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आत्मकथा (छठा भाग)

अभिज्ञात

शहूद के बहाने उर्दू वालों की बातें

एक ऐसी शख्सियत जो मुझे हमेशा अपनी ओर आकृष्ट किये रही पर मैं चाह कर भी कभी खुलकर नहीं मिल सका। अब उनके जाने के बाद यह बात लगातार सालती रहती है कि अगर किसी के लिये आपके दिल के दरवाजे खुले हों तो दीवारों की परवाह नहीं करनी चाहिए। वह दीवार चाहे जैसी हो। चाहे जो वजह हो। कम से कम यह तो कह ही देना चाहिए‚ उससे की वह हमारे दिल में है। दरअसल‚ हम अपनी नफरतों के इजहार को तो बेताब रहते हैं और मुहब्बतें हमारे कदम रोकती रहती हैं। कोई क्या यकीन करेगा कि मैं अपने दोस्तों‚ जिन्हें पढ़कर पसंद किया‚ जिन्हें सुनकर चाहा है उनसे अपने दिल की बात तो नहीं कह पाता मगर यह छिपाव मुझे बेइंतहा बेचैन किये रहता है। शहूद के न होने पर जो बेचैनी है वह मुझे अपनी इस फितरत पर गौर करने को विवश कर रही है और निजात पाने को उकसा भी रही है।

शहूद को मरणासन्न हालत में शायद मैं देख भी सकता था। योजना बना कर टालता रहा। यकीन भी कहाँ था कि सचमुच वे नहीं रहेंगे? इतना तय कहाँ होता है आदमी की जिन्दगी का कि हम सुनें कि वह हो सकता है कि नहीं रहे और सचमुच चला जाए। 

पिछली बार कोलकाता गया था‚ तो महज नौ दिन की छुट्टी लेकर। तीन–चार दिन जिसमें से आने–जाने के ही ठहरे। बाकी बचे दिन मृदु (बेटी मृदुला सिंह) और प्रतिभा (भोजपुरी और कव्वाली गायिका तथा पत्नी प्रतिभा सिंह) के लिये ही कम पड़ रहे थे। जो दो महीने मैंने इनके बगैर गुजारे थे किसी तरह उसकी क्षतिपूर्ति की बेताबी मुझे हमेशा रही है। यहाँ तक की अधिक सोने से डरता हूँ। नींद से भी कटौती कर कुछ और लम्हे साथ के पाने की कोशिश रही है। और फिर इन दोनों के बगैर इंदौर में एक उदास जिन्दगी मुझे जीनी होती है‚ अगली छुट्टियों तक। पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। प्रतिभा ने मुझे बताया था कि शहूद भाई बीमार चल रहे हैं। उनके इलाज के लिये उर्दू एकेडमी ने कुछ रकम दी है। उनके मोहल्ले बेलगछिया–कोलकाता के लोग भी मदद कर रहे हैं। वह भी कुछ देना चाहती है। 

उसने बताया की वह पाँच सौ देना चाहती है। मेरा मन था कि कम से कम इससे दूने दिए जाएँ पर घर का बजट जोड़ा गया तो वह फेल साबित हुआ। इतने की गुंजाइश भी किसी तरह ही निकलती थी। सो प्रतिभा ने इतने ही दिए थे सलीम भाई (हाजी सलीम नेहली– कव्वाल) के हाथ। सलीम भाई ने ही बेलगछिया में उनकी आर्थिक मदद का वह बीड़ा उठाया था। खबर मिलने पर मैंने भी सलीम भाई से फोन पर शहूद का हाल पूछा था। और फिर तय किया था कि उनके घर बेलगछिया जाऊँगा और फिर उन्हीं के साथ शहूद भाई को देखने अस्पताल जाऊँगा। पर व्यस्तताएँ ऐसी रहीं कि इस अखबार के दफ्तर से उस अखबार के दफ्तर का चक्कर‚ इस दोस्त के यहाँ से उस दोस्त के यहाँ जाने के सिलसिले में न तो सलीम भाई के घर जा पाया और न शहूद से मिल ही सका। दो महीने बाद फिर इंदौर से कोलकाता पहुँचा तो प्रतिभा ने वह पत्रिका थमा दी थी जो शहूद की याद में उर्दू में निकली थी।

