छत्तीसगढ़ का
बाँसगीत
- संकलित
बाँस गीत
छत्तीसगढ़ का लोकगीत है। इसके गायक मुख्यत: रावत या अहीर जाति
के लोग हैं। छत्तीसगढ़ में राउतों की संख्या बहुत है। राउत
जाति यदुवंशी और श्री कृष्ण के वंशज माने गए हैं। ऐसा समझा
जाता है कि ग्वाले जब गाय को चराने के लिये जंगलों में ले जाते
थे, उस समय मनोरंजन के लिये इस लोक शैली का विकास हुआ होगा।
गायक तथा वादक
बाँस गीत में एक प्रमुख गायक तथा दो सह गायक होते हैं, जिन्हें
रागी और डेही, टेही या टेहीकार कहा जाता है। गायक लोक कथाओं को
गीत के माध्यम से प्रस्तुत करता है। केवल गायक को ही उस लोक
कथा के शब्द याद होते हैं। रागी आलाप और शब्द दोहराने में
प्रमुख गायक का साथ देता है। यानि वह धुन और संगीत को ठीक से
समझता है। डेही गायक तथा रागी को प्रोत्साहित करते हुए कुछ
शब्द बोलता है, जैसे "धन्य हो" "अच्छा" "वाह वाह"। टेहीकार
विशेष गुण और स्वर प्रतिभा संपन्न व्यक्ति होता है जो लोकोक्ति
एवं मुहावरों तथा स्वरचित दोहों को पिरोकर श्रोताओं को मुग्धकर
बाँधने का कार्य करता है।
इनका साथ देने के लिये दो बाँस वादक भी होते हैं। वादक एक
अनोखे वाद्य यंत्र का प्रयोग करते है जो बाँस का लगभग चार फुट
लम्बा टुकड़ा होता है। शंख की तरह फूँककर बाँस बजाने वाले को
बँसकहार की संज्ञा दी जाती है और समाज में इनका विशिष्ट स्थान
होता है। बँसकहार बाँस को बजाता है, और जहाँ पर वह रुकता है,
वहीं से दूसरा वादक उस स्वर को आगे बढ़ाता है। इसके बाद ही
गायक का स्वर सुनाई पड़ता है। यह बाँस अपनी विशेष धुन से लोगों
को मोहित कर देता है।
बाँस वाद्य बनाने की प्रक्रिया-
इसे बनाने की प्रक्रिया में काफी तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता
होती है जो स्थानीय विशेषज्ञों के पास पारंपरिक रूप से सीखा और
सिखाया जाता है। बँसकहार बाँस का मर्मज्ञ होता है, वह जंगल या
गाँव से ऐसे बाँस को चुनकर लाता है जो न तो ज्यादा मोटा हो और
न पतला। यह आगे की ओर जरा सा मुड़ा हुआ होता है जिसे स्थानीय
भाषा में ठेडगी बाँस की संज्ञा दी जाती है। हालाँकि बाँस पोला
होता है लेकिन उसमें गाँठें होती हैं जिन्हें लोहे की सरिया को
गर्म कर भेदा जाता है ताकि स्वर आसानी से पार हो सके। इसके बाद
लगभग छ: इंच की दूरी पर एक बड़ा छेद बनाया जाता है जिसे
ब्रह्मरंध कहते हैं इसे मोम (मैंद) लगाकर दो भागों में विभक्त
किया जाता है तथा तालपत्र से आधा ढँक दिया जाता है जिससे विशेष
स्वर पैदा होता है। बाँस के मध्य में चार छेद किये जाते हैं
इन्हें धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष का परिचायक बताया जाता है और
इस तरह शुरु होता है नाद ब्रह्म को साधने का उपक्रम। छत्तीसगढ़
में मालिन जाति का बाँस सबसे अच्छा माना जाता है। इस बाँस में
स्वर भंग नहीं होता है। इसलिये अधिकतर बाँस गीत के साथ बजाए
जाने वाले वाद्य को इसी बाँस से बनाया जाता है। जैसे बाँसुरी
वादक की उँगलियाँ सुराखों पर थिरकती हैं, उसी तरह बाँस वादक की
