वह
इन दो सालों के जीवन में पूरी तरह बदल गया। अकेलेपन की आदत
भी उसे पड़ ही गई। भले ही काफी परेशानी के बाद। आदमी
मजबूरन मजबूत हो जाता है। न हो तो क्या करे? क्या दीवालों
से अपना सिर पीटे या जिस-तिस को फोन कर अपना रोना गाना
सुनाता जाए - यह जानते हुए कि सामनेवाले ने कान से फोन
हटाकर बगल में रख दिया है? सच पूछा जाए तो वह इतना मजबूत
कभी नहीं था। दीपा के रहते भी नहीं। उसे मालूम है कि अब
जीवन में न बड़े दुख होंगे और न ही बड़े सुख। अब न कोई डर
बचा है न कोई बडी उम्मीद।
अगर आज कोई उससे पूछे कि उसके जीवन में किसी बात का अफसोस
है क्या, तो उसके लिए बताना मुश्किल हो जाएगा। अमेरिका से
एडवोकेट बाबू ने बुला लिया, तो क्या? उसे खुद मालूम है कि
अमेरिका उसके लिए ठौर नहीं बन सकता था। वह तो मन ही मन तरस
खाता है उन लोगों पर जो वहीं रह गए और अब चाहकर भी वापस
नहीं आ सकते। उनके बीवी बच्चे ही तैयार नहीं होंगे - "हीट
एंड डस्ट" और "इनफेक्शन" भरी इस धरती पर लौटने के लिए। मरा
न वह अभी हालीवुड का फिल्म मेकर समरेन्द्र किल्ला उर्फ
सैमकी बम्बई में अकेला। परिवार ने कह दिया होगा, तुमको
जहाँ जाना हो जाओ, जो करना हो करो, हम तो यूरोप की सीमा से
उधर पूरब की तरफ नहीं जाएँगे। चूतिया तो वह सैमकी था,
जिसने यह नौबत आने दी। सही वक्त पर अमेरिका से निकल जाओ तो
ठीक, वरना बड़े होते बच्चे और उनके पीछे उनकी माँ वहाँ से
आदमी को कभी निकलने नहीं देंगे।
पिछले साल जब रोहित के पास वह अमेरिका गया था तो जानकीदास
तेजपाल मैनशन में ही बड़ा हुआ पहले चौक का एक बंदा उसे एक
रेस्टोरेंट चलाता मिल गया था। क्या नाम था उसका? शक्ल तो
याद आ गयी क्योंकि ऐसी रोनी सूरत तो अमेरिका में मिलनी
दुर्लभ है। उसके चेहरे पर बराबर ऐसा भाव था जैसे उसे जोर
की हाजत हो रही हो और वह टायलेट न जा पा रहा हो। शायद विजय
नाम था। माँ कभी कभी उसे विजय जैन के बगल के कमरे में
रहनेवाले बालानंद पंडित को किसी चीज का मूहूर्त दिखाने के
लिए बुलाने भेज देती, तो वह हमेशा इसी तरह विजय को और उसके
भाइयों को उघड़े बदन देखता। वे लोग छह सात भाई बहन थे और
साथ में उनके दादा-दादी भी रहते थे। एक छोटे कमरे की टाँड
या दुछत्ती पर सोते। जाड़े के दिनों में ही वे पैंट के ऊपर
के कपड़े पहनते सारे बच्चे वही एक थान से बनवाई बच्चे की
नीली शर्ट और उसके ऊपर स्कूल का नीला स्वेटर। उनमें से कोई
एक बार रात को टाँड से सोते हुए गिर गया था, उसका नाम
टंडला हो गया।
वह विजय को अमेरिका में इसलिए भी पहचान गया था क्योंकि
विजय के एक गाल पर गहरा काला जन्म का निशान था। रोहित उसे
कुछ गमगीन देखकर एक इंडियन रेस्टोरेंट में ले गया था, जहाँ
बढिया खाना मिलता था। दीपा के जाने बाद वह पहली बार
अमेरिका आया था। इंडियन आदमी और गाल पर और गाल पर वही काला
