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                             (पहला भाग) 
                        वह अपने ऑफ़िस में घुसा। 
                        शायद इस वक्त लोड शेडिंग शुरू हो गई थी। मुख्य हॉल में 
                        आपातकालीन ट्यूब लाइट जल रही थी। वह उसके सहारे अपने केबिन 
                        तक आया। अँधेरे में मेज़ पर रखे कंप्यूटर की एक बौड़म 
                        सिलुएट बन रही थी। फ़ोन, इंटरकॉम सब निष्प्राण लग रहे थे। 
                        ऐसा लग रहा था संपूर्ण सृष्टि निश्चेष्ट पड़ी है।
 
                        बिजली के रहते यह छोटा-सा 
                        कक्ष उसका साम्राज्य होता है। थोड़ी देर में आँख अँधेरे की 
                        अभ्यस्त हुई तो मेज़ पर पड़ा माउस भी नज़र आया। वह भी अचल 
                        था। पवन को हँसी आ गई, नाम है चूहा पर कोई चपलता नहीं। 
                        बिजली के बिना प्लास्टिक का नन्हा-सा खिलौना है बस। ''बोलो 
                        चूहे कुछ तो करो, चूँ चूँ ही सही,'' उसने कहा। चूहा फिर 
                        बेजान पड़ा रहा। पवन को यकायक अपना छोटा 
                        भाई सघन याद आया। रात में बिस्कुटों की तलाश में वे दोनों 
                        रसोईघर में जाते। रसोई में नाली के रास्ते बड़े-बड़े चूहे 
                        दौड़ लगाते रहते। उन्हें बड़ा डर लगता। रसोई का दरवाज़ा 
                        खोल कर बिजली जलाते हुए छोटू लगातार म्याऊँ-म्याऊँ की 
                        आवाज़ें मुँह से निकालता रहता कि चूहे ये समझें कि रसोई 
                        में बिल्ली आ पहुँची है और वे डर कर भाग जाएँ। छोटू का 
                        जन्म भी मार्जार योनि का है। 
                      पवन ज़्यादा 
                      देर स्मृतियों में नहीं रह पाया। यकायक बिजली आ गई,  
                      अँधेरे के बाद चकाचौंध करती बिजली के साथ ही ऑफ़िस में जैसे 
                      प्राण लौट आए। दातार ने हाट प्लेट कॉफी का पानी चढ़ा दिया, 
                      बाबू भाई ज़ेराक्स मशीन में काग़ज़ लगाने लगे और शिल्पा 
                      काबरा अपनी टेबल से उठ कर नाचती हुई-सी चित्रेश की टेबल तक 
                      गई, ''यू नो हमें नरूलाज़ का कांट्रेक्ट मिल गया।'' पवन ने अपनी टेबल पर 
                      बैठे-बैठे दाँत पीसे। यह बेवकूफ़ लड़की हमेशा ग़लत आदमी से 
                      मुख़ातिब रहती है। इसे क्या पता कि चित्रेश की चौबीस तारीख 
                      को नौकरी से छुट्टी होने वाली है। उसने दो जंप्स (वेतन 
                      वृद्धी) माँगे थे, कंपनी ने उसे जंप आउट करना ही बेहतर समझा। 
                      इस समय तलवारें दोनों तरफ़ की तनी हुई हैं। चित्रेश को जवाब 
                      मिला नहीं है पर उसे इतना अंदाज़ा है कि मामला कहