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							१उड़िया 
							नाटक: उद्भव और विकास
 - अजय कुमार पटनायक
 
 
							“उत्कृष्टा कला यस्मिन् तत् उत्कलम” चित्रकला हो या 
							चाहे चारूकला, काव्यकला हो या नाट्यकला, उड़िया 
							कलाकारों ने सैदव इन क्षेत्रों में अपना उत्कर्ष 
							दिखाया है, विशेषकर नाट्यकला का जहाँ तक प्रश्न है, यह 
							हमारी संस्कृति से घुलीमिली-सी है, उड़िया संस्कृति 
							जगन्नाथ संस्कृति के नाम से जानी और मानी जाती है, 
							जगन्नाथ जी के मंदिर में बारह महीनों में तेरह महोत्सव 
							हुआ करते है, नृत्य और अभिनय के प्रति उड़ीसावासियों के 
							तीव्र आकर्षण के संकेत उड़ीसा के सभी मंदिरों में 
							स्थापित नाट्य-मंदिर तथा पुरी, कोणार्क एवं भुवनेश्वर 
							के प्राचीन मंदिरों पर उत्कीर्ण चित्रों में प्राप्त 
							असंख्य यंत्र, विविध हाव-भाव, वेशभूषा, साज-सज्जा और 
							नृत्य-मुद्राओं में मिल जाते हैं, धर्मप्राण उड़िया 
							जनता के आग्रह को लक्ष्य करके हमारे नाटककारों ने 
							विविध पौराणिक कथाओं पर आधारित गीति नाटकों की रचना की 
							और आम जनता के समक्ष उन्हें प्रस्तुत किया, ये 
							गीताभिनय इतने लोकप्रिय हुए कि उड़िया में उनकी सुदृढ़ 
							परम्परा बन गई, इस परम्परा की नींव डालने तथा इसे 
							महिमामण्डित करने का श्रेय वैष्णव पाणि, जगन्नाथ पाणि, 
							वैष्णव चरण दास, मोहन स्वामी, गोपाल उड़े, बालकृष्ण 
							महान्ति, कृष्णप्रसाद बसु आदि को है, इनमें पूर्ववर्ती 
							लीलाओं का परिमार्जित रूप देखने को मिलता है, 
							संवाद-तत्व की अपेक्षा इनमें अभिनय तत्व को प्रधानता 
							दी गई।
 एक ओर जहाँ आम जनता द्वारा आदृत लोकनाटक आधुनिकता की 
							आवाज सुनकर अपने को युगोपयोगी बनाने के लिए क्रमशः 
							गद्याभिमुखी हो रहा था, विषय और अभिव्यक्ति में अभिनव 
							दृष्टिकोण अपनाने का प्रयत्न कर रहा था, वही दुसरी ओर 
							पश्चिमी प्रभाव से प्रभावित बंगला नाटकों से प्रेरित 
							होकर साहित्यिक अभिरूचिसम्पन्न नाटक लिखने का भी सफल 
							प्रयास हुआ, सन् १८७७ में “बाबाजी” नाटक की रचना कर 
							जगन्मोहन लाला ने इस परंपरा की नींव रखी, विषय, भाषा, 
							संवाद एवं रंगमंचीय उपयोगिता की दृष्टि से यह प्रथम 
							उल्लेखनीय उड़िया नाटक है, स्वंय समाज सुधारक होने के 
							कारण लाला जी ने अपने इस नाटक में उस समय प्रचलित 
							कुसंस्कार, अन्धविश्वास और सामाजिक अनाचारों के 
							विरूद्ध आवाज उठाई है, “सती” नाटक के जरिए उन्होंने एक 
							अत्याचारी राजा का मुखैटा खोल दिया है तो “वृद्ध 
							विवाह” नामक प्रहसन में अनमेल विवाह पर व्यंग्य करके 
							तत्कालीन विवाह-व्यवस्था की कड़ी आलोचना की है।
 