निशान देखकर जयगोविंद ने विजय जैन को पहचान लिया था। विजय
के चेहरे पर निसान देखकर ऐसी खुशी हुई, जिसकी उम्मीद
जयगोविंद ने सपने में भी नहीं की थी। वह बड़ी जिद कर उसे
अपने घर ले गया था जहाँ उसने अपनी बीबी बच्चों और अपनी
बड़ी गाड़ी से उसे मिलाया था। बीएमडब्ल्यू थी और वह भी कोई
ऊँचे दाम वाली।
बस एक पेग लेते ही विजय ढह गया था। "मैं अगले साल सब कुछ
सलटाकर इंडिया लौट जाऊँगा" उसने कहा था। "पिछले पंद्रह साल
तो मुझे हो गए यह सुनते" - उसकी पत्नी ने कहा था - "ऐसे ही
करते रहते हैं। जाने इंडिया में कोई प्राइम मिनिस्टर की
पोस्ट इनका इंतजार कर रही है। "मैं अपने देश में मरना
चाहता हूँ। साली यह भी कोई जिंदगी है।" उसकी पत्नी का
चेहरा तमतमा गया था। अमेरिका में इंडियन पति-पत्नी लड़ने
के लिए उसका लिहाज नहीं करने वाले हैं। जयगोविंद बीच-बचाव
करने के लिए कूदा -"क्या यार, तुमने तो अमेरिका में इतना
कुछ हासिल किया है। इंजाय करो। वहाँ हमें न लड्डू-पेड़े
मिले, न तुम्हें मिलने वाले हैं। दो चार साल में बच्चों का
कालेज खत्म हो जाए, तो आ जाना। मैं आजकल रियल इस्टेट का
काम करता हूँ। मनचाहा फ्लैट या बंगला दिलवा दूँगा।" बात बन
गयी थी। विजय पूरे समय उससे कलकत्ता की अलग अलग एरिया के
दाम पर बात करता रहा था। जैसे अगले साल फ्लैट खरीदना तय
हो। मजे की बात, एक बार भी उसने जानकीदाश तेजपाल मैनशन का
जिक्र नहीं किया था। शायद उसे डर हो कि जयगोविंद उन लोगों
के सामने सिर्फ निकर पहनकर घर में रहने की बात उसके
बीवी-बच्चे के सामने न बोल पड़े।
दुनिया में ऐसे पति-पत्नी कितने होंगे जो कि दूसरे से कोई
भी बात नहीं छुपाते हों? जयगोविंद जानता है कि वह इस मामले
में कितना भाग्यशाली रहा है। दीपा ने तो शादी के बाद कभी
पीहर जाने का नाम नहीं लिया साल में एक बार दिल्ली जाती,
तो भी बेमन से। रोज वहाँ से एक चिट्ठी लिखती। कई बार तो
उसके लौट आने के बाद एक-दो चिट्ठियाँ पहुँचतीं। यहाँ तक कि
एक बार दिल्ली में पढते हुए, रोहित का कॉलेज के दिनों
फ्रैक्चर हो गया, तो भी दीपा दिल्ली नहीं जाना चाह रही थी।
एडवोकेट बाबू ने भी सोचा था कि दक्षिण दिल्ली में बंगले
में रहने वाली लड़की कैसे इस चौक के मकान में रहेगी। शादी
के पहले उन लोगों ने एकाध मकान देखे भी थे, पर शादी होने
के बाद तो लगा जैसे दीपा हमेशा से जानकीदास तेजपाल मैनशन
में ही रहती आई हो। कभी उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं आई।
यहाँ तक कि जब मकान आगे सड़क की तरफ झुक गया और चीजें
लुढककर या खिसककर आगे की तरफ चली जातीं, तब भी वह हँसकर
कहती -"देखो यह कुर्सी अपने आप इधर चली आई है।"
जाने यह प्रेम क्या चीज है कि बाकी सारी बातें बेमानी हो
जाती हैं। पर ऐसा प्रेम भी कितनों के नसीब में होता है।
