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पीले पत्ते
-गौतम
सचदेव
पीले
पत्ते बडे़ अभागे हैं। बेचारों को जिस समय अपने जनक की
सबसे अधिक आवश्यकता होती है, उस समय वह इनका परित्याग
कर देता है। यूं तो वृक्ष को बड़ा परोपकारी माना जाता
है, जो अपनी छाया, लकड़ी, फल, और पत्ते सब कुछ दूसरों
के हित में देने को सर्वदा उद्यत रहता है, लेकिन अपने
ही आत्मज पत्तों के सन्दर्भ में उसे स्वार्थी भी कहा
जा सकता है, क्योंकि पहले तो वह इनके माध्यम से पूरा
वर्ष सूर्य की ऊर्जा सोखता है और इनके द्वारा ही अपनी
गंदगी से मुक्ति पाता है, लेकिन ज्यों ही उसका काम
निकल जाता है, वह निर्मोही बनकर इनसे नाता तोड़ लेता
है। पीले पत्ते बेबस हैं। न तो वे पेड़ द्वारा त्यागे
जाने को रोक सकते हैं और न ही उठकर टहनियों पर लग सकते
हैं। उधर पेड़ ऐसा कठकलेजी है कि उन्हें फिर कभी तन से
जुड़ने नहीं देता। कबीर ने उनकी पीड़ा को अनुभव करते हुए
लिखा था-
पात झरंता यूं कहे सुन तरूवर बनराय।
अबके बिछुरे नाहिं मिलें दूर परेंगे जाय।।
पीले पत्ते हिन्दी की उन पुस्तकों से भी गये गुजरे
हैं, जिनको अगर कोई पढ़ता नहीं, तो कम-से-कम उनके पन्ने
चाट बेचने वालों और पुड़ियां बांधने वालों के काम तो
आते हैं। ये बचारे अनाथों की तरह दर-दर की ठोकरें खाने
को विवश हैं, क्योंकि लाखों साल गुजर जाने के बाद भी
मनुष्य को इनका कोई उपयोग नहीं सूझा है। कुछ गरीबों को
छोड़ दें, जिनके लिए ये जलावन का काम करते हैं, बाकी तो
इन्हें भस्म करके भी कोसते हैं, क्योंकि उन्हें इनका
धुआं अच्छा नहीं लगता। यही नहीं, उन्हें तो इन बेचारों
का अपने जनक के चरणों में बैठकर खोई हुई जवानी पर आंसू
बहाना भी अखरता है। वे इन्हें घूरे पर फिंकवा देते
हैं। कोई उनसे पूछे अगर आपको पत्तों के धुएं से इतनी
ही नफरत है, तो आप धूम्रपान क्यों करते हैं? तम्बाकू
के पत्तों का विषैला धुआं तो साधारण पत्तों के धुएं से
भी अधिक हानिकारक होता है।
अगर हरे पत्तों से पेड़ हरे-भरे और सुन्दर लगते हैं, तो
पीले पत्तों से भी तो लगते हैं। हां, उस सुन्दरता की
प्रशंसा करने के लिए दृष्टि और दृष्टिकोण जरूर बदलने
पड़ते हैं, लेकिन अपनी हिन्दी के दो-चार कवियों और
ब्रिटेन जैसे देशों के कुछ गिने-चुने प्रकृति
प्रेमियों को छोड़ दें, जो इनमें सौन्दर्य देखते हैं,
शेष तो इनकी ओर झांकना तक बेकार समझते हैं। और वही
क्यों, चित्रकार भी पीले पत्तों को कम ही चित्रोपम
मानते और चित्रित करते हैं। अगर मनुष्य थोड़ी-सी
संवेदनशीलता से भी काम ले, तो देखकर चकित रह जायेगा कि
झड़ने से पहले ये पत्ते पेड़ों को कैसा सुनहरा और अरूणिम
रंग प्रदान करते हैं और प्रकृति का सौन्दर्य कैसा
जाज्वल्यमान हो जाता है। ऐसे लगता है मानो वनदेवी
जरदोजी की चादर ओढ़े अपने प्रिय के आगमन की प्रतीक्षा
कर रही हैं। दरअसल, मानव जवानी, सुन्दरता और समृद्धि
का उपासक है, बुढ़ापे, कुरूपता और निर्धनता का नहीं और
पीले पत्ते ठहरे इनके मूर्तिमान उदाहरण। यदि वे किसी
कोने में छुप-छुपाकर रो लेते, तो भी चल जाता, लेकिन वे
तो मानव के सजे-संवरे और कटे-छंटे बगीचों की ऐसी की
तैसी करने लगते हैं। इस लिए मानव उन्हें झाडू मार-मार
कर निकलवाता है।
पीले पत्ते आजकल की भागदौड़ वाली जिंदगी के लिए खतरा और
