प्रश्न यह नहीं है कि किसी जात के लिए सरकारी
नौकरियों में आरक्षण की माँग जायज़ है कि नहीं बल्कि प्रश्न तो यह है कि इन सब
मुद्दों को उछालने का लक्ष्य क्या है? अगर कोई ढेर से व्यक्तियों को एकत्रित कर
उनकी भीड़ जुटाता है तो पहले उनकी बुद्धि का हरण करता है और फिर अपने विचार और
लक्ष्य को उसमें ऐसे स्थापित करता है कि लोग उसके विचार और लक्ष्यों को अपना समझने
लगते हैं और व्यक्ति एक भीड़ का हिस्सा बन जाता है और फिर शुरू होता है उस भीड़
एकत्रित करने वाले का खेल जिसे सीधी भाषा में कहें कि वह रोटियाँ सकने का काम होता
है। यानी उलटे सीधे लक्ष्यों के लिए सामान्य जन की शक्ति का दुरुपयोग करना।
मैं हमेशा कहता हूँ कि जो मुद्दे उठाए जा रहे हैं
उनका लक्ष्य वह नहीं है जो कहा जा रहा है बल्कि कुछ और होता है जो छिपाया जाता है।
एक तो यह कि आम आदमी का ध्यान अपने कर्णधारों की तरफ़ लगा रहे -लोकतंत्र में जनता
के मतों पर चलने वाले लोगों के लिए यह आवश्यक है कि वह सतत रुप से उनका ध्यान
आकर्षित किए रहे और अपने देश में इसीलिए ऐसे मुद्दे उठाते हैं जिनमें कोई ज़्यादा
बड़ा सोच नहीं होता, दूसरा यह कि कहीं खाली बैठा मतदाता असली मुद्दों की तरफ़ ध्यान
न देने लगे इसीलिए उसे इन सतही मुद्दों में उलझाए रहो ताकि वह हमेशा भ्रमित रहे।
आरक्षण देना चाहिए या नहीं यह एक अलग मामला है
इससे पहले कुछ प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए।
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इसका लाभ किसे और कैसे हुआ है या होने वाला है?
और जिस लाभ की बात की जा रही है वह वास्तविक रुप से है या नहीं?
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जिन लोगों ने इसका लाभ लिया क्या उन्होंने अपने
समाज के लिए कुछ किया? और किया तो ऐसे लोगों की संख्या कितनी है?
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क्या समाज को उठाने का यही एक तरीका है?
इसके अलावा और कुछ करने को नहीं है। जो लोग इसके लिए प्रदर्शन कर रहे हैं क्या
सबको नौकरी मिल जाएगी।
हम तर्क चाहे जो दे लें आरक्षण एक तरह से छलावा है
- उतना ही छलावा है इसका विरोध। एक तरफ़ यही जो लोग आरक्षण को उचित ठहराने के लिए
तथाकथित रुप से जातिगत तर्क देते है और दुसरे तरफ़ यही लोग किसी दुसरे मंच पर
जातिवाद ख़त्म कराने के बात करते हैं, देश के विकास के लिए एकता के बात करते हैं।
एक तर्क है कि समाज में जातिवाद है इसीलिए सरकार को जातिगत आधार पर आरक्षण देना
चाहिए तो मुझे इन लोगों से प्रश्न है कि क्या आदमी में अंदर कितना जातिवाद है और वह
दिन में कितनी बार अपनी जात को याद करता है? समूह का कोई सोच नहीं होता और व्यक्ति
से सोच में जातिवाद हो ही नहीं सकता क्यों कि आज के युग में अगर किसी को जात की
ज़रूरत होती है तो केवल शादी-विवाह के समय अपने लड़के-लड़कियों के लिए सुयोग्य
पात्र ढूँढने के लिए होती है। बाकी तो कौन अपनी जात का और जात वाले व्यक्ति उसके
कितने अपने होते हैं वह भी एक विचारणीय प्रश्न हैं।
जिन लोगों ने जात के आधार पर सरकारी सेवाओं में
आरक्षण लिया है उन्होने समाज से अलग अपना एक संभ्रांत समाज बना लिया और अपढ़ और
गरीब व्यक्ति से दूर ही रहना पसंद हैं। अपने लड़के के लिए वह अपने समाज के किसी
गरीब और अशिक्षित व्यक्ति या परिवार की शिक्षित लड़की को कम दहेज लेकर बहु बनाने की
बजाय अपने स्तर की परिवार से अधिक दहेज लेकर उससे विवाह करने को प्राथमिकता देते
हैं। उस समय वह वैसी ही नाटक बाजी करते हैं जैसे अनारक्षित वर्ग वाले करते हैं तो
क्या इसे ही विकास कहते हैं?