 अपने अध्ययन एवं अनुशीलन से रामशंकर राय ने बंगला 
							नाटकों से नाट्य-कला का ज्ञान पाया तो उड़ीया के धर्म, 
							संस्कृति एवं इतिहास की जानकारी ली, उड़िया संस्कृति पर 
							आधारित किम्वदन्तीमूलक ऐतिहासिक नाटक “काँची-काबेरी” 
							नाट्य-शिल्प तथा मंच-कला की दृष्टि से उन्नत साबित 
							हुआ, साथ ही विष मोदक, युगधर्म, काँचनमाली, लीलावती 
							आदि संस्कारधर्मी नाटकों की रचना कर राय साहब ने 
							लोकप्रियता अर्जित की, ढ़ोंगी महन्त, अत्याचारी जमींदार 
							एवं जातिवाद आदि के विरोध के साथ-साथ इन नाटकों में 
							नारी-शिक्षा के विस्तार, असवर्ण विवाह आदि प्र्रगतिशील 
							विचारों पर जोर दिया गया है, साथ ही “कलिकाल” “बूढ़ा 
							वर” जैसे प्रहसनों की रचनाकर राय साहब ने प्रचलित 
							कुप्रथाओं पर भी व्यंग्य किया, इस युग के अन्य 
							नाटककारें में कामपाल मिश्र, भिकारी चरण पटनायक, 
							गोदावरीश मिश्र आदि के नाम उल्लेखनीय हैं, सन् १९२० 
							में अश्वनीकुमार घोष के आविष्कार से उड़िया नाटक के 
							क्षेत्र में एक नया मोड़ आया, अपनी रचनाओं में 
							सर्वप्रथम जातीयताबोध, राष्ट्रप्रेम तथा जन जागरण का 
							मंत्र फूँककर अश्विनीकुमार ने नये लक्ष्य, नूतन विषय 
							तथा अभिनव निर्माण-शैली से उड़िया नाट्य-परंपरा को 
							विकास की ओर प्रेरित किया, अश्विनीकुमार के समकालीन 
							नाटककारों में गोविन्दचंद्र शूरदेव, रामचंद्र 
							महापात्र, कार्त्तिक कुमार घोष, बालकृष्णकर आदि के नाम 
							लिए जा सकते हैं।
 
 इसके पश्चात् १९२० ईस्वी में उड़िया नाट्य-जगत में 
							काली-चरण पटनायक का आविर्भाव एक बहुत बड़ा वरदान सिद्ध 
							हुआ, कालीबाबू ने तत्कालीन लीला, स्वाँग, रास, यात्रा 
							से प्रभावित तमाम नाटक तथा रंगमंचों को बारीकी से 
							देखा, परखा और उनमें आवश्यक सुधार लाने का भर प्रयत्न 
							किया, स्वयं अच्छे संगीतकार होने के कारण पहले लीला 
							एवं गीताभिनय की ओर उनकी दृष्टि गई और मृगया, 
							शकुन्तला, हरिश्चंद्र आदि की रचना कर पारंपरिक 
							नाट्य-शैली में संस्कार लाने की कोशिश की, लेकिन युगीन 
							आवश्यकताओं का अनुभव कर कालीचरण ने स्वयं अपने पैंतरे 
							बदले उड़िया नाटकों में यथार्थता, समस्या- सचेतनता, 
							मनोवैज्ञानिकता एवं आधुनिकता की जो कमी थी, उसे 
							उन्होंने पूरा किया, मंच-शैली और नाट्य-कला की दृष्टि 
							से तो पटनायक जी ने उड़िया नाटक का कायाकल्प ही कर 
							दिया, साथ ही लोक- भाषा और लोक-साहित्य के सुंदर 
							संयोजन से उन्होंने अपने नाटक में चार चाँद लगा दिये, 
							उनके भात, रक्तमाटि, चुम्बन, फटाभुई, गार्नस्कूल आदि 
							सामाजिक नाटक जहाँ तत्कालीन समस्याओं की अभिव्यक्ति 
							करते हैं, जयदेव, अतिबड़ी जगन्नाथ दास, सारला दास जैसे 
							चरित नाटकों से एक साहित्यिक चेतना का संचार होता है, 
							साथ ही पौराणिक नाटक “चक्री” तथा ऐतिहासिक नाटक 
							“अभियान” , “रक्त मन्दार” आदि से तो कालीबाबू ने जनता 
							के सामने जैसे उनकी महान परंपरा को ही जीवन्त बना दिया 
							है, “चक्री” के माध्यम से उन्होंने कृष्ण के 
							राजनीतिज्ञ का उद्घाटन किया तो “अभियान” के जरिए 
							स्वातंत्र-भावना के बीज बोये, इस युग के अन्य 
							नाटककारें में हरिश्चंद्र बड़ाल, वैकुण्ठनाथ पटनायक एवं 
							कालिन्दीचरण पाणिग्रही अत्यन्त चर्चित रहैं, यद्यपि 
							कालीबाबू की नाट्य-प्रतिभा के समक्ष उनकी आभा क्षीण हो 
							गई है।
 
