विज्ञान वार्ता

रक्तदान: महादान
सबका रक्त: सबके लिए

डॉ गुरुदयाल प्रदीप

रक्त रुधिर. . .ख़ून जी हाँ, लाल रंग का यह तरल ऊतक हमारा जीवन-आधार है। हालाँकि हमारे शरीर में इसकी मात्रा मात्र चार से पाँच लीटर ही होती है, फिर भी यह हमारे लिए बहुमूल्य है। इसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। जीवन को चलाए रखने में यह कौन-कौन-सी भूमिका अदा करता है, इसकी लिस्ट तो लंबी-चौड़ी है फिर भी इसके कुछ मुख्य कार्य-कलापों पर दृष्टिपात करने पर ही इसके महत्व का पता चल जाता है।
शरीर की लाखों-करोड़ों कोशिकाओं को आक्सीजन तथा पचा-पचाया भोजन पहुँचा कर यह उनके ऊर्जा-स्तर को बनाए रखने से लेकर भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उठाता है। उन कोशिकाओं से कार्बन-डाई-ऑक्साइड तथा यूरिया जैसे विषैली गैसों एवं रसायनों को निकालने के कार्य में भी यह लगा रहता है। बीमारी पैदा करने वाले कीटाणुओं से तो यह लगातार लड़ता रहता है और उनके विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त एक अंग में निर्मित रसायनों, यथा हॉमोन्स को शरीर की सभी कोशिकाओं तक पहुँचाने से लेकर शरीर के ताप को एकसार बनाए रखने, आदि तमाम कार्यों में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है।

इसकी संरचना में प्रयुक्त अवयवों के अनुपात में थोड़ा असंतुलन भी हमारे लिए तमाम परेशनियाँ खड़ी कर सकता है। यथा- सोडियम की ज़्यादा मात्रा रक्तचाप को बढ़ा देता है तो पानी की कमी हमें मौत के क़रीब पहुँचा सकती है और ऑयरन की कमी एनिमिक बना सकती है, आदि-आदि. . .। जब इतने से ही इतना कुछ हो सकता है तो ज़रा सोचिए, जब यह पूरा का पूरा हमारे शरीर से निकलने लगे तब क्या होगा? और दुर्भाग्य से हमारे साथ ऐसा होता ही रहता है।छोटी-मोटी चोटें तो हमारी दिनचर्या का हिस्सा है और इनसे निकलने वाले रक्त की कोई परवाह भी नहीं करता। कारण, हमारे शरीर में रक्त-निर्माण की प्रकिया शैने: शैने: सतत रूप से चलती ही रहती है। साथ ही रक्त में एक और गुण होता है और वह यह कि हवा के संपर्क में आते ही यह स्वत: जमने लगता है, जिसके कारण छोटे-मोटे घावों से निकलने वाला रक्त थोड़ी देर में स्वत: रुक जाता है। चिंता का विषय तब होता है जब हमें बड़ी एवं गंभीर चोट लगती है। ऐसी स्थिति में बड़ी रक्त-वाहिनियाँ भी चोटिल हो सकती हैं। इन वाहिनियों से निकलने वाले रक्त का वेग इतना ज़्यादा होता है कि रक्त के स्वत: जमाव की प्रक्रिया को पूरा होने का अवसर ही नहीं मिलता और एक साथ थोड़े ही समय में शरीर से रक्त की इतनी अधिक मात्रा निकल जाती है कि व्यक्ति का जीवन संकट में आ जाता है। यदि समय से उसे चिकित्सा-सुविधा न मिले तो मौत निश्चित है। चिकित्सकों का पहला प्रयास रहता है कि रक्त-प्रवाह को किस प्रकार रोका जाय और फिर यदि शरीर से रक्त की मात्रा आवश्यकता से अधिक निकल गई हो तो बाहर से किस प्रकार रक्त की आपूर्ति की जाए।

