वरिष्ठ रचनाकारों की चर्चित
कहानियों के स्तंभ गौरवगाथा में प्रस्तुत है
प्रेमचंद-की-कहानी विचित्र होली
होली का दिन था, मिस्टर ए.बी.
क्रास शिकार खेलने गये हुए थे। साईस, अर्दली, मेहतर, भिश्ती,
ग्वाला, धोबी सब होली मना रहे थे। सबों ने साहब के जाते ही खूब
गहरी भंग चढ़ायी थी और इस समय बगीचे में बैठे हुए होली, फाग गा
रहे थे। पर रह-रहकर बँगले के फाटक की तरफ झाँक लेते थे कि साहब
आ तो नहीं रहे हैं। इतने में शेख नूरअली आकर सामने खड़े हो गये।
साईस ने पूछा- कहो खानसामाजी, साहब कब आयेंगे?
नूरअली बोला- उसका जब जी चाहे आये, मेरा आज इस्तीफा है। अब
इसकी नौकरी न करूँगा।
अर्दली ने कहा- ऐसी नौकरी फिर न पाओगे। चार पैसे ऊपर की आमदनी
है। नाहक छोड़ते हो।
नूरअली- अजी, लानत भेजो! अब मुझसे गुलामी न होगी। यह हमें
जूतों से ठुकरायें और हम इनकी गुलामी करें! आज यहाँ से डेरा
कूच है। आओ, तुम लोगों की दावत करूँ। चले आओ कमरे में आराम से
मेज पर डट जाओ, वह बोतलें पिलाऊँ कि जिगर ठंडा हो जाय।
साईस- और जो कहीं साहब आ जायँ?
नूरअली- वह अभी नहीं आने का। चले आओ।...आगे-
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कल्पना रामानी की लघुकथा
अलौकिक आनंद
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अरविंद मिश्र का आलेख
कविता में होली के विविध रंग
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श्याम विमल का संस्मरण
जब हम मुल्तान में होली मनाते थे
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पुनर्पाठ में होली के अवसर पर
पुराने अंकों का संग्रह - होली विशेषांक समग्र |