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फूल आए
हैं कनेरों में
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बुद्धिनाथ मिश्र
नवगीत विधा के वरिष्ठ
कवि माहेश्वर तिवारी से मेरा बादरायण संबंध है। इस
संबंध के बारे में शायद आप नहीं जानते होंगे। यह
संस्कृत के विद्वत् समाज का एक प्रचलित शब्द है, मगर
कॉलेजों में संस्कृत पढ़ानेवाले प्रवक्ता शायद ही इसका
अर्थ बता सकें। कुंजी पढ़कर पास हुए और बृहत् दक्षिणा
देकर शिक्षा जगत में घुसे संस्कृत अध्यापकों ने तो यह
शब्द सुना भी नहीं होगा। दरअसल, इसके पीछे एक छोटी-सी
कहानी है। एक सज्जन घर से किसी रिश्तेदार के गाँव जा
रहे थे। बीच रास्ते में ही शाम हो गई। रात में यात्रा
करना निषिद्ध था। जिस गाँव से गुजर रहे थे, वह नितांत
अपरिचित। किसके यहाँ जाकर रात्रि-विश्राम करें, यह
विकट प्रश्न था। जब अँधेरा छा गया और शाम का पहला तारा
दिखाई पड़ने लगा, तब यात्रा रोककर वह एक दालान पर रुक
गए। परिवार के पुरुष खेतों में काम करने गए थे। आँगन
में गृहणियाँ थीं और बच्चे थे। बच्चों ने देखा कि
दालान पर कोई अपरिचित अतिथि बैठे हुए हैं। उन्होंने
जाकर पूछा कि आप कौन हैं। विकट अतिथि ने कहा कि,
'तुम्हारा संबंधी हूँ। तुम बच्चे हो, मुझे नहीं
पहचानोगे।'
संयोग से, उस दिन खेतों में काम ज्यादा था, और कोई
सरकारी नौकरी तो थी नहीं कि काम पूरा हो न हो, घड़ी
देखकर लोग घर भागें। सो, उनके आते-आते काफी देर हो गई।
मनु महाराज का निर्देश है कि दरवाजे पर आए अतिथि को
सबसे पहले जिमाना चाहिए। गृहणियों ने अतिथि को भोजन
करने के लिए बहुत आग्रह किया, मगर अतिथि ने सबके साथ
ही भोजन करने की इच्छा जताई। वे लोग जब खेत से लौटे,
तब तक बहुत देर हो गई थी। उनके विलंब के कारण दरवाजे
पर एक अतिथि या अपरिचित रिश्तेदार भूखा बैठा है, यह
जानकर गृहपति को अपराधबोध हुआ। उसने अतिथि को अपने साथ
सादर बैठाकर छककर भोजन कराया और यह सोचकर कि बाकी
बातें सबेरे करेंगे, उनके सोने की तत्काल व्यवस्था
करवा दी। सबेरे धूप निकलने से पहले ही अतिथि जाना
चाहते थे, मगर गृहपति का आग्रह था कि बिना जलपान कराए
हम आपको जाने नहीं देंगे। विवश होकर अतिथि ने पास के
पोखरे में जाकर स्नान किया, संध्या-वंदन किया। तब तक
जलपान तैयार था। अतिथि ने भरपूर जलपान किया। जब जाने
लगे, तब गृहपति ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया - 'हम
लोग आपको पहचान नहीं पाए। आपने बच्चों को बताया कि आप
हमारे संबंधी हैं। हम जानना चाहते हैं कि आप किस गाँव
के संबंधी हैं, क्योंकि आज तक हमने कभी आपको देखा
नहीं।'
यह सुनकर अतिथि मुस्कुराए और बोले - हमारे आपके बीच
बादरायण संबंध है। जैसे आपके दरवाजे पर बेर (बदरी फल)
का पेड़ है, वैसे ही मेरे दरवाजे पर भी बेर का पेड़ है।
चूँकि रात हो रही थी और पूरा गाँव मेरे लिए अपरिचित
था, इसलिए मैने यह संबंध निकाला कि कुछ तो समानता है
मेरे आपमें। यह सुनकर सबने जोर का ठहाका लगाया और
अतिथि को सादर विदा किया, यह कहकर कि जब संबंध स्थापित
हो ही गया है, तो जब कभी इधर से गुजरें, यहीं
रात्रि-विश्राम करें।
मैं भी अक्सर इसी संबंध का लाभ उठाकर जब भी मुरादाबाद
से गुजरता हूँ और आवश्यकता पड़ी तो रात्रि-विश्राम करने
माहेश्वर भाई के घर चला जाता हूँ। हमारे मामले में