बाहर से रक्त की आपूर्ति के संबंध में प्रयास एवं प्रयोग तो सत्रहवीं सदी से ही किए जा रहे थे। इन प्रयोगों में एक जानवर का रक्त दूसरे जानवर को प्रदान करने से ले कर जानवर का रक्त मनुष्य को प्रदान करने के प्रयास शामिल हैं। इनमें से अधिकांश प्रयोग असफल रहे तो कुछ संयोगवश आंशिक रूप से सफल भी रहे। 1885 में लैंड्यस ने अपने प्रयोंगों से यह दर्शाया कि जानवरों का रक्त मनुष्यों के लिए सर्वथा अनुचित है। कारण, मनुष्य के शरीर में जानवर के रक्त में पाए जाने वाली लाल रुधिर कणिकाओं के थक्के बन जाते है एवं ये थक्के रक्त वहिनियों को अवरुद्ध कर देते हैं जिससे मरीज़ मर सकता है। ऐसे प्रयोगों के फलस्वरूप, मनुष्य के लिए मनुष्य का रक्त ही सर्वथा उचित है, यह बात तो चिकित्सकों ने उन्नीसवीं सदी में ही समझ ली थी और एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर से रक्त प्राप्त कर ऐसे मरीज़ के शरीर में रक्त आपूर्ति की विधा भी विकसित कर ली गई थी एवं इसका उपयोग भी किया जा रहा था। लेकिन इसमें भी एक पेंच देखा गया- कभी तो इस प्रकार के रक्तदान के बाद मरीज़ बच जाते थे, तो कभी नहीं। 1905 में कार्ल लैंडस्टीनर ने अपने प्रयोगों द्वारा यह दर्शाया कि सारे मनुष्यों का रक्त सारे मनुष्यों के लिए उचित नहीं है। ऐसे प्रयासों में भी कभी-कभी मरीज़ के शरीर में दाता के रक्त की रुधिर कणिकाओं के थक्के उसी प्रकार बनते हैं जैसा लैंड्यस ने जानवरों के रक्त के बारे में दर्शाया था। 1909 में लैंडस्टीनर ने अथक प्रयास के बाद यह दर्शाया कि किस प्रकार के मनुष्य का रक्त किसे दिया जा सकता है।

उन्होंने पाया कि हमारी लाल रुधिर कणिकाओं के बाहरी सतह पर विशेष प्रकार के शर्करा ऑलिगोसैक्राइड्स से निर्मित एंटीजेन्स पाए जाते हैं। ये एंटीजन्स दो प्रकार के होते हैं- ए एवं बी। जिन लोगों की रक्तकाणिकाओं पर केवल ए एंटीजेन पाया जाता है उनके रक्त को ए ग्रुप का नाम दिया गया। इसी प्रकार केवल बी एंटीजेन वाले रक्त को बी ग्रुप तथा जिनकी रुधिर कणिकाओं पर दोनों ही प्रकार के एंटीजेन पाए जाते हैं उनके रक्त को एबी ग्रुप एवं जिनकी रक्तकणिकाओं में ये दोनों एंटीजेन्स नहीं पाए जाते उनके रक्त को ओ ग्रुप का नाम दिया गया। सामान्यतया अपने ग्रुप अथवा ओ ग्रुप वाले व्यक्ति से मिलने वाले रक्त से मरीज़ को कोई समस्या नहीं होती, लेकिन जब किसी मरीज़ को किसी अन्य ग्रुप के व्यक्ति (ए,बी या फिर एबी) रक्त दिया जाता है तो मरीज़ के शरीर में दाता के रक्त की लाल रुधिर कणिकाओं के थक्के बनने लगते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि ए का रक्त बी, एबी एवं ओ में से किसी को नहीं दिया जा सकता; बी का रक्त ए, एबी एवं ओ को नहीं दिया जा सकता और एबी का रक्त तो किसी को नहीं दिया जा सकता। परंतु एबी (युनिवर्सल रिसीपिएंट) को किसी भी ग्रुप का रक्त दिया जा सकता है तथा ओ (युनिवर्सल डोनर) किसी को भी रक्त दे सकता है।

