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दृष्टिकोण

भारतीय दंड-संहिता की कमज़ोर कड़ियाँ
-महेश चंद्र द्विवेदी

अंग्रेज़ बहादुर अपने गुल़ाम हिंदुस्तानियों की जान और इज़्ज़त की कीमत बहुत नहीं लगाता था, अत: १८६१ में बनाई हुई दंड प्रक्रिया संहिता मे उसने अपराधों को काग्नीज़ेबुल/संज्ञेय/ एवं नौनकौग्नीज़ेबुल/असंज्ञेय/ की श्रेणी मे बाँट दिया, जिसके कारण अनेक अपराधों मे पुलिस को हस्तक्षेप/ विवेचना एवं गिरफ़्तारी का अधिकार ही नहीं दिया गया- अब अगर आप को कोई दस-पाँच गालियाँ दे दे अथवा आप की पीठ पर दस-पाँच लाठियाँ ऐसे जड़ दे कि आप की हड्डी न टूटे, तो पुलिस से विवेचना कराने की क्या आवश्यकता है? इतनी बेइज़्ज़ती सह लेना अथवा इतनी चोट खा लेना तो साधारण भारतीय का जन्मसिद्ध कर्तव्य था। और फिर अंग्रेज़ को ही हम क्यों दोष दें जब कि आज स्वतंत्रता के सत्तावन वर्ष बाद भी उन अंग्रेज़ों के उत्तराधिकारी हिंदुस्तानी शासकों ने अंग्रेज़ों द्वारा बनाए गए इस कानून को यथावत बनाए रखा हुआ है।

इस कानून का पुलिस और डाक्टरों को एक बड़ा फ़ायदा मिलता है -अनेक प्रकरणों में वादी को खुश करने के लिए पुलिस एफ. आई. आर. लिख तो लेती है लेकिन विवेचना से बचने अथवा अपराधी को बचाने के उद्देश्य से एफ.आई. आर. की भाषा मे ऐसी हेर फेर कर देती है कि संज्ञेय अपराध भी असंज्ञेय हो जाता है- मान लीजिए पिटते-पिटते आप की हड्डी क्रैक हो गई है तो पुलिस उसे तब तक क्रैक क्यों माने जब तक डाक्टर क्रैक होने का सर्टीफ़िकेट न दे दे अथवा आप उसे ऐसा मनवाने के लिए 'खुश़' न कर दें। अगर पुलिस समुचित ढंग से 'खुश' हो गई तो वह अभियुक्त की तुरंत गिरफ़्तारी भी कर लेगी, नहीं तो आप से डाक्टरी मुआइना करा कर रिपोर्ट लाने को कह देगी। अब डाक्टर साहब को आप 'खुश' न कर पाए तो वह आप की चोट को सरसरी निगाह से देखकर 'सिंपल इंजरी' लिख देंगे, अन्यथा एक्स-रे कराने को कहेंगे। एक्स-रे रिपोर्ट में क्या परिणाम आता है, यह भी निर्भर करता है डाक्टर साहब के 'खुश' होने या न होने पर- अगर क्रैक नहीं है और बनाना है तो हड्डी के ऊपर लोहे का तार रखकर एक्स-रे ले लिया जाएगा और अगर डाक्टर को आप के बजाय आप की पिटाई करने वाले ने अधिक 'खुश' कर दिया है तो कोई अच्छे ख़ासे आदमी की हड्डी का एक्स-रे संलग्न कर 'नो-फ्रैक्चर' होने की रिपोर्ट दी जा सकती है। डाक्टरी के प्रोफ़ेशन में असफल डाक्टरों के लिए तो इस तरह की हेराफेरी ही उनकी जीविका का प्रमुख स्रोत होती है।

