दोः बयान पुत्र
पापा शर्तिया सठिया गए हैं।
रिटायर होने के छः-आठ महीने बात तक तो ठीक रहे। उसके बाद पता
नहीं क्या हो गया है, दिन भर, रात भर बड़बड़ाते रहते हैं।
ज़रा-ज़रा-सी बात पर गुस्सा करने लगते हैं। कभी किसी पर बिगड़
रहे हैं तो कभी किसी पर। सबसे ज़्यादा नाराज़ तो मुझसे रहते
हैं। शायद ही मेरी कोई बात उन्हें पसंद हो, जबकि आज तक मैंने
कभी उनकी किसी भी बात पर, चाहे कितनी ही बुरी लगे मुझे, पलटकर
जवाब नहीं दिया। सबसे बड़ी नाराज़गी तो उनकी इस बात से है कि
मैं दफ़्तर से सीधे घर क्यों नहीं आता। कहते हैं चिंता होने
लगती है। सड़कों पर लूटमार और कत्ल होते रहते हैं, एक्सीडेंट
होते रहते हैं। अब उन्हें कौन समझाए कि जल्दी आने से क्या बच
जाऊँगा मैं? एक्सीडेंट होना होगा तो हो के रहेगा, बल्कि देर से
आने में तो फिर भी एक्सीडेंट की संभावना कम हो जाती है। उस समय
सड़कों पर ट्रेफ़िक का इतना रश नहीं रहता, जितना ऑफ़िस छूटने
के समय होता है। रही लूटमार की बात, सो दिन-दहाड़े होती है।
रात में तो फिर लूटने वाला सोचेगा कि इस वक्त सन्नाटे में इतनी
बेफिक्री से चला जा रहा है, इसके पास क्या होगा, जाने दो।
वैसे भी, आप बताइए, दफ़्तर से
सीधे घर आकर क्या करूँ? इनकी झाड़ सुनूँ? आटा पिसाऊँ? सब्ज़ी
लाऊँ? इसी में सारी ज़िंदगी बिता दूँ? दुनिया भर मिल का पिसा
हुआ आटा खाती है। आइ.एस.आइ. ब्रांड। बोरी में सीलबंद होकर आता
है, लेकिन इनसे कौन झक लड़ाए। कहते हैं यह आटा नुकसान करता है।
मिलों में पीसने से पहले गेहूँ का सारा सत निकाल लिया जाता है।
इसकी रोटी और चमड़े की रोटी में कोई फ़र्क नहीं होता। आंतों
में चिपक जाती है। कई-कई दिन तक चिपकी रहती है। सारी दुनिया खा
रही है। उसकी आँतों में नहीं चिपकाती। इनकी आँतों में चिपक
जाती हैं। सब्ज़ी दरवाज़े ली जाती है, उस पर भी नाराज़। कहते
हैं ठेले पर बासी सब्ज़ी मिलती है। अब बताइए भलाँ ऐसा होने लगे
कि चार-चार दिन तक वही सब्ज़ी बेची जाए तो बेचारे सब्ज़ी वाले
कर चुके धंधा। हाँ, यह मानता हूँ कि पिछली शाम की या सुबह की
सब्ज़ी हो सकती है। सो, सारी दुनिया खाती है। मैंने तो नहीं
देखा कि खेत पर खड़े होकर कोई अपने सामने सब्ज़ी तुड़वाकर लाता
हो।
लेकिन नहीं, ज़िद है कि वक्त
से घर लौटो। अब मैं कुछ कह दूँ तो बुरा मान जाएँगे। खुद घंटो-घंटों,
बारह-बारह बजे रात तक शर्मा अंकल के दरवाज़े बैठे शतरंज खेला
करते थे, सो भूल गए। तीन-तीन चार-चार बार बुलाने जाता था मैं,
तब उठते थे। बिगड़ने लगते थे, सो अलग। यही नहीं, माँ बताती हैं
कि एक ज़माने में तो रात-रात भर ग़ायब रहते थे। कोई भाटिया
साहब थे। उनके घर पर पपलू कि फ्लैश खेला करते थे। दो-एक बार तो
पूरी तनख़्वाह हार आए। कितनी बार तो पीकर लौटते थे। बिस्तर पर
उल्टी कर देते थे, लेकिन अपना वक्त किसको याद रहता है? अब
क्या-क्या बताऊँ? माँ तो यहाँ तक बताती हैं कि बरेली ट्रांसफ़र
पर गए थे तो वहाँ बगल में कोई कपूर रहते थे। एल.आइ.सी. में
एजेंट थे। उनकी पत्नी पर फिदा थे। जब देखो, तब उनके यहाँ बैठे
रहते थे। भाभी जी यह, भाभी जी वह। भाभी जी आपके हाथ की बनी चाय
के क्या कहने! आपके हाथ की तली पकौड़ियाँ, वाह!
