भारतीय संस्कृति में दूब को
अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। चाहे नागपंचमी का
पूजन हो या विवाहोत्सव या फिर अन्य कोई शुभ मांगलिक अवसर,
पूजन-सामग्री के रूप में दूब की उपस्थिति से उस समय उत्सव
की शोभा और भी बढ़ जाती है। यह पौधा ज़मीन से ऊँचा नहीं
उठता है, बल्कि ज़मीन पर ही फैला हुआ रहता है, इसलिए इसकी
नम्रता को देखकर गुरु नानक ने एक स्थान पर कहा है-
नानकनी चाहो चले, जैसे नीची दूब
और घास सूख जाएगा, दूब खूब की खूब।
हिंदू धर्म-शास्त्र भी दूब
को परम-पवित्र मानते हैं। हमारे देश में ऐसा कोई मांगलिक
कार्य नहीं, जिसमें हल्दी और दूब की ज़रूरत न पड़ती हो।
दूब के विषय में एक संस्कृत कथन इस प्रकार मिलता है-
विष्णवादिसर्वदेवानां दूर्वे त्वं प्रीतिदा यदा।
क्षीरसागर संभूते वंशवृद्धिकारी भव।।
अर्थात हे दुर्वा, तुम्हारा जन्म क्षीरसागर से हुआ है! तुम
विष्णु आदि सब देवताओं को प्रिय हो।
इस प्रकार हमने 'दूब' को
भी समुद्र-कन्या बना दिया।
तुलसीदास ने दूब को अपनी लेखनी से इस प्रकार सम्मान दिया
है-
'रामं दुर्वादल श्यामं, पद्माक्षं पीतवाससा।'
दूब के लिए इससे बड़ा
गौरव हो सकता है भला! प्रायः जो वस्तु हमारे स्वास्थ्य के
लिए हितकर सिद्ध होती थी, उसे हमारे पूर्वजों ने धर्म के
साथ जोड़कर, उसका महत्व और भी बढ़ा दिया। दूब भी ऐसी ही
वस्तु है। यह सारे देश में बहुतायत के साथ हर मौसम में
उपलब्ध रहती है। दूब का पौधा एक बार जहाँ जम जाता है, वहाँ
से इसे नष्ट करना बड़ा मुश्किल होता है। इसकी जड़ें बहुत
ही गहरी पनपती हैं। दूब की जड़ों में हवा तथा भूमि से नमी
खींचने की क्षमता बहुत अधिक होती है, यही वजह है कि चाहे
जितनी सरदी पड़ती रहे या जेठ की तपती दुपहरी हो, इस सबसे
बेखबर दूब सदा- अक्षुण्ण बनी रहती है।
उद्यानों
की शोभा
दूब की संस्कृत भाषी
दूर्वा, अमृता, अनंता, गौरी, महौषधि, शतपर्वा, भार्गवी
इत्यादि नामों से जानते हैं। यह वही पौधा है, जिस पर उषा
काल में जमी हुई 'ओस' की बूँदें मोतियों-सी चमकती प्रतीत
होती हैं। ब्रह्म मुहूर्त में हरी-हरी ओस से परिपूर्ण दूब
पर भ्रमण करने का अपना निराला ही आनंद होता है। सच पूछिए
तो उद्यानों की शोभा है दूब।
पशुओं के लिए ही नहीं
अपितु मनुष्यों के लिए भी पूर्ण पौष्टिक आहार है दूब।
महाराणा प्रताप ने वनों में भटकते हुए जिस घास की रोटियाँ
खाई थीं, वह 'दूब' ही थी। राणा के एक प्रसंग को कविवर
कन्हैया लाल सेठिया ने अपनी कविता में इस प्रकार निबद्ध
किया हैः
अरे घास री रोटी ही,
जद बन विला वड़ो ले भाग्यो।
नान्हों सो अमरयौ चीख पड्यो,
राणा रो सोयो दुख जाग्यो।
अर्वाचीन विश्लेषकों ने
भी परीक्षणों के उपरांत यह सिद्ध किया है कि दूब में
प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं।
दूब के पौधे की जड़ें, तना, पत्तियाँ इन सभी का चिकित्सा
क्षेत्र में भी अपना विशिष्ट महत्व है।
दूब का
औषधीय महत्व
संथालजाति के लोग दूब को
पीसकर फटी हुई बिवाइयों पर इसका लेप करके लाभ प्राप्त करते
हैं।
आज से दो हज़ार वर्ष
पूर्व आयुर्वेद के महान आचार्य चरक भी दूब के गुणों से
बखूबी अन्य जड़ी-बूटियों के साथ दूब का काढ़ा बनाकर दस्त
तथा अत्यधिक प्रमाण में होने वाले मासिक धर्म को रोकने के
लिए प्रयोग किया जाता है। पुराने प्रमेह रोग में दूब पीसकर
दही के साथ देने का भी विधान है।
दूब शीतल तासीर वाली औषधि
है, इसलिए दूब का ताज़ा रस मिरगी, हिस्टीरिया, उन्माद
इत्यादि मानसिक रोगों में प्रयुक्त होता है। दूब के काढ़े
से कुल्ले करने से मुँह के छाले मिट जाते हैं। दूब को
पीसकर ललाट पर लेप करने से भी नकसीर बंद हो जाती है।
हकीमों की यह मान्यता है
कि हरी दूब का रस पीने से बार-बार लगने वाली प्यास बूझ
जाती है। इससे पेशाब खुलकर होने लगता है। इसके साथ ही खून
की अनावश्यक गरमी शांत होकर चर्म विकार दूर होने लगते हैं।
आयुर्वेद में दूब में उपस्थित अनेक औषधीय गुणों के कारण
दूब को 'महौषधि' में कहा गया है। आयुर्वेदाचार्यों के
अनुसार दूब का स्वाद कसैला-मीठा होता है। विभिन्न पैत्तिक
एवं कफज विकारों के प्रशमनार्थ दूब का निरापद प्रयोग किया
जाता है।
9 मई 2007 |