ऐसा क्यों होता है? इसे पता लगाने के प्रयास में यह पाया गया कि किसी भी व्यक्ति के रक्त के तरल भाग प्लाज़्मा में एक अन्य रसायन एंटीबॉडी पाया जाता है। यह रसायन उस व्यक्ति की लाल रुधिर काणिकाओं के उलट होता है। ए ग्रुप में बी एंटीबॉडी मिलता है तो बी में ए एवं ओ में दोनों एंटीबॉडीज़ मिलते हैं। परंतु एबी में ऐसे किसी भी एंटीबॉडीज़ का अभाव होता है। एक ही प्रकार के एंटीजेन एवं एंटीबॉडी के बीच होने वाली प्रतिक्रिया के फलस्वरूप रुधिर कणिकाएँ आपस में चिपकने लगती हैं, जिससे इनका थक्का बनने लगता है। यही कारण है कि जब ए का रक्त बी को दिया जाता है मरीज के रक्त में उपस्थित एंटीबॉडी ए दाता के लाल रुधिर कणिकाओं पर पाए जाने एंटीबॉडी ए से प्रतिक्रिया कर उनका थक्का बनाने लगते हैं। यही बात तब भी होती है जब बी का रक्त ए को दिया जाता है। चूँकि ओ में दोनों ही एंटीबॉडीज़ मिलते हैं अत: ऐसे मरीज़ को ए,बी अथवा एबी, किसी का रक्त दिए जाने पर उसमें पाए जाने वाली रुधिर कणिकाओं का थक्का बनना स्वाभाविक है। इसके उलट, एबी में कोई भी एंटीबाडी नहीं होता अत: इसे किसी भी ग्रुप का रक्त दिया जाय थक्का नहीं बनेगा। रक्तदान के पूर्व दाता एवं मरीज़ दोनों के रक्त का ग्रुप पता करने की विधा भी खोज निकाली गई।

कार्ल लैंडस्टीनर की इस खोज ने ब्लड ट्रांसफ्युज़न के फलस्वरूप मरीज़ों को होने वाली परेशानियों एवं इनकी मृत्युदर में भारी कमी ला दी। चिकित्सा जगत के लिए यह खोज इतनी महत्वपूर्ण थी कि 1930 में लैंडस्टीनर को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बाद में आरएच फैक्टर एवं एम तथा एन जैसे एंटीजेन तथा ब्लड ग्रुप की खोज में भी इन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

कुछ समस्याएँ तो इन सब के बाद भी बनी रहीं ओर भी बनी हुई हैं। यथा, आकस्मिक दुर्घटना के कारण अचानक आवश्यकता से अधिक रक्त की हानि होने पर मरीज़ की जान बचाने के लिए तुरंत रक्त की आवश्यकता पड़ती है और वह भी उस ग्रुप की जो उसके लिए उचित हो। यदि समय रहते सही रक्तदाता न मिले तो समस्या गंभीर हो सकती है। सामूहिक दुर्घटना की स्थिति में तो बहुत सारे रक्त की, वह भी अलग-अलग ग्रुप वाले रक्त की आवश्यकात पड़ सकती है। इस समस्या से निपटने के लिए ब्लड बैंक की स्थापना का विचार आया। यह तभी संभव हो पाया जब 1910 में लोगों की समझ में यह बात आई कि रक्त को जमने से रोकने वाले रसायन एंटीकोआगुलेंट को रक्त में मिला कर उसे कम ताप पर रेफ्रिज़िरेटर में कुछ दिनों के लिए रखा जा सकता है। 27 मार्च 1914 में एल्बर्ट हस्टिन नामक बेल्जियन डॉक्टर ने पहली बार दाता के शरीर से पहले से निकाले रक्त में सोडियम साइट्रेट नामक एंटीकोआगुलेंट को मिला कर मरीज़ के शरीर में ट्रांसफ्यूज़ किया। लेकिन पहला ब्लड बैंक 1 जनवरी 1916 में ऑस्वाल्ड होप राबर्ट्सन द्वारा स्थापित किया गया।

