इसमें अत्यंत बारीक पच्चीकारी करनी पड़ती है, इसलिए यह
सबसे कठिन विधा है । काव्य में तो आठ-दश पंक्तियाँ भी
पर्याप्त हो सकती है, पर इसमें कम से कम तीन-चार पृष्ठ
लिखने-पड़ते हैं और उतनी दूर तक ललित भाव बनाए रखना
अत्यंत दु:साध्य कार्य है । ललित निबंध कारों की संख्या
कम होने का यही कारण है । विधा की कठिनता कठोर साधना की
अपेक्षा करती है जो सबके वश की नहीं होती । इस संख्या के
कम होने का एक कारण यह भी है कि इस विधा के लेखक को
बहुपाठी विद्वान होना चाहिए तथा अथक परिश्रमी भी, और
सामान्य लेखक प्राय: इन दोनों से बचते हैं । खूब पढ़िए और
खूब लिखिए तभी ललित निबंध सध सकते हैं ।
इसका
उद्भव आधुनिक हिन्दी के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र से ही
माना जा सकता है और इसके पूर्वज के रूप में उस युग के
आत्मनिष्ठ निबंधों को स्वीकार किया जा सकता है । इसका
विशिष्ट उत्थान माखनलाल चतुर्वेदी, रायकृष्णदास,
शांतिप्रिय द्विवेदी, आदि के हाथों हुआ और पूर्णता मिली
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. विद्यानिवास मिश्र और
डॉ. कुबेरनाथ राय से । अपने छ: प्रकाशित ललित निबंध
संग्रहों के साथ डॉ. श्रीराम परिहार इस विधा के अत्यंत
समर्पित लेखक हैं ।
इसकी
शैली कला एवं काव्य के तत्वों से परिपूर्ण मुक्त गद्य
शैली है जिसमें अनुभूति, मनोभाव, भाव की उन्मुक्त उड़ान,
और गुलदस्ते का सा सुगुंफित आकर्षक विवेचन प्रधान होते
हैं । इसका शिल्प वैयक्तितापूर्ण सामाजिकता, यथार्थ की
रोचक प्रस्तुति, संस्कृति और परम्परा का कोमल स्पर्श,
हास्य-व्यंग्य की मधुस्मिति तथा विश्वजनित भाव-भंगिमा के
सामंजस्य से निर्मित होता है । इसकी भाषा प्रवाहपूर्ण,
प्रांजल, भावानुवर्तिनी, माधुर्य एवं प्रसाद गुणों से
युक्त होनी चाहिए , रूखी भाषा कतई नहीं चलेगी ।
यह
विषय-प्रधान न होकर विषयी-प्रधान है, अत: इसमें विषय का
कोई प्रतिबंध नहीं है । समर्थ साधक किसी भी विषय,
पौराणिक से लेकर वैज्ञानिक तक, को अपनी भावधारा में
सफलतापूर्वक बहा ले जा सकता है, सामान्य को भी असामान्य
बना सकता है । इसका व्याकरण सुरुचिपूर्ण अभिव्यक्ति,
छोटे-छोटे चुभने वाले वाक्यांशों एवं विशिष्ट भावों का
मोज़ैक है । भाषा के व्याकरण, शब्द कौशल और वाक्य-विन्यास
का जितना अच्छा ज्ञान होगा, निबंध उतना ही अच्छा बनेगा ।
इसकी दिशा सही है । लोकमंगल की साधना को केंद्र में रखकर
जो भी विधा चलेगी, उसकी दिशा सही ही मानी जाती है । इसकी
दशा अवश्य बहुमत वाली नहीं है, पर इसे इसकी दुर्बलता
नहीं माना जाना चाहिए क्यों कि लिखने वाले कम होने में
कारण तकनीक बन जाने से बचा है । तकनीक, लिखने लगेंगे तो
इसकी दशा भी हाइकु या पुनरुज्जीवित दोहे वाली हो जाएगी,
जिनमें केवल मात्रा बढ़ रही है, गुणात्मकता नहीं । इसके
विभिन्न परिप्रेक्ष्यों में यात्रावृंत, संस्मरण,
आत्मनिष्ठ समीक्षाएँ, व्यंग्य,
रेखाचित्र, रिपोर्ताज आदि भी परिष्कृत होकर आ सकते है ।
