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अनूठे कथाकार-
रांगेय राघव
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कुमुद शर्मा
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रांगेय राघव हिंदी के उन विशिष्ट और बहुमुखी रचनाकारों में से
हैं जो बहुत ही कम उम्र लेकर इस संसार में आए। लेकिन जिन्होंने
अल्पायु में ही एक साथ उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार, आलोचक,
नाटककार, कवि, इतिहासवेत्ता, रिपोर्ताज लेखक के रूप में स्वयं
को प्रतिष्ठापित कर दिया; अपने रचनात्मक कौशल से हिंदी की
महान् सृजन शीलता के दर्शन करा दिए। हिंदीतर भाषी होते हुए भी
उन्होंने हिंदी साहित्य के विभन्न धरातलों पर युगीन सत्य से
उपजा महत्वपूर्ण साहित्य उपलब्ध कराया। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक
पृष्ठभूमि पर जीवनीपरक उपन्यासों का ढेर लगा दिया। कहानी के
पारंपरिक ढाँचे में बदलाव लाते हुए नवीन कथा प्रयोगों द्वारा
उसे मौलिक कलेवर में विस्तृत आयाम दिया। रिपोर्ताज लेखन,
जीवनचरितात्मक उपन्यास और महायात्रा गाथा की परंपरा डाली।
विशिष्ट कथाकार के रूप में उनकी सृजनात्मक संपन्नता
प्रेमचंदोत्तर रचनाकारों के लिए बड़ी चुनौती बनी।
रांगेय राघव का जन्म १७ जनवरी, १९२३ को आगरा में हुआ और निधन
१२ सिंतंबर, १९६२ को बंबई में। इनका मूल नाम तिरूमल्लै नंबाकम
वीर राघव आचार्य था; लेकिन उन्होंने अपना साहित्यिक नाम
’रांगेय राघव’ रखा। ’बैर’ गाँव के सहज, सादे ग्रामीण परिवेश
में उनके रचनात्मक साहित्य ने अपना आकार गढ़ना शुरू किया। उनका
अंग्रेजी पर पूर्ण अधिकार था; लेकिन जब उनकी सृजन-शक्ति अपने
प्रकाशन का मार्ग ढूँढ़ रही थी तब देश स्वतंत्रता के लिए
संघर्षरत था। ऐसे वातावरण में उन्होंने अनुभव किया-अपनी
मातृभाषा हिंदी से ही देशवासियों के मन में देश के प्रति
निष्ठा और स्वतंत्रता का संकल्प जगाया जा सकता है। यों तो उनकी
सृजन-यात्रा सर्वप्रथम चित्रकला में प्रस्फुटित हुई। सन्
१९३६-३७ के आस-पास जब वह साहित्य की ओर उन्मुख हुए तो उसने
सबसे पहले कविता के क्षेत्र में कदम रखा और इसे संयोग ही कहा
जाएगा कि उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति का अंत भी मृत्यु पूर्व
लिखी गई उनकी एक कविता से ही हुआ। उनका साहित्य सृजन भले ही
कविता से शुरू हुआ हो, लेकिन उन्हें प्रतिष्ठा मिली एक गद्य
लेखक के रूप में। सन् १९४६ में प्रकाशित ’घरौंदा’ उपन्यास के
जरिए वे प्रगतिशील कथाकार के रूप में चर्चित हुए।
उनकी प्रमुख प्रकाशित रचनाएँ इस प्रकार हैं-उपन्यास: ’घरौंदा’,
’विषाद मठ’, ’मुरदों का टीला’, ’सीधा सादा रास्ता’, ’हुजूर’,
’चीवर’, ’प्रतिदान’, ’अंधेरे के जुगनू’, ’काका’, ’उबाल’,
’पराया’, ’देवकी का बेटा’, ’यशोधना जीत गई’, ’लोई का ताना’,
’रत्ना की बात’, ’भारती का सपूत’, ’आंधी की नावें’, ’अंधेरे की
भूख’, ’बोलते खंडहर’, ’कब तक पुकारूँ’, ’पक्षी और आकाश’, ’बौने
और घायल फूल’, ’लखिमा की आँखें, ’राई और पर्वत’, ’बंदूक और
बीन’, ’राह न रुकी’, ’जब आवेगी काली घटा’, ’धूनी का धुआँ’,
’छोटी सी बात’, ’पथ का पाप’, ’मेरी भव बाधा हरो’, ’धरती मेरा
घर’, ’आग की प्यास’, ’कल्पना, ’प्रोफेसर, ’दायरे’, ’पतझर’,
’आखिरी आवाज’। कहानी: ’साम्राज्य का वैभव’, ’देवदासी’, ’समुद्र
के फेन, ’अधूरी मूरत’, ’जीवन के दाने’, ’अंगारे न बुझे’, ’ऐयाश
मुरदे’, ’इनसान पैदा हुआ’, ’पांच गधे’, ’एक छोड़ एक’। गाथा:
’महायात्रा-१’, ’महायात्रा-२’। रिपोर्तात: ’तूफानों के बीच’।