किसी की लड़की या पत्नी भाग जाना भी पुलिस, डाक्टरों और वकीलों के लिए कई तरह से बड़ा मुफ़ीद होना पाया गया है - ऐसे प्रकरणों से उनके शुष्क जीवन मे मानसिक आह्लाद, आर्थिक समृद्धि एवं मौका हाथ लगने पर शारीरिक तुष्टि भी हो जाती है। कानून के अनुसार १८ वर्ष से कम की किसी लड़की से लैंगिक संबंध चाहे उसकी मर्ज़ी से ही क्यों न किया जाए, बलात्कार की श्रेणी में आता है और उससे ऊपर की आयु की किसी स्त्री के साथ उसकी मर्ज़ी के साथ किया गया लैंगिक संबंध कोई अपराध ही नहीं है, जब तक उस स्त्री का पति स्वयं रिपोर्ट न लिखाए और तब भी इसकी सज़ा बहुत कम है। दूसरी ओर सामाजिक प्रतिष्ठा के दृष्टिकोण से किसी की लड़की अथवा औरत का किसी के साथ भाग जाना अथवा लैंगिक संबंध रखना उस स्त्री समेत समस्त परिवार के लिए नाक कट जाने के समान होता है और अनेक प्रकरणों मे इसकी परिणति हत्या अथवा आत्महत्या में होती है।

यह भी देखा गया है कि भगाकर ले जाने वाले लोग प्राय: शारीरिक तुष्टि हो जाने अथवा साथ में ले गया पैसा समाप्त हो जाने पर लड़की को बेच-बाच कर उससे छुटकारा पाने का प्रयत्न करने लगते हैं। इन कारणों से किसी स्त्री के भाग जाने पर माता-पिता अथवा पति को गंभीर चिंता एवं क्षोभ होना स्वाभाविक है। लड़की की बरामदगी हेतु पुलिस की सहायता से प्राप्त करने और भगाने वाले लड़के को दंडित कराने हेतु काग्नीजेबुल अपराध की एफ. आई. आर. लिखा जाना आवश्यक होता है, जिसमें या तो लड़की को नाबालिग दर्शाया जाता है अथवा उसका ज़बरदस्ती अपहरण दिखाया जाता है। ऐसी एफ.आई.आर.से एक अन्य लाभ सामाजिक प्रतिष्ठा संबंधी भी होता है कि संपूर्ण दोष लड़के के सिर मढ़ दिया जाता है। अत: हर वादी का प्रयत्न होता है कि एफ.आई. आर. में लड़की की आयु १८ वर्ष से कम ही लिखी जाय और लड़की को ज़बरदस्ती भगाया जाना लिखा जाए। पुलिसवाले लड़की के घरवालों की इस मंशा को बखूबी समझते है और अपना हक वसूल करके ही ऐसी रिपोर्ट लिखते हैं। किसी प्रकार का अपराध न होने पर भी संज्ञेय अपराध की फर्स्ट इन्फरमेशन रिपोर्ट लिखवा लेने के बाद लड़की की बरामदगी और लड़के की अविलंब गिरफ़्तारी हेतु घोड़े दौड़ाने शुरू हो जाते हैं। पहले तो पेट्रोल के सरकारी कोटे की कमी के कारण निष्क्रिय पुलिस के लिए गाड़ी-घोड़ा का प्रबंध किया जाता है और घोड़े /पुलिस के लिए भरपेट रातिब /रुपया/ मुहैय्या कराया जाता है।