जयगोविंद को मालूम था कि दीपा के लिए दुनिया वहीं है जहाँ
जयगोविंद है। शायद ऐसा प्रेम वह दीपा से नहीं कर पाया। अब
उसे लगता है कि ऐसा प्रेम करने के लिए जैसा दिल चाहिए, वह
उसके पास है ही नहीं। दरअसल जयगोविंद जैसे बड़ा हुआ, जैसी
जिंदगी उसने आस-पास देखी, जिस तरह के रिश्तों को जाना,
उसमें कोई प्रेम जैसी चीज कभी नजर नहीं आई। एडवोकेट बाबू
और माँ ने क्या इस तरह का अनुभव किया होगा? या नर-मादा की
तरह उन्होंने एक दूसरे को जाना होगा? और फिर बच्चे हो गए
होंगे। पति परमेश्वर होता है- यह बात तो उन दिनों माँ के
दूध से ही लड़कियों में चली आती होगी। जयगोविंद ने बड़े
होते हुए यही जाना था कि प्रेम बस कहानियों और फिल्मों में
ही होता है। असल जिंदगी में तो सिर्फ रोजमर्रा की बातें
होती हैं। - "तुमने खाना खा लिया?" , "कल पिक्चर देखने
चलेंगे" वगैरह-वगैरह। इसे ही प्रेम मान लिया जाता है। इतना
जरूर है कि जयगोविंद अपने नाम से जुडे गोविंद यानी कृष्ण
की तरह न होकर राम की तरह रहा। कोई भी औरत कितनी भी सुंदरी
क्यों न हो, उसे एक क्षण के लिए भी लुभा नहीं पाई। बल्कि
कभी किसी की तरफ से जरा सा कहा-अनकहा आमंत्रण महसूस होता,
तो जयगोविंद के अंदर जैसे कुछ जम-सा गया।
शायद वह दीपा से बेवफाई करने की कल्पना भी नहीं कर सकता
था। और करता भी कैसे? पिलानी में इंजीनियरिंग पढी हुई
लड़की उस जमाने में एक अनोखी, अकल्पनीय चीज थी। ऐसा जीवन
साथी जो हर बात समझ सकता हो, उसके साथ जीवन की
प्रोग्रामिंग अद्भुत होती है। दीपा जैसी कोई लड़की इंडिया
में मिल सकती है और वह भी अपने ही समाज की, यह तो वह सोच
भी नहीं सकता था। जानकीदास तेजपाल मैनशन के उस तरफ के चौक
में रहनेवाला उसके बचपन का दोस्त विलास उसे बरसों से अपनी
दिग्विजय की कहानियाँ सुनाता रहा है। पर जयगोविंद ने उसकी
सब बातों को सिर्फ दिलचस्पी से सुना है। वह भी सिर्फ इसलिए
कि वह औरतों की मान बढ़ाने की बातों को जान ले और दीपा को
किसी तरह की शिकायत न होने दे। उसके अंदर कभी अपना रास्ता
बदलने की इच्छा नहीं जागी। यह अलग बात है कि जयगोविंद को
हमेशा से औरतों से बातचीत करना आसान लगा है। दीपा उसे बहुत
बार चिढ़ाती थी कि "हो तो तुम लेडिज मैन जाने तुममें ऐसा
क्या है कि सारी दुनिया जहान की औरतें तुमको ही अपनी सारी
समस्याएँ बताना चाहती हैं। और क्यों न बताएँ, तुम्हारा मन
जो इतना रमता है उनकी बातों में।"
जयगोविंद को अच्छी तरह मालूम था कि दीपा यह सब कहते हुए
बहुत गर्व का अनुभव करती है कि उसके पति इतने चाहने वाले
हैं। उसके अंदर कहीं दूर-दराज तक कोई ईर्ष्या या चिढ़ का
भाव नहीं होता।
अचानक जयगोविंद की आँखें भर आईं। क्या दीपा सोच सकती थी कि
उसके "लेडिज मैन" को अब दुनिया क्या कहकर पुकारती है?
