गौरवगाथा में प्रस्तुत है
फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी
ठेस
खेती-बारी
के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको
बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं। इसलिए, खेत-खलिहान की
मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा,
उसको बुला कर? दूसरे मजदूर खेत पहुँच कर एक-तिहाई काम कर
चुकेंगे, तब कहीं सिरचन राय हाथ में खुरपी डुलाता दिखाई पड़ेगा
- पगडंडी पर तौल तौल कर पाँव रखता हुआ, धीरे-धीरे। मुफ्त में
मजदूरी देनी हो तो और बात है।
...आज सिरचन को मुफ्तखोर, कामचोर या चटोर कह ले कोई। एक समय
था, जबकि उसकी मड़ैया के पास बड़े-बड़े बाबू लोगो की सवारियाँ
बँधी रहती थीं। उसे लोग पूछते ही नहीं थे, उसकी खुशामद भी करते
थे। '...अरे, सिरचन भाई! अब तो तुम्हारे ही हाथ में यह कारीगरी
रह गई है सारे इलाके मे। एक दिन भी समय निकाल कर चलो।
कल बड़े भैया की चिट्ठी आई है शहर से - सिरचन से एक जोड़ा चिक
बनवा कर भेज दो।'
मुझे याद है... मेरी माँ जब कभी... आगे-
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प्रेरक प्रसंग
जीवन
जैसे बाँस
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लोकरंग के अतर्गत
छत्तीसगढ़ का बाँसगीत
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अर्बुदा ओहरी की कलम से
बाँस
की कहानी
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पुनर्पाठ में डॉ. डी. एन तिवारी
का आलेख-
चिर सखा है बाँस |