कुल मिलाकर यह विधा अपनी ही गति से गतिवान है और इससे
विपुल आशाएँ हैं ।
'निबंध' में 'नि' उपसर्ग
नि:शेषण अर्थात पूर्णता का भास कराता है। इस तरह निबंध
निर्दिष्ट विषय पर निबंधकार की पूर्ण क्षमता और दक्षता
का बोध कराता हुआ इसके निष्णात होने का प्रमाण भी
प्रकारांतर में प्रस्तुत करता है। निबंधकार विषय के साथ
समरस होकर पूर्णत: अभिव्यक्त हुए बिना नहीं रह सकता।
इसमें विचार व भाव तो स्वतंत्र होतो हैं लेकिन
संगति-संबद्धता उसका प्राण है। विषय या वस्तु में
व्यक्ति या आत्मनिष्ठ संयोग ललित निबंध के रूप में
लोकप्रिय प्रमाणित हुआ। भारतेंदुयुगीन हिंदी निबंधों में
निबंधकारों का जो ज़िंदादिल स्वभाव और हास्य-व्यंग्य का
सहज सद्भाव था, वही कालांतर में विकसित होकर ललित निबंध
के रूप में प्रतिष्ठित हुआ।
ललित निबंध गीत-सदृश
रामात्मकता, विषय-संघठन, स्वच्छंदता और विचार को भाव की
जुगलबंदी से युक्त कर ललित शैली में प्रस्तुत करने का
विधान है जो सांस्कृतिक बोध से जुड़कर इसे विशिष्ट बना
देता है। इस तरह कहा जा सकता है कि यदि मुक्तम काव्य
वर्णनात्मक निबंध है तो नीतिकाव्य ललित निबंध। ललित
निबंध लेखन क्लिष्ट-कर्म है। इसमें निबंधकार को एक विषय
में भाव व विचार के पंख लगाकर, अनुभूति को सार्थक
अभिव्यक्ति का स्वरूप देकर, एक नए लालित्य-लोक में विचरण
करना होता है। इस उपक्रम में उसे हर बार नया अनुभव और
अनुभव में अभिनव आनंद की प्राप्ति होती है।
ललित-निबंध का स्रोत निबंधों के पूर्व-रूप जिसमें
वर्णन-विवरण, विवेचन-विश्लेषण और तर्क-बुद्धि का
प्रभुत्व था, के विचारवाहक स्वरूप एवं रूढ़ प्रारूप के
आसन्न संकट से उद्भूत-प्रसूत हुआ। भारतेंदुकाल में ही
निबंधों की लगभग एक निश्चित रूपरेखा व पिष्टपेषण की
प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया स्वरूप इतिवृत्तात्मकता से
असंपृक्त होकर लालित्य की ओर लयमान हुआ। इस तरह निबंध
हार्दिकता से जुड़ा। विषयपरक होने के कारण यह पहले ज्ञान
और तथ्य पर ही आधारित था एवं वस्तु प्रधान होने के कारण
यह बाध्य विवेचन तक सीमित था। अब यह व्यक्तिप्रधान हो
गया अर्थात निबंधकार का हृदय भी उससे जुड़ गया। यह जुड़ाव
बुद्धि के साथ मेल का उपक्रम बना। आत्मपरकता का आधार
लेकर निबंध ने नवीन कलेवर और तेवर को प्रस्तुत किया। इसी
आधार पर कहा जा सकता है कि मुक्तक काव्य यदि
इतिवृत्तात्मक निबंध है तो गीत ललित निबंध है मुक्तक
काव्य की रूढ़ि और पारंपरिक वृत्ति की जड़ता को गीत ने
तोड़ा।
गीत ने विचार के साथ
भाव, बाध्य के साथ अंतर और छंद के साथ लय को मिलाया।
उसके सामंजस्य ने मुक्तक काव्य को नवजीवन दिया, काव्य के
विकास को संस्कार दिया। ललित निबंधों के उद्भव और विकास
का आधार भी लगभग यही रहा है। कोई भी विधा हो, रूढ़ि के
रूद्ध अवश्य होती है लेकिन परंपरा के प्रवाह को प्रस्तुत
करते हुए ही युगानुरूप विकास का आश्रम ग्रहण करती है। वह