सत्ता में अपनी जात के नाम पर भागीदारी लेने वाले
लोगों ने अपने जातीय समुदाय को क्या दिया यह ज़रा उनके समुदाय में जाकर पूछिए। जब
उनके खुद के कार्य में कोई रुकावट आती है तो फिर अपने समुदाय को जात का वास्ता देकर
भीड़ इकट्ठा करने के लिए उद्यत हो जाते हैं। आरक्षित वर्ग के पुराने समुदाय के लोग
इन बातों को समझ गए हैं और वह किसी जाल में नहीं फँस रहे तो फिर अब इसके लिए नए
समुदायों को तैयार किया जा रहा है-कहीं समुदायों को नए मुद्दों में उलझाने के
प्रयास हो रहे हैं। वास्तविक धरातल से अनभिज्ञ लोग फिर उनके उकसावे में आकर भारी
तकलीफ़ें उठा रहे हैं जिससे देखकर दुःख होता है। अगर आंदोलन से उन्हें कुछ हासिल हो
जाए तो किसी को आपत्ति नहीं है, पर सच यह है कि सरकारें उस मात्रा में नौकरियाँ दे
नहीं रहीं जिसकी आशा लोग कर रहे हैं और देंगी भी तो जातियों का विकास नहीं होने
वाला-आरक्षण से यह सिद्ध हो चुका है कि इससे समुदाय के केवल शिक्षित लोगों को ही
लाभ होता है और वह भी समय के साथ नगण्य हो रहा है-जिन लोगों ने लाभ लिया है
उन्होंने अपने समुदाय के लोगों को लाभ देने का कोई प्रयास नहीं किया।
अगर यही आंदोलन वह अपने इलाकों में सड़क, पानी,
बिजली और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए करते तो कितना अच्छा रहता, पर उनके मुखिया ऐसा
नहीं करेंगे क्यों कि उस विकास से उनका कोई हित नहीं सधता-इसके अलावा जात, धर्म और
भाषा के लिए लोगों की भीड़ एकत्रित करना आसान है और फिर उससे वोट लेकर सत्ता में
पहुँच जाते हैं और समग्र विकास के बात करते हुए चलाते रहना ज़्यादा बेहतर लगता है।
इस समय देश में अनेकों संकट हैं और इस भीषण गर्मी में कई जगह पेयजल का संकट है और
लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हैं पर ताज्जुब है कि इसके लिए कोई बड़ा आंदोलन चलने की
ख़बरें नहीं आती - कहीं से ऐसे जन- आंदोलन की ख़बर नहीं आती कि लोगों ने अपने पैसे
और परिश्रम से पाने के लिए स्वयं प्रयास किया हो या जल संरक्षण के लिए प्रयास किया
हो। छुटपुट आंदोलन वह भी स्थानीय प्रशासन के ख़िलाफ़ होते हैं उनकी ख़बरें आती हैं
पर आंदोलन का मतलब केवल सरकार के ख़िलाफ़ ही नहीं होता बल्कि आम लोगों को साथ लेकर
सुधारों के लिए भी होते हैं। महात्मा विनोबा भावे का भूदान आंदोलन कोई किसी सरकार
के ख़िलाफ़ नहीं था बल्कि समाज को जोड़ने के लिए एक सकारात्मक प्रयास था।
गर्मी आने से पहले कहीं ऐसा जन-आंदोलन चलने के
ख़बर नहीं आती, उलटे इस भीषण गर्मी में लोगों को ऐसे मामले में एकत्रित किया जा रहा
है जो उनके जीवन की आधारभूत ज़रूरतों से कोई संबंध नहीं रखते। कहीं धर्म के रक्षा
तो कहीं जात के अस्तित्व का संकट तो कहीं भाषा के गूँगी होने का भय दिखाकर भीड़
एकत्रित करने वाले लोगों की चाल, चरित्र और चेहरा सब जानते हैं फिर भी उनके पीछे हो
जाते हैं- गभीर विषयों की बजाय नारों से अपने हित साधने वालों की इस देश में कमी
नहीं है। हमें तो लगता हैं कि विकास का मुदा कोई उठाना ही नहीं चाहता क्यों कि उसके
लिए किसी के पास कोई कार्य योजना नहीं है और इसीलिए वह ऐसे अर्थहीन मुद्दे उठाकर
लोगों में अपनी छबि चुनावों के लिए बना ये रखना चाहते हैं और ऐसा कर अपने विरोधियों
को भी ऐसा ही अवसर प्रदान करते हैं। तब कुछ लोगों को संदेह भी होता है कि कहीं ऐसे
मुद्दों को योजनाबद्ध ढंग से तो नहीं उठाया जा रहा है।
जहाँ तक जातियों और समुदायों के हितों का सवाल है
तो सब जानते हैं गरीब और असहाय का कोई नहीं है और अगर उनके रहनुमा इतने ही ईमानदार
हैं तो क्यों नहीं अपने अंदर मौजूद आर्थिक-सामाजिक विषमताओं तथा
रूढ़ियों तथा अंधविश्वासों के विरुद्ध आंदोलन चलाते। अपने समाज में जागरूकता
लाने का प्रयास लाने के लिए कोई बड़ा आंदोलन चलाने का साहस क्यों नहीं करते? इसीलिए
न कि इससे उनको कोई राजनीतिक फ़ायदा नहीं होने वाला। सच तो यह कि लोग अपने जात- और
समुदायों के नाम पर लाभ तो उठाना चाहते हैं पर उनका भला कोई नहीं करना चाहता। कितने
लोग अपनी जात समुदाय के लोगों का हित चाहते हैं यह हम सब जानते हैं क्यों कि हम सब
स्वयं भी किसी न किसी से संबंधित हैं। हम लोग देश के सर्वांगीण विकास की बात सोचते
हैं पर कुछ लोगों को इससे राहत नहीं मिलती और वह समाजों की आपसी रिश्तों में दरार
डालकर अपने हित साधना चाहते हैं।
९ जून २००७ |