मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


हास्य व्यंग्य

1
पेन माँगने में शर्म नहीं आती!
दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
1


अगर कोई व्यक्ति अशिक्षित है तो पेन की उसे कोई ज़रूरत नहीं पर शिक्षित के लिऐ पेन का क्या महत्व है? जवाब मिलेगा बहुत! पेन केवल शिक्षित व्यक्ति रखते हैं, पर हर शिक्षित व्यक्ति अपने पास पेन रखे यह ज़रूरी नहीं है। मेरी समस्या यहीं से शुरू होती है। एक तो शिक्षा हमने प्राप्त की स्नातक स्तर तक उस पर लेखक बनने का अवसर मिला तो पेन मेरे लिए अस्त्र-शस्त्र जैसी चीज़ बन गई और इस कारण एक नही बल्कि दो और कभी-कभी तो दूसरे रंग के चक्कर में तीन पेन रखने लगा। पेन मेरे साथ वहाँ भी चलती है जहाँ मुझे उसकी ज़रूरत नहीं। यह आदत मेरे लिए परेशानी का कारण भी बनीं। एक तो मैं सौ फ़ीसदी पेनों का पूरा उपयोग नहीं कर पाता। अस्सी फीसदी पेन मेरे हाथ से लापता हो जाते हैं बाकी बीस मैं स्वयं अपनी लापरवाही से यहाँ-वहाँ रखकर खो देता हूँ। अपने हाथ से गिरे पेन का मुझे इतना अफ़सोस नहीं होता जितना माँगे गए पेन का वापस न मिलने का होता है।

कहते हैं कलम में तलवार से ज़्यादा शक्ति होती है। मैंने इसे कई बार देखा है। महँगा सूटबूट और टाई पहने व्यक्ति को बैंक में एक ऐसे मैले कुचले ग़रीब आदमी से पेन माँगते देखा जिससे वह सामान्य स्थिति में बात तक करना पसंद नहीं करता। उस व्यक्ति ने ग़रीब सज्जन से कहा, ''भाई साहब ज़रा मुझे पेन देना।''
वह ग़रीब आदमी हिल गया उसे विश्वास हीं नही हुआ कि साहब किस्म का कोई आदमी उसे साहब भी कह सकता है। वह एकदम पेन निकाल कर उनकी तरफ बढ़ाता हुआ बोला, ''लीजिए साहब!''

पेन का काम समाप्त होने के बाद जब साहब ने उसे वापस किया तब उसका जाकर पहनावा देखा। मैला कुचला पायजामा पहने उस व्यक्ति को देखकर उन्होंने घन्यवाद तक ज्ञापित नहीं किया। बाद में बैंक क्लर्क ने उन्हें अपने फॉर्म में कुछ संशोधन करने को कहा। उस समय मैं उनके पास खड़ा था और मेरे पास दो पेन थे। उन्होंने मुझे देखा। हम दिखने में साहब जैसे नहीं लगते पर कम भी नहीं लगते। मैं जानता था कि उनकी नज़र मेरे पेन पर थी। इसलिए हम लापरवाही से खड़े रहे। वह बोले, ''सर, ज़रा पेन दीजिए।''
मैंने अपना पेन दिया। वापस करते समय वह बोले, ''सर, लीजिए पेन। आपका थैंक्स!''
''नो मेन्शन!'' मैंने भी अपने अंग्रेज़ीदाँ होने का परिचय दिया।
ऐसा अवसर कम ही आता है कि मेरा पेन मुझे वापस मिल जाय। पेन मिलने की मुझे इतनी प्रसन्नता नहीं हुई जितनी उन ग़रीब सज्ज्न को पेन वापस करने पर उसे धन्यवाद ज्ञापित न करने की उनकी अनुदारता ने मुझे तकलीफ़ पहुँचाई थी।

आख़िर वह भी एक इंसान ही था। पेन माँगने में उससे शर्म नहीं आई पर धन्यवाद देने में उसका कम स्तर देखकर उपेक्षित भाव का प्रदर्शन करने में उन्हें अपनी शान अनुभव हुई थी।
मैं जब भी बैंक, बीमा या किसी अन्य ऑफ़िस जाता हूँ, ऐसा अवसर कम ही आता जब मुझसे पेन न माँगा गया हो। मैं अपने साथ दो पेन इसलिए रखता हूँ ताकि खोने या रिफिल ख़त्म हो जाने पर मुझे किसी से माँगना न पड़े। बैंक, बीमा या किसी अन्य जगह मैं अपने काम से ही जाता हूँ और किसी को पेन देने के बात कार्य संपन्न हो जाने पर खुशी होने के कारण और मैं भूल जाता हूँ। क्यों कि सरकारी कार्यालयों में कोई भी काम होना आसान नहीं और हो जाए तो आदमी अपने आपको तनाव मुक्त अनुभव करता है। कई बार तो यह भी होता है कि मेरे से पेन लेकर काम कर चुका व्यक्ति जा रहा होता है और मैं अपने काम में इस तरह फँसा रहता हूँ कि वहाँ से हट नही सकता और ज़ोर से आवाज़ देकर बुलाना वहाँ अभद्रता का प्रदर्शन करने जैसा लगता है और इस तरह अपनी पेन से हाथ धो बैठता हूँ।

