मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


प्रेरक-प्रसंग


जीवन जैसे बाँस
- संकलित
 


गुरु जंगल की पथरीली ढलान पर अपने एक शिष्य के साथ कहीं जा रहे थे। शिष्य का पैर फिसल गया और वह लुढ़कने लगा। वह ढलान के किनारे से खाई में गिर ही जाता लेकिन उसके हाथ में बाँस का एक छोटा वृक्ष आ गया और उसने उसे मजबूती से पकड़ लिया। बाँस पूरी तरह से मुड़ गया लेकिन न तो जमीन से उखड़ा और न ही टूटा। शिष्य ने उसे मजबूती से थाम रखा था और ढलान पर से गुरु ने भी मदद का हाथ बढ़ाया। वह सकुशल पुनः मार्ग पर आ गया।

आगे बढ़ते समय गुरु ने शिष्य से पूछा, “तुमने देखा, गिरते समय तुमने बाँस को पकड़ लिया था। वह बाँस पूरा मुड़ गया लेकिन फिर भी उसने तुम्हें सहारा दिया और तुम बच गए।”

‘हाँ”, शिष्य ने कहा।

गुरु ने बाँस के एक वृक्ष को पकड़कर उसे अपनी ओर खींचा और कहा, “बाँस की भांति बनो”। फिर उन्होंने बाँस को छोड़ दिया और वह लचककर अपनी जगह लौट गया।

“बलशाली हवाएँ बाँसों के झुरमुट को पछाड़ती हैं लेकिन यह आगे-पीछे डोलता हुआ मजबूती से धरती में जमा रहता है और सूर्य की ओर बढ़ता है। वही इसका लक्ष्य है, वही इसकी गति है। इसमें ही उसकी मुक्ति है। तुम्हें भी जीवन में कई बार लगा होगा कि तुम अब टूटे, तब टूटे। ऐसे कई अवसर आये होंगे जब तुम्हें यह लगने लगा होगा कि अब तुम एक कदम भी आगे नहीं जा सकते… अब जीना व्यर्थ है”।

“जी, ऐसा कई बार हुआ है”, शिष्य बोला।

“ऐसा तुम्हें फिर कभी लगे तो इस बाँस की भाँति पूरा झुक जाना, लेकिन टूटना नहीं। यह हर तनाव को झेल जाता है, बल्कि यह उसे स्वयं में अवशोषित कर लेता है और उसकी शक्ति का संचार करके पुनः अपनी मूल अवस्था पर लौट जाता है।”

“जीवन को भी इतना ही लचीला होना चाहिए।”

१८ मई २०१५

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।