सौ बार अपना हवाला दे चुके
हैं कि बचपन में या लड़कपन में पैदल पढ़ने जाया करते थे। कभी
कोई जेबखर्च नहीं मिला। बी.ए., एम.ए. तक सूट-टाई नहीं पहनी।
जैम-जेली का नाम तक नहीं सुना था। माँ, यानी मेरी दादी बासी
रोटी में नमक लगाकर दे देती थीं, वही खाकर पढ़ने चला जाता था।
तो भाई, आप यह ताना किसे मार रहे हैं? इसमें मेरा कोई कसूर है
क्या? सही बात तो यह है कि वह ज़माना ही और था। उस समय
जैम-जेली होती ही नहीं थी तो आप खाते क्या? जींस कि जैकेट का
चलन ही नहीं था, सो पहनते कैसे? यही गनीमत थी कि घर से खा-पीकर
जाते थे। न सही ऊनी पतलून, सूती तो पहनते ही थे। और पहले पैदा
हुए होते तो गुरुकुल में पढ़े होते। लंबी-सी चुटिया रखे,
लंगोटी लगाए, हाथ में डंडा कमंडल लिए घर-घर भीख माँगकर आटा
लाते, तब दो रोटियाँ मिलतीं।
सबने बड़ी उपलब्धि यह है कि
मकान बनवा दिया। सौ बार वह यह बात कह चुके हैं। मेरा ख़याल है,
शहाजहाँ ने ताजमहाल बनवाने के बाद भी इतनी बार यह बात न दोहराई
होगी। लेकिन भाई, ठीक है। अगर आपको इससे संतोष मिलता है तो जाप
कीजिए दिन भर इस बात का। लेकिन उनका महज़ यह मतलब नहीं है कि
मकान बनवा दिया। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि मकान बनवाकर
मेरे ऊपर एहसान किया। अब अगर मैं पलटकर कह दूँ कि मैंने कहा था
मकान बनवाने के लिए तो बिगड़ उठेंगे। बाबा तो किराये के मकान
में रहते थे। वह तो नहीं बनवा गए आपके लिए। आपने बनवाया ठीक
किया। आप भी न बनवाते तो मुझे ज़रूरत पड़ती तो मैं बनवाता। और
अगर न बनवाया होता मकान आपने तो क्या सड़क पर रह रहे होते हम
लोग? सारी दुनिया क्या अपने बनवाए मकान में ही रहती है?
ख़ैर, अब मकान बन गया तो बन
गया। गिर तो जाएगा नहीं। हाँ, दसेक साल हो गए हैं बने तो
थोड़ी-बहुत टूट-फूट ज़रूर लगी रहेगी। सो, हर मकान में होता है।
लेकिन नहीं। ज़रा-सा प्लास्टर कहीं उखड़ा देख लेंगे तो सौ बार
टोकेंगे। बिजली की रोशनी से लेकर सूरज की रोशनी तक में पच्चीस
बार उसका मुआयना करेंगे। यही नहीं, सारे घर का प्लास्टर
ठोक-बजाकर देखेंगे कि कहीं पोला तो नहीं पड़ रहा। ज़िद पकड़
लेंगे कि मिस्त्री पकड़ कर लाओ, मज़दूर पकड़ कर लाओ। फ़ौरन ठीक
करोओ। गोया कि दुनिया का सबसे ज़रूरी काम बालिश्त भर का यह
प्लास्टर ठीक कराना ही है। इतनी फुरती तो, मैं समझता हूँ,
पुरातत्व विभाग वाले बड़ी से बड़ी ऐतिहासिक इमारतों को ठीक
कराने में भी न दिखाते होंगे।
चलिए साहब यह तो प्लास्टर है
कि जल्दी ठीक न हुआ तो और गिर जाएगा, और उनके तर्क के अनुसार,
आज प्लास्टर गिरा है, कल ईंटें गिरेंगी, परसों पूरी दीवार गिर
पड़ेगी। लेकिन मकड़ी का जाला लगने से तो मकान नहीं गिर पड़ेगा।
मगर नहीं साहब किसी भी कोने-अंतरे में जाला दिख गया तो पूरा
मकान सिर पर उठा लेंगे। अब पत्नी भी क्या करे? सुबह उठते ही