काव्य: ’अजेय खंडहर’, ’पिघलते पत्थर’, ’मेधावी’, ’राह के
दीपक’, ’पांचाली’, ’रूप छाया’। नाटक: ’स्वर्णभूमि की यात्रा’,
’रामानुज’, ’विरूढ़क’। आलोचना: ’भारतीय पुनर्जागरण की भूमिका’,
’भारतीय संत परंपरा और समाज’, ’संगम और संघर्ष’, ’प्राचीन
भारतीय परंपरा और इतिहास’, ’प्रगतिशील साहित्य के मानदंड’,
’समीक्षा और आदर्श’, ’काव्य, यथार्थ और प्रगति’, ’काव्य, कला
और शास्त्र’, ’महाकाव्य विवेचन’, ’तुलसीदास का कला शिल्प’,
’आधुनिक हिंदी कविता में प्रेम और श्रंगार’, ’आधुनिक हिंदी
कविता में विषय और शैली’, ’गोरखनाथा और उनका युग’।
उनका यह विपुल साहित्य उनकी अभूतपूर्व लेखन क्षमता को दर्शाता
है। जिसके संदर्भ में कहा जाता रहा है कि ’जितने समय में कोई
पुस्तक पढ़ेगा उतने में वे लिख सकते थे। वस्तुतः उन्हें कृति की
रूपरेखा बनाने में समय लगता था, लिखने में नही।’
रांगेय राघव सामान्य जन के ऐसे रचनाकार हैं जो प्रगतिवाद का
लेबल चिपकाकर सामान्य जन का दूर बैठे चित्रण नहीं करते, बल्कि
उनमें बसकर करते हैं। समाज और इतिहास की यात्रा में वे स्वयं
सामान्य जन बन जाते हैं।
रांगेय राघव ने वादों के चौखटे से बाहर रहकर सही मायने में
प्रगतिशील रवैया अपनाते हुए अपनी रचनाधर्मिता से समाज संपृक्ति
का बोध कराया। समाज के अंतरंग भावों से अपने रिश्तों की पहचान
करवाई। सन् १९४२ में वे मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित
दिखे थे; मगर उन्हें वादग्रस्तता से चिढ़ थी। उनकी चिंतन
प्रक्रिया गत्यात्मक थी। उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ की
सदस्यता ग्रहण करने से इनकार कर दिया, क्योंकि उन्हें उसकी
शक्ति और सामर्थ्य पर भरोसा नहीं था। साहित्य में वे न किसी
वाद से बंधे, न विधा से। उन्होंने अपने ऊपर मढ़े जा रहे
मार्क्सवाद, प्रगतिवाद और यथार्थवाद का विरोध किया। उनका कहना
सही था कि उन्होंने न तो प्रयोगवाद और और प्रगतिवाद का आश्रय
लिया और न प्रगतिवाद के चोले में अपने को यांत्रिक बनाया।
उन्होंने केवल इतिहास को, जीवन को, मनुष्य की पीड़ा को और
मनुष्य की उस चेतना को, जो अंधकार से जूझने की शक्ति रखती है,
उसे ही सत्य माना।
सच कहा जाए तो रांगेय राघव ने जीवन की जटिलतर होती जा रही
संरचना में खोए हुए मनुष्य की, मनुष्यत्व की पुनर्रचना का
प्रयत्न किया, क्योंकि मनुष्यत्व के छीजने की व्यथा उन्हें
बराबर सालती थी। उनकी रचनाएँ समाज को बदलने का दावा नहीं
करतीं, लेकिन उनमें बदलाव की आकांक्षा जरूर है। इसलिए उनकी
रचनाएँ अन्य कई रचनाकारों की तरह व्यंग्य या प्रहारों में खत्म
नहीं होतीं, न ही दार्शनिक टिप्पणियों में समाप्त होती हैं,
बल्कि वे मानवीय वस्तु के निर्माण की ओर उद्यत होती हैं और इस
मानवीय वस्तु का निर्माण उनके यहाँ परिस्थिति और ऐतिहासिक
चेतना के द्वंद से होता है। उन्होंने लोक-मंगल से जुड़कर युगीन
सत्य को भेदकर मानवीयता को खोजने का प्रयत्न किया तथा
मानवतावाद की अवरोधक बनी हर शक्ति को परास्त करने का भरसक
प्रयत्न भी।
कुछ प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों के उत्तर रांगेय राघव ने अपनी
कृतियों के माध्यम से दिए। इसे हिंदी साहित्य में उनकी मौलिक
देन के रूप में माना गया। ’टेढ़े-मेढ़े रास्ते’ के उत्तर में
’सीधा-सादा रास्ता’, ’आनंदमठ’ के उत्तर में ’विषादमठ’,
’कामायनी’ के उत्तर में ’मेधावी’ और यशपाल की ’दिव्या’ के
उत्तर में उन्होंने ’चीवर’ लिखा।
प्रेमचंदोत्तर कथाकारों की कतार में अपने रचनात्मक वैशिष्ट्य,
सृजन विविधता और विपुलता के कारण वे हमेशा स्मरणीय रहेंगे। |