उँगलियाँ भी सुराखों पर थिरकती हैं और विशेष धुन निकलने लगती
है।
बाँस गीत की विषयवस्तु-
बाँस गीत की विषयवस्तु लोक कथाएँ हैं। छत्तीसगढ़ के राउस बहुत
परिश्रमी होते हैं। प्रातः चार बजे से उठकर उनकी दिनचर्या शुरू
हो जाती है। वे जानवरों को चराने ले जाते हैं और जब लौटते हैं
तब सानी पानी और गाय बकरी की देखभाल में अपना जीवन व्यतीत करते
हैं। उनके इस परिश्रमी जीवन शैली की झलक उनके लोक गीत में भी
देखी जा सकती है। इनमें अहीर जाति के सुखदुख व्यक्त किये जाते
हैं। बहुत सारी लोक कथाएँ हैं जिनमें - शीत बसन्त, भैंस सोन
सागर, चन्दा ग्वालिन की कहानी, अहिरा रुपईचंद, चन्दा लोरिक की
कहानी आदि प्रमुख हैं। क्योंकि बाँस गीत अहीर जाति की धरोहर है
इसलिये गीत के पात्र, नायक और नायिका रावत, अहीर ही होते हैं।
गाय भैंस पर आधारित कथाओं की संख्या अधिक है। बाँस गीतों की
कहानियाँ लंबी होने के कारण एक ही कहानी पूरी रात तक चलती है।
कभी कभी तो कई रातों तक एक ही कथा जारी रहती है।
बाँस गीत का आयोजन-
बाँस गीत का आयोजन सादगी से भरपूर होता है। इसमें किसी विशेष
आर्थिक प्रयोजनों की आवश्यकता नहीं होती। एक दरी बिछाकर
बाँस-गीत के कलाकारों को सम्मानपूर्वक विराजित करा दिया जाता
है और उनके सम्मुख श्रोतागणों को बिठा दिया जाता है और शुरु हो
जाता है रसास्वादन का दौर। गीत प्रारंभ होने से पहले गीतकार
अपने इष्ट देव एवं देवताओं का स्मरण करता है और प्रार्थना करता
है कि उसके उत्तरदायित्व के निर्वहन में कोई व्यवधान उत्पन्न न
हो। इसे सुमरनी कहते हैं। जिन देवी देवताओं से प्रार्थना की
जाती है, वे हैं- सरस्वती, भैरव, महामाया, बूढ़ा, महादेव,
गणेश, चौसंठ योगिनी, बेताल गुरु इत्यादि। कभी कभी गायक इसके
बाद दोहों के माध्यम से अपने कुल गौरव का बखान भी करते हैं।
इसके पश्चात बाँसगीत की प्रस्तुति प्रारंभ होती है। गीत का पद
खत्म होते ही टेहीकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए टेही
लगाता है रामजी-रामजी सत्य हे और हास्य उत्पन्न करने के लिए
स्वरचित आशु कविता उद्धृत करता है।
बाँस-गीत अधिकतर परिणयोत्सव, माँगलिक पर्व पर आयोजित होते हैं
किन्तु यह एक ऐसा लोकगीत है जो शोकमय वातावरण में जैसे दशगात्र
एवं तेरहवीं के समय भी आयोजित होते हैं। इसका एक मनोवैज्ञानिक
कारण भी है। जो परिवार शोक संतप्त होता है उसका मन इन गीतों
में समाहित आध्यात्मिक एवं उपदेशात्मक तथ्यों के द्वारा अपने
मन में शांति और सहनशक्ति का अनुभव करने में समर्थ हो जाता है।
ऐसे अवसरों पर बाँस गीत में छत्तीसगढ़ के जनजीवन से संबंधित
गीत, यादव वीरों की गाथा, रामायण के दोहे, कबीर के दोहे तथा
आध्यात्मिक गीतों का समावेश होता है, इन गीतों में लोकभाषा में
गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों का भी प्रतिपादन किया जाता है। इस
प्रकार बाँस गीत मात्र लोकगीत ही नहीं अपितु लोक जीवन के सरल,
सहज, सादगी पूर्ण संस्कारों का भी द्योतक है, इसके श्रोताओं
में महिलाएँ, बच्चे, पुरुष आदि सभी होते हैं।
१८ मई २०१५ |