शहूद से लगभग आठ नौ–माह पहले अंतिम मुलाकात हुई थी 'महानामा इंशा’ (उर्दू की साहित्यिक पत्रिका) के दफ्तर में। वहाँ मैं पहले से बैठा हुआ था। फे सिन एजाज के साथ। एजाज साहब मेरे न सिर्फ दोस्त हैं‚ बल्कि हम पियाला भी रहे हैं। हमारी जितनी मुलाकातें हैं उनमें से आधी में मैं उनका मेहमान रहा हूँ मैकदे का। कभी कलकत्ता प्रेस क्लब तो कभी कोई और उम्दा बार।

जब मैं कोलकाता में रहा तो भी और कोलकाता से बाहर अमृतसर‚ जालंधर या इंदौर। उनके व्यवहार में कोई फर्क नहीं आया। मैं नहीं जानता उनकी नजर में मेरी लेखनी की क्या कीमत है मगर उन्होंने कुछेक बार मेरी कविताएँ माँगी और उन्होंने उसका उर्दू में तर्जुमा कर प्रकाशित भी किया। मुझे उर्दू पढ़नी नहीं आती। प्रतिभा पढ़ लेती है। यह जरूर है की मेरी राय मान कर एजाज साहब ने न सिर्फ अपनीगजलों का एक संग्रह 'मौसम बदल रहा है’ देवनागरी लिपि में प्रकाशित किया‚ बल्कि पुस्तक में इस बात का इजहार भी किया है कि देवनागरी में पुस्तक के निकलने के पीछे मेरी भी भूमिका रही है। इंशा के संपादक और शायर एजाज साहब वही हैं‚ जिनके बारे में मुझसे 'जनसत्ता’ के लिये अपने दिए गए इंटरव्यू में उर्दू एकेडमी के चेयरमैन और बुजुर्ग शायर व दैनिक 'आबशार’ के संपादक सालिक लखनवी ने कहा था कि उसकी इतनी किताबें निकली हैं‚ पता नहीं चलता है कि वह इतना लिखता कब है। वह रचनाओं का कारखाना है या आदमी?

सालिक साहब के यहाँ मैं उनसे मिलने के अलावा एक और भी वजह से कुछेक बार गया हूँ वह वजह है उनका बेटा वासिम कपूर। चित्रकार। जिनसे कुछेक मुलाकातों में यारी–सी हो गई । पर जैसे उनकी लोकप्रियता बढ़ी उनके यहाँ जाना कम हो गया। उधर से गुजरते हुए कभी उनके यहाँ एकबारगी पहुँचा तो पता चलता जनाब फ्रांस गए हैं। वहाँ उनकी प्रदर्शनी चल रही है। यह चार–पाँच साल पुरानी बात है। इधर वासिम की चर्चा इस बात को लेकर उठी की फिल्म अभिनेत्री मुनमुन सेन उनसे अपना न्यूड बनवाने की फिराक में हैं। हालाँकि उन दिनों भी वे न्यूड अच्छा बनाते थे‚ किन्तु अपनी क्राइस्ट सीरिज की पेंटिंग पर बात करना पसंद करते थे। उन्होंने अपनी बनाई कुछ पेंटिग्स के छायाचित्र भी मुझे दिए थे‚ जो जनसत्ता में छपे।

ये वही एजाज साहब हैं जिनको सुपरिचित गजल गायिका और मेहंदी हसन साहब की शिष्या कुमकुम (भट्टाचार्य) उर्दू भाषा का गुरू मानतीं हैं। कुमकुम ने उनकी कुछ गजलों की अच्छी बंदिशें बनाई हैं‚ जिन्हें मैंने गजल की महफिलों में गाते सुना है। और मैं वह उनकी नज्म याद नहीं कर पा रहा हूँ‚ जो उन्होंने मुझे अखबार में प्रकाशित करने के लिये बार की गुलाबी कागज के नेपकीन पर लिखवाई थी‚ जो उन्होंने भारत के परमाणु परीक्षण 'बुद्ध मुस्कुराए’ की घटना से प्रभावित होकर लिखी थी। उन्हें देवनागरी लिखनी नहीं आती और केवल टाइप की गई देवनागरी ही पढ़ पाते हैं। और यह वही एजाज साहब हैं जिनसे अपनी मुफलिसी के दिनों में मैंने कंपोजिंग करने के पैसे लिये थे। (वह कमल सियालकोटी कागजल संग्रह था। पता नहीं वह छपा भी या नहीं?) ये वे दिन थे जब मैं अपने कारोबार को पूरा तबाह कर चुका था और पत्रकारिता के बूते घर चलाने की कोशिश में लगा हुआ था। यह तो गनीमत थी कि मुझे और उससे बढ़कर खुद को
शर्मसार होने से बचाने के लिये उन्होंने वह रकम अपने बेटे के हाथों मुझे दी थी।