अक्सर समुचित रतिब हासिल होने पर थाना पुलिस डकैती-हत्या तक के अपराधों की विवेचना छोड़कर लड़की की बरामदगी मे जुट जाती है- सेक्स का किस्सा होने के कारण उन्हें इसमें ऐडल्ट फ़िल्म का-सा आनंद भी मिलता ही है और कभी-कभी ऐसे अवसर भी हाथ लग जाते हैं कि उनके सेक्स की लाइव-संतुष्टि भी हो जाती है। यदि कभी कोई सिरफिरा टाइप का ईमानदार पुलिसवाला अड़ जाता है कि लड़की स्पष्टत: बालिग है और अपनी मर्ज़ी से भागी है अत: स्कूल का सर्टीफिकेट देखे बिना वह लड़के की गिरफ़्तारी नहीं करेगा, तो राजनैतिक नेताओं अथवा महिला संगठनों की यथोचित पूजा कर दी जाती है और वे लंगोट बाँधकर अखाड़े मे कूद पड़ते हैं। पहले तो पुलिस के उच्चाधिकारियों से उस ईमानदार विवेचक को सबसे बड़ा बेईमान बताकर शिकायत की जाती है कि वह पैसे लेकर अभियुक्त को बचाने का प्रयत्न कर रहा है। यदि उच्चाधिकारी को लड़की की वास्तविक आयु और अपनी मर्ज़ी से भागने की वास्तविकता ज्ञात भी हो, तो भी वह इस बात को फोर्सफुली कह नहीं पाता है क्यों कि कानूनन असली आयु तो वह मानी जाती है जो लड़की की बरामदगी के बाद डाक्टर को प्राप्त 'फीस' के अनुसार वह निर्धारित करता है और लड़की अपनी मर्ज़ी से भागी थी या ज़बरदस्ती भगाई गई थी, यह बात तो इस पर निर्भर करती है कि बरामदगी के बाद वह लड़की मैजिस्ट्रेट के सामने अपने घर वालों द्वारा सिखाया पढ़ाया बयान देती है या सत्यभाषण करती है।

मेरे अनुभव के अनुसार अपने घरवालों के दबाव एवं अपनी इज़्ज़त के ख़याल के कारण बिरली लड़की ही यह स्वीकार करती है कि वह स्वयं लड़के को उकसाकर अथवा अपनी मर्ज़ी से लड़के के साथ भागी थी। इस कारण से तथा नेताओं द्वारा लड़के की शीघ्र गिरफ़्तारी न होने पर धरना-आंदोलन की धमकी देने के कारण पुलिस के उच्चाधिकारी भी लड़के की शीघ्र गिरफ़्तारी और लड़की को बरामद कर मैजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत करने का आदेश दे देने में ही समझदारी समझते हैं -इसलिए पुलिस प्राय: प्यार की दुश्मन बन जाती है।

वर्ष १९७४ में मेरठ विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली एक लड़की अपने प्रेमी के साथ भाग गई। उसके प्रभावशाली माता पिता ने लड़के के विरुद्ध ज़बरदस्ती भगाने की रिपोर्ट लिखाई और फिर डी. आई. जी. के सामने लड़की की तुरंत बरामदगी का दबाव डालने लगे। डी. आई. जी. को मालूम था कि लड़की बालिग है और स्वयं भागी है अत: उन्होंने झुंझलाकर कह दिया,
''लड़की क्या मेरी जेब में है जो तुरंत बरामद कर लें।''

बस फिर क्या था तुरंत पुलिस के विरुद्ध आंदोलन खड़ा हो गया और मेरठ नगर मे जुलूस निकालकर आगजनी और हिंसा प्रारंभ कर दी गई, जिस पर मुख्यमंत्री ने हस्तक्षेप कर पुलिस को तुरंत लड़की को बरामद करने का आदेश दिया और पुलिस ने बड़ी दौड़भाग कर लड़की बरामद की और उस निर्दोष लड़के को गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया। लड़की जो उस लड़के के साथ आराम से ट्रेन-बस का सफ़र करते हुए दिल्ली-बंबई घूमती रही थी, ने घरवालों के दबाव में मैजिस्ट्रेट के सामने अपने ज़बरदस्ती भगाये जाने का बयान दिया। इस पर डी. आई. जी. का दंडस्वरूप स्थानांतरण कर दिया गया और कई निम्नस्तर के पुलिसकर्मियों के विरुद्ध विभागीय कार्यवाही की गई।

