(तीसरा भाग)
बहुत कुरेदने पर पता चला किरीट
देसाई सरल मार्ग के कैंप में जाना चाहता है। राजकोट में ही
तेरह मील दूर पर उसके स्वामी जी का कैंप लगेगा।
''जो काम तुम्हारे माँ बाप के लायक है वह तुम अभी से
करोगे।'' पवन ने कहा।
''नहीं सर, आप एक दिन कैंप के मेडिटेशन में भाग लीजिए। मन को
बहुत शांति मिलती है। स्वामी जी कहते हैं, मेडिटेशन
प्रिपेर्स यू फॉर योर मंडेज।'' (ध्यान लगाने से आप अपने
सोमवारों का सामना बेहतर ढंग से कर सकते हैं।)
''तो इसके लिए छुट्टी की क्या ज़रूरत है। तुम काम से लौट कर
भी कैंप में जा सकते हो।''
''नहीं सर। पूजा और ध्यान फुलटाइम काम है।''
पवन ने बेमन से किरीट को
छुट्टी दे दी। मन ही मन वह भुनभुनाता रहा। एक शाम वह यों ही
कैंप की तरफ़ चल पड़ा। दिमाग़ में कहीं यह भी था कि किरीट की
मौजूदगी जाँच ली जाए।
राजकोट जूनागढ़ लिंक रोड़
पर दाहिने हाथ को विशाल फाटक पर ध्यान शिविर सरल मार्ग का
बोर्ड लगा था। तक़रीबन स्वतंत्र नगर वसा था। कारों का
काफ़िला आ और जा रहा था। इतनी भीड़ थी कि उसमें किरीट को
ढूँढ़ना मुमकिन ही नहीं था। जिज्ञासावश पवन अंदर घुसा। विशाल
परिसर में एक तरफ़ बड़ी-सी खुली जगह वाहन खड़े करने के लिए
छोड़ी गई थी जो तीन चौथाई भरी हुई थी। वहीं आगे की ओर लाल
पीले रंग का पंडाल था। दूसरी तरफ़ तरतीब से तंबू लगे हुए थे।
कुछ तंबुओं के बाहर कपड़े सूख रहे थे। उस भाग में भी एक फाटक
था जिस पर लिखा था प्रवेश निषेध।
पंडाल के अंदर जब पवन घुसने
में सफल हुआ तब स्वामी जी का प्रवचन समापन की प्रक्रिया में
था। वे निहायत शांत, संयत, गहन गंभीर वाणी में कह रहे थे,
''प्रेम करो, प्राणिमात्र से प्रेम करो। प्रेम कोई टेलीफ़ोन
कनेक्शन नहीं है जो आप सिर्फ़ एक मनुष्य से बात करें। प्रेम
वह आलोक है जो समूचे कमरे को, समूचे जीवन को आलोकित करता है।
अब हम ध्यान करेंगे। ओम्।''
उनके 'ओम्' कहते ही पाँच हज़ार श्रोताओं से भरे पंडाल में
सन्नाटा खिंच गया। जो जहाँ जैसा बैठा था वैसा ही आँख मूँद कर
ध्यानमग्न हो गया।
आँखें बंद कर पाँच मिनट
बैठने पर पवन को भी असीम शांति का अनुभव हुआ। कुछ-कुछ वैसा
जब वह लड़कपन में बहुत भाग दौड़ कर लेता था तो माँ उसे
ज़बरदस्ती अपने साथ लिटा लेती और थपकते हुए डपटती, ''बच्चा
है कि आफत। चुपचाप आँख बंद कर, और सो जा।'' उसे लगा अगर कुछ
देर और वह ऐसे बैठ गया तो वाकई सो जाएगा।
उसने हल्के से आँख खोल कर
अगल-बगल देखा, सब ध्यानमग्न थे। देखने से सभी वी.आई.पी.