बाधा भी तो बन जाते हैं, क्योंकि वे रेल की पटरियों और
सड़कों पर फिसलन और संकट पैदा करते हैं। अपनी सफाई में
पत्ते कह सकते हैं कि इसमें हमारा क्या दोष है,
क्योंकि हवा हमें पटरियों और सड़कों पर ला पटकती है और
दुबारा हमारी मिट्टी पलीद करवाती है। यही नहीं, अगर
ब्रिटेन में हमेशा बरसात होती रहती है, तो क्या उसे हम
बुलाते हैं? फिसलन तो वह पैदा करती है और अपराधी मान
लिए जाते हैं हम। हमें दुर्घटना का कारण मान लिया जाता
है। हम तो उन गरीबों से भी गए गुजरे हैं, जो रेल की
पटरियों और फुटपाथों के किनारे टूटी-फूटी झोपड़ियों में
रहने और जीने-मरने को मजबूर हैं। मानव समाज की न्याय
व्यवस्था ऐसी ही है प्यारे! गरीबी को दूर करने की उसे
जरूरत नहीं और वर्षा ठहरी आधिदैविक शक्ति वाली। उस पर
मनुष्य का वैसे ही कोई जोर नहीं चलता, इसलिए वह उसकी
घातक मार से पीड़ित पत्तों को ही दंड दे डालता है।
पंजाबी की एक कहावत है- आप गिरे हैं गधी से और गुस्सा
निकाल रहे हैं कुम्हार पर।
अगर पेड़ से पूछा जाए कि भाई तुम अपने जिगर के टुकड़ों
के प्रति इतनी निर्दयता क्यों बरतते हो? तो वह कह सकता
है- प्यारे ’पत्र‘-मित्रों, हम तो केवल गीता के इस
सन्देश को आपके सामने लाते हैं-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्य-न्यानि संयाति नवानि
देही।।
यानि जब आप मानते हैं कि मनुष्य फटे-पुराने कपड़ों को
त्याग कर नये कपड़े धारण करते हैं और उनकी तरह आत्मा भी
पुरानी देह को छोड़कर नई को धारण कर लेती है, तो भाई
मेरे, हम पेड़ भी तो यही करते हैं। हम भी पीले पत्तों
के रूप में अपने जीर्ण वस्त्रों का परित्याग करते हैं
और नये पत्ते रूपी नये वस्त्रों को धारण कर लेते हैं।
बताइए, हम निर्मोही और कठकलेजी कैसे हुए? पेड़ों का
तर्क वजनी है। उसे यूं ही निरस्त नहीं किया जा सकता,
लेकिन हमने कहा न, यह मानव की न्याय व्यवस्था है
प्यारे, भगवान की नहीं। महर्षि वाल्मीकि जब क्रौंच के
वध से मर्मान्तक रूप से आहत हुए थे, तो उनके मुख से
अनायास रामायण फूट निकली थी। बंदा तो वाल्मीकि है
नहीं। वह तो रोज न जाने किस-किस प्राणी का और प्रकृति
के किस-किस रूप का वध होते देखता है और मीडिया में भी
हर रोज बीसियों हत्याओं के समाचार सुनता-पढ़ता है,
लेकिन उसके मुंह से रामायण फूटना तो दूर, हाय तक बड़ी
मुश्किल से फूटती है। हां, वह कभी-कभी आहतों और
पीड़ितों के प्रति सहानुभूति से अवश्य भर जाता है और
कुछ तुकबंदी-सी कर डालता है। जब उसके मन में पीले
पत्तों के प्रति सहानुभूति उमगी थी, तो उसने उनके लिए
ऐसी ही एक रचना कर डाली थी-
किस गम से गये सूख उमड़ते हुए पत्ते
किस डर से हुए जर्द सिकुड़ते हुए पत्ते
कमजोर इरादे हैं न वादे हैं किसी के
क्या टूट गये दुख से बिछुड़ते हुए पत्ते
बेगर्ज बने छांव जमाने में सभी की
खुद पा न सके छांव उजड़ते हुए पत्ते
पर्दे को लिया खींच सरे-आम रूखों ने
तन किससे ढकेंगे उघड़ते हुए पत्ते
मरने पे मिली कब्र न अरथी न कफ़न ही
लाशें हैं अनाथों की उखड़ते हुए पत्ते
जुड़ते न कभी टूट के फिर कांच के टुकड़े
चिथड़े हैं सिये कौन उधड़ते हुए पत्ते
राहों में न ’गौतम‘ के कहीं फूल बिछाओ
लगते हैं उसे फूल उखड़ते हुए पत्ते।
पता नहीं, सहृदय पाठकों को यह रचना कैसी लगी थी, लेकिन