दोनों के दरवाजे पर कनेर का पेड़ है। पीले कनेर का पेड़।
कनेर के फूल तीन रंगों के होते हैं - पीला, सफेद और
लाल। लेकिन अधिकतर पीले फूल वाले कनेर के पेड़ ही दीखते
हैं। माहेश्वर भाई को कनेर इतना पसंद आया कि उन्होंने
न केवल अपने घर के द्वार पर इसे लगाया, बल्कि अपने एक
नवगीत संग्रह का नाम ही रख दिया - 'फूल आए हैं कनेरों
में'। इससे पहले वे एक गीत-संग्रह दे चुके थे -
'हरसिंगार कोई तो हो'। मगर जब दूरदर्शन वाले कवि कृष्ण
कल्पित ने फरमा दिया कि 'फूल हूँ हरसिंगार का यारो। और
टकराओगे तो पत्थर हूँ', तब घबरा कर माहेश्वर भाई ने
हरसिंगार की तमन्ना करते हुए कनेर का पेड़ रोप लिया। अब
जब दरवाजे पर कनेर फूल रहा हो और कवि निठल्ला बैठा हो,
तो उसके अंग-प्रत्यंग को निहारेगा ही। पूरे हिंदी
काव्य-जगत में किसी कवि ने कनेर का इतना सूक्ष्म
निरीक्षण नहीं किया है। आप भी देख लीजिए न। हाथ कंगन
को आरसी क्या?
फूल आए हैं कनेरों में।
तोड़ने से दूध झरता है
छोड़ने से जहर फरता है
तैरती चुप्पी सवेरों में।
एक सोने की चिलम-सी डाल में
बँधी लटकी है हरे रूमाल में
गजल हैं दो-तीन शेरों में।
कनेर का पीला फूल 'सोने की चिलम' बनकर पतले-पतले
पत्तों के हरे रूमाल में बँधा लटका है। जिसे यह मालूम
है, वह कभी गुच्छों में फूले करबीर के फूलों को कनेर
नहीं कहेगा। पूरे हिंदी जगत् में कनेर और करबीर फूल को
एक ही माना जाता है, जबकि दोनों का मूल-गोत्र बिलकुल
भिन्न है। यहाँ तक कि ज्ञानमंडल, वाराणसी के 'वृहत
हिंदी शब्दकोश' में भी कनेर के पर्याय के रूप में
करबीर को डाल दिया है। और जब गंगोत्री में ऐसी भ्रांति
डाल दी गई है, तब आगे तो यही होना ही था। इसलिए,
अरविंद कुमार जी के थिसारस में और नेट पर विकिपीडिया
में भी कनेर और करबीर एक ही मान लिए गए हैं। लेकिन
बंगाल के लोगों को यह भ्रम नहीं है। रवींद्रनाथ ठाकुर
ने जब 'रक्तकरबी' नाटक लिखा, तब उनके सपने में भी
'सोने की चिलम' वाला कनेर नहीं आया होगा। मगर जब
उन्हीं के सान्निध्य में वर्षों रहनेवाले आचार्य
हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उसका हिंदी अनुवाद किया, तो
उसका नाम 'लाल कनेर' कर दिया! बंगला में शेफाली
(हरसिंगार) की तरह करबी (करबीर) को भी स्त्रीलिंग में
प्रयोग किया जाता है, क्योंकि इससे मसृणता संकेतित
होती है। रवींद्रनाथ ने भी नायिका नंदिनी को 'रक्त
करबी' कहा है। यह 'लाल कनेर' बड़ा अटपटा तब लगता है, जब
नंदिनी कहती है - 'रंजन कभी-कभी मुझे दुलराकर कनेर
(करबी?) कहा करता है, मालूम नहीं क्यों।' या नंदिनी का
अपने लिए प्रयुक्त वाक्य - 'लाल कनेर की मंजरी'। मुझे
अचरज होता है कि मंजरी जब करबीर फूल की होती है और वह
प्रायः लाल होती है, तब आचार्य जी ने ऐसा बेढब अनुवाद
क्यों किया? आखिर कनेर की कली को मंजरी तो नहीं कहा जा
सकता। इसके आगे भी गोकुल नंदिनी को संबोधित कर कहता है
- 'देखकर जान पड़ता है कि तुम लाल रोशनी की मशाल हो।'
यह 'लाल रोशनी की मशाल' करबीर ही हो सकता है, 'सोने की
चिलम' जैसा कनेर नहीं। इसी नाटक मॆं एक जगह नेपथ्य से
आवाज आती है - 'तुम्हारा रंजन जिस छुट्टी (?) को ढोता
फिरता है, उसे लाल कनेर के मधु से कौन भरे रहता है, यह
क्या मैं नहीं जानता। नंदिनी, तुमने तो मुझे खाली
छुट्टी की खबर दी है, उसे भरने के लिए मैं मधु कहाँ
पाऊँगा?'
