इस सप्ताह—
समकालीन कहानी में
यू.के. से दिव्या माथुर की कहानी
अंतिम तीन दिन
जीवन
में आज पहली बार, मानो सोच के घोड़ों की लगाम उसके हाथ से छूट गई थी।
आराम का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था। अब समय ही कहाँ बचा था कि वह
सदा की भांति सोफ़े पर बैठकर टेलीविज़न पर कोई रहस्यपूर्ण टी.वी.
धारावाहिक देखते हुए चाय की चुस्कियाँ लेती। हर पल कीमती था। तीन दिन
के अंदर भला कोई अपने जीवन को कैसे समेट सकता है? पचपन वर्षों के
संबंध, जी जान से बनाया ये घर, ये सारा ताम झाम और बस केवल तीन दिन!
मज़ाक है क्या? वह झल्ला उठी किंतु समय व्यर्थ करने का क्या लाभ।
डाक्टर ने उसे केवल तीन दिन की मोहलत दी थी। ढाई या साढ़े तीन दिन की
क्यों नहीं, उसने तो यह भी नहीं पूछा।
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हास्य-व्यंग्य में
गुरमीत बेदी की लालसा
काश! हम भी कबूतरबाज़ होते
यकीन
मानिए, कई बार खुद पर बहुत गुस्सा आता है। ग़ुस्से के आलम में यह समझ
नहीं आता कि खुद को क्या-क्या न सुना डालें। अब लेटेस्ट गुस्सा इस बात पर
आ रहा है कि हम इस दुनिया में आकर कलमघिस्सू ही क्यों बने, कबूतरबाज़
क्यों नहीं बन लिए! अगर लेखक बनकर हम काग़ज़ी घोड़े दौड़ा सकते हैं तो
क्या सांसद बनकर कबूतरबाज़ी नहीं कर सकते थे? जितनी कठिन विद्या लेखन है,
उतनी कठिन विद्या कबूतरबाज़ी थोड़े ही है? जितना रिस्क दूसरों की रचनाएँ
चोरी करके अपने नाम से छपवाने में है, उतना रिस्क कबूतरबाज़ी में कहाँ
है? कबूतरबाज़ी में तो कोई विरला ही पकड़ा जाता है।
*
धारावाहिक में
ममता कालिया के उपन्यास दौड़ की तीसरी
किस्त
राजकोट
जूनागढ़ लिंक रोड पर दाहिने हाथ को विशाल फाटक पर ध्यान शिविर
सरल मार्ग का बोर्ड लगा था। तक़रीबन स्वतंत्र नगर वसा था। कारों
का काफ़िला आ और जा रहा था। इतनी भीड़ थी कि उसमें किरीट को
ढूँढ़ना मुमकिन ही नहीं था। जिज्ञासावश पवन अंदर घुसा। विशाल
परिसर में एक तरफ़ बड़ी-सी खुली जगह वाहन खड़े करने के लिए छोड़ी
गई थी जो तीन चौथाई भरी हुई थी। वहीं आगे की ओर लाल पीले रंग का
पंडाल था। दूसरी तरफ़ तरतीब से तंबू लगे हुए थे। कुछ तंबुओं के
बाहर कपड़े सूख रहे थे। उस भाग में भी एक फाटक था जिस पर लिखा था
प्रवेश निषेध। |
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दृष्टिकोण में
दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप" का विश्लेषण
मुद्दे उछलते
क्यों हैं
प्रश्न
यह नहीं है कि किसी जात के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की माँग
जायज़ है कि नहीं बल्कि प्रश्न तो यह है कि इन सब मुद्दों को उछालने
का लक्ष्य क्या है? अगर कोई ढेर से व्यक्तियों को एकत्रित कर उनकी
भीड़ जुटाता है तो पहले उनकी बुद्धि का हरण करता है और फिर अपने
विचार और लक्ष्य को उसमें ऐसे स्थापित करता है कि लोग उसके विचार और
लक्ष्यों को अपना समझने लगते हैं और व्यक्ति एक भीड़ का हिस्सा बन
जाता है और फिर शुरू होता है उस भीड़ एकत्रित करने वाले का खेल जिसे
सीधी भाषा में कहें कि वह रोटियाँ सकने का काम होता है। यानी उलटे
सीधे लक्ष्यों के लिए सामान्य जन की शक्ति का दुरुपयोग करना।
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रसोईघर में