 वैसे देखा जाये तो स्वातंत्रयोत्तर काल में लगभग सभी 
							भारतीय भाषाओं के साहित्य में परंपरा के प्रति 
							प्रतिक्रिया स्वरूप अभिनव शिल्प-दृष्टि, 
							व्यक्ति-चेतना, मुक्ति-चेतना एवं मार्क्सीय विचारधारा 
							का विकास दृष्टिगत होता है, वस्तुतः उड़िया नाटक में 
							परिवर्तित स्वर और संवेदना लेकर पदार्पण करने वाले 
							नाटककारों में रामचंद्र मिश्र, मनोरंजन दास, गोपाल 
							छोटराय, प्राणबंधु कर, भंजकिशोर पटनायक, अद्धैत चरण 
							महान्ति, कमल लोचन महान्ति, रजत कुमार कर आदि प्रमुख 
							हैं, द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल की विविध सामाजिक 
							एवं राजनीतिक समस्याओं के साथ-साथ साम्प्रदायिक विभेद, 
							दहेज प्रथा, महँगाई, चोरबाजारी, घूसखोरी जैसी समकालीन 
							समस्याओं पर इन नाटककारों ने लेखनी चलाई।
 
 साठोत्तर काल में उड़िया नाटक के क्षेत्र में मुख्यतः 
							परीक्षा-निरीक्षा का दौर चला, हालांकि इससे पहले १९५० 
							में ही मनोरंजन दास ने एक सेट पर “आगामी” का निर्माण 
							कर नवीनता की नींव रख दी थी। सन् १९५५ में गोपाल 
							छोटराय के “अर्द्धांगिनी” ने उनका साथ दिया और 
							व्योमकेश त्रिपाठी के “एक-दइ-तीन” ने इस ओर सबकी 
							दृष्टि आकर्षित की। फिर प्राणबंधु कर, अक्षय कुमार 
							महान्ति, विश्वजीत दास, भुवनेश्वर महापात्र आदि कई 
							नाटककारों ने इस प्रयोगवादी धारा को अपनी-अपनी 
							नाट्य-कृतियों के माध्यम से परिपुष्ट किया। परम्परा की 
							पुरानी लीक से हटकर एस्टेब्लिशमेंट का तिरस्कार कर तथा 
							तमाम मान्यताओं के बंधन तोड़कर इस युग के नाटककारों ने 
							यूरोपीय नाट्य-कला के रूपगत और रूचिगत परिवर्तन की ओर 
							अपनी दृष्टि दौड़ाई। कुछ गिने-चुने प्रतीकात्मक 
							चरित्रों एवं दृश्यों के माध्यम से मानव-जीवन की अकथ 
							कहानी का चित्रण ही इस युग के नाटकों का मुख्य 
							प्रतिपाद्य बन गया। इन नाटकों के संवाद अत्यंत लघु, 
							यहाँ तक कि एक दो शब्दों में ही सीमित होते हैं, पर 
							इनकी अभिव्यक्ति में तीक्ष्णता होती है। कथा तत्व 
							प्रायः नहीं के बराबर होता है और घटनाएँ अपने आप में 
							कोई महत्व न रखते हुए भी उद्देश्यहीन नहीं होतीं। इस 
							दृष्टि से मनोरंजन दास के “बनहंसी”, “अमृतस्य पुत्र”, 
							“अरण्य फसल”, विश्वजीत दास के “मृगया”, “निशिपद्म”, 
							विजय कुमार मिश्र के “शब बाहक माने”, “दुइटि सूर्यदग्ध 
							फुलकु नेइ”, वसंत कुमार महापात्र के “श्रंगार शतक”, 
							“ज्वाला”, “अलिभादाग”, यदुनाथ दाश महापात्र के “अथवा 
							अंधार”, रत्नाकार चइनि के “राजहंस”, “पुनश्च पृथ्वी”, 
							कार्त्तिक चंद्र रथ के “जीवन यज्ञ”, रमेशचंद्र 
							प्राणिग्रही के “मूं, आम्ये, आम्येमाने” आदि के नाम 
							लिये जा सकते हैं।
 
