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जब हम मुल्तान में होली मनाते थे
- श्याम
विमल
सिरायकी अथवा
मुल्तानी - भाषी जिलों (वर्तमान पाकिस्तान में ) की अविभाजित
पंजाब की धरती ब्रजभूमि सरीखी थी। वहाँ के गाँवों कस्बों में
प्रभात समय घर - घर में दधि बिलोड़न की ध्वनि के साथ कृष्ण-
लीलाओं से लबालब लोक गीतों का स्त्री-स्वर सुनाई पड़ता था।
मंगला व राजभोग के दर्शनार्थ श्रीनाथ जी के मंदिरों के पट बन्द
न हो जाएँ, इसलिए द्रुत गति से जाती हुई आबाल-वृद्ध महिलाएँ
गोपियों जैसी लगती थीं। घंटे मृदंग- मँजीरों से गालियाँ
गुंजायमान रहती थीं। ऐसी दैनिक चर्चा के अतिरिक्त बसन्त ऋतु के
आते ही यह चहल-पहल बढ़ जाती। होली के दिनों की तो बात ही क्या।
सफेद मलमल की चुनरियाँ नानाविध रंगों के छींटों से झिलमिला
उठती थीं। मनमें उल्लास होता, पाँवों में गति होती। होरी
खेडणहारे कृष्ण के दर्शनों से वंचित न होने की जल्दी में नंगे
पाँव ही दौड़ना होता उन्हें। ताल-मृदंग-झाँझ की झंकार का समन्वय
भक्तिनों के पैरों में अनायास थिरकन पैदा कर देता। रंग की
पिचकारियाँ फूट पड़तीं, गुलाल के बादल बन उड़ते। उन पर अबीर की
विधुत्छ्टा सी झिलमिल कर उठती। रास का समाँ बंध जाता। कहीं सूर
के पदों का गान तो कहीं मिठड़ी बोली के गीत गाये जा रहे होते।
होली का पर्व ऋतुपर्व के साथ-साथ कृष्ण-भक्ति का प्रतिमूर्त ही
बन जाता। नृत्य में, गीतों में, रागरंग में कृष्ण-भक्ति कि
रसधार बह पड़ती। होली पर्व कृष्ण राधामय हो जाता।
बालपन में अपनी माँ से सुने हुए मुलतानी बोली के होली गीतों
में से तीन गीत यहाँ प्रस्तुत हैं –
हो रँगों रंग गुलाबी अतर-गुलाल से
हो गुलाल से हो हंबीर से, हो रंगोरंग
अंदरूँ निकली चत्तर नाल (नारी)
होली खेडण सखियाँ नाल
हाँ ते मोहन पकड़ लई मेडी बाँह
ते चल्लो बाग में, हो ...
मुख पर उड़त हंबीर गुलाल
अंदरूँ निकालिए लालोलाल
हाँ, ते मोहन भर मारी पिचकारी
ते सुंदर श्याम ने। हो...
अर्थात गुलाबी रंग, इत्र, गुलाल और अबीर से सभी को रँग डालो।
अपनी तरफ से तो बड़ी चातुरी के साथ घर से निकली मैं सखियों के
साथ खेलने को कि मोहन ने मेरी बाँह पकड़ लई और कहा, चलो चलें
बाग की तरफ होली खेलने। मुख पर अबीर व गुलाल फैला है। अंदर से
लालोलाल होकर बाहर को निकली ही थी कि मोहन श्यामसुन्दर ने भर
पिचकारी दे मारी। मेरा ठाकुर तो श्याम सरदार है।
दुसरे गीत में ननद अपनी भाभी को होली खेलने कृष्ण के पास जाने
नहीं दे रही तो भाभी ननद की खुशामद-मिन्नतें करती हुई कहती है—
मेडी अच्छी वे निनाणवा खेडण दे
नी मैनू होली ए
भाग भरी ए निनाणवा खेडण दे
नी मैनू होली ए...
अर्थात आरी मेरी ननद, तू कितनी अच्छी है। मुझे होली खेलने को
जाने दे न! तू बड़ी भाग्यों भरी है, मुझे खेलने जाने दे न!
बुरी सास से, हठीली ननद से बचकर और पतिदेव से चोरी-छिपे भागकर
वह होली खेलने चल दी। पूछने पर सखियों को कारण यह बतलाया-
सस्स मेडी बुरी है निनाण हठीली
आइयाँ खसम को लूँ चोरीए मेडी अच्छी..
( मेरी सास बुरी, मेरी ननद हठीली है, मैं अपने पति को भी छोडकर
चोरी-चोरी आई हूँ।)
इन्नू आन श्याम मनोहर
उन्नू राधे गोरिए, मेडी अच्छी वे निनाणवा।
(इधर श्याम मनोहर आ गए और उधर से राधा गौरी भी पहुँच गई होली
खेलने। मेरी अच्छी ननद फिर क्या रंग जमा खूब...|)
उडत गुलाल लाल भये बादल
भर पिचकारियाँ छोड़िये
वजण ताल-मृदंग-झाँझ तब
डफलन दी घनघोरिए।
भल्ला भाभी नच्च रहए सोणी जोड़िये।
(गुलाल के उड़ने से लाल बादल बन गए। भर-भर पिचकारियाँ छोड़ी जाने
लगीं। ताल-मृदंग-झाँझ बज उठे। डफली भी घनघोर गूँजने लगी। ननद
कहने लगी—मेरी अच्छी भाभी, कैसी सुंदर जोड़ी (राधा-कृष्ण) नाच
रहे हैं।)
चौवा चन्नण अवरि अगरजा
केसर भरिए कटोरिए
कृष्ण जीवण लच्छीराम दे प्रभु आ
जुग जीवे ईया जोड़िये
भल्ला भाभी, अटल राहवे ईया जोड़िये
(तरल चंदन-अगरू-केसर से भरी कटोरियाँ फैलाई जा रही हैं। कृष्ण
भक्त लच्छीराम ( इस गीत के रचयिता) कहते हैं कि यह कृष्ण व
राधा की जोड़ी जुग-जुग अटल रहे।)
यह तीसरा गीत गोपी की क्रीड़ा का द्योतक है—
श्याम संग खेडण होली वे तन-मन रंग भर्या।
सच्चे संग खेडण होली वे तन-मन रंग भर्या।
शीश भराँ वे गुलाब ही रंग भराँ पिचकारी
भर-भर माराँ श्याम कूँ वे..
एक वे लाल संग खेडण आईं वे तन-मन रंग भर्या
शीश भराँ वे गुलाब दी रंग भराँ वे सुराई
की कीता मैं श्याम कूँ वे..
ए वे लाल सब खेडण आईं, वे तन-मन रंग भर्या
शीशी भराँ वे गुलाब दी रस भरा वे पियाला
भर-भर देवाँ श्याम कूँ वे..
ए वे लाल पीवे बन्सिवाला, वे तन-मन रंग भर्या
चोपड़ खेडां श्याम नाल वे दा रखां मैं भारी
जीत गिदां मैं श्याम कूँ वे..
ए वे लाल पिया दी मचाई वे तन-मन रंग भर्या
हीये दी मैं क्या डसावाँ मन बन्या वे तंबूरा
होली खेडां श्यान नाल वे
ए वे लाल सब कारज पूरा वे तन-मन रंग भर्या
अर्थात तन-मन में उलास भरा हुआ है। मैं सच्चे श्यान के साथ
होली खेल रही हूँ। गुलाब जल से शीशी भरती हूँ और रंग से
पिचकारी बार-बार भरकर उसे श्याम पर छींटती हूँ। सभी बालकृष्ण
को देखने आई हैं। सभी के तन-मन में रंग और उल्लास भरा है।
गुलाब भरी शीशी व रंग भरी सुराई उंडेलकर मैंने श्याम को क्या
से क्या बना दिया है। रसभरा प्याला भर-भर श्याम को देती हूँ तो
वह बंसीवाला उसे पीता जाता है। श्याम के साथ चोपद खेलती हूँ,
भरी दाँव लगाती हूँ, जीत जाती हूँ। हृदय की क्या बताऊँ ! मन
मेरा तंबूरा बना है, श्याम से होली खेली और श्याम ने मेरे सारे
कारज पूरे कर दिए।
होली के अवसर पर घंटों गीत गाए जाते, संगत जमी रहती, तरह तरह
के स्वाँग रचकर हँसी-ठट्ठा किया जाता, कृष्ण-लीलाएँ की जातीं,
रंग तथा गुलाल से गलियाँ रँग जातीं। इन दिनों वह भूमि, जो अब
पाकिस्तान के हिस्से में चली गई है, दूसरी ब्रजभूमि हो जाती
थी। उस भूमि पर गाए जानेवाले वे
लोकगीत आज मेरी स्मृतियों के कोष में सुरक्षित हैं। मैंने इस
धरोहर को संस्कृति प्रेमी जनों तक पहुँचाने, अपने जीवनकाल में
सुरक्षित रखने का धर्म निभाया है। इसे अपना दायित्व समझकर
संस्कृति प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना मेरा धर्म है। |