इस सप्ताह-
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अनुभूति
में-
आचार्य भगवत दुबे,
विनय मिश्र, अशोक आंद्रे, धर्मेन्द्र कुमार सिंह सज्जन, और
जैनन प्रसाद की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- पर्वों के दिन शुरू हो गए हैं और दावतों की
तैयारियाँ भी। इस अवसर के लिये विशेष शृंखला में शुचि प्रस्तुत
कर रही हैं-
मेथी मलाई
पनीर। |
बचपन की
आहट- संयुक्त अरब इमारात में शिशु-विकास के अध्ययन में
संलग्न इला गौतम से जानें एक साल का शिशु-
नन्हे
के जूते।
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सुनो कहानी- छोटे
बच्चों के लिये विशेष रूप से लिखी गई छोटी कहानियों के साप्ताहिक स्तंभ में
इस बार प्रस्तुत है कहानी-
फिसलपट्टी। |
- रचना और मनोरंजन में |
साहित्य समाचार में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक
समाचारों, सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये
यहाँ देखें |
नवगीत की पाठशाला में-
कार्यशाला- २५ के विषय की घोषणा हो
चुकी है। विस्तार से जानने के लिये यहाँ देखें। ।
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लोकप्रिय कहानियों के अंतर्गत-
प्रस्तुत है पुराने अंकों से २४ मई
२००३ को प्रकाशित संतोष गोयल की कहानी—"जिंदगी
एक फोटोफ्रेम"।
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वर्ग पहेली-११०
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि आशीष के सहयोग से
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सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य एवं
संस्कृति में- |
समकालीन कहानियों में
यू.एस.ए. से
सुषम बेदी की कहानी-
पार्क में
चैन से दाना चुगते कबूतरों का वह
झुंड गिलहरी के आते ही पलक भर में उसके सिर पर से गुजर कर
पेड़ों की पत्तियों और टहनियों के बीच गायब हो गया। बड़ी हैरानी
के साथ वह उस गिलहरी की हरकतों को ताकता रहा। सिर्फ एक गिलहरी
और इतने कबूतरों की जिन्दगी में हलचल। गिलहरी तो खुद ही बड़ा
मासूम सा जानवर लगता है उसें मनु को इसे देखते ही लंका जाने के
लिये पुल बनानेवाले राम का ध्यान आता है जिनकी तिनके भर की मदद
करके गिलहरी ने अपनी पीठ पर स्नेह की तीन उँगलियों की छाप आज
तक बरकरार रखी हुई है। लेकिन इन अमरी गिलहरियों की पीठ तो एकदम
सादा और बेनिशान है। शायद इनका त्रेतायुग की गिलहरियों से कोई
नाता ही नहीं। यहाँ तो यूँ भी गिलहरी के साथ वैसा मीठा रोमांस
नहीं जुड़ा, उल्टे लोग इन मोटी-पली गिलहरियों को ’स्कैवेंजर’
मानते हैं-सब कुछ सफाचट कर जाने पर उतारू। दीखती भी एकदम नेवले
की मानिंद हैं। गिलहरी के ख्याल में वह इतना रम गया था कि उसने
ध्यान ही नहीं दिया कि कब एक पिल्ला...
आगे-
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अविनाश वाचस्पति का व्यंग्य
कसाब को काटने वाले मच्छर से साक्षात्कार
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कुमुद शर्मा का आलेख
अनूठे कथाकार-रांगेय राघव
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गौतम सचदेव का ललित निबंध
पीले
पत्ते
*
पुनर्पाठ में- डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय
का नगरनामा
कोलकाता की शाम |
अभिव्यक्ति समूह
की निःशुल्क सदस्यता लें। |
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पिछले-सप्ताह-
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१
दुर्गेश ओझा की
लघुकथा- दान
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डॉ. अजय कुमार पटनायक से जानें
उड़िया नाटक
: उद्भव और विकास
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नारायण भक्त का आलेख
भारतीय चित्रकला और पटना कलम
*
पुनर्पाठ में- दीपिका जोशी के साथ पर्यटन
पतझड़ के बदलते रंगो में डूबा
अमेरिका
*
समकालीन कहानियों में
भारत से
सुमति
सक्सेना लाल की कहानी-
दूसरी बार न्याय
अभी हफ्ता भर पहले ही तो मैं
लखनऊ से मेरठ आई थी। चाचा के घर में सब कुछ ठीक ठाक ही था। ऐसी
किसी भी अनहोनी की कोई भी तो गंध महसूस नहीं की थी मैंने। इन
सात दिनों में ऐसा क्या हो गया? कैसे हुआ यह सब? पापा मम्मी
तीन दिन लखनऊ रह कर लौट आये हैं। पापा बेहद पस्त, पराजित और
झल्लाये हुये से हैं। मम्मी की परेशानी? उन्हें देखकर समझ नहीं
आता कि सच में परेशान हैं या स्थितियों का मजा ले रही हैं या
दोनो कुछ साथ में है। वैसे भी मम्मी मुझे कभी भी चाची के लिये
संवेदनशील नहीं लग पायी हैं। मेरा
कितना समय लखनऊ मे बीता है मेरी तो अधिकांश पढाई चाची के पास
रह कर ही हुयी है और अब नौकरी। वहाँ मुझे करीब चार महीने बाद
ज्वायन करना है। चाची के साथ रहकर नौकरी करने की कल्पना मात्र
ही मुझे खुशी से भर गई थी...पर चाचा के घर जो कुछ हुआ है उसे
सुन कर मैंने मम्मी से साफ कह दिया था कि अब मुझे लखनऊ नहीं
जाना...
आगे- |
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