ़
अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना है। मैं अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे रहा
था और कक्षा में अव्वल स्थान पर पहुँच गया था। आंतरिक दशा भले
ही अव्यक्त थी लेकिन मन में जातीय सड़ाँध और भेद-भाव पर एक
घृणा समाती जा रही थी।
मैं मानकर चल रहा था कि जातीय
वैषम्य की हिकारत मुझे स्कूल में प्रोत्साहन और प्रशंसा का कोई
अवसर नहीं आने देगी। मैं इसी रेगिस्तान मन:स्थिति में था कि एक
मास्टर रितुवरन बाबू की आँखों में मुझे आर्द्रता दिखने लगी।
उन्होंने पितृत्व भाव से बुलाकर मुझे कहा कि अगर कुछ समझने में
दिक्कत हो तो निस्संकोच मेरे पास आ जाना। तुममें ललक है पढ़ने
की और साथ ही स्पार्क भी है आगे बढ़ने की, इसे कम न होने देना। |