पेन लेकर वापस न मिलने की तो समस्या है ही, साथ में मेरे दो पेन रखने का मामला भी एक परेशानी का सबब बन गया है। कार्यालय में मेरे दो पेन रखने की बात इतनी प्रसिद्ध है कि कोई अगर पेन लाना भूल जाए तो बड़ी बेशर्मी से पेन माँगने आ जाता है। कई बार जेब में रखे दो पेन रखने की बात को लेकर मज़ाक में पूछते है, ''यार तुम शायद बहुत काम करते हो? इसीलिए दो पेन रखते हो।''
कोई कहता है, ''यार तुम अभी कोई बड़े अधिकारी तो हो नहीं कि दो पेन रखते हो।'' हद तो तब हो गई जब यह वाक्य एक अधिकारी ने यह दोहराया जो उस दिन मेरे से पेन माँगने आया था। अब मैं क्या उससे कहता कि 'महाशय आप तो अधिकारी हैं फिर मेरे पास पेन माँगने क्यों आए?'

उस दिन एक सज्जन जो मेरे कार्यालय में थे पर अनुभाग दूसरा था। वह मेरे से पेन माँगने आए और बोले, ''यार, आज दिन भर के लिए मुझे पेन दे दो। मैं अपना घर पर भूल आया हूँ।''
मैंने अपनी जेब में रखे पेन को देखा। एक पेन तो बाहर से टँगा लग रहा था, दूसरा अंदर ही रखा था जो किसी को नहीं दिखाई दे सकता था। मैंने कहा, ''यार आज मैं एक ही पेन ले आया हूँ।''
''ऐसा नहीं हो सकता!'' वह सज्जन दृढ़तापूर्वक बोले, ''तुम कभी एक पेन नहीं लाते। देखो यार कहीं पैंट की जेब में तो नहीं रखा?''
मैंने कहा, ''यार, तुम मुझसे पेन माँगने आए हो या उधार में दिया गया वापस लेने आए हो? क्या मैं अब तुम्हें अपनी तलाशी दूँ।''
वह अपनी अकड़ को कायम रखते हुए बोले, ''यार, पेन नहीं देना हो तो साफ़ मना कर दो। क्या तुम्हारी पेन पर हमारी ज़िंदगी चल रही है?''

मैंने गुस्से में कहा, ''जब मैं कह रहा हूँ कि एक ही पेन ले आया हूँ तब ज़बरदस्ती क्यों कर रहे हो।''
वह सज्जन चले गए। मेरे अनुभाग के एक सहकर्मी को उन्हें पेन न देना बहुत बुरा लगा। वह बोला, ''यार, तुम उसे अपना पेन देते तो क्या हो जाता? मैंने आज सुबह देखा तुम्हारी जेब में दो पेन थे। एक शायद अंदर पड़ा होगा।''
मैंने कहा, '' दो पेन लाने का मतलब यह नहीं कि मैं सबको देता फिरूँ। मैं यह दो पेन इसीलिए रखता हूँ कि कहीं मुझे अपने काम के लिए पेन माँगने जैसी स्थिति में बच सकूँ न कि लोगों को बाँटकर अपने गँवाता रहूँ।'
मेरा वह सहकर्मी बोला, ''क्या यार, तुम पाँच रुपए के पेन के पीछे अपने अनुभाग की बेइज़्ज‍़ती करवा दी। अब वह दूसरे लोगों के सामने पूरे अनुभाग के लोगों की बदनामी करता रहेगा। यह कहेगा कि उस अनुभाग के लोग सोशल नहीं है।''

दरअसल मेरे उस सहकर्मी की उन सज्जन से हमदर्दी किसी सिद्धांत या मित्रता की वजह से नहीं थी, बल्कि उसे मेरे रवैये से यह भय लगने लगा था कि कहीं अगली बार मेरा निशाना वह न बने। वह मेरे से तीन पेन लेकर खो चुका था। हर बार यही कहता था, 'अरे यार, दो रुपए का तो पेन आता है। मैं तुम्हें दे दूँगा।' मै उसका आशय समझ गया था, उस पर गुस्से का प्रदर्शन करते हुए कहा, ''अगर पेन केवल पाँच रुपए का है तो दस-बीस रखकर घूमा करो। जो चाहे माँगे उसे दे दिया करो।''
वह चिढ़कर बोला, '' ठीक है! तुम अपना अहंकार दिखा रहे हो। देखना कल से मैं दस पेन लेकर आऊँगा।''