एक बार पैसा लेने के बाद मैं दुबारा उस काम पर जाना तो दूर महीनों उनसे बचता रहा था। वे बार–बार फोन पर मुझे बुलाते रहे थे। उन्हें शायद यह भी खटका था कि उन्होंने रकम कम दी है। पर बाद में कभी हमारे बीच उसका जिक्र नहीं आया। एजाज साहब के यहाँ ही उस कमाल जाफरी मेरी मुलाकात हुई‚ जिन्होंने मुझे उसी लड़की के सामने जलील किया था‚ जिस पर मैंने गजलें लिखी थी। वह भी वहाँ काव्य–पाठ के लिये बुलाई गई थी। उन्होंने उसके और कुछेक और लोगों के सामने थानेदारों की तरह पूछा था‚ तुम हिन्दी वाले हो गजलें कैसे लिखते हो? मैंने मायूसी से पर उस लड़की सुनाने के लिये जवाब दिया था– 'दिल से। गजल उर्दू या हिन्दी जुबान नहीं दिल की जुबान है।’ वे मजाक उड़ाने के मूड में लगे थे। 

मेरी गजलों को पढ़ने से पहले ही उन्होंने पेन निकाल ली थी और उसका मीटर चेक करने लगे। फिर शब्दों के अर्थ पूछने लगे। उन्हें यकीन हो चला था कि मैंने कहीं से किसी कीगजलें चुरा ली है। उन्होंने कहा था कि मुझे जो गजलें याद हों अपनी लिखी सुनाऊँ । उस समय एकाध शेर को छोड़ कर कुछ भी याद नहीं आया। वह तो मैंने जब कहा कि मेरी कविताओं की कई किताबें हिन्दी में छप चुकी हैं मैं भला चोरी की क्यों सुनाऊँगा। और इस स्थिति का मजा ले रहे रंगकर्मी और आकाशवाणी के फ्रीलांसर मदन सूदन ने बात संभाली तो मैं उस दिन अपनी गजलें रिकार्ड करा पाया। हालाँकि उर्दू के अच्छे जानकार मदन भाई भी इस स्थिति से गुजर चुके हैं जब उन्हें दूरदर्शन पर उर्दू मुशायरे का संचालन किया तो बगैर जाने यह आरोप लगे कि उर्दू नहीं जानने वाले को उर्दू कार्यक्रमों का संचालन क्यों करने दिया जा रहा है।

इसके बाद ही कमाल साहब से मेरी मुलाकात हुई थी एजाज साहब के यहाँ। एजाज साहब ने जब मेरा परिचय यह कह कर उनसे कराया कि यह मेरे अजीज दोस्त और हिन्दी के अच्छे शायर हैं तो उन्होंने हाथ यों मिलाया गोया हम एकदम अपरिचित हों। मैंने भी उन्हें नहीं टोका। दरअसल‚ आकाशवाणी की घटना मेरे लिये आहत करने वाली ही नहीं थी‚ बल्कि मेरे लिये एक सर्टीफिकेट भी थी कि गजल मैं कुछ ठीक–ठाक लिख लेता हूँ। वरना वे शक ही क्यों करते? यह तो बाद में पता चला था कि यह उनके स्वभाव का हिस्सा था। वे मजा लेने के लिये दूसरों का क्या खुद तक का मजाक बना सकते थे। जब कोलकाता आकाशवाणी में हिन्दी और उर्दू दो विभाग हो गए तो श्रीप्रकाश जी हिन्दी विभाग देखने लगे। वहाँ मैंने श्रीप्रकाश जी‚ उद्घोषक प्रीतम खन्ना और अनिल कुमार की फरमाइश पर कुत्ते‚ बिल्ली तक की आवाज निकालते सुना। और एक दिन बस में हम साथ थे तो उन्होंने यह वादा किया कि आकाशवाणी के उर्दू विभाग की ओर से महाजाति सदन में एक मुशायरा होना है जिसमें वे मुझे अवश्य बुलाएँगे।