खटने लगती है। सबके लिए चाय बनाए, बच्चे की देखभाल करे, खाना
पकाए, टिफिन तैयार करे, कपड़े धोए कि बाँस लिए जाला साफ़ करती
फिरे। माँ से तो हो नहीं सकता। वह वैसे ही गठिया से मजबूर हैं।
एक बार घर में एक चुहिया दिख
गई। फिर क्या था। ज़िद पकड़ के बैठ गए कि चूहेदानी ख़रीद कर
लाओ। लाया भाई मैं। लेकिन पंद्रह दिन तक चुहिया पकड़ में नहीं
आई। सोलहवें दिन एक चुहिया फँसी। अब समस्या यह है कि इसे छोड़ा
कहाँ जाए। नई कॉलोनी है। किसी के दरवाज़े छोड़ो तो झगड़ा करने
लगे। आख़िर मोटर साइकिल पर चूहेदानी रखकर चार किलोमीटर दूर
रेलवे लाइन के किनारे ले जाकर छोड़ा। दूसरे ही दिन फिर एक
चुहिया दिख गई। पता नहीं वही थी या दूसरी। मुझसे बोले, ''कहाँ
छोड़ा था?'' मैंने खीझकर कहा, ''जहाँ छोड़ा था, वहाँ छोड़ा था।
अबकी पकड़ में आए तो आप खुद छोड़ आइएगा।''
छिपकलियों के पीछे पड़े रहते
हैं। शुरू में तो डंडा मारते फिरते थे। उस चक्कर में दीवार पर
लगी तस्वीर गिरा दी। हुसेन की पेंटिंग थी। रेअर। पूरे आठ रुपए
बारह आने की लाया था। पच्चीस रुपए मढ़ाई दिए थे। छिपकली तो पता
नहीं कहाँ चली गई, पूरा शीशा चकनाचूर हो गया। अब कौन इनको
समझाए कि छिपकलियाँ इस देश में हैं तो हैं। ये जाने वाली नहीं
हैं। ख़ैर चलिए, मान लिया कि बहुत मेहनत करके छिपकली को एक बार
आप भगा भी देंगे। लेकिन झींगुर का क्या करेंगे? वह तो कमबख़्त
दिखाई भी नहीं देता। किसी दराज कि सुराख में बैठा बोल रहा है।
लेकिन उससे भी इनको शिकायत। अब कौन बताए इनको कि अमेरिका के
व्हाइट हाउस तक में झींगुर घुस चुका है। वह कौन थीं फर्स्ट
लेडी उस वक्त मैडम बुश कि रीगन, रात भर नींद नहीं आई उनको।
दूसरे दिन प्रेसीडेंट हाउस का सारा अमला झींगुर ढूँढ़ने में
जुटा, तब कहीं तीन-चार घंटे की मुतवातिर मेहनत के बाद पकड़ में
आया। सो, इतना प्रबंध तो मैं कर नहीं सकता कि डेढ़-दो सौ आदमी
झींगुर पकड़ने में लगा दूँ।
इधर कुछ दिनों से एक नया
फिकरा ईजाद किया है कि यह घर नहीं है, कबाड़खाना है। अरे भाई,
कौन-सा ऐसा घर है, वह भी हिंदुस्तान में जहाँ दो-चार इधर-उधर
की फालतू चीज़ें न हों। और सबसे बड़ा कबाड़खाना तो खुद खोले
हैं। टीन के एक बड़े-से बक्से में पता नहीं क्या-क्या भरे रखे
हैं। नट, बोल्ट, कील, पेंच, तार, जाली, पुराने कब्जे, बिना
ताले की चाबियाँ और न जाने क्या-क्या। सड़क पर चलते कहीं कोई
लोहे का टुकड़ा, छर्रा, गोली, कुछ भी पड़ा दिख गया, उठाकर ले
आएँगे और अपने बक्से में बंद कर लेंगे कि कभी काम आएगा। एक और
बक्से में हर तरह के औज़ार रखे हैं। स्क्रू ड्राइवर से लेकर
रिंच, प्लास, छेनी, हथौड़ी तक। एक छोटी आरी भी ले आए हैं कहीं
से। उसे भी उसी में बंद किए हैं।
एक बार सनकिया गए तो घर भर
में खोजबीन कर चार-पाँच पुराने ताले निकाल लाए कहीं से। कहने
लगे कि इन तालों की चाभियाँ कहाँ हैं। अब चाभियाँ कहाँ से आएँ?
