हमारे घर की बिल्कुल सामने वाली
सड़क के कोने वाला मकान बहुत दिनों से खाली पड़ा रहा। मकान
मालिक संचेती जी की चार वर्ष पूर्व नौकरी के सिलसिले में कहीं
दूसरी जगह पर बदली हुई थी और तभी से उनका मकान एक अच्छा
किराएदार न मिलने के कारण लगभग दो वर्षों तक खाली पड़ा रहा।
संचेती जी चाहते थे कि एक ऐसे किरायेदार को मकान दिया जाए जो
एकदम भला हो, जिसकी फैमिली में ज़्यादा सदस्य न हों और जो
सुरुचि संपन्न हो ताकि मकान का बढ़िया रख-रखाव हो सके। लंबी
प्रतीक्षा के बाद आख़िरकार एक ऐसा परिवार उन्हें मिल ही गया जो
उनकी अपेक्षाओं की कसौटी पर फिट बैठ गया और उन्होंने उनको अपना
मकान किराए पर दे दिया। मकान सँभालते वक्त संचेती जी मुझे बुला
लाए और उस परिवार से मिलवाया। शायद यह सोचकर कि पड़ौसी होने के
नाते मैं उनकी कुछ प्रारंभिक कठिनाइयों को दूर कर सकूँ।
आगंतुक पड़ोसी मुझे निहायत ही
शरीफ़ किस्म के व्यक्ति लगे। पति और पत्नी, बस। यही उनका
परिवार था। अधेड़ आयु वाली इस दंपति ने अकेले दम कुछ ही महीनों
में संचेती जी के मकान की काया पलट कर दी। बगीचे में सुंदर घास
लगवाई, रंग-बिरंगी क्यारियाँ, क्रोटन, गुलाब, बोनसाई आदि से
सुसज्जित गमले. . .। खिड़कियों और दरवाज़ों पर सफ़ेद रंग. . .।
दो-चार विदेशी पेंटिंग्स बरामदे में टँगवाई तथा पूरे मकान को
हल्के गुलाबी रंग से पुतवाया। देखते ही देखते संचेती जी के
मकान ने कालोनी में अपनी एक अलग ही पहचान बना ली।
एक दिन समय निकालकर मैं और मेरी
श्रीमती जी शिष्टाचार के नाते उन आगंतुक पड़ोसी के घर मिलने के
लिए गए। इस बीच हम बराबर यह आशा करते रहे कि शायद वे कभी हमसे
मिलने को आएँ, मगर ऐसा उन्होंने नहीं किया। कदाचित अपने संकोची
स्वभाव के कारण वे अभी लोगों से मिलना न चाहते हों, ऐसा सोचकर
हमने ही उनसे मिलने की पहल की। हमें अपने घर में प्रवेश करते
देख वे प्रसन्न हुए। उनकी बातों से ऐसा लगा कि बहुत दिनों से
वे लोग भी हमसे मिलना चाह रहे थे, किंतु मारे सकुचाहट के वे
बहुत चाहते हुए भी हमसे मिलने का मन नहीं बना पाते थे। मेरा
अनुभव रहा है कि बातचीत का प्रारंभिक दौर प्रायः ऐसी
मुलाक़ातों में अपने-अपने परिचय, मोटी-मोटी उपलब्धियों,
बाल-बच्चों की पढ़ाई, उनकी नौकरियों या शादियों आदि से होता
हुआ कालोनी की बातों अथवा महंगाई और समकालीन राजनीतिक-सामाजिक
दुरवस्था तक सिमटकर रह जाता है। ऐसी कुछ बातें हमारी पहली
मुलाक़ात के दौरान हुई तो ज़रूर, मगर एक ख़ास बात जो मैंने नोट
