इस सप्ताह—
भारत से ममता कालिया के
धारावाहिक उपन्यास दौड़ की पहली
किस्त
वह अपने ऑफ़िस में घुसा।
शायद इस वक्त लोड शेडिंग शुरू हो गई थी। मुख्य हॉल में
आपातकालीन ट्यूब लाइट जल रही थी। वह उसके सहारे अपने केबिन
तक आया। अँधेरे में मेज़ पर रखे कंप्यूटर की एक बौड़म
सिलुएट बन रही थी। फ़ोन, इंटरकॉम सब निष्प्राण लग रहे थे।
ऐसा लग रहा था संपूर्ण सृष्टि निश्चेष्ट पड़ी है। बिजली के रहते यह छोटा-सा
कक्ष उसका साम्राज्य होता है। थोड़ी देर में आँख अँधेरे की
अभ्यस्त हुई तो मेज़ पर पड़ा माउस भी नज़र आया। वह भी अचल
था। पवन को हँसी आ गई, नाम है चूहा पर कोई चपलता नहीं।
बिजली के बिना प्लास्टिक का नन्हा-सा खिलौना है बस। ''बोलो
चूहे कुछ तो करो, चूँ चूँ ही सही,'' उसने कहा। चूहा फिर
बेजान पड़ा रहा।
*
हास्य-व्यंग्य में
राजेन्द्र त्यागी के साथ
संसद
में बंदर
संसद के अंदर बंदरों का जमघट देखा तो सवालों की श्रृंखला के साथ हमारे
अंदर का पत्रकार जागा। हमने उनका साक्षात्कार करने की ठानी और अपनी ठान
कंधे पर लाद संसद का दरवाज़ा जा खटखटाया। मुख्य द्वार से ही इक्का-दुक्का
बंदरों से भेंट होनी शुरू हो गई। महानुभावों की श्रद्धा के साथ केलों का
कलेवा कराते-कराते हम महात्मा गांधी की प्रतिमा के नज़दीक पहुँचे।
प्रतिमा के तले ही महानुभावों का दरबार लगा था। नमन किया और केलों का शेष
स्टॉक उनके सामने यों खोल कर रख दिया ज्यों प्रियतमा के सामने प्रेमी का
आत्मसमर्पण।
*
ललित निबंध में
डॉ. शोभाकांत झा का आलेख
अपवित्रो पवित्रो वा
पिताजी
नित्य पूजन प्रारंभ करने से पूर्व इस मंत्र को पढ़कर 'विष्णुर्विष्णुर्हरि
हरिः' कहते व जल छिड़कते हुए देह, पूजन द्रव्य एवं भू शुद्धि करते थे।
आज स्वयं नित्य-पूजन अनुष्ठान करने के पूर्व उक्त श्लोक का उच्चारण करता हूँ
– टेप की तरह और शुद्धता का कर्मकांड पूर्ण कर लेता हूँ – सोचविहीन क्रिया की
तरह। इस क्रिया के द्वारा बाहर भीतर से कितना पवित्र हो पाता हूँ, वह तो हरि
जाने, परंतु अब जबकि सोचने की उम्र को जी रहा हूँ तब कभी-कभार बाबा तुलसी से
बतियाते और भागवत के आँगन में रमते हुए लगता है कि सच में हरि का स्मरण पूजन
पूर्व विधान ही नहीं, विश्वास भी है। भाव-कुभाव से सोच-असोच से जैसे तैसे
प्रभु का स्मरण आत्म अभिषेक है। मल धुले वा न धुले, मंगल का आमंत्रण है।
*
आज सिरहाने श्रीप्रकाश शुक्ल का
कविता संग्रह जहाँ सब शहर
नहीं होता
श्रीप्रकाश
शुक्ल आसपास की बनती-बिगड़ती दुनिया से बेहद ख़बरदार युवा कवि है।
उनकी कविता प्रतिरोध और करुणा की ताक़त से लैस है। श्रीप्रकाश की
कविता कहीं से भी शुरू हो सकती है और परिचित दृश्य के ह्रदय से
कभी भी अदृश्य दिखना प्रारंभ हो सकता है। छोटे शहरों की सामाजिकता पर
केंद्रित कई कविताएँ उन्होंने लिखी हैं। ऐसी बहुत सारी विशेषताओं के
साथ उनका कविता संग्रह 'जहाँ सब शहर नहीं होता' प्रकाशित हुआ है।
संग्रह प्रमाणित करता है कि श्रीप्रकाश अपने समय की उन सीमाओं से
परिचित हैं जिन पर बरसों बहस तो की जा सकती है मगर जिनको दुरुस्त
करना असंभव है।
*
संस्मरण में
मोहन थपलियाल की
कटोरा भर याद में डूबी टिहरी
बचपन
की धुँधली यादों में टिहरी मेरे दिमाग़ में तब से उभरता है, जब पाँच
वर्ष का होने पर पीले कपड़ों में मेरा मुंडन कराया जा रहा था। हमारा
घर, जहाँ मैं पैदा हुआ था, दयाराबाग में था, यानी भिलंगना नदी के
दाहिने किनारे, मदननेगी-प्रतापनगर जाने वाली सड़क के पहले पड़ाव पर।
नीचे कंडल गाँव था, जहाँ की सिंचित ज़मीन बहुत उपजाऊ मानी जाती थी।
टिहरी के घंटाघर की तरफ़ से चलें तो भादू
की मगरी तक सीधा रास्ता था। फिर भिलंगना की घाटी में नीचे उतरना
पड़ता था, जहाँ एक पुल था और फिर पुल के पार दयाराबाग का किनारा छूते
हुए खड़ी चढ़ाई पर यह सड़क प्रतापनगर तक जाती थी।
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