और यही एजाज साहब हैं जिन्होंने बांग्ला कवि सुब्रत मुखर्जी से मेरी मुलाकात प्रेस क्लब में इस तरह से करवाई कि आज भी कोलकाता में सबसे महत्वपूर्ण हिन्दी कवि किसी को मानते हैं तो वह मैं ही हूँ–अभिज्ञात। मदन भाई ही बता रहे थे पिछली मुलाकात में। मदन भाई ने मुझसे पूछा था कि कोलकाता में वर्तमान में सबसे महत्वपूर्ण कवि किसे मानते हो तो मैंने तीन नाम लिये थे–एक अक्षय उपाध्याय जो‚ अब हमारे बीच में नहीं हैं। दूसरे सकलदीप सिंह‚ पर वे वर्तमान के नहीं भविष्य के देश के सबसे महत्वपूर्ण कवि हैं‚ मेरी नजर में। कभी मुक्तिबोध की तरह वे भी याद किये जाएँगे। अभी उपेक्षित हैं पर इस प्रकार वर्तमान तो आलोक शर्मा की कविताओं का हैं। वही आलोक जी जो कभी श्रीकांत वर्मा के प्रिय कवि रहे और जिनके साथ तीसरी दुनिया के साहित्यकारों की कोई संस्था भी उन्होंने बनाई थी। 

अद्भुत स्मरण शक्ति‚ काव्य–पाठ का भाव–प्रवण कौशल और शब्दों की मारक प्रहार क्षमता वाले आलोक। जिन्होंने पचास साठ किलो वजन के कागजों पर शायद अभ्यास के लिये कविताएँ लिख मारी होगी। कहते तो यही हैं। उनकी कविता का चेहरा मुझे वैश्विक लगता है पर उसमें से स्थानीयता गायब है। इसलिये उन्हें मैं कोलकाता का ही महत्वपूर्ण कवि भर मान पाता हूँ।मदन भाई का जवाब था कि वे खुद भी यही मानते हैं कि आलोक ही कोलकाता के महत्वपूर्ण कवि हैं‚ पर सुब्रत मुखर्जी की निगाह में अभिज्ञात है। मैं जानता हूँ यह एजाज साहब का कमाल है।

विषयांतरित हो गया। बात शहूद की चल रही थी। शहूद से आखिरी मुलाकात के दौरान एजाज साहब ने दूसरी दफा मेरा परिचय शहूद भाई से कराया था। शहूद हँसे थे। और कहा था अरे भाई मैं इन्हें खूब पहचानता हूँ। मैंने इनसे अपनी पत्रिका के लिये कई बार रचनाएँ माँगी है। पर ये मुझे देते ही नहीं। मुझे तो हिन्दी पढ़नी आती नहीं। कहता हूँ कभी साथ बैठो तो समय नहीं देते। और शहूद के सामने ही एजाज साहब ने बताया कि इनकी किताब उर्दू एकेडमी के आर्थिक सहयोग से छप रही है। ये उस किताब की चौथी प्रति की एडवांस कीमत वसूल गए। इसके पहले तीन प्रतियों की रकम ले चुके हैं।

