कभी कभी
बिना सोचे समझे हम पर्यटक बन जाते हैं, कभी कहीं जाने का
सोचते सोचते रह जाते हैं लेकिन नहीं जा पाते। जिन्दगी इसी
का नाम है।
थोड़ा खाली समय मिले तो मैं बालकनी में बैठकर समुंदर से
आनेवाली ठण्डी हवा खाना पसन्द करती हूं। उस दिन भी यों ही
आरामकुर्सी पर मज़े ले रही थी, कि "हलो माँ, कैसी हो?"
मैंने फोन की घंटी तो सुनी थी पर अब समझी कि बेटे का फोन
था। मेरे जुड़वाँ बेटे यू एस ए में पढ़ रहे हैं। डेढ़ साल से
ज्यादा हो गए हैं उनको गए। तब से मिले नहीं थे। उनकी आवाज़
सुनते ही मेरा मन मचल गया। "क्यों न हम उनसे मिलने चलें!"
और मुझे बहाना मिल गया उनके जन्मदिन पर उन्हें खुद मिलने
जाने का।
अक्तूबर में भी कभी कभी ठण्ड बढ़ जाती है लेकिन नवम्बर में
जाना याने हमारे जैसों के लिये जरा आफत मोेल लेने वाली बात
हो सकती थी। ज्यादा समय हाथ में नहीं था, जो भी निर्णय
लेना था, इन्हीं दो तीन दिनों में लेना था। रोज आम गति से
चलने वाली जिन्दगी की गाड़ी ज़रा तेज़ दौड़ने लगी। मेरे खयाली
पुलाव पकने शुरू हो गये। अमेरिका घूमने का बहाना कम और
बेटों से मिलने का बहाना ज्यादा महत्व रखता था शायद! सभी
कागज़ाद और वीसा तैयार होते ही सोच की रफ्तार और तेज़ हो
गयी। टिकट आते ही लगा कि चार दिन पहले जो सपने में भी नहीं
सोचा था वो सच होने जा रहा था। अमेरिका में मौसम का तकाज़ा
बारिश और ठण्ड से जबरदस्त आमना– सामना होने का इशारा कर
रहा था। कपड़ों से लैस
हो कर हमने रात में के एल एम के हवाई जहाज़ से एमस्टैरडॅम
के लिये कुवैत से उड़ान भरी।
सुबह की हल्की रोशनी में अॅमस्टैरडॅम हवाई अड्डे पर हवाई
जहाज उतरने को था तब बाहर का नज़ारा देखने लायक था, लाल
पीले हरे पेड़। जिधर भी देखें, ऐसे ही चादर जैसी बिछी हुई।
कभी सुना था कि पतझड़ के मौसम में पश्चिमी देशों में पौधों
के रंग बदलते हैं, आज देख भी लिया। सुनी हुई बातों से परदा
उठा, असलीयत को आजमा रहे थे। ऐसे भी रंग बदल सकते हैं? हाँ
हाँ! बदलते हैं! अॅमस्टैरडॅम हवाई अड्डे पर थोड़ी ही देर
रुकना था। अब हमारा अमेरिका में प्रवेश डेट्रॉइट में होना
था। डेट्राइस में ग्यारह सितंबर के हादसे के बाद होनेवाली
कड़ी सुरक्षा के तहत दो घण्टे की कड़ी जाँच के बाद ही कॅन्सस
तक का सफर शुरू हो पाया। यहाँ बाहर आने पर ठण्ड और
हिमवर्षा ने स्वागत किया। अरे! कितने दिनों की तमन्ना पूरी
हुई हिमवर्षा देखने की! फूली नहीं समायी। ठण्ड से काँपते
हुए भी बर्फ को कपड़ों पर गिरते देखते रहना चाहती थी।
कॅन्सस हवाई अड्डे से
दो घण्टे का सफर छोटी बस (रोड रनर) से तय कर हम मैनहटन
पहुँच गए। कुवैत से निकले हमें करीब तेईस घण्टे हो चुके थे
सो ये दो घण्टे करीब झपकियाँ लेते ही पूरे हुए। न्यूयार्क
वाले मैनहटन को बिग अॅपल और इस छोटे मैनहटन को स्मॉल
अॅपल कहा जाता है। बेटों से मिलकर अच्छा लगा। पलों की तरह
बीते तीन दिन मैं उन्हें खिलाने पिलाने में और वो हमें
मैनहटन की सैर कराने में लगे रहे। इस वैविध्यपूर्ण
प्राकृतिक देन को, पतझड़ के पौधों के लाल पीले पत्तों को
करीब से देखने का और उन्हें छू कर महसूस करने का जो मौका
यहाँ मिला वो आगे के सफर में नहीं! बादलों की छटा में वे
रंग खूब खिल रहे थे, पानी की बूँदों से चमक भी रहे थे। मन
में समा लिया और तस्वीरों में उन्हें कैद कर लिया। बाद में
बातों में पता चला की यह पतझड़ का मौसम बहुत ही कम समय का
होता है। इसका मतलब किस्मत हमारे साथ थी जरूर! थोड़े दिनों
बाद ये पत्ते जमीन पर गिरना शुरू हो जाते हैं, बिखर कर लाल
पीला कालीन बिछ जाता
है धरती पर। लेकिन पत्तों का साथ छूटते देख पेड़ की डालियाँ
सूनी और उदास दिखती है।
आगे वॉशिंग्टन और न्यूयार्क देखने निकलना था। मैनहटन में
तीन दिन रहकर थोड़ी बहुत तो अमेरिकी दुनिया समझ में आ रही
थी, वॉशिंग्टन कैसा होगा यह सोचते मैनहटन को अलविदा कह कर
वॉशिंग्टन के लिये रवाना हो गये। वॉशिंग्टन के बाल्टीमोर
हवाई अड्डे पर पहुँचते रात हो गई थी। नयी जगह, अँधेरा और
टैक्सी में बैठे तो ड्राइवर भी काला, जरा सी देर के लिये
शंका ने घेर लिया था। दिल पर बोझ लिये बैठे पर ४५ मिनट का
सफर तय हुआ और हम वॉशिंग्टन के होटल में पहुँच ही गये।
वैसे बता दूं कि वह ड्राइवर बहुत ही नेक इन्सान था। रात तो
काफी बीत चुकी थी, सुबह वॉशिंग्टन घूमने निकलना था।
सुबह
पाँच बजे से ही चहल पहल शुरू हुई। बाद में पता चला की
रस्ते जाम हो जाने पर होने वाली मुश्किल से बचने के लिये
लोग घर से जल्दी निकलना पसन्द करते हैं। और बड़े शहर कभी
सोते ही नहीं यह बात वॉशिंग्टन में भी लागू होती है। सुबह
हम चले सैर पर, ठण्ड तो रंग जमा ही चुकी थी, नज़र फेरो तो
सभी तरफ हरियाली भी साथ दे रही थी। लाल पीले हरे रंगों की
तो बहार थी ही चारो तरफ। आधे घण्टे के बाद वही रास्ते सभी
तरफ से बन्द, गाड़ियाँ सभी तरफ से फँसी हुयी, 'ट्राफिक
जाम', बड़े शहर का एक झटका। सही
वाहन नियंत्रण नहीं था यहाँ।
वॉशिंगटन का पुराना इलाका जॉर्ज टाउन के नाम से जाना जाता
है। गाइड बता रहा था, सटे हुए घर, आकार में छोटे पर कीमतें
आज के जमाने में आसमान छू रही हैं लेकिन यही वॉशिंग्टन की
आत्मा है। जॉर्ज टाउन से हमारी गाड़ी कैपीटल हिल की तरफ
निकली। टी वी पर हमेशा जब भी कभी अमेरिका का नाम आता है,
यही सफेद इमारत कैपीटल हिल दिखाई जाती है, आज हम उसके
सामने खड़े थे। सामने हरी हरी घास, सुनहरी धूप और थोड़ी
विस्तारित कैपीटल हिल की इमारत। यदि पूरी इमारत कैमरे में
लेनी है तो फोटो दूरसे खींचना होगा। करीब जा कर और अन्दर
से देखकर उसकी लाजवाब कारीगरी देखी जा सकती है। अधिवेशन के
समय यह पर्यटकों के लिये बन्द रखी जाती है। सौभाग्य से हम
सही समय पर पहुँचे और देख भी आए।
वॉशिंग्टन
मॉन्यूमेंट जॉर्ज वाशिंग्टन की स्मृति में बनाया गया है।
१८४८-१८८४ के दरम्यान बनकर तैयार हुआ यह ५५५ फुट ऊंचा हैं।
यहाँ ऊपर तक मुफ्त में जाने की सुविधा है जहाँ से चारों
तरफ से लगी खिड़कियों से वॉशिंग्टन शहर का विस्तृत फैलाव
देखा जा सकता है। पास ही है अरलिंगटन सिमेट्री जहाँ आज तक
के अमेरिकी लड़ाइयों के शहीदों को
दफनाकर स्मारक बनाए गए हैं
और अभी भी वही सिलसिला जारी है। यहीं होने वाला 'चेंज ऑफ
गार्डस' भी दर्शनीय है।
अब थी व्हाइट हाउस की बारी। ग्यारह सितंबर के हादसे के बाद
काफी दूरी तक प्रवेश बन्द कर दिया गया है। वहाँ की
खूबसूरती दूर से ही देखकर तसल्ली कर लेनी पड़ती है। पुरानी
इमारतों की तो शान ही अलग है। पत्थरों से बनी हुई ऊंची इन
इमारतों की विशालता बयान नहीं कर सकते। नक्काशी तो समझ
सकते हैं लेकिन ऐसी ऐसी बातें उस पर खुदी हुई है कि पढ़ना
है तो काफी समय देना होगा। लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस दुनिया
की सबसे बड़ी है। इतना सब कुछ घूमते घूमते आधा दिन बीत ही
चुका था। दो घण्टे के लिये हमें एयर एण्ड स्पेस म्यूजियम
देखने के लिये गाइड ने कहा। बाहर से इस म्यूजियम की इमारत
अच्छी है ही लेकिन अन्दर क्या समाया हुए हैं इस बात का
अन्दाज़ा लगाना बाहर से असंभव है। अवाक् रह गये देखकर। बड़े
बड़े बोईंग से लेकर छोटे दो सीटों वाले हवाई जहाजों तक
अनगिनत हवाई जहाज रखे थे। एक के ऊपर एक लटकाये गये इन हवाई
जहाजों के सलीके को बयान करना कठिन बात होगी। इतने बड़े
म्यूजियम का एक
फेरफटका लगाने में ही दो घण्टे बीत गये। दुबारा आना ही
होगा इसे देखने! बाहर निकले बारिश की फुहार ने फिर से भीगो
दिया।
वॉशिंग्टन संग्रहालयों का शहर है। अनगिनत संग्रहालय हैं
यहाँ, सभी देखना संभव नहीं था। मनुष्य की गरिमा रखते हुए
यहाँ के लोग बड़े ही सहायक साबित हुये। आजकल हर इन्सान सभी
जगह जल्दी में हैं लेकिन पूछताछ करने के लिये बात करने पर
धैर्य से उत्तर मिलने से हमें इस नये देश में धीरज जरूर
मिलता रहा। दूसरे दिन थोड़े बहुत म्यूजियम और कला वीथिकाएँ
देखकर हम वही पहुँच गये जहाँ हमारी ज्यादा दिलचस्पी थी,
एयर अॅन्ड स्पेस म्यूजियम। राईट बंधु का प्रथम हवाई जहाज,
अपोलो ११ वाली कैप्सूल तक सभी रखा है। बड़ी बड़ी मिसाइल्स से
लेकर अंतरिक्ष में जाने वाले स्पेस शटल तक यहाँ मौजूद हैं।
यदि हवाई जहाज के बारे में आप जानकारी पाना चाहते हैं तो
वो भी विस्तार से पा सकत हैं। यहाँ थियेटर में थ्रीडी
फिल्मों का लुत्फ हमने खूब उठाया। चार घंटे यहाँ लगाकर भी
दिल तो नहीं भरा था लेकिन जहाँ ऐसी चीजें हैं वहाँ समय की
कमी हमेशा खलती है। तरह तरह की भव्यताओं से भरे वॉशिंग्टन
का दो दिन का
वास्तव्य पूरा कर प्रस्थान किया न्यूयार्क की ओर ...
ला गार्डिया न्यूयार्क उतरे तो बारिश हो रही थी। ठण्ड से
शरीर सिकुड़ता जा रहा था। टैक्सी के इन्तजार में खड़े थे,
सामने आयी टैक्सी से ड्राइवर उतरा, डिक्की खोली और अटैची
रखते पूछने लगा, "कैसे हो साहब? लगता है पहली बार आये हो
तुसी न्यूयार्क?" चौंक कर मैंने उनकी तरफ देखा, अरे!! जान
गये हम, हिन्दुस्तानियों ने दुनिया के हर कोने में अपने
लिये जगह बना ली है। पंजाब का रहने वाला यह टैक्सी ड्राइवर
पिछले पंद्रह सालों से यहाँ हैं। होटल के लिये सफर शुरू
हुआ। हिन्दी गाने चल रहे थे, बातें हिंदी में हो रही थीं!
जब टैक्सी से बाहर देखा तो याद आया कि हम तो न्यूयार्क की
सड़कों पर हैं। भीड़
भाड़, कम चौड़ी सड़कें, काफी तेज़ रोशनी... होटल आ गया।
सुबह बाहर निकले...हे भगवान! क्या ठण्ड! शायद तापमान शून्य
से भी कम था। बादलों से भरे आसमान से कभी भी बारिश की
फुहारें साथ दे ही रही थी। यहाँ डाउन टाउन और अप टाउन टूर
हैं। हमने पहले डाउन टाउन टूर लिया। खुली छत वाली बस में
ऊपर बैठ कर हमारा सफर शुरू हुआ। ठण्ड से हाथ पैरों में खून
जम गया था शायद पर इस कांक्रीट के शहर की सैर यहाँ खुली छत
में बैठकर करने में जो मज़ा है वह नीचे बैठकर नहीं। कम चौड़े
रास्ते और इतनी ऊंची इमारतें! अमेरिका विकसित देश है ही
...और प्रगतिपथ पर हमेशा आगे ...सब तरफ देखकर आलीशानता
किसे कहते हैं पता चलता है लेकिन यह बता पाना सम्भव नहीं।
रास्तों पर दिन में भी अंधेरा सा लगता है। ऊँची इमारतों की
वजह से सूरज की रोशनी या धूप में थोड़ी रुकावट सी हो जाती
है। टाइम्स स्क्वेयर के बारे में बहुत सुना था, हमारी बस
वहीं से गुजर रही थी। बड़ी बड़ी इमारतों के प्लेन सरफेस पर
इलेक्ट्रानिक युग की चमक दमक, रोशनी से भरपूर। अभी तो दिन
था तब भी यह हाल, रात में तो कैसा लगता होगा यह टाइम्स
स्क्वेयर! जहाँ ट्विन टॉवर (वल्र्ड ट्रेड सेंटरहृ११ सितंबर
तक मौजूद थे उस जगह को अब ' ज़ीरो ग्राउंड' के नाम से जाना
जाता है। वह खाली जगह इतनी छोटी लगती थी कि यकीन करना
मुश्किल था कि यहाँ इतनी बड़ी इमारतें थीं।
वर्ल्ड
ट्रेड सेंटर जब तक थे तब तक वही न्यूयार्क की सबसे ऊँची
इमारतें थीं लेकिन अब अंपायर स्टेट बिल्डिंग सबसे ऊंची
होने की वजह से उसका महत्व बढ़ गया है। अच्छा खासा टिकट
रखकर ११० मंजिली इस इमारत पर जाने दिया जाता है। ८५ वे
मंजिल पर छत से सारा न्यूयार्क नज़र आता है। इतनी ऊँचाई पर
ठण्डी हवा से सभी का बुरा हाल हो रहा था। अंदर रेस्तरां
में जा कर यहाँ के गरम चॉकलेट ड्रिंक पी कर गरमाहट लाने की
कोशिश की लेकिन बहार आने पर वह असफल साबित हुई।
दाँत बजते रहे लेकिन यहीं खुली छत पर बैठे डाउन टाउन टूर
पूरा किया। ऊँची इमारतें याने न्यूयार्क एक कांक्रीट शहर
के रूप में उभरा है लेकिन वॉशिंग्टन की हरियाली, पेड़–पौधों
जैसा नैसर्गिक सौन्दर्य यहाँ ढूंढ़ने से भी नज़र नहीं आता।
ऊंची इमारतें देखते देखते गर्दन थक सी जाती है।
अब हमें 'स्वतंत्रता
की देवी' (स्टैचू ऑफ लिबर्टीहृ का पुतला देखने जाना था।
समुद्र में एक छोटे से टापू पर यह होने की वजह से पैतालीस
मिनट का बोट का सफर करना होता है। यह पुतला आंतर्राष्ट्रीय
दोस्ती के तहत फ्रान्स ने अमेरिका को भेंट किया था। इसका
डिजाइन अगस्टी बारथोल्डी ने १८७६ में किया। वैसे तो
अमेरिकन और फ्रेंच लोगों ने मिलकर यह बनाया था। बारथोल्डी
को जब थोड़ी सहायता की जरूरत इसे बनाने में होने लगी तो
उन्हें अलेक्झांडर ईफिल (इफिल टॉवर का जिन्होंने नक्शा
बनाया थाहृ की याद आई और उन्हें बुलाया गया। उन्होंने पहले
इस पुतले के मुताबिक लोहे का ढांचा तैयार किया। बाद में
इसके उपर ताँबे की चादर से आकार दिया गया। इसके नीचे की
चौकी अमेरिका में १८८५ में बनकर तैयार होने को यह पुतला
न्यूयार्क लाया गया। अमेरिका लाते समय इसे ३५० भागों में
विलग किया गया था। न्यूयार्क पहुँचने पर चार महीने के अथक
परिश्रम के बाद यह जोड़ कर तैयार हुआ। जिस टापू पर यह रखा
गया है उसका नाम पहले बेडलोज् था, ११ मई १९६५ को इसका नाम
लिबर्टी आयलैंड रखा गया। अन्दर एक सीढ़ी उपलब्ध करायी गयी
है जिससे उपर मुकुट में लगी खिड़कियों से समुद्र के परे का
नज़ारा देखा जा सकता था जो आजकल बन्द किया हुआ है।
ताँबे का बना यह पुतला
वातावरण के साथ होनेवाली प्रक्रिया से सम्पूर्ण हरा दिखता
है।
स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी
के सामने दीपिका जोशी
पति विकास जोशी के साथ
जितनी चौड़ी ताँबे की चद्दर उसे बनाने में इस्तेमाल की गई
है उसी चौड़ाई के एक, पाँच और दस डॉलर के सिक्के पर इस
पुतले के छापे सहित हम खरीद सकते हैं जो एक यादगार चीज़ बन
सकती है।
इसके बाद हम निकले मॅडम तुस्सान का म्यूजियम देखने जहाँ
मोम के पुतले रखे हैं, एक मिनट के लिये दूरसे ही नहीं, पास
से देखने पर भी पता नहीं चलेगा, कौन खरा कौन खोटा! बड़ा ही
सराहनीय काम है। मॅडम तुस्सान एक महान कलाकार थीं ही लेकिन
उनका ही नाम आगे चलाते हुए जो कलाकार लोग इस काम में लगे
हैं वह भी उतने ही मँझे हुए कलाकार होंगे जितनी कि मैडम
तुस्सान रही होंगी। नये नये पुतले बनकर तैयार हो ही रहे
हैं लेकिन इन्हें बनाने वाले लोग सुर्खियों में नहीं, उनका
कहीं नाम नहीं इस बात का अफसोस यह म्यूजियम देखकर बाहर आने
पर हुआ।
मॅसी डिपार्टमेंटल
स्टोर जो दुनिया का सबसे बड़ा है। नौ मंजिला और चौड़ाई में
तो पता ही नहीं चलता कि हम अंदर घूमते घूमते दूसरे छोर से
बाहर निकलने पर कहाँ के कहाँ आ पहुँचे हैं।
दो दिन का न्यूयार्क शहर का सफर रात को टाइम्स स्क्वेयर पर
थोड़ा समय बीताने के बाद खत्म हुआ। अपने देश को आधुनिक और
विकास की ओर बढ़ाने के लिये वहाँ जनता की कर्मठ मानसिकता का
बहुत बड़ा सहयोग है (सब तरफ उत्साह ही उत्साह! और आलस का
कहीं नामोनिशान नहींहृ यह समझ सकते हैं।
छोटे से हफ्ते दस दिन के इस हमारे अमेरिका टूर से बेटों से
मिलने की यादें, वॉशिंग्टन की विशालता, नैसर्गिक सौन्दर्य
और न्यूयार्क की आसमान छूती इमारतों के साथ पूरे अमेरिका
की जानलेवा ठण्ड की यादों को समेट कर लायी हूं। अरे हाँ!
लौटी हूं वह सबसे अहम् पतझड़ के पौधों के बदले हुए रंग से
रंगे सपनों के साथ!
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