आदमी की आदत होती है कि वह सब छोड़ देता है पर अहंकार नहीं छोड़ पाता। मैं जानता था कि वह दस पेन ख़रीदकर रखने की बात कह ज़रूर रहा है पर करेगा वह हरगिज़ नहीं। वैसे भी वह भय ही जो आदमी से निर्भयता की बातें कराता है इसलिए उससे ज़्यादा बात करना बेकार है।
दो-तीन दिन बाद उसकी पेन की रिफिल समाप्त हो गई। वह मेरे पास आया और बोला, ''यार, आज मुझे पेन दे दो। कल मैं तुम्हें नया पेन लाकर दूँगा।''
मैंने कहा, ''तुम तो दस पेन लाने वाले थे! क्या हुआ?''
''अरे यार मज़ाक मत करो!''वह बोला, ''मेरी सीट पर इस समय ज़रूरी काम है।''
वह पेन इस अधिकार के साथ माँग रहा था गोया मैंने उसका कर्ज़ा ले रखा था। मैंने उसे पेन दिया। शाम को आफ़िस छोड़ने से पहले वह पेन वापस करते हुए बोला, ''धन्यवाद!''
मैंने कहा, ''तुम तो कल मुझे नया पेन देने वाले हो। अब तुम इसे रख लो।''
वह बोला, ''इसे तुम वापस ले लो। वरना यह भी जाएगा। उस समय मुझे जल्दी थी इसीलिए कह दिया।''
मैं उसको घूर रहा था। वह इतनी बेशर्मी दिखाएगा इसकी आशंका मुझे पहले से ही थी। वह फिर मुस्कराकर कर बोला, ''यार, बुरा मत मानना। मैं तो मज़ाक कर रहा था।''

पेन माँगते समय लोगों को शर्म आती है पर वापस करते समय उनमें बेशर्मी का भाव इस तरह होता है कि वह हमसे पेन लेकर कोई अहसान कर रहे हों। उस दिन बैंक में एक सज्जन आकर मेरे पास खड़े हुए। उनके कंधे पर दोनाली टँगी हुए थी। वह मेरी जेब की तरफ़ इशारा करते हुए बोले, ''भाई साहब, ज़रा आप अपना दूसरा पेन दे दीजिए।
मैं अपनी जेब से पेन निकालते हुए उनकी बंदूक देखने लगा। वह मुस्कराकर कर बोले, ''सब काम बंदूक से नहीं होते। कभी-कभी पेन की भी ज़रूरत पड़ ही जाती है।''
''क्या यह आज तुम्हें पता चला है?'' मैंने कटाक्ष करते हुए पूछा।
वह मुस्कराता हुआ पेन लेकर चला गया। फिर थोड़ी देर बाद लौटकर आया और कहने लगा, ''भाईसाहब यह मेरा फॉर्म भरवा देना।''

मैंने कहा, ''मुझे मालुम था। तुम थोड़ी देर में लौटकर आओगे। क्यों कि बंदूक से सारे काम नहीं होते यह तुम्हें आज पता चला था। बंदूक से आदमी का डराना आसान है पर एक पेन से फॉर्म भरना मुश्किल है यह भी तुम्हें पता चलना ही था।''
वह आदमी हँसकर बोला, ''साहब यह बंदूक तो हमारी सुरक्षा के लिए रखी हुई है। गाँव में ज़मीन जायदाद के झगड़े चलते रहते है। अपनी सुरक्षा करना ज़रूरी है। गाँव में तो कभी पेन से काम लेने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।''
मैंने उसे फार्म भरकर दिया। मगर उससे अपना पेन वापस लेना भूल गया। बाद में मुझ याद आया तो मैं सोचने लगा कि अच्छा ही है कि पेन रखने का आदी हूँ बंदूक रखने का नहीं। अगर मैं बंदूक भी रखूँगा तो इसी तरह भूल जाऊँगा। नहीं भूलूँगा तो लोग बंदूक भी ऐसे ही माँगने लगेंगे जैसे पेन माँगते हैं। बदूक रखने से कोई लेखक शेर तो बन नहीं सकता। बहरहाल पेन लेकर वापस न करना या भूलने का सिलसिला अभी तक भी चल ही रहा है। लोग भी अजीब हैं मोबाइल ओर लैपटाप का बोझ उठा सकते हैं पर पेन का नहीं।

१६ अप्रैल २००७

 
1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।