शहूद के जाने के बाद उन्होंने कहा कि यह पीने के लिये पैसे लेने का नया तरीका है। इसके पहले यह बहाना नहीं था‚ तो सीधे पीने के लिये पैसे ले जाते थे। अब आप बताइए मैं एक ही किताब की चार प्रतियाँ क्या करूँगा। पर इंकार नहीं कर सकता। यह इनकी पहली किताब छप रही है। एजाज साहब के यहाँ शहूद की अनियतकालीन उर्दू पत्रिका 'शहूदी’ का कवर छपता था। एजाज साहब ने अपनी पत्रिका महानामा इंशा का एक नंबर (विशेषांक) भी शहूद पर अरसा पहले निकाल चुके थे। सलीम भाई से ही शहूद के बारे में जाना था कि वे ट्राम में कंडेक्टर हैं। कई बेटियों के बाप हैं। मुफलिसी है। उन्हें अक्सर सलीम भाई के यहाँ मैंने देखा। वे कुछ नया लिखते तो उसे सबसे पहले सलीम भाई को सुनाते। शहूद को लोकप्रिय करने वालों में सलीम भाई का बहुत हाथ रहा है। उनकी कई गजलों को उन्होंने कव्वाली की महफिलों में गाया। और मेरा अनुमान है समय–समय पर वे शहूद की आर्थिक मदद हमेशा करते रहे। शहूद की लिखी गजल 
'शहर में एक भी बच्चा नहीं रोने वाला
दाने–दाने को तरसता है खिलौने वाला।’ 
तथा 
'सिर उठा के मत चलिये आज के जमाने में
 जान जाती रहती है हौसला दिखाने में।’
जैसी गंभीर गजलों को भी सलीम भाई ने महफिलों में पेश किया है और लोग इसे सुनते हैं। और यकीनन सलीम भाई से हमारी क़रीबी ही यह वजह रही कि प्रतिभा भी शहूद की कुछ गजलें गाती है। वरना संजीदा गजलों को वह गाना पसंद नहीं करती। उसका अपना मानना है कि पब्लिक पसंद नहीं करेगी। वह महफिल नहीं जमा सकती। उसके प्रिय शायर हैं रजा जौनपुरी। हालांकि वह क़तील शिफाई‚ बशीर बद्र और राहत इंदौरी को भी गाती है। पर न तो मेरी कोई गजल उसने गाने लायक समझा न एजाज साहब की। हमारे बारे में उसकी बिन माँगी सलाह है कि जगजीत सिंह‚ गुलाम अली और पिनाज मसानी को हम अपनी गजलें भेजें। उनके श्रोता तो वे हैं जिन तक केवल सीधी बात ही पहुँचती है। 

रजा जौनपुरी ऐसे शायर रहे हैं‚ जो कव्वाली गायकों की फरमाइश पर भी लिखते रहे। उनका ज्यादातर लेखन फरमाइशी है। मैंने किशोरवय में ही उनकी लिखी गजल को कव्वाली की महफिल में सुना था–
'दिल जलाने का ये ढंग भी खूब है दिल जलाने को तुमने ये क्या लिख दिया
खत तो लिक्खा मगर और के नाम पर और लफिाफे पे मेरा पता लिख दिया।’

रजा साहब जब पहली बार मेरे घर आए तो मेरी दो गजलें खा गए। जी हाँ। वे उस दौर में आए थे जब मेरा कारोबार तबाह हो चुका था और मैं अपना ट्रक बेच चुका था। वे बगैर पूर्व सूचना के यकायक आ गए थे। अपने परिचितों के दबाव पर वे प्रतिभा को कुछ कम खर्च पर अपने शहर में आयोजन के लिये राजी करने आए थे। बेटी का गुल्लख तोड़ कर जो कुछ निकला था उससे एक दिन पहले ही घर में चावल–दाल आदि आया था। सो यह गुंजाइश नहीं निकल पा रही थी कि उनकी अच्छी खातिर कैसे हो। खुद मांसाहारी होने के कारण हम जानते थे कि जब तक कुछ मांसाहार न हो अच्छी से अच्छी खातिरदारी कुछ फीकी ही लगती है। पर ऐसा संजोग की अभी उन्होंने चाय खत्म नहीं की थी कि डाकिया आ पहुँचा और उसने तीस रूपए थमा दिए। 'सन्मार्ग’ दैनिक की ओर से दो गजलों का यह मानदेय था। दस वर्ष पहले यह रकम एक मुर्गे के लिये पर्याप्त थी।