किस्म के भक्त थे, जेब में झाँकता मोबाइल फ़ोन और घुटनों के
बीच दबी मिनरल वाटर की बोतल उन्हें एक अलग दर्जा दे रही थी।
सफलता के कीर्तिमान तलाशते ये भक्त जाने किस जैट रफ़्तार से
दिन भर दौड़ते थे, अपनी बिजनेस या नौकरी की लक्ष्य पूर्ति के
कलपुर्जे बने मनुष्य। पर यहाँ इस वक्त ये शांति के शरणागत
थे।
कुछ देर बाद सभा विसर्जित
हुई। सबने स्वामी जी को मौन नमन किया और अपने वाहन की दिशा
में चल दिए। पार्किंग स्थल पर गाड़ियों की घरघराहट और तीखे
मीठे हार्न सुनाई देने लगे। वापसी में पवन का किरीट के प्रति
आक्रोश शांत हो चुका था। उसे अपना स्नायु मंडल शांत और
स्वस्थ लग रहा था। उसे यह उचित लगा कि आपाधापी से भरे जीवन
में चार दिन का समय ध्यान के लिए निकाला जाय। स्वामी जी के
विचार भी उसे मौलिकता और ताज़गी से भरे लगे। जहाँ अधिसंख्य
गुरुजन धर्म को महिमा मंडित करते हैं, किरीट के स्वामी जी
केवल अध्यात्म पर बल देते रहे। चिंतन, मनन और आत्मशुद्धि
उनके सरल मार्ग के सिद्धांत थे।
सरल मार्ग मिशन के भक्त उन
भक्तों से नितांत भिन्न थे जो उसने अपने शहर में साल दर साल
माघ मेले में आते देखे थे। दीनता की प्रतिमूर्ति बने वे भक्त
असाध्य कष्ट झेल कर प्रयाग के संगम तट तक पहुँचते। निजी
संपदा के नाम पर उनके पास एक अदद मैली कुचैली गठरी होती, साथ
में बूढ़ी माँ या आजी और अंटी में गठियाये दस बीस रुपए। कुंभ
के पर्व पर लाखों की संख्या में ये भक्त गंगा मैया तक
पहुँचते, डुबकी लगाते और मुक्ति की कामना के साथ घर वापस लौट
जाते। संज्ञा की बजाय सर्वनाम वन कर जीते वे भक्त बस इतना
समझते कि गंगा पवित्र पावन है और उनके कृत्यों की तारिणी।
इससे ऊपर तर्कशक्ति विकसित करना उनका अभीष्ट नहीं था।
पर किरीट के स्वामी कृष्णा
स्वामी जी महाराज के भक्त समुदाय में एक से एक सुशिक्षित,
उच्च पदस्थ अधिकारी और व्यवसायी थे। कोई डॉक्टर था तो कोई
इंजीनियर, कोई बैंक अफ़सर तो कोई प्राइवेट सेक्टर का मैनेजर।
यहाँ तक कि कई चोटी के कलाकार भी उनके भक्तों में शुमार थे।
साल में चार बार वे अपना शिविर लगाते, देश के अलग-अलग नगरों
में। समूचे देश से उनके भक्त गण वहाँ पहुँचते। उनके कुछ
विदेशी भक्त भी थे जो भारतीयों से ज़्यादा स्वदेशी बनने और
दिखने की कोशिश करते।
पवन ने दो चार बार स्वामी
जी का प्रवचन सुना। स्वामी जी की वक्तृत्वता असरदार थी और
व्यक्तित्व परम आकर्षक। वे दक्षिण भारतीय तहमद के ऊपर भारतीय
कुर्ता धारण करते। अन्य धर्माचार्यों की तरह न उन्होंने केश
बढ़ा रखे थे, न दाढ़ी। वे मानते थे कि मनुष्य को अपना बाह्य
स्वरूप भी अंतर्स्वरूप की तरह स्वच्छ रखना चाहिए। उनका
यथार्थवादी जीवन दर्शन उनके भक्तों को बहुत सही लगता। वे सब
भी अपने यथार्थ को त्याग कर नहीं, उसमें से चार दिन की मोहलत
निकाल कर इस आध्यात्मिक हालिडे के लिए आते। वे इसे एक
'अनुभव' मानते। स्वामी जी एकदम धारदार, विश्वसनीय अंग्रेज़ी
में भारतीय मनीषा की शक्ति और सामर्थ्य समझाते, भक्तों का
सिर देशप्रेम से उन्नत हो जाता। स्वामी जी हिंदी भी बखूबी
बोल लेते। महिला शिविर में वे अपना आधा वक्तव्य हिंदी में
देते और आधा अंग्रेज़ी में।
सरल मार्ग मिशन आराम करने
से पूर्व स्वामी जी पी.पी. के. कंपनी में कार्मिक प्रबंधक
थे। मिशन की संरचना, संचालन और कार्य योजना में उनका
प्रबंधकीय कौशल देखने को मिलता था। शिविर में इतनी भीड़
एकत्र होती थी पर न कहीं अराजकता होती न शांति भंग। अनजाने
में पवन उनसे प्रभावित होता जा रहा था। पर किसी भी प्रभाव की
आत्यंतिकता उस पर ठहर नहीं पाती क्यों कि काम के सिलसिले में
उसे राजकोट के आसपास के क्षेत्र के अलावा बार-बार अहमदाबाद
भी जाना पड़ता। अहमदाबाद में दोस्तों से मिलना भी भला लगता।
अभिषेक के यहाँ जा कर अंकुर की नई शरारतें देखना सुख देता। |