अंग्रेज़ बहादुर द्वारा बनाई गई अपराधों की विवेचना/अभियोजन की प्रक्रिया आज भी लागू है। उनका मनमर्जी का विवेचना-परिणाम प्राप्त करने का उद्देश्य तो समझ मे आने के लायक है परंतु आज के कानून बनाने वालों का उस प्रक्रिया को यथावत चलते रहने देने का उद्देश्य किसी भी सामान्य बुद्धि के परे की चीज़ है। कानून के प्राविधान के अनुसार विवेचक सभी गवाहों का बयान सुनेगा और उन्हें केस डायरी मे दर्ज़ करेगा, परंतु उसे किसी भी गवाह का लिखित बयान लेने अथवा अपने द्वारा लिखे गए बयान पर गवाह के दस्तखत कराने की मुमानियत है। मतलब यह कि कानूनन यह सुनिश्चित किया जाता है कि विवेचक गवाह के वास्तविक बयान न लिखकर अपनी मर्ज़ी के अनुसार बयान लिखे। इससे विवेचक और विवचना को इच्छानुसार मुड़वाने वाले शासकों को कानून पूरा अवसर देता है कि विवेचना का रुख जिधर चाहें उधर मोड़ा जा सके।

मैंने अनेक फ़िल्में देखीं हैं जिनके अंत मे बड़े से बड़े अपराधी को कोई हीरो टाइप पुलिस इंस्पेक्टर पकड़कर उसकी धुनाई करता है और उससे समस्त अपराध कुबूल करवा लेता है और फिर दर्शकों को यह विश्वास दिलाकर कि विलेन अब जेल मे सड़ेगा, फ़िल्म का 'दी एंड' हो जाता है। हमारे फ़िल्मवालों और जनसाधारण को यह ज्ञात ही नही है कि 'इंडियन एवीडेंस ऐक्ट' के अनुसार मारपीट कर कराई गई अपराध की स्वीकारोक्ति तो अमान्य साक्ष्य है ही, अपराधी द्वारा पुलिस के किसी अधिकारी के सामने अथवा उसकी उपस्थिति में किसी के भी सामने अपनी मर्ज़ी से की गई स्वीकारोक्ति भी कचहरी मे साक्ष्य के रूप मे प्रस्तुत किए जाने की मनाही है। अत: स्वीकारोक्ति करने वाले अपराधी को पुलिस को मैजिस्ट्रेट के सामने अपराध स्वीकार करने हेतु प्रस्तुत करना पड़ता है, और मजिस्ट्रेट के लिए भी कानूनी बाध्यता है कि वह उस अभियुक्त को कम से कम ४८ घंटे का समय सोच-विचार करने एवं अपने वकील की राय लेने हेतु दे और तभी उसकी स्वीकारोक्ति दर्ज़ करे। अब भई आप ही सोचिए कि ऐसा कौन-सा वकील होगा जो अभियुक्त को अपराध की स्वीकारोक्ति की सलाह देकर अपने पेट पर लात मारेगा।

हमारे देश का कानून किसी अभियुक्त को दंडित करने हेतु स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं प्राय: आँखों देखी गवाही की माँग करता है - परिणामत: यदि किसी लड़की को अपने बलात्कारियों को दंड दिलाना है तो उसे एक दो स्वतंत्र एवं निष्पक्ष गवाह अपना बलात्कार होते हुए देखने के लिए पहले से खड़े कर लेना चाहिए। इसी प्रकार अगर आप गाँव के रहने वाले हैं जहाँ या तो बिजली होती ही नहीं है अथवा आती ही नहीं है, और आपको अपने घर पर डकैती डालने वालों को दंडित कराना है तो उन्हें पहचानने के लिए अपने कमरे में लालटेन जलाकर सोना चाहिए, और एफ. आई. आर. में यह अवश्य लिखाना चाहिए कि आप रोज़ की तरह लालटेन जलाकर सोये हुए थे, जब डकैतों ने हमला किया। वैसे लालटेन के बजाय टार्च की रोशनी डकैतों के चेहरों पर फेंककर उन्हें पहचान लेने की बात लिखाकर काम चल सकता है लेकिन ऐसा करके आप कचहरी में गवाही तो तब देंगे जब डकैत आपको ऐसी हिमाक़त करने के बाद ज़िंदा छोडेंगे।