पत्नी की मौत क्या हुई, अब जयगोविंद दुनिया की नजर में
"छुट्टा साँड" हो गया। जयगोविंद को लोगों के सोचने का
ढर्रा और उसको इजहार करने की भाषा का पूरा ज्ञान है। उसे
मालूम है कि बिनब्याहे या तलाकशुदा आदमियों कि तरह उसे भी
बेचारगी के साथ देखा जाने लगा है जो बड़े शहरों में सडकों
पर घूमते गाय-बैल होते हैं। जयगोविंद को पता है कि कई बार
हाईवे या रनवे पर आ जानेवाले गाय-बैल की तरह लोगों को उससे
खतरा भी महसूस होने लगा है।
जयगोविंद ने हँसकर पीले फोल्डर को कार्टन के बगल में रख
दिया। क्या क्या सोच रहा है वह! 'सेल्फ-पिटी' की हद हो
गयी। अपने को उपाधियाँ भी दीं, तो गाय, बैल, साँड की। क्या
रोहित इन बातों को कभी समझ सकता है? अमेरिका की साफ-सुथरी
दुनिया में न सड़कों पर गायें गोबर करती हैं और न साँड
मदहोश होकर दौड़ लगाते हैं। रोहित शायद उसके अकेले होने की
तकलीफ को उस तरह समझ भी नहीं पाता, क्योंकि अमेरिका में तो
हर उम्र के लोग इलेक्ट्रिक व्हील-चेयर पर या स्कूटर पर
शॉपिंग मॉल में जाकर अपनी सारी खरीददारी कर लाते हैं। वे
अकेले सोने में कभी डर महसूस नहीं करते। दीपा के जाने बाद
वह रात-रात भर डर के मारे सो ही नहीं पाता था। शर्म के
मारे इस बात को किसी से भी कभी कह नहीं पाया। रोहित से तो
बिलकुल भी नहीं।
दीपा के रहते कितना आसान था भाभियों और दोस्तों की
पत्नियों के साथ इस तरह गप मारना, कि वे सब कहती रहतीं -
'भैया आप तो हम लोगों को भी मात देते हैं। आपको जाने कैसे
सारी दुनिया की खबर रहती है।' दीपा उसके कुछ बोलकर बेलौस
चुप हो जाने के अंदाज पर रीझ कर कहती है - "तुम तो ऐसे कोई
बात बोल जाते हो जैसे कि कोई खास बात ही नहीं हो। जबकि
होती वह ऐसी बात है कि लोगों को बात करने के लिए महीने भर
का मसला मिल जाता है।" वाकई जयगोविंद को कहीं न कहीं से
पता चल ही जाता। एक बार तो दीपा ही उसके पीछे पड़ गयी थी -
तुम्हें बताना पड़ेगा कि तुम्हें यह बात कैसे मालूम पड़ी?
जयगोविंद ने सबके सामने कह दिया था कि फलाने बेटे-बहू में
सुहागरात से चार साल तक कोई संबंध ही नहीं बना था, और
माँ-बाप परेशान थे कि बच्चा कब होगा।
अब तो आलम यह है कि आजकल किसी औरत से बात करते समय
जयगोविंद उसके चेहरे की तरफ नहीं देखता। ऐसे लगता है जैसे
वह उस औरत के पीछे टँगी दीपा की तस्वीर को देख रहा हो।
किसी को फोन करने में भी ऐसा लगता जैसे जबरदस्ती किसी के
जीवन में घुसपैठ कर रहा हो। किसी का फोन आ जाए तो ऐसा लगता
है कि बगल में बैठा उसका पति कहीं आँख न दिखा रहा हो कि
इतने घुलने-मिलने की कोई जरूरत नहीं है। गोविंद को अब पता
चला है कि इस देश में एक पत्नी जीवन की सबसे बड़ी कैरेक्टर
सर्टिफिकेट होती है। पहले उसकी जिन बातों पर लोग हँसते थे
और उनका मनोरंजन होता था, अब उन्हीं बातों पर लोगों के
चेहरे बदल जाते हैं। जयगोविंद को अच्छी तरह मालूम है कि वे