की, वह यह थी कि हमारे यह नए पड़ोसी मल्होत्रा साहब और उनकी
पत्नी घूम-फिर कर एक ही बात की ओर बराबर हमारा ध्यान आकर्षित
करने में लगे रहे कि उनका एकमात्र लड़का विदेश में है और किसी
बड़ी कंपनी में इंजीनियर है। वहीं उसकी पढ़ाई हुई और वहीं उसकी
नौकरी लगी। साल-दो साल में एक-आध बार वे दोनों भी वहाँ कुछ
महीनों के लिए जाते हैं। अमेरिका के वैभव, जीवन-शैली, मौसम,
लोगों के श्रेष्ठ रहन-सहन आदि का आनंद-विभोर होकर वर्णन
करते-करते उन्होंने अपने बेटे की योग्यताओं, उपलब्धियों व उसकी
प्रतिभा का खुलकर बखान किया जिसे मैं और मेरी श्रीमती जी
ध्यानपूर्वक सुनते गए। इस बीच मैंने पाया कि मल्होत्रा साहब ने
ज़्यादा बातें तो नहीं की, किंतु उनकी श्रीमती जी बराबर बोलती
रहीं। चूँकि यह हम लोगों की पहली मुलाक़ात थी, इसलिए शिष्टाचार
का निर्वाह करते हुए हमने उनकी सारी बातें धैर्यपूर्वक सुन ली
और यह कहकर विदा ली कि फिर मिलेंगे- अब तो मिलना-जुलना होता ही
रहेगा।
घर पहुँचकर मैं
और मेरी श्रीमती जी कई दिनों तक इस बात पर विचार करते रहें कि
विदेशों में रहने की वजह से मल्होत्रा दंपति के व्यवहार में,
उनकी बातचीत में और उनकी सोच व दृष्टि में यद्यपि कुछ नयापन या
खुलापन अवश्य आ गया है, मगर अपने पुत्र से बिछोह की गहरी पीड़ा
ने इन्हें कहीं-न-कहीं भीतर तक आहत अवश्य किया है। कहने को तो
ये दोनों अपने बेटे की बढ़ाई ज़रूर कर रहे हैं, वहाँ के
ऐशोआराम की ज़िंदगी का बढ़चढ़ कर यशोगान ज़रूर कर रहे हैं, मगर
यह सब असलियत को छिपाने, अपने मन की रिक्तता को ढकने व अवसाद
को दबाने की गरज से वे कह रहे हैं।
कई महीने गुज़र गए। एक दिन
मल्होत्रा साहब और उनकी पत्नी शाम के टाइम हमारे घर पर आए। इस
बीच कभी मार्केट में या फिर आस-पड़ोस की किसी दुकान पर वे मुझे
अक्सर मिल जाया करते। एक-दो बार हमने दिल्ली की यात्रा भी
साथ-साथ की। रास्तेभर वे अपने विदेश के अनुभवों से मुझे अवगत
कराते रहे। कल वे दोनों मुझे रेल्वे स्टेशन पर मिल गए थे और कह
गए थे कि जल्दी ही वे हमारे घर आएँगे। एक खुशी का समाचार वे
हमें देने वाले हैं...। ड्राइंग-रूम में बैठते ही मल्होत्रा
साहब ने एक सुंदर-सा लिफ़ाफ़ा मुझे पकड़ाया। इससे पहले कि मैं
कुछ पूछूँ, उनकी श्रीमती बोल पड़ी-
''बेटे रवि की शादी अगले महीने की पाँच तारीख को तय हुआ है। यह
उसी का कार्ड है।''
''अच्छा, फिक्स हो गई आपके बेटे की शादी? रिश्ता कहाँ तय