रवींद्रनाथ के 'लाल कनेर' नाटक का नाम बहुत पहले-से
सुन रखा था, मगर यह 'रक्त करबी' का अनुवाद है, यह बाद
में जाना। मैं उस मूल नाटक को बँगला में पढ़ चुका था और
कमल के रंग के करबीर फूल को नायिका के लिए स्त्रीलिंग
में 'करबी' के प्रयोग के काव्य-सौंदर्य पर रीझ चुका
था। मगर युवती करबी (नंदिनी) को 'लाल कनेर' कहना असहज
नहीं बना देता है? ऐसी बात नहीं कि करबीर उत्तर प्रदेश
में नहीं होता है। करबीर और कनेर के पत्ते एक ही
आकार-प्रकार के जरूर होते हैं, मगर कनेर के पत्ते
कच्चे लँगड़े आम की तरह हल्का हरापन लिए होते हैं, जबकि
करबीर के पत्ते भदैया आम की तरह गाढ़े हरे रंग के होते
हैं। करबीर फूल अधिकतर लाल रंग के होते हैं और गुच्छे
में खिलते हैं। करबीर की झाड़ी होती है, जबकि कनेर का
एकल पेड़ होता है। दोनों को एक फूल समझने का भ्रम कैसे
पैदा हो गया?
पिछले दिनों राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डेन में एक
सामान्य नागरिक की भाँति वसंत में खिले फूलों को देखने
गया, तो वहाँ भी देखा कि करबीर की झाड़ी पर नामपट्टिका
'कनेर' की लगी हुई है। हैरान रह गया। मैं औद्यानिकी का
विशेषज्ञ नहीं हूँ, मगर यह प्रश्न मुझे बुरी तरह
कुरेदने लगा। इस संबंध में मैने शांति निकेतन के एक
परिचित वरिष्ठ अधिकारी को पत्र भी लिखा, मगर उसका जवाब
देना तो दूर, उसकी पावती देना भी उन्होंने जरूरी नहीं
समझा। मैंने सोच लिया कि शांति निकेतन में भी अब लोग
नौकरी करते हैं, मिशन नहीं चलाते हैं। केंद्रीय
साहित्य अकादमी ने यह नाटक अपने ग्रंथ 'रवींद्र रचना
संचयन' में छापा है। उससे पूछने पर टका-सा जवाब मिला
कि 'हमने पहले से किए अनुवाद को ही छापा है।' इसलिए
उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। अब चूँकि अनुवादक में
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम है, इसलिए उस पर
ननु नच करने या मीन मेख निकालने की हिम्मत भी कोई नहीं
कर सकता।
आचार्य जी मेरे भी प्रणम्य हैं और उनके सहज पांडित्य
के सामने बड़े-बड़ों को निष्प्रभ होते मैंने बनारस की
साहित्यिक गोष्ठियों में स्वयं देखा है। वे गलत नहीं
हो सकते, ऐसा मेरा विश्वास था। लेकिन कहीं कुछ गड़बड़ी
है, यह बात मुझे बेचैन कर रही थी। आचार्य द्विवेदी
ज्योतिषाचार्य थे यानी संस्कृत के पंडित थे, इसलिए
उनका आधार जरूर संस्कृत रहा होगा। यह अनुमान मुझे
संस्कृत के 'अमरकोश' तक ले गया। 'अमरकोश' ने मुझे
बिलकुल चौंका ही दिया, क्योंकि संस्कृत में कर्णिकार
का अर्थ करबीर और करबीर का अर्थ कनेर है। संस्कृत
शब्दों का अर्थ लोकभाषाओं में आकर बिलकुल उलट गया!