लोग सोचते हैं कि दूसरों के जीवन में इतनी ताक-झाँक
करनेवाला आदमी क्या जाने उनके जीवन में भी कहीं सेंध लगा
रहा हो।
जयगोविंद को आज भी जानकी दास तेजपाल मैनशन के पहले तल्ले
पर रहनेवाला वह चौधरी बुड्ढा याद है, जिसके बारे में उसने
बचपन में माँ को कहते सुना था कि राम का मारा किसी भी औरत
को देखते ही धोती में हाथ घुसा लेता है। जयगोविंद को यह भी
याद है कि माँ की आवाज में यह कहते घृणा से अधिक सहानुभूति
थी क्योंकि चौधराईन को मरे कुछेक महीने ही हुए थे। माँ के
मुँह से एक शब्द जो उसे बहुत बार सुना हुआ याद है, वह है
'लुगाईघट्टा' यानी स्त्रियों से या अपनी पत्नी से ज्यादा
बातें करनेवाला। शायद माँ इसलिए भी हर किसी को लुगाईघट्टा
कह डालती थी क्योंकि एडवोकेट बाबू तो स्त्रियों से क्या,
किसी पुरुषों से भी ज्यादा बातें नहीं करते थे। उसे पूरा
यकीन है कि माँ उसके पीठ पीछे उसे लुगाईघट्टा जरूर कहती
होगी। इस देश की हर माँ शायद बचपन से अपने बेटों को इस
शब्द से डराकर रखना चाहती होगी कि कहीं उसके बेटे अपनी
पत्नियों के पिछलग्गू न बन जाएँ। माँ के सामने उसने कभी
अपने बड़े भाइयों को भाभियों से कुछ कहते या फरमाइश करते
नहीं सुना। बड़े भैया खाते समय कहते- माँ, नया वाला हरी
मिर्च का अचार देना। माँ कहती - अरी बहू, थोड़ा नया वाला
हरी मिर्च का अचार तो लाना।
जयगोविंद को अमेरिका जाने के पहले भी इसी तरह माँ के जरिए
पत्नी को सारी बातें कहना समझ में नहीं आता था। वह सोचता
कि माँ को क्या मालूम नहीं कि पति-पत्नी रात को क्या-क्या
करते हैं, जो वह दिन में अजनबी बनाकर रखना चाहती है।
अमेरिका जाकर लौट आने से यह फायदा हो गया कि कोई उसे इस
तरह के व्यवहार की उम्मीद भी नहीं करता था। जादवपुर
यूनिवर्सिटी में पढ़ते समय वह अपने बंगाली मित्र दीपंकर
सेन के घर जाता, तो उसके पिता को उसकी माँ का खुलेआम लाड़
करना देख विभोर हो जाता। दीपंकर के पिता उसकी माँ के बनाए
खाने की तारीफ करते कि उनके हाथ का बना हर खाना ही मिठाई
जैसा लगता है और उसकी माँ बड़ी सी सिंदूर की टक-टक बिंदी
लगाए ऐसे मुस्कुराती जैसे कल ही ब्याह कर आई हो।
एक तरह से फायदे की ही बात थी कि जयगोविंद कुछ भी ऐसा
करता, जो घरवालों को अखरता, तो वे अमेरिका पर तोहमत लगाने
लगते थे। "माँ, मुझे तो लगता है, कि अमेरिका जाकर इसका खून
ही बदली हो गया है।" - बड़े भैया ने माँ को जयगोविंद के
लिए पहली लड़की देखकर लौटने पर कहा था। "अरे कायदा भी कोई
चीज होती है। किसके सामने क्या बोलना है, क्या नहीं बोलना
है, इस मरदूद को जैसे पता ही नहीं रहा। बस मियाँ,
जहाँ-तहाँ हर कुछ बक बक करने लगते हैं।" माँ पूछती रह गयी
थी कि ऐसा जयगोविंद ने क्या कह दिया, पर बड़े भैया ने यह
कहकर उन्हें चुप करा दिया था कि - "तो अब तुम हमसे उन्हीं
बातों को फिर बुलवाओगी जो बोलना नहीं चाहिए थीं?"