तपती गरमी के लिए ठंडी आम मधुरिमा
गरमी
का मौसम हो और आम की बहार तो फिर कुछ ठंडा, मीठा और तरल खाने का मन
हो ही आता हैं। आम मधुरिमा में है आम की मीठी और केले की ठंडी तरंग
का दोहरा मज़ा। चाहें अमरस की तरह भोजन में पूरी के साथ खाएँ या भोजन
के बाद मीठे में या फिर यों ही उमस भरी शाम में रस घोलने के लिए। सब
तरह से मज़ेदार आम मधुरिमा का कोई जवाब नहीं।
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सप्ताह का विचार
यह सच है कि पानी में तैरनेवाले ही डूबते हैं, किनारे पर खड़े रहनेवाले नहीं, मगर
किनारे पर खड़े रहनेवाले कभी तैरना
भी नहीं सीख पाते। -- वल्लभ भाई पटेल |
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सुधांशु उपाध्याय, सुरेश चन्द्र शुक्ल 'शरद
आलोक', गौतम जोशी, अरविंद चौहान,
महेन्द्र भटनागर
की
नई रचनाएँ
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मित्रों,
अभिव्यक्ति का |
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16 जून का अंक अमलतास |
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विशेषांक
होगा। इसमें अमलतास |
से
संबंधित कहानी, व्यंग्य, निबंध तथा अन्य रचनाओं के
लिए, बस थोड़ी सी प्रतीक्षा करें-- टीम अनुभूति |
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-पिछले अंकों से-
कहानियों में
पेड़ कट रहे है- सुमेर चंद
वसीयत- महावीर शर्मा
मुलाक़ात-
शिबन कृष्ण रैणा
थोड़ा आसमान...-
रवींद्रनाथ भारतीय
क्या हम दोस्त...-
उमेश अग्निहोत्री
संक्रमण-
कामतानाथ
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हास्य व्यंग्य में
पॉलिथीन युग पुराण-
वीरेंद्र जैन
कन्या-रत्न का दर्द- प्रेम
जनमेजय
संसद में बंदर -
राजेन्द्र त्यागी
अपुन का ताज़ा एजेंडा!- गुरमीत
बेदी
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महानगर की कहानियों में
पर्यावरण की खुशबू में डूबी
सुभाष नीरव की धूप
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घर परिवार में
अतुल अरोरा पर मौसम की मार
अब तक छप्पन
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विज्ञान वार्ता में
डॉ. गुरुदयाल प्रदीप का आलेख
रक्तदान महादान
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साहित्य समाचार में
*महुआ
माजी कथा (यू.के.) सम्मान व डॉ. गौतम सचदेव पद्मानंद साहित्य सम्मान से
अलंकृत
*एमरी
विश्वविद्यालय, एटलांटा में हिंदी-उर्दू कवि गोष्ठी
*भारत
में
जयप्रकाश मानस को माता
सुंदरी फ़ाउंडेशन पुरस्कार
*मास्को
में हिंदी ज्ञान प्रतियोगिता का आयोजन
*डॉ०
रामदरश मिश्र को "उदयराज सिंह स्मृति सम्मान"
तथा हरिपाल त्यागी, डॉ०सिद्धानाथ कुमार और राजेश कुमार को "नई धारा रचना
सम्मान"
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ललित निबंध में
डॉ. शोभाकांत झा का आलेख
अपवित्रो पवित्रो वा
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आज सिरहाने
श्रीप्रकाश शुक्ल का कविता संग्रह
जहाँ सब शहर नहीं होता
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संस्मरण में
मोहन थपलियाल की
कटोरा भर याद
में डूबी टिहरी
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