जिसे हम करबीर कहते हैं,वह 'अमरकोश' की दृष्टि में
कर्णिकार है और जिसे कनेर कहते हैं, वह संस्कृत में
करबीर है। 'अमरकोश' में कर्णिकार को 'द्रुमोत्पलः
कर्णिकारः' कहा है, अर्थात कर्णिकार वृक्ष पर
खिलनेवाला कमल है। करबीर का रंग बिलकुल कमल की तरह
होता है। दूसरी ओर 'करबीरे हयघातकः' है, अर्थात करबीर
का जहरीला फल खाने से घोड़ा मर जाता है। यह जहरीला फल
कनेर में होता है, करबीर में कतई नहीं। माहेश्वर भाई
ने भी कहा है - 'छोड़ने से जहर फरता है।' इसका मतलब यह
कि संस्कृत के करबीर को लोकभाषा ने कनेर बना दिया और
कनेर को करबीर। उ.प्र. में भले ही दोनों फूलों को कनेर
कहा जाता हो, मगर पूर्वी भारत की सभी लोकभाषाओं में
करबीर 'द्रुमोत्पल' है, और कनेर 'हयघातक'। बंगला में
आदर (दुलार) और अभिमान (रूठना) जैसे शब्द और मैथिली
में जिज्ञासा (मरणोपरांत पूछताछ) और कथा (अपशब्द) जैसे
शब्द अपने संस्कृत अर्थ को भूल चुके हैं। इसलिए हिंदी
में अनुवाद करते समय इन परिवर्तित अर्थों पर ध्यान
देना भी आवश्यक है।
आचार्य द्विवेदी ने ही कभी कहा था कि परंपरा तभी आगे
बढ़ती है, जब पुत्र पिता की त्रुटियों को संशोधित कर
दे। क्या हम उनके इसी मंत्र का अनुसरण करते हुए 'लाल
कनेर' को 'रक्त करबी' या 'लाल करबीर' नहीं कर सकते और
फुटनोट में इस शब्द के काव्य-सौंदर्य से पाठकों को
परिचित नहीं करा सकते? मुझे इतना तो यकीन है कि करबीर
और कनेर अलग-अलग फूल हैं और किसी नायिका को 'लाल कनेर'
कहना बहुत अटपटा भी लगता है। स्रोतभाषा के शब्दों के
मर्म तक न पहुँचने पर इस तरह की भूलें हो ही जाती हैं।
किसी अनुवादक ने रवींद्रनाथ की एक कहानी के अनुवाद में
बंगाल के छोटे-छोटे पोखरों में 'हंस' तैरते भी दिखा
दिया है, जबकि बँगला में 'हाँस' बत्तख को कहते हैं।
यदि उसे मालूम होता, तो वह 'हाँस' का हिंदी अनुवाद
'हंस' नहीं, बत्तख करता।
कनेर के फूल गर्मियों में ज्यादा फूलते हैं। मेरे
द्वार का पीला कनेर भी खूब खिला है। मेरे पड़ोसी ने
अपने घर के सामने करबीर की झाड़ी लगाई है, जिसके फूलों
का रंग सफेद है। दिल्ली में करबीर और कनेर दोनों
हिल-मिलकर डिवाइडर का काम करते हैं। उन्हें काट-छाँटकर
ऐसा बना दिया जाता है कि उनकी डालों पर कभी फूल आ ही
नहीं पाते। उनकी स्थिति महानगरों में आकर फुटपाथों पर
सोनेवाले किसानों जैसी है। फैलकर बैठने के लिए कोई जगह
ही नहीं है उनके लिए। उन कटे-छँटे कनेरों को देखता हूँ
और अपने गाँव के पुराने पोखर के मुहाने पर फैले
छायादार कनेर वृक्ष को याद करता हूँ, तो लगता है कि
गाँव का कोई जमींदार शहर में आकर चपरासी की नौकरी करने
लगा हो।
११ मई २०१५ |