परंपरा को नहीं तोड़ती, परंपरा की उस जड़ता को तोड़ती है जो
युगाग्रह को नहीं समझती जिससे विकास का पथ अवरूद्ध होता
है। निबंध के प्रारंभिक सोपान से ही इतिवृत्तात्मक
निबंधों से मोह-भंग होता है और ललित निबंध लोकप्रिय होते
हैं।
भारतेंदु युग का जो
फक्कड़ाना अंदाज़ था, वह ललित निबंधकारों के लिए खाद का
कार्य करने लगा। कल्पना के पर लगाकर शंकुतसदृश
इंद्रधनुषी आकाश में विचरण करने वाले ललित निबंधकार
यथार्थ की धरती पर पैर टेककर शांति का अनुभव करने लगे।
यही कारण है कि ललित निबंधों में कल्पना और यथार्थ का
सुंदर सामंजस्य है, अतीत और वर्तमान का सुंदर समन्वय है,
संस्कृति और सभ्यता का सुंदर सामरस्य है। ललित निबंधों
का सरोकार केवल वर्तमान से नहीं, वह अतीत के सूत्रों को
ढूँढ़ने के खोजी अभियान में जहाँ अध्यवसाय को आश्रय-ग्रहण
करता है, वहीं सांस्कृतिक सूत्रों को मिलाकर भारतीयता का
उद्भास और प्रगति का विकास प्रशस्त करता है जिसके मूल
में मानवता का मंतव्य है।
ललित निबंधकार कबीर की
तरह अलमस्त हैं अत: इसकी शुरुआत ये कहीं से भी करते और
समाप्त भी कहीं से भी कर देते हैं। उनके समक्ष न पहले से
कोई प्रारूप होता, न ही भूमिका के लिए अवकाश ही। हाँ,
क्रमबद्धता अवश्य होती है जो एकसूत्रता को बनाए हुए विषय
को व्यापक संदर्भों में निरख कर और उलट-पलट कर प्रखर रूप
से परख कर रोचक ढंग से प्रस्तुत करती है। इस उपक्रम में
निबंधकार इतिहास व पुराण-प्रमाण भी जुटाता है और
लोकवार्ता व जनश्रुतियों को भी समादृत करता है।
विषय के विवेचन के
परिप्रेक्ष्य में वह संबंधित ज्ञान-विज्ञान को भी समेटता
है और उसे संवदेना में घोलकर इतना सरल-सहज बना देता है
कि वह तकनीकी, शास्त्र और विज्ञान की तरह जटिल विषय नहीं
रह जाता। यही ललित निबंधकार का वैशिष्ट्य है उसकी दृष्टि
और सृष्टि, भाव और विचार, कल्पना और यथार्थ सभी ललित
लगते हैं। लालित्य इन निबंधों के शब्द-शब्द से नि:सृत
हैं परिणामत: भाषा काव्यात्मक, प्रांजल-प्रकृष्ट,
मुहावरे-कहावतों से गुंफित, गत्यात्मक, हृदय को आल्हाद
और मन को ललित आस्वाद्य प्रदान करते हैं। ललित निबंधकार
प्रकृति-सुष्मा से तो आप्लावित होता ही है, स्व को
प्रकृतिस्थ करके मानव-रचित लालित्य को प्रकट कर अभिनव
आनंद, की अवतारणा करता है।
इसकी यह विशेषता मनुज
की प्रकृति से जुड़कर पूर्ण मानव बनने के सत्य से एक कदम
आगे ले जाती है। स्पष्ट है कि ललित निबंधकार साधक है जो
प्रकृति के मूल तत्व को हृदयस्थ करके अर्थात मानवीय
प्रकृति से समरस करके अभिनव लालित्य का अमृत छलकता है।
यही कारण है कि विषय सामान्य होकर भी ललित निबंधकार के
हृदय-सौंदर्य में डूबकर निखर उठता है। दर्शन, ज्योतिष,
मनोविज्ञान, इतिहास, विज्ञान या प्रौद्योगिकी के निबंध
तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दों से युक्त होकर बोझिल व
विषय-केंद्रित और तथ्यपरक, क्रमबद्ध विवेचन मात्र लगते
हैं लेकिन जब यही विषय ललित निबंधकार को मिल जाता है तब