कानून कैसा भी हो, पुलिस तो अपराधियों से त्रस्त जनता को केवल यह कहकर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती है कि हम क्या करें कानून ही ऐसा है। अत: पुलिस कानून से इतर ऐसा चक्रव्यूह रचने का प्रयत्न करती है कि अपराधी उसमें से निकल न पाए। पहले तो एफ. आई. आर. में वे तथ्य बढ़ाए जाते हैं जो कानून का पेट भरने को आवश्यक होते हैं, फिर संदिग्ध अभियुक्तों को एफ.आई.आर.में नामजद कराने का प्रयत्न किया जाता है और फिर ऐसे चश्मदीद गवाह बनाए जाते हैं जो सफ़ाई के वकील की धौंस मे न आकर कचहरी मे डटे रह सकें। आज क्रिमिनल केसेज़ की ट्रायल के परिणाम का संबंध सत्यवादन से नाममात्र को ही रह गया है, यह परिणाम मुख्यत: इस पर निर्भर करता है कि पुलिस के वकील एवं बचाव के वकील में कौन झूठे गवाहों और तथ्यों को अधिक विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत कर सकता है- और चूँकि अभियुक्त को सज़ा दिलाने के लिए पुलिस को अपने केस को बियोंड रीज़नेबल डाउट सिद्ध करना होता है और बचाव के वकील को अपने मुवक्किल को बचाने हेतु केवल डाउट उत्पन्न करना होता है अत: अधिकतर केसेज़ मे विजय बचाव पक्ष की ही होती है। अभियुक्त को छुड़ाऩे मे बचाव पक्ष के वकील के अतिरिक्त अन्य अनेक कारकुन भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं क्यों कि अभियुक्त का छूटना बहुतों की माली हालत के लिए मुफ़ीद साबित होता है जबकि उसका सज़ा पाना केवल बादी और उसके घरवालों को मानसिक सांत्वना दे सकता है ।

जनता जनार्दन का हमारी कानूनी प्रक्रिया से विश्वास इस कदर उठ गया है कि वह आश्वस्त है कि सत्य पर आधारित एफ. आई. आर. लिखाने एवं कानून के अनुसार व्यवहार करने पर न तो सफल विवेचना की जा सकती है और न वास्तविक अपराधी को दंड दिलाया जा सकता है। इसलिए अधिकांश प्रकरणों में वादी अब पुलिस द्वारा वास्तविक अपराधी का पता लगाकर उसे दंडित कराने की निष्फल प्रतीक्षा करने के बजाय एफ. आई. आर. में अपने दुश्मनों को नामजद अभियुक्त बनाता है जिसमें अपने निजी गवाह रखता है। इससे वादी को अपने दुश्मनों से बदला लेने का अवसर मिल जाता है और यह पुलिस को भी आसान एवं लाभप्रद लगता है क्यों कि एक तो कठिन विवेचना करके वास्तविक अपराधी का पता लगाने की जहमत नहीं उठानी पड़ती है और दूसरे गिरफ़्तारी, ज़मानत आदि के समय अनेक आर्थिक लाभ के अवसर बिना मेहनत किए उपलब्ध हो जाते हैं।

हमारे कानून बनाने वालों ने जहाँ अपराधी को सज़ा से बचाने का कानून बनाने मे कोई कसर नहीं छोड़ी है वहीं अपने पर बीतने पर अथवा अपने प्रतिद्वंद्वी के फँसने पर अपराधी को येन-केन-प्रकारेण दंडित कराने में उनसे अधिक उत्सुक भी कोई नहीं रहता है। ऐसे प्रकरणों मे मुझसे कई बार मंत्रियों एवं न्याय के रक्षकों ने कहा है कि कुछ सख्ती दिखाइए /यानी संदिग्ध के हाथ पैर तोड़ दीजिए/, तो काम चलेगा।

यह देश का सौभाग्य है कि अभी तक लोगों को यह विश्वास है कि पुलिस को अगर अवसर दिया जाए तो अपराधी को न्यायालय से न सही तो मार-पीटकर या काउंटर करके जनता को न्याय दिला सकती है, जिस दिन उनका यह विश्वास भी समाप्त हो जाएगा, वे केवल माफ़िया की शरण में ही न्याय की आशा मे जाएँगे- कानून की नहीं।

अप्रेल २००७

  
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