पीले पत्तों को जरूर अच्छी लगी थी, क्योंकि वे मेरे
कदमों में बिछते चले गये। मैं उनके प्रति और भी
सहानुभूति प्रकट करने की तैयारी कर रहा था, लेकिन वे
मर्मर करने लगे थे और चेतावनी देने लगे थे-जमाने के
विरूद्ध मत चला करो गौतम, पछताओगे। तुम भी सबकी तरह
हमारी उपेक्षा और निन्दा किया करो, लेकिन मैंने कहा
था-मुझे परवाह नहीं। क्या बिगाड़ लेना जमाना? क्या
पीड़ितों, निर्दोषों और परित्यक्तों से सहानुभूति रखना
अपराध है? अगर है, तो हुआ करे।
ब्रिटेन के पेड़ पीले पत्तों को झाड़कर महीनों कवि
नागार्जुन के ’पत्रहीन नग्न गाछ‘ की तरह खड़े रहते हैं।
वर्षा उन्हें धोती रहती है और बर्फ कंपाती रहती है।
कभी-कभार धूप आकर उन्हें पुचकारती जरूर है, लेकिन
जिंदगी की उष्णता वह भी नहीं दे पाती, क्योंकि वह
बेचारी खुद ही ठंडी और गीली-गीली सी होती है।
कठोपनिषद में यम नचिकेता को बताता है कि मनुष्य पीपल
का एक सनातन वृक्ष है, जो उल्टा टंगा हुआ है, अर्थात
उसका सिर वृक्ष की जड़ों की तरह नीचे की ओर है और
हाथ-पांव रूपी शाखाएं ऊपर की ओर। लेकिन कबीर ने इसके
विपरीत ब्रह्य रूपी अक्षय पुरूष को पेड़ कहा है,
त्रिदेव को उसकी शाखाएं और संसार को पत्तों का नाम
दिया है-
अक्षय पुरूष इक पेड़ है निरंजन वाकी डार।
तिरदेवा शाखा भये पात भया संसार।।
जब मैंने कबीर के इस दोहे का स्मरण किया और पत्तों की
ओर देखा, तो मन ने कहा- संसार को पत्ते क्यों मानते
हो? जीवन को पत्ते मानो। देखते नहीं हो, जीवन रूपी हर
पेड़ के पत्ते पीले हो जाते हैं। किसी के ये पत्ते
जल्दी झड़ने लगते हैं, किसी के देर से। मनुष्य के पत्ते
न झड़ें, इसलिये वह अमरता की तलाश में मरता रहता है।
सोचता हूं किसी दिन देह अगर वाकई अमर हो गई, तो क्या
लोग बाल कटवाना, दाढ़ी मूंड़ना और नाखून काटना भी बंद कर
देंगे? वे भी पीले पत्ते ही हैं। और वही क्यों, हमें
बिन बताये हमारी सूखी मृत त्वचा भी निरन्तर झड़ती रहती
है और शरीर स्वस्थ होता रहता है। क्या तब वह झड़ना बंद
कर देगी? अगर ऐसा हुआ, तब तो उसमें पलने वाले लाखों
अदृश्य कीटाणु और विषाणु भी अमर हो जायेंगे।
बचपन में स्कूल में मुझे जब कोई अनूठा फूल और पत्ता
मिलता था, तो मैं उसे अपनी किताब में रख लेता था।
मृत्युदंड पाने वाली उन फूल-पत्तों की काल कोठरी बने
पन्नों पर उनके रस-रंग की छाप जरूर लग जाती थी, लेकिन
वे मरकर भी अमर हो जाते थे। पता नहीं क्या सोचकर एक
बार मेरे एक मित्र ने मुझे पीपल का पत्ता भेंट किया।
उसे उसने बड़ी मेहनत और लगन से हफ्तों पानी में रखकर
जालीदार बनाया था और फिर बड़ी सावधानी और यत्न से
सुखाया था। उसकी एक-एक नस ऐसे दिखाई देती थी, जैसे वह
उसके एक्स-रे का ठोस रूप हो। मित्र ने उस पत्ते की
नसों को सदा सुरक्षित रखने के लिए पारदर्शी गुलाबी
पार्चमेंट में जड़ दिया था। पचास-पचपन बरस बाद वह पत्ता
आज भी बचपन में खरीदे मेरे अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश
में छिपा मुस्कुराया करता है।
ब्रिटेन में पतझड़ आ चुका है और हर साल की तरह पेड़ अपने
पत्ते झाड़कर नंगे-बुच्चे हो गए हैं। बगीचे में पीले,
भूरे, सूखे, गीले, टेढ़े-मेड़े और अकड़े हुए पत्ते बिछ
चुके हैं मेरे इलाके की काउंसिल के सफाई कर्मचारी जिस
पहियेदार भूरे रंग के कूड़ेदान में हर बुधवार को रसोईघर