यह सरल, सहज, सरस, भावप्रवण और कमनीय कल्पना से युक्त
होकर लालित्य को उद्धाटित करता है। तात्पर्य यह है कि
ललित निबंधकार निबंधों में लालित्य के औदात्य को ही
उजागर करते हैं।
ललित निबंधकार किसी
महत्वपूर्ण और व्यापक संभावनाओं वाले विषयों पर ही
केंद्रित नहीं होते,वे तो सामान्य और साधारण विषयों को
लालित्य के पारस-परस से असामान्य व असाधारण बना देते
हैं। ललित निबंधकार उपेक्षित विषय को अपेक्षित और मृत
विषय को अमृत बनाकर इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि उसमें न
केवल जीवन-दर्शन की मीमांसा हो जाती है, वरन सांस्कृतिक
बोध भी स्वत: समाहित हो जाती है। वस्तुत: यह संभावनाशील
व सीमाहीन विधा है जो वामन में विराट और विराट में वामन
को माप लेने की शक्ति-क्षमता रखती है। यह द्विवेदी युगीन
कविता की प्राचीन लोकप्रिय प्रणाली समस्या पूर्ति की तरह
होती है जिसमें एक अर्धाली या विषय को लेकर जितने ललित
निबंधकार प्रवृत्त होंगे, सब अलग-अलग विषयों और रसों का
आस्वाद्य प्रकट करेंगे।
गीत में जिस तरह
भावावेग का सीधा संबंध रागात्मकता या संगीतात्मकता से
है, यही भावाकुलता ललित निबंधकारों को हार्दिकता से
जोड़कर रागात्मकता से मिलाती है। जीवन-जगत का अनुभव और
अध्यवसाय का निचोड़ अर्थात व्यवहार और सिद्धांत संवेदना
के साँचे में ढलकर ललित स्वरूप को प्रस्तुत करते हैं।
यही कारण है कि ललित निबंधों में अति सामान्य विषय और
तथ्य भी सरसता और सुंदरता से सज-सँवरकर उद्घाटित होते
हैं। विषय के प्रस्तुतिकरण से लेकर शैली के
संयोजन-पर्यंत ललित निबंधकार स्वच्छंद विचरण की मानसिकता
को ही मंडित करता है। इस उपक्रम में वह मनमौजी स्वरूप को
ही अक्षुण्ण रखता है जो उसके शब्द-शब्द से अभिव्यक्त
होता है।
ललित निबंधकार ऐसा
संस्कृतिकर्मी ओर लोकधर्मी होता है जो 'लोक वेद मति
मंजुल कूला' - सदृश उभय पक्षों को संजोता और विषयानुकूल
उसका व्यवहार भी यथावसर करता है। वह प्राचीन संस्कृति
इतिहास के प्रवाह को प्रस्तुत करके वर्तमान सांस्कृतिक
संकट को निर्दिष्ट कर भविष्य का दिशा-निर्देश भी करता
है। उसे विदित है कि संस्कृति का विपरीत आचरण विकृति का
द्योतक है जिसका निदान संस्कृति-संरक्षण में ही संभव है।
ललित निबंध की इसी आधार पर ललित भाषा व ललित शैली होती
है। स्वतंत्रचेता ललित निबंधकार शब्दों का जादूगर होता
है। अत: अपनी स्वच्छंद पहचान को, निजी अनुभव और
विचारधारा को अत्यंत आत्मीय और अनौपचारिक शैली में
सरल-सहज ढंग और विषयानुकूल भाषा-शैली के रंग में इस
प्रकार प्रस्तुत करता है कि उसकी जीवंत व गत्यात्मक
अनुभूति प्रत्यक्षत: हृदय को उत्फुल्ल करती और मन को
मथकर अभिनय आनंद का आस्वाद्य प्रदान करती है। इसमें
प्रस्तुतिकरण के अनुरूप ललित लेखक कहीं कथात्मक कलेवर
देता है, तो कहीं रेखाचित्र व रिपोर्ताज का चित्र व
विवरण भी देता है।
इसी तरह यदि कहीं
कवि-कल्पना की उड़ान भरता है तो कहीं घनीभूत भावावेग का