किया?'' मैंने जिज्ञासा-भरे लहजे में कहा।
''वो-वोह जी, लड़के ने अमेरिका में ही एक लड़की पसंद कर ली।
उसी के ऑफ़िस में काम करती है।''
''मगर, मिसेज मल्होत्रा! आप तो ज़ोर देकर कह रही थी कि बेटे के
लिए बहू मैं अपने देश में ही देखूँगी। विदेश में अच्छे दोस्त
मिल सकते हैं, अच्छी पत्नियाँ नहीं।''
मेरी बात सुनकर दोनों
पति-पत्नी क्षणभर के लिए एक-दूसरे को देखने लगे। मुझे लगा कि
मेरी बात से वे दोनों दुविधा में पड़ गए हैं। बात इस बार
मि.मल्होत्रा ने सँभाल ली, बोले-
''ऐसा है जी, लड़की भी कंप्यूटर इंजीनियर है। रवि के ही ऑफ़िस
में काम करती है। मूलतः इंडियन ओरिजिन की है। कई पीढ़ियों से
वो लोग अमेरिका में बस गए हैं...बेटे की भी इस रिश्ते में
ख़ासी मर्ज़ी है और फिर डेस्टिनी भी तो बहुत बड़ी चीज़ है।''
चूँकि डेस्टिनी यानी नियति की
बात बीच में आ गई थी, इसलिए इस प्रसंग को और आगे बढ़ाना मैंने
उचित नहीं समझा। बातों के दौरान मालूम पड़ा कि शादी अमेरिका
में होगी क्योंकि लड़की के सारे परिजन वहीं पर रहते हैं।
मल्होत्रा दंपति अपने एक-आध परिजन के साथ वहाँ जाएँगे और शादी
हो जाने के बाद यहाँ एक अच्छी-सी पार्टी देंगे।
इससे पहले कि मैं इस रिश्ते के लिए मल्होत्रा जी को बधाई देता
और उनकी सुखद विदेश-यात्रा की कामना करता, मिसेज मल्होत्रा
बोली-
''भाई साहब, एक बार आप अमेरिका ज़रूर हो आएँ। वाह, क्या देश
है! क्या लोग हैं! ज़िंदगी जीने का मज़ा अगर कहीं है तो
अमेरिका में है - मौका लगे तो आप ज़रूर हो आना...।''
मुझे बात की
मंशा को पकड़ने में देर नहीं लगी। मुझे लगा कि श्रीमती
मल्होत्रा अपने इस कथन के ज़रिए मुझे चित करना चाहती हैं। उसकी
बात में एक ऐसे आभिजात्य कांपलेक्स की बू आ रही थी जिसके
वशीभूत होकर व्यक्ति अपने को दूसरे से श्रेष्ठ समझने लगता है।
मैंने तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त की-
''देखिए मैडम, विदेश में चाहे आप स्वर्ग भोग लें, मगर वह देश
आपको दूसरे दर्जे का नागरिक ही मानेगा. . .अपने देश जैसी
उन्मुक्तता वहाँ कहाँ?
मेरी बात सुनकर मिसेज मल्होत्रा ने जैसे मुझसे जिरह करने की
ठान ली। इस बार वे अंग्रेज़ी-मिश्रित हिंदी में बोली. . .
''व्हाट डु यू मीन! माई सन गेट्स मोर दैन थ्री लैक रुपीज़ एज
सैलरी इन ए वैरी गुड कंपनी. . .इतनी सैलरी उसको इंडिया में कौन
देता? ही इज वेरी ब्रिलियंट. . .कंपनी उसको छोड़ती नहीं है, सच
ए जीनियस इज़ ही. . .व्हॉट इज़ हियर इन दिस कंट्री?''