इस सबके बावजूद संसार में मरीज़ों की जान बचाने के लिए रक्त का अभाव बना ही रहता है। वैज्ञानिक निरंतर इस प्रयास में लगे रहते हैं कि किस प्रकार इस समस्या से निपटा जाय। साथ ही यह भी प्रयास रहा है कि किस प्रकार लाल रुधिर कणिकाओं पर पाए जाने वाले एंटीजेंस से छुटकारा मिल सके ताकि किसी का रक्त किसी को भी दिया जा सके। १९६० के बाद इस प्रयास में काफी तेजी आई है। डेक्सट्रान जैसे संश्लेषित प्लाज़्मा सब्सटीच्यूट द्वारा रक्त का परिमाण तो बढ़ाया जा सकता है लेकिन शरीर की कोशिकाओं को रक्त पहुँचाने वाले लाल रुधिर काणिकाओं का क्या सब्स्टीच्यूट है? 1970 के दशक में जापान के वैज्ञानिकों ने फ्लूओसॉल-डीए जैसे रसायन का आविष्कार किया जो कोशिकाओं को अस्थायी तौर पर ऑक्सीजन पहुँचाने का काम कर सकते हैं।

1980 के दशक में वैज्ञानिकों को एक ब्लड ग्रुप को दूसरे में परिवर्तित करने में आंशिक सफलता मिली थी। इसी की अगली कड़ी है- युनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगेन के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के दल ने एक ऐसी तकनीक़ का विकास किया है जिसके द्वारा किसी भी ग्रुप के आरएच निगेटिव रक्त को, चाहे वह ए ग्रुप का हो या बी का अथवा एबी का, ओ ग्रुप में परिवर्तित किया जा सकता है। यदि आपने यह आलेख ध्यान से पढ़ा है तो आप जानते ही हैं कि ओ ग्रुप का रक्त किसी को भी दिया जा सकता है। यह एक क्रांतिकारी अनुसंधान है।

1 अप्रैल 2007 के नेचर बॉयोटेक्नॉलॉजी के अंक में प्रकाशित आलेख के अनुसार लगभग 2500 बैक्टीरिया एवं फफूंदियो की प्रजातियों के जांच-पड़ताल के बाद इन वैज्ञानिकों को एलिज़ाबेथकिंगिया मेनिंज़ोसेप्टिकम एवं बैक्टीरियोऑएड्स फ्रैज़ाइलिस में पाए जाने वाले सक्षम ग्लाइकोसाइडेज़ एन्ज़ाइम्स की खोज में सफलता मिली है जो लाल रुधिर कणिकाओं की सतह से संलग्न ऑलिगोसैक्राइड्स (एंटीजेन ए अथवा बी) को बड़ी सफ़ाई से काट कर अलग कर सकते हैं और वह भी तटस्थ पीएच पर। इन एन्ज़ाइम्स की क्रियाशीलता केवल ए तथा बी एंटीजन्स तक ही सीमित है। ये आरएच एंटीजेन के विरूद्ध अप्रभावी हैं, फलत: इनके द्वारा केवल आरएच निगेटिव रक्त को ही ओ ग्रुप में बदला जा सकता है। यह सीमित सफलता भी बड़ी महत्वपूर्ण है। इसके द्वारा भी बहुतेरे मरीज़ों की जान बचाई जा सकेगी। हालांकि इस विधा का क्लीनिकल ट्रायल अभी शेष है। आशा है, जल्दी ही इसे भी पूरा कर लिया जाएगा एवं इसका लाभ शीघ्र ही मरीज़ों को मिलने लगेगा।

 

24 मई 2007