जयगोविंद जोर से हँस पड़ा। वक्त के साथ पुरानी बातें, जिन
पर न जाने कितनी बार खून उबल चुका हो, महज चुटकुला बनकर रह
जाती हैं। आज अगर बडे भैया होते, तो हो सकता है, वे दोनों
इस किस्से पर इकठ्ठे हँस लेते, जैसा कि वे जीवन भर में एक
बार भी नहीं कर पाए। बड़े भैया होते, तो क्या वे वैसे ही
बड़े भैया रह पाते? वे भी बिना वजह, बिना कायदेवाली हँसी
जिस-तिस के साथ हँस लेना सीख लेते। जमाने की हवा क्या
उन्हें नहीं बदल डालती? उसे बहुत बाद में पता चला था कि
बड़े कि बड़े भैया ने भी उसे अमेरिका भेजने में एडवोकेट
बाबू की मदद की थी। जयगोविंद उनके लिए छोटा भाई न होकर
बेटे के समान था।
सारा जीवन ऐसे ही कट जाता है। पर हम जिसके बारे में जो सोच
बना लेते हैं, वही सोचते रहते हैं। कोई एक घटना सारे जीवन
को छेंके रखती है। जयगोविंद के गले पत्थर जैसा कुछ अटक
गया। बडे भाई ने बहुत दिनों बाद- शायद अपने मरने के एकाध
साल पहले -उसके लिए किसी को कहा था - "जयगोविंद का मुँह
खुला, तो बस खुला। वह आगा पीछा नहीं देखता। अमेरिका का
वायरस उसके अंदर से कभी उबर नहीं पाया। अब तो दूसरा जन्म
ही लेना पड़ेगा कि यह वायरस वाली बात याद न आए।
बड़े भैया ने माँ को लड़की देखने के बाद जो शिकायत की थी,
उससे जयगोविंद को कोई फर्क नहीं पड़ा था। माँ की उत्सुकता
देख उसी ने माँ को बताया था - "अरे भलेमानस ने - यानी
लड़की के बाप ने पूछा कि साहब, अमेरिका में तो लाइफ बहुत
फास्ट होगी? अब लड़की का बाप सच जानने के लिए ही तो पूछ
रहा होगा न? तुम बोलो माँ? मुझे क्या झूठ कहना चाहिए था?
मैंने इतना भर कहा - जी हाँ, वहाँ तो कैम्पस पर सब कुछ
होता है। सेक्स, मारिजुआना, नशे में पीकर लुढ़क जाना- वहाँ
यह सब कोई खास बात नहीं है। वहाँ आदमी जिंदगी को एक तमाशे
की तरह जीता है और ..." माँ का लाल मुँह देखकर जयगोविंद
एकदम से चुप हो गया था। उसे पहली बार लगा था कि इस देश में
कोई कुछ कहे तो परम्परा, संस्कार और न जाने कितनी चलनियों
से छान-छान कर। एडवोकेट बाबू ने शायद इतनी चलनियाँ लगा रखी
हैं कि बात अंत तक निकलती ही नहीं। उसी में गुम हो जाती
है।
धत् तेरे की! उसने तब सोचा था और अब भी सोचता है। जाने
कैसे इनलोगों ने यही मान लिया है कि यह एकदम सही तरीका है
जीने का कि बातों को छानते रहे! कितने शब्द भाषा में डाल
रखे हैं ऐसे लोगों के लिए, जो लकीर को पीटते हुए नहीं चलते
हैं। उच्छलघोड़ा - यानी उछलनेवाला घोड़ा। यानी कि वह
गया-गुजरा आदमी, जो बेवजह उछलता है और अंत में गिरकर हाथ
पैर तोड़ लेता है। माँ ने कहा था - "एक तो तुम अमेरिका का
ठप्पा लगवा आए हो, ऐसे ही जल्दी से कोई अपनी लड़की तुम्हें
देने वाला नहीं है। ऊपर से उच्छलघोड़ा बने फिरोगे, तो
कुँवारे ही डोलना।" अब तो चालीस साल से ऊपर हो गए अमेरिका
से लौटे। पर जयगोविंद जानता है कि बहुतों की निगाह में वह
हमेशा उच्छलघोड़ा ही रहा। खासकर उन लोगों की निगाह में जो
उसे फूलमालाएँ लेकर एयरपोर्ट पर विदा देने आए थे - जिनकी
झलकती आँखें कह रही थीं कि उन्हें मालूम है कि वह कभी नहीं