अभी तक मैं शांत भाव से उनसे
बात कर रहा था। कहीं कोई कडुवाहट या उत्तेजना नहीं थी। मगर
मिसेज मल्होत्रा के अंतिम कथन ने मुझे भीतर तक बेचैन कर डाला।
मिस्टर मल्होत्रा मेरी बेचैनी भाँप गए।
मेरी श्रीमती जी भी तनिक आशान्वित नज़रों से मुझे देखने लगी।
उसे लग रहा था कि मैं ज़रूर प्रतिवाद करूँगा। मेरे अंदर भावों
का समुद्र उफन रहा था, फिर भी संयत स्वर में मैंने कहा-
''देखिए, कंपनी आपके बेटे पर कोई एहसान नहीं कर रही। आपका बेटा
चूँकि सुयोग्य है, इसलिए उसे अच्छा पैसा दे रही है। सीधी सी
बात है। वह कंपनी को अपनी मेहनत और लगन से कमा कर दे रहा है,
तभी बदले में कंपनी उसे अच्छा वेतन दे रही है। जिस दिन वह काम
में कोताही करेगा, उसी दिन कंपनी उसको घर बिठा देगी। और फिर
आपका होनहार बेटा अपनी सेवाएँ अपने देश को नहीं, विदेश को दे
रहा है। इस देश के लिए उसका क्या योगदान है भला? बुरा न माने
तो आप दोनों के लिए भी उसका कोई योगदान नहीं है- वह ब्रिलियंट
होगा, जीनियस होगा। अपने लिए। इस देश के लिए उसका होना या न
होना बराबर है।''
मेरे मुँह से सच्ची-तीखी
बातें सुनकर दोनों पति-पत्नी सक़ते में आ गए। आज तक उनको शायद
किसी ने भी इस तरह की खरी-खोटी बातें नहीं कहीं होंगी। मेरी
बातें सुनकर मिस्टर मल्होत्रा खड़े हो गए। मैंने बात का रुख
मोड़ते हुए कहा-
''ठीक है, आप हो आइए विदेश से। रिसेप्शन के समय हम सभी हाज़िर
होंगे। मेरे लायक और कोई सेवा हो तो बता दें या अमेरिका से लिख
भेजें।''
मेरी इस बात ने निश्चित ही
वातावरण को तनिक हल्का कर दिया और मल्होत्रा दंपति हमसे विदा
हुई। अगले महीने शादी हो जाने के बाद मल्होत्रा दंपति बहू-बेटे
को लेकर भारत आए। यहाँ कार्यक्रम के अनुसार उन्होंने एक
अच्छी-सी पार्टी दी। कुछ दिनों तक भारत में घूम लेने के पश्चात
बेटा-बहू दोनों वापस अमेरिका चले जाने की तैयारी करने लगे।
मेरी श्रीमती जी को अपने मकान की चाबी सँभालते हुए मल्होत्रा
दंपति कह गए कि अब वे भी साल-दो साल तक बेटे-बहू के पास
रहेंगे। मकान मालिक को समझा दें कि किराये की चिंता बिल्कुल न
करें। उनके खाते में वे वहीं से पैसा डाल दिया करेंगे।
मुश्किल से तीन महीने गुज़रे
होंगे। एक दिन मैंने देखा मल्होत्रा साहब के मकान की बिजली
अंदर से जल रही है। मैं भीतर चला गया। मल्होत्रा साहब अख़बार
पढ़ रहे थे। मुझे देख वे खड़े हो गए। मैंने हैरानी-भरे स्वर
में पूछा-
''अरे, आप अमेरिका से कब लौटे? आप तो साल-दो साल में लौटने
वाले थे. . .यह अचानक!
मेरी जिज्ञासा सही थी जिसको शांत करने के लिए उन्हें माकूल
जवाब देना था। इस बीच मैंने पाया कि हताशा उनके चेहरे पर अंकित
है और मायूसी के अतिरिक्त उनके स्वर में कुछ प्रकंचन घुला हुआ
है। वे बोले-
''अजी, हम बुजुर्गों का वहाँ क्या काम? उस देश को तो हुनरमंद
और फिट व्यक्ति चाहिए। फारतू लोगों को वहाँ रहने नहीं देते।
हमको उन्होंने वापस भेज दिया।''
मिस्टर मल्होत्रा जब मुझसे
बात कर रहे थे तो मैंने देखा कि मिसेज मल्होत्रा मुझसे नज़रें
बचाकर बाथरूम में घुस गई। |