आश्रय-ग्रहण कर गीत की रागात्मक को संजोता है। उसका
व्यंग्य प्रखर न होते हुए भी मर्म को कचोटता और व्यक्ति
को कांता-सम्मति उपदेश की तरह सही राह में लाने का उद्यम
करता है। इन समग्र विशेषताओं का समाहार लालित्य का
औदात्य है जो एक मानक ललित निबंध की पहचान है लेकिन
इनमें से एकाधिक गुण भी ललित निबंध को अन्य निबंध-रूपों
से पृथक करने के लिए पर्याप्त है।
कुछ समीक्षक ललित निबंध को व्यक्तिपरक या आत्मप्रधान
निबंध का पर्याय मानते हैं। ललित निबंध की यह एक
महत्वपूर्ण विशेषता हो सकती है। लेकिन संपूर्णता नहीं।
व्यक्तिपरक या आत्मप्रधान निबंधों से निजीपन का आभास
होता है। ललित निबंध जब तक विषय या वस्तु से नहीं जुड़ता
या कहे समाज या लोक से सामंजस्य स्थापित नहीं करता तब तक
अपने स्वरूप को अभिज्ञापित नहीं करता। तात्पर्य यह है कि
व्यक्तिपरकता या आत्मप्रधानता जनसामान्य से जितना
साधारणीकृत होता है, उतना ही वह सार्थक ललित निबंध के
समीप पहुँचता है।
ललित निबंधकार विषय का
विवेचन मुग्ध और मग्न भाव से इस तरह करता है, कि उसके
सभी कोणों को परखता हुआ, क्रिया-प्रतिक्रिया से अवगत
कराता हुआ, पाठक से एक संवाद स्थापित कर बैठता है। यही
कारण है कि ललित निबंध का पाठक उसे इतना रसमय होकर पढ़ता
है कि अधूरा उसे छोड़ नहीं सकता। वह अत्यंत आत्मीयता से
आकंठ होकर ललित निबंध में गूँथे जीवनानुभव को इस
कुतुहलता के साथ ग्रहण करता है कि मानों उसकी
रहस्यात्मकता में उसका जीवन-मूल्य सुरक्षित हो।
कुछ समीक्षक ललित निबंध को इतिहास का विषय मानकर उसके
अद्यावधि विकास या समकालीन यात्रा को निरर्थक सिद्ध करने
का प्रयास करते हैं। तथाकथित ऐसे समीक्षक केवल कुछ
विधाओं में ही समसामयिकता को निरखने-परखने के पक्षपाती
हैं। निबंध इनके लिए उपेक्षणीय और ललित निबंध पार्श्व
में रखने के विषय हैं। वस्तुत: न ये ललित निबंध के
लालित्य से सुपरिचित है और न ही सभी विधाओं के साथ
प्रस्थित इसके रूप-व्यवहार तथा युग से कदम से कदम मिलाकर
बढ़ने के महात्म्य से महिमा-मंडित ही। ललित निबंध
आधुनिकता को संवदेना से संपृक्त करके और ज्ञान-विज्ञान
के सभी विषयों को हार्दिकता से सिक्त करके प्रस्तुत करने
मे सिद्धहस्त हैं।
इसके इस वैशिष्ट्य को
एक शताब्दी से अधिक काल में केद्रित करके तथा युग-बोध को
लालित्य से सराबोर करके प्रतिनिधि ललित निबंधकारों ने
अपनी साधना और प्रयोगधर्मिता से जो स्थापना दी है, वह
निश्चित रूप से भारतेंदु काल के फक्कड़पन, हास्यव्यंग्य
की प्रचुरता, भाव-प्रवणता, मुहावरे-कहावतों से युक्त
प्रभावी भाषा के संश्लिष्ट स्वरूप का विकास है। आज जबकि
साहित्य में वाद परोसे जा रहे हैं, विचार, बुद्धि और
दर्शन हावी है, यदि कोई विधा हृदय से मथकर और संवेदना को
साधकर युगीन संदर्भ के साथ प्रस्तुत हो तो क्या वह
ग्रहणीय या वरणीय नहीं है ? क्या इसकी उपेक्षा केवल
प्राचीन गौरव की प्रस्तुतिकरण के आधार पर करना उचित हैं।
१६
अप्रैल २००७ |