बाबा आदम के ज़माने के ताले! पता नहीं कब से ख़राब पड़े होंगे।
लेकिन नहीं, ज़िद पकड़ गए कि जब ताले घर में आए हैं तो उनकी
चाभियाँ भी आई होंगी। कौन कहता है, नहीं आई होंगी। लेकिन
चीज़ें खोती भी तो हैं। कहीं खो गई होंगी, मगर वह ज़िद पकड़े
रहे। एक तरफ़ से सबको हलाकान कर डाला। पूरे एक सप्ताह तक 'चाभी
खोजो अभियान' चला। लेकिन चाभियाँ नहीं मिलनी थीं सो नहीं
मिलीं। मगर यह कहाँ हार माननेवाले। बाज़ार जाकर चाभी वाले से
चाभियाँ बनवाकर लाए। तब चैन पड़ी। तब से सारे ताले सहेज कर
अपनी अलमारी में रखे हैं। मशीन में तेल डालने वाली कुप्पी पा
गए हैं कहीं के। उसमें कड़वा तेल भरे रखे हैं। हर छठे-सातवें
दिन सारे तालों में तेल डालकर उन्हें धूप दिखाते हैं। यही
नहीं, सारे खिड़की-दरवाज़ों के कब्ज़ों, सिटकनियों और कंडों
में तेल डालते फिरते हैं। जो भी दरवाज़ा खोलता है, उसके कपड़ों
में तेल लग जाता है, मगर किसकी मजाल जो कोई इनसे कुछ कह दे।
कहे तो सुने कि सिर पर नहीं उठाकर ले जाऊँगा मैं। मरूँगा तो सब
यहीं छोड़ जाऊँगा। तब जो समझ में आए, करना। मुझसे अपनी आँखों
बरबादी नहीं देखी जाती। इसीलिए हलाकान होता रहता हूँ। सो भाई,
किसी ने कहा आपसे हलाकान होने को? जब इस बात का एहसास है कि
सिर पर उठाकर नहीं ले जाओगे तो क्यों फँसे हो इस माया-मोह में।
भगवत भजन में मन लगाओ। सुबह-शाम दो घंटा बैठ के रामायण कि गीता
का पाठ करो।
मगर नहीं, रात-रात भर उठकर
टहलते हैं। हर खिड़की, दरवाज़ा ठोक-बजाकर देखते हैं कि बंद है
कि नहीं। कभी कोई दरवाज़ा खुला रह गया तो दूसरे दिन सुबह-सुबह
सारा घर सिर पर उठा लेंगे, 'चोरी हो जाती तो?' अब उनसे कौन बहस
करे कि आजकल चोरी-डकैती दरवाज़ा खुला रह जाने से नहीं होती।
आजकल चोर कि डाकू पूरी योजना बनाकर, कॉलबेल बजाकर शान से आते
हैं। सीने पर पिस्तौल रखकर सामान ले जाते हैं। अभी एक महीना भी
नहीं हुआ, इसी कॉलनी में रात के ग्यारह भी नहीं बजे होंगे,
भसीन साहब के यहाँ डकैती पड़ी थी। डाकू पूरी ट्रक साथ लेकर आए
थे। रात भर सामान लदता रहा। सुबह चार बजे ट्रक स्टार्ट करके
चले गए। भसीन साहब पूरे परिवार सहित घर में थे। सबको रस्सियों
से बाँधकर मुँह में कपड़ा ठूँस दिया था। सुबह जब महरी आई, तब
चिल्ल-पों मची। लेकिन इनको कौन समझाए। इनका बस चले तो रोशनदान
तक में ताला डलवा दें। |