अस्तु‚ प्रतिभा ने ले देकर मेरी एक भोजपुरी गजल को महफिलों में गाया है मगर कैसेट की रिकार्डिंग के लायक उसे भी नहीं माना। और उसी ने क्या अब तक किसी ने भी नहीं। दो गजलें वेणु दास ने आकाशवाणी कोलकाता पर गाई भी तो एक नामालूम शायर के रूप में वह प्रसारित की गई । गायक वेणु दास से मेरा परिचय उस दौर में हुआ था जब मैं नया–नया कोलकाता पहुँचा था। पहली दोस्ती हुई लक्ष्मी प्रसाद से‚ जो रंगकर्मी हैं। वे उन दिनों नाट्य संस्था 'अनामिका’ से जुड़े हुए थे‚ पर वे श्यामानंद जालान के 'पदातिक’ के लिये भी अभिनय करते थे। वे कभी–कभी स्वयं भी कुछेक संस्थाओं के लिये नाटकों का निर्देशन करते थे। बांग्ला भाषा के रंगकर्मियों के बीच भी उनकी पैठ थी। कई बार मैं उनके साथ नाटकों की रिहर्सल में भी जाता था। उनके साथ एक नाटक में शताब्दी राय भी थी‚ जो अब बांग्ला फिल्मों में हिरोइन है‚ शताब्दी को मैंने रिहर्सल में करीब से देखा था। लक्ष्मी प्रसाद ने उन्हीं दिनों एक बांग्ला नाटक का हिन्दी अनुवाद किया था –करैला करैली। वे चाहते थे कि इसमें गाने भी हों। मैंने उनके लिये नाटक की सिचुएशन पर नौ गाने लिखे थे। जिसकी धुन बनाने का काम उन्होंने वेणु दास को दिया था। इसके काफी दिनों बाद उनके खुद के लिखे नाटक के लिये भी मैंने कुछ गाने लिखे। जिसका संगीत निर्देशन प्रतिभा ने दिया। यह नाटक ज्ञानमंच में मंचित हुआ था।

करैला करैली के सिलसिले में मैं लक्ष्मी प्रसाद के साथ वेणु दास के घर कुछेक बार गया। फिर तो वे मेरे दोस्त ही बन गए। वेणु दास की आवाज में माधुर्य था। शास्त्रीय संगीत की तालीम वे ले चुके थे। हिन्दी टूटी–फूटी बोलते थे‚ पर वे बनना चाहते थे गजल गायक ही। फिर तो यह होने लगा कि मैं गजलें लिखता और हर दूसरे दिन उनके घर पर घंटों पड़ा रहता। वे एक–एक गजल की कई धुन बनाते। उच्चारण दोष ठीक करते और घर पर ही जिनको वे संगीत की तालीम देते उन्हें वही गजलें सिखाते। मेरा खयाल है ऐसी पचास गजलें होंगी जिनकी एकाधिक धुनें उन्होंने उन दिनों तैयार की थी। वे आकाशवाणी कोलकाता के एप्रूव्ड गजल गायक थे। इस बीच उन्हें गाने का कार्यक्रम मिला तो वे मेरी लिखी गजलें ही तैयार करके गए थे। पर उनके प्रसारण के दो दिन पहले ही उन्होंने मुझे बता दिया था कि गजलों के साथ मेरा नाम नहीं जा रहा है। वह किसी अज्ञात शायर की लिखी गजल बताई जाएगी। उसका कारण यह था कि नियम यह बताया गया कि आकाशवाणी के एप्रूव्ड शायरों की गजल ही गाई जा सकती है। सो मेरी गजलों पर एतराज उठा तो उन्होंने क़तील शिफाई के नाम पर मेरी दो गजलें गा दी। जिससे कि वादक दिलचस्पी लेकर बजाएँ। वह फार्म जिसमें शायर का नाम दिया जाना था वहाँ नामालूम लिख दिया। उसमें से एक गजल थी–
'नंगे पांव चल के मैं आया था धूप में
तू था किसी दरख्त का साया था धूप में।’ 
और दूसरीगजल थी– 
'क्यों तुझे इतना फासला सा लगे। 
मुझको खत लिखना इक ख़ता सा लगे। 
कल तू छत पर नजर नहीं आया
वाकई ये तो हादसा सा लगे।’ 
वेणु दास की संगत से मुझे यह लाभ हुआ कि मैं धुन पर लिखना सीख गया। कई बार होता यह था कि वे कोई धुन पहले तैयार कर लेते थे और मुझे उस पर गजल लिखनी पड़ जाती थी या फिर यह भी होता था कि मुझसे मुलाकात के पहले उन्होंने कुछ प्रसिद्ध शायरों की गजलों की उन्होंने अपनी धुनें बनाई थी उन धुनों पर मुझसे गजल लिखने की फरमाइश कर देते।

१६ नवंबर २००२

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