लौटेगा। शायद वापस लौटकर उसने उन लोगों को गलत साबित कर
दिया था। इसीलिए वे उससे कुछ नाराज थे।
वैसे जयगोविंद नहीं जानता कि यह दुनिया उन लोगों के तलवे
चाटती है जिनका बैंक-बैलेंस उनसे दुगुने से लेकर सौ गुने
होता है। यदि उसने भी कमा कर अलीपुर में एक आलीशान बंगला
बनवा लिया होता, तो वह दुनिया का सबसे समझदार और सबसे
ज्यादा कायदेवाला इंसान होता, जिसके बारे में लोग अभिभूत
होकर कहते - 'देखो इसे अमेरिका भी बदल नहीं पाया'। इस
दुनिया में कदर उसी की है जो दूसरों को जूते की नोक पर रखे
और उन्हें बार-बार याद दिलाता रहे कि तुम्हारी औकात हमारे
आगे कुछ नहीं है। पर दीपा और उसे यह दुनिया चबाकर लुगदी
नहीं बना पायी। एक बार दीपा ने उससे कहा - "तुमें पता है,
बड़ी दीदी और छोटी दीदी जो पर्स लाती हैं, वह कितने का
है?" "पाँच-छह हजार का?" - उसने पूछा था। "हम तो सोच भी
नहीं पाएँगे। पचास हजार से लाख रुपए के पर्स लिए घूमती हैं
दोनों बहनें तुम्हारी। लुई विटोन, फैरेगामो, फैन्डी- कितने
सारे नाम दोनों को याद हैं।" जयगोविंद एक मिनट चुप हो गया
था। क्या दीपा को कोई अफसोस है कि वह इस तरह की चीजें नहीं
खरीद सकती? इतने में दीपा ने कहा - "इंजीनियरिंग की पढाई
में यह सब थोड़े ही पढ़ाते हैं?" - और वे दोनों इस बात पर
इतने हँसे थे कि उनकी आँखों में आँसू आ गए थे। "माँ की
इंजीनियर बहू " - जयगोविंद ने लाड़ से कहा था। माँ किसी से
बात करते समय दीपा का बहुत बार इस नाम से परिचय देती थी।
उसके पीछे यह भाव रहता था कि मेरा बेटा ही इंजीनियर नहीं
है, उसकी बहू भी इंजीनियर है।
शायद माँ कि इस बात ने उन लोगों को हमेशा बचाए रखा। यह
विश्वास बनाए रखा कि वे दोनों अनपढ़-अधपढ़ लोगों की दुनिया
से अलग हैं। भले ही छठी क्लास फेल पड़ौसी सौ करोड़ में खेल
रहे हों, पर उनके पास ऐसा कुछ नहीं है जो किसी के पास नहीं
है। उन लोगों के पास और कुछ खरीदने की ताकत हो न हो,
किताबें खरीदने की ताकत जरूर है जो और किसी के पास नहीं।
उनकी तरह जमीन से सीलिंग तक किताबों की रैक भरे हुए बेडरूम
में वे करोड़पति लोग नहीं रहते। न ही वे लोग घण्टों
एक-दूसरेकी बगल लेटे अपनी-अपनी किताबें पढ़कर छुट्टी के
दिन बिताते हैं।
उफ्! जयगोविंद ने एक लंबी साँस छोड़ी और पीला फोल्डर
कार्टन के बगल में पटककर बरामदे में जा खड़ा हुआ। बाहर
कुछ
भी देखने लायक नहीं था। एक जैसे तीन तल्ले के नए बिना रंग
किए माकन-दर-मकान पास खड़े थे। यह बरामदा बनवाया ही किसलिए
गया था, कोई पूछे तो! शायद सिर्फ कपड़े सुखाने के लिए। बगल
के मकान की पीठ जेल की दीवार सी सामने खड़ी थी। जब बाहर
कुछ दखने लायक न हो, तो आदमी बाहर होकर भी अपने मन की
उठापटक में ही लग जाता है। क्या सोच हो गया है जयगोविंद
तुम्हारा? वे लोग तुम्हें नीची निगाह से देखते हैं और तुम
उन्हें उसी तरह देखने में लगे हो। किसने जीवन में क्या
पाया और क्या नहीं पाया, इसका लेखा-जोखा तो हर आदमी के
अपने अंदर है। किसी दूसरे की रिपोर्ट कार्ड न तुम मानोगे,
न वे तुम्हारी मानेंगे। तब फिर बेमतलब सिर खपाने से क्या
फायदा? |