इस सप्ताह 5 जून विश्व
पर्यावरण दिवस के अवसर पर—
समकालीन कहानी में
भारत से सुमेरचंद की कहानी
पेड़ कट रहे हैं
रिटायर
होने के बाद उनियाल ने भी पर्यावरण मित्र के नाम से एन.जी.ओ. बना कर
छोटा सा बोर्ड एक कमरे पर लटका दिया। असल में इस तरह के एन.जी.ओ.,
बड़े नगरों में काले धंधों से नोट बटोरने वाले बड़े लोगों के लिये,
गर्मियाँ बिताने वाले कॉटेज बना-बना कर बेचते थे। कॉटेज बनने वाले
स्थान पर पहले से खड़े पुराने पेड़ों को नोटों में बदलते और काली
कमाई में भी साझा कर लेते। ऊपर से पर्यावरण संरक्षण की आड़ में
पर्यावरण मंत्रालय से मोटा अनुदान भी मार लेते। जिस पर्यावरण को
उनियाल सरकारी फ़ाइलों में फलता-फूलता छोड़ कर आया था वह पहाड़ों पर,
अपनी किस्मत को रो रहा था।
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हास्य-व्यंग्य में
वीरेंद्र
जैन का
पॉलिथीन युग पुराण
मैं आज कह सकता हूँ कि दो हज़ार बीस
से युग पॉलिथीन युग के नाम से जाना जाएगा। यूरोप से एशिया और अफ्रीका से
ऑस्ट्रेलिया तक चारों ओर पॉलिथीनें ही पॉलिथीनें होंगी। भारत के लोग अपनी
राष्ट्रवादी शान से कहेंगे कि हिमालय से कन्या कुमारी और अटक से कटक तक
जहाँ तिरंगी पॉलिथीनें बिखरी पड़ी हैं, वह शस्य रंगबिरंगी आसेतु हिमालय
हमारी पुण्यभूमि है। भाजपा वाले भगवा पॉलिथीनों पर ज़ोर देंगे तो मुस्लिम
लीगी हरी पॉलिथीनें फैलाएँगे। कम्युनिस्ट लाल ही लाल पॉलिथीनें लहराएँगे
तो काँग्रेसी तिरंगी पॉलिथीनें। सड़कों पर गलियों में, खेतों में तालों
में, नदियों-समुद्रों, में पेड़ों की डालों पर, बिजली के तारों पर,
सर्वत्र पॉलिथीनें फैली होंगी।
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महानगर की कहानियों में
पर्यावरण की खुशबू में डूबी
सुभाष नीरव
की धूप
वे
भीतर ही भीतर खिन्नाए, 'कैसी बनी है यह सरकारी इमारत! इस गुनगुनी धूप के लिए
तरस जाता हूँ मैं। . . .उन्हें अपना पिछला दफ़्तर याद हो आया। कितना अच्छा था
वह ऑफ़िस-सिंगल स्टोरी! ऑफ़िस के सामने खूबसूरत छोटा-सा लॉन! लंच के समय
चपरासी स्वयं लॉन की घास पर कुर्सियाँ डाल देता था- अफ़सरों के लिए। ऑफ़िस के
कर्मचारी दूर बने पार्क में बैठकर धूप का मज़ा लेते थे। पर, यहाँ ऑफ़िस ही
नहीं, सरकार द्वारा आवंटित फ़्लैट में भी धूप के लिए तरस जाते हैं वह। तीसरी
मंज़िल पर मिले फ़्लैट पर किसी भी कोण से धूप दस्तक नहीं देती। एकाएक उनका मन
हुआ कि वह भी सामने वाले पार्क में जाकर धूप का मज़ा ले लें।
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घर परिवार में
अतुल अरोरा पर मौसम की मार-
अब तक छप्पन
शीर्षक
से फिल्म या फिर इनकाउन्टर जैसे विषय पर लेख का पूर्वानुमान लगाने से
पहले आइए आपको कुछ मजेदार तथ्यों से अवगत कराया जाये। १. मादा
प्रजाति से भेदभाव छींक जुकाम का कारण है। २. भारतीय छींकने के माले
में निहायत ही बदतमीज होते हैं। ३. जुकाम , खाँसी वगैरह का सबसे
ज्यादा प्रकोप अप्रैल मई में होता है । ४. बिना आँखे बंद किये छींकना
असंभव है, ऐसा न करने पर आँख की पुलिया बाहर टपक कर गिर सकती है। अब
आप इन तथ्यों को बकवास करार ही करार देंगे, क्योंकि जुकाम वगैरह तो
सर्दी में होता है, और फिर छींकने और शराफत का क्या मेल और उस पर
तुर्रा यह कि महिलाओं से भेदभाव का जुकाम का कारण है?
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फुलवारी में
ललित सिंह पोखरिया का बाल-नाटक
अपना
घर अपनी धरती
तो
देख लिया आपने! इन बड़े मकानों में रहने वाले महानों का करिश्मा! धरती
के पर्यावरण की रक्षा का दर्द कैसा ये दिखा रहे थे। पर पल पल वो अपने
घर के पर्यावरण को मिटा रहे थे। वन की रक्षा, नदियों की रक्षा, रक्षा
ओज़ोन परत की। बातें हैं ये बड़ी-बड़ी पहली बात
करो घर की। बूंद बूंद से घड़ा भरेगा। कदम कदम से शिखर नपेगा। हम
सुधरेंगे जग सुधरेगा। सुधार अपने घर से ही शुरू होता है। यही बात
पर्यावरण पर लागू होती है। पूरी धरती के पर्यावरण की रक्षा के लिए,
अपने घर के पर्यावरण की रक्षा करनी होगी। ऐसा तभी होगा जब हमारे भीतर
इंसानी गुणों की रक्षा होगी। इंसान और पर्यावरण का इतना गहरा नाता
है, पेड़ नहीं हैं मात्र वनस्पति वे हमारे भ्राता हैं।
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