 इस प्रकार १९६८ ईस्वी तक आते-आते ये ही नाटककार नव 
							नाट्य आंदोलन शुरू कर देते हैं। सूक्ष्म से सूक्ष्म 
							प्रेतीकों का प्रयोग करने के साथ-साथ कथाहीन कथावस्तु, 
							असंपूर्ण अथवा सूक्ष्मतम संवाद योजना, लक्ष्यहीनता एवं 
							समयहीनता दिखाकर इन नाटककारों ने पारंपरिक नाटकीय 
							तत्त्व को नकार दिया। नायक-नायिका के रूप में लूले, 
							लंगड़े, गूँगे-बहरे जैसे विकलांगों को भी लिया जाने लगा 
							एवं मंच के लिए कोई निर्दिष्ट स्थान नहीं रखा गया। 
							प्लेटफार्म, बस स्टैण्ड, अस्पताल, श्मशान, हिल स्टेशन, 
							यहाँ तक कि बस के अंदर तक में नाटक अभिनीत होने लगे। 
							संवाद इतना कम हो गया है कि कभी-कभी नीरवता से ही 
							पात्र अपना वक्तव्य व्यक्त करते पाये जाते हैं।
 
 इन साहित्यिक, कलात्मक तथा मंचीय परिवर्तनों की ओर चंद 
							बुद्धिवादियों की रुचि भले ही बढ़ती गई हो, पर आम 
							दर्शकों की दृष्टि इनसे हटकर परम्परिक कथा, नृत्य तथा 
							दैनंदिन जीवन की समस्याओं की ओर ही अधिक आकर्षित होती 
							है। यही कारण है कि नव नाट्य आंदोलन के दौरान रामचंद्र 
							मिश्र, गोपाल छोटराय, भुवनेश्वर महापात्र, नरसिंह 
							महापात्र, जगन्नाथ प्रसाद दास, प्रसन्न मिश्र, आनंद 
							शंकर दास, प्राणबंधु कर, हरिहर मिश्र, रत्नाकर चइनि 
							आदि के समस्या संबलित नाटकों ने भी पर्याप्त 
							लोकप्रियता प्राप्त की। क्रमशः कथातत्व को प्रधानता 
							देते हुए समकालीन जीवन से संबंधित बहुविध समस्याओं का 
							उद्घाटन करते हुए इस समय उड़िया नाटकों का निर्माण 
							करनेवालों में नाटककार बनविहारी पण्डा, कार्तिक रथ, 
							हिमांशुभूषण साबंत, शैलेश्वरनंद, कुज राय, रति मिश्र, 
							पूर्ण मल्लिक, सुबोध पटनायक, निर्मल मिश्र, विजय 
							शतपथी, मन्मथ शतपथी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके 
							अतिरिक्त जयंत दास, रामचंद्र बेहेरा, नीलाद्रिभूषण 
							हरिचंदन, सामुएल नायक, नदिया बिहारी महान्त जैसे 
							नाट्यकारों का एक वर्ग अत्यंत सफलता के साथ रेडियो 
							नाटकों के सृजन में नियोजित है। इनमें से कोई 
							साम्प्रतिक मनःस्थिति की अभिव्यक्ति पर जोर देता है तो 
							कोई किसी निर्दिष्ट समस्या की अभिव्यक्ति पर। 
							कहीं-कहीं तो हास्यरस की अवतारण कर, मनोरंजन के 
							साथ-साथ सामाजिक कृत्रिमता पर व्यंग्य-वाण बरसाया जाता 
							है।
 
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							नवंबर २०१२ |