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 १. ३. २०१७

इस पखवारे-

अनुभूति-में-
होली के रंगों से सराबोर विभिन्न विधाओं में अनेक रचनाकारों की मन-मोहक रचनाएँ।

- घर परिवार में

रसोईघर में- इस पखवारे होली के अवसर पर हमारी रसोई संपादक शुचि मेहमानों के लिये प्रस्तुत कर रही हैं-  लोबिया के कवाब।

स्वास्थ्य में- मस्तिष्क को सदा स्वस्थ, सक्रिय और स्फूर्तिदायक बनाए रखने के २४ उपाय- ५- हरी चाय की आदत डालें

बागबानी- के अंतर्गत घर की सुख स्वास्थ्य और समृद्धि के लिये शुभ पौधों की शृंखला में इस पखवारे प्रस्तुत है- ५- रबड़ का पौधा

भारत के सर्वश्रेष्ठ गाँव- जो हम सबके लिये प्रेरणादायक हैं- ५- छापर- जहाँ बेटी के जन्म लेने पर मिठाई बाँटी जाती है।

- रचना व मनोरंजन में

क्या आप जानते हैं- इस माह (मार्च में) कितने गौरवशाली भारतीय नागरिकों ने जन्म लिया? ... विस्तार से

संग्रह और संकलन- में प्रस्तुत है- जगदीश पंकज की कलम से देवेन्द्र शर्मा इंद्र के संग्रह- ''उत्तरा फाल्गुनी'' का परिचय।

वर्ग पहेली- २८६
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल और
रश्मि-आशीष के सहयोग से


हास परिहास
में पाठकों द्वारा भेजे गए चुटकुले

साहित्य एवं संस्कृति में- 

वरिष्ठ रचनाकारों की चर्चित कहानियों के स्तंभ गौरवगाथा में प्रस्तुत है प्रेमचंद-की-कहानी विचित्र होली

 होली का दिन था, मिस्टर ए.बी. क्रास शिकार खेलने गये हुए थे। साईस, अर्दली, मेहतर, भिश्ती, ग्वाला, धोबी सब होली मना रहे थे। सबों ने साहब के जाते ही खूब गहरी भंग चढ़ायी थी और इस समय बगीचे में बैठे हुए होली, फाग गा रहे थे। पर रह-रहकर बँगले के फाटक की तरफ झाँक लेते थे कि साहब आ तो नहीं रहे हैं। इतने में शेख नूरअली आकर सामने खड़े हो गये।
साईस ने पूछा- कहो खानसामाजी, साहब कब आयेंगे?
नूरअली बोला- उसका जब जी चाहे आये, मेरा आज इस्तीफा है। अब इसकी नौकरी न करूँगा।
अर्दली ने कहा- ऐसी नौकरी फिर न पाओगे। चार पैसे ऊपर की आमदनी है। नाहक छोड़ते हो।
नूरअली- अजी, लानत भेजो! अब मुझसे गुलामी न होगी। यह हमें जूतों से ठुकरायें और हम इनकी गुलामी करें! आज यहाँ से डेरा कूच है। आओ, तुम लोगों की दावत करूँ। चले आओ कमरे में आराम से मेज पर डट जाओ, वह बोतलें पिलाऊँ कि जिगर ठंडा हो जाय।
साईस- और जो कहीं साहब आ जायँ?
नूरअली- वह अभी नहीं आने का। चले आओ।...आगे-
*

कल्पना रामानी की लघुकथा
अलौकिक आनंद
*

अरविंद मिश्र का आलेख
कविता में होली के विविध रंग
*

श्याम विमल का संस्मरण
जब हम मुल्तान में होली मनाते थे

*

पुनर्पाठ में होली के अवसर पर
पुराने अंकों का संग्रह - होली विशेषांक समग्र

पिछले पखवारे-

अनूप शुक्ला का व्यंग्य
हम तुम्हें चाहते हैं ऐसे
*

धर्मवीर भारती का आलेख
वसंत के बिना
*

श्रीराम परिहार का ललित निबंध
वसंती पत्र पर लिखा निसर्ग का काव्य

*

पुनर्पाठ में अतुल अरोरा के संस्मरण
''बड़ी सड़क की तेज गली में'' का सातवाँ भाग

*

समकालीन कहानियों में प्रस्तुत है यू.ए.ई. से
बेजी जयसन-की-कहानी- कभी लौटेगा वसंत

अचानक से नींद खुली थी। कोई सपना देखा था शायद। मिसिस आर्य के होंठ सूखे थे। चेहरा भी फीका पड़ा था। खिड़की पर पर्दे के साये झूल रहे थे। कमरे में अँधेरा था। पंखा हल्की टिडिकटिक चाल चल रहा था। हल्की रोशनी, लंगड़ी खेलते हुए एक पाँव कमरे में तो एक बरामदे में रख रही थी। मिसिस आर्य ने पानी का जग उठाया। क्या देख कर जगी थी यह तो याद नहीं था। पर मन विचलित था। गिलास में पानी ड़ालते समय सोच रही थी काश घर में और कोई भी होता। खिड़की के बाहर नज़र गई थी। रात बेसुध होकर सो रही थी। हाँ चाँद जरूर सेंध लगाकर बैठा था। शायद सोती आँखों में कोई सपना डालकर जाना चाहता था। तकिये पर सिर रखा। माथा भन्ना रहा था। नींद का कहीं अता पता नहीं था। करवट बदली पर सोच कहीं अटकी खड़ी थी। चार बच्चे और सब उसकी दुनिया से दूर थे। छोटी की याद सताने लगी थी। उसके साथ झगड़ते मनते और कुछ नहीं सूझता था। थक के चूर बिस्तर तक आते-आते ही नींद घेर लेती। उठ कर अलमारी से गोली निकाली थी।...आगे-

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यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।


प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

 
सहयोग : कल्पना रामानी
 

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