और बगीचे का कूड़ उठाने आते हैं, वे पिछले कई बुधवारों
को आ-आकर कूड़ा ले जा चुके हैं, लेकिन मैंने इन पत्तों
को समेटकर कूड़ेदान में नहीं डाला है। बहा लें आंसू ये
बेचारे कुछ दिन और, जब तक पेड़ों पर नये पत्ते नहीं
आते। जब पेड़ अपनी लज्जा को ढंकने का उद्योग करेंगे, तो
मैं भी बगीचे की सफाई का उद्योग कर दूंगा। अभी तो उनको
देखकर कई कहावतें याद आ रही हैं-एक है, तुम डाल-डाल हम
पात-पात। पता नहीं यह कहावत कब और कैसे बनी, लेकिन है
बड़ी खतरनाक, क्योंकि अगर मैं पेड़ पर चढ़ा होता और मेरा
पीछा करने वाला डालियों पर पहुंच जाता, तो वह तो संभल
जाता, लेकिन पत्तों पर पांव रखने से मेरी हड्डी-पसली
टूटने का प्रबन्ध अवश्य हो जाता। इस कहावत से कहीं
ज्यादा अच्छी और शिक्षाप्रद है यह कहावत-
जैसे केरा पात में, पात पात में पात।
त्यों गुरूजन की बात में बात बात में बात।।
कहावतों का अगर कोई सबसे बड़ा स्त्रोत है, तो वह है
वनस्पति जगत और उसमें भी सबसे बढ़कर हैं पत्ते। अब देखो
न, पत्ता खड़के तो कहावत बन जाती है और टूटे तो भी बन
जाती है। इसी तरह से पत्ता हिलने, पत्ता चाटने और
पत्ता साफ करने को लेकर भी कहावतें ही कहावतें बनी हुई
हैं। अगर कमल का पत्ता कीचड़-कर्दम से निर्लिप्त रहता
है, तो मनुष्य ने उससे भी कहावत बना ली है। यहां
ब्रिटेन में पीपल नहीं होता, लेकिन भारत का पीपल याद
आने पर सचमुच ’पीपल पात सरिस मन डोला‘ वाली स्थिति
होने लगती है। प्राचीन काल में भूर्जपत्र पुस्तकें
लिखने के काम आते थे। तब लोग शायद पत्तों पर पत्र भी
लिखते होंगे, इसलिए चिट्ठी का नाम भी पत्र हो गया,
लेकिन मुझे यह समझने में तनिक देर लगी कि लोग
पारिश्रमिक या भेंट आदि को पत्र-पुष्प क्यों कहते हैं।
समझ में आने पर मुझे लगा मानो प्रकृति मेरे बगीचे में
पत्ते गिराकर मुझे पत्र-पुष्प देती है और अगर मैंने
उन्हें उठाकर फेंक दिया, तो इससे प्रकृति का अपमान हो
जायेगा। लेकिन नहीं, मेरे हिन्दू संस्कार मुझे तसल्ली
देते हैं कि जब तुम्हें अपने माता-पिता जैसे अत्यंत
आत्मीय जनों की मृत देहों को घर से हटाने और जलाने में
शंका नहीं हुई थी, तब पीले पत्तों को, जो पैदा ही झड़ने
के लिए हुए हैं, कूड़ेदान में डालने में शंका क्यों हो
रही है? मोह मत करो पार्थ रूपी गौतम, उन्हें फेंककर
अगले पतझड़ में जो पीले पत्ते गिरने वाले हैं, उनके
अभिनन्दन के लिए जगह बनाओ और प्रकृति के नियम-पालन के
निमित्त बनो। लेकिन अगले दिन मेरा मन फिर शंकित हो
उठा। सवेरे देखा कि जले हुए कितने ही पटाखों के
अस्थिशेष बगीचे में गिर पड़े हैं। दीवाली का पर्व जो आ
गया था। फिर पश्चिमी जगत का पर्व हालोवीन आ गया और
नवम्बर मास की पांच तारीख की रात को गाइ फाक्स डे
मनाया गया। लोगों ने तो इन त्योहारों पर आतिशबाजी का
आनन्द लिया, लेकिन कई जली हुई हवाइयों और बमों के
अंजर-पंजर आकर मेरे बगीचे में गिरते रहे। शुक्र है,
किसी में आखिरी साँसें लेती हुई चिंगारी नहीं बची थी,
वरना कोई पत्ता आत्मघातक आतंकवादी का अनुकरण कर सकता
था। मन ने कहा- जल्दी से पीले पत्ते हटा दो, नहीं तो
तुम भी यह कहने पर मजबूर हो जाओगे-
बागबां ने आग दी जब आशियाने़ को मिरे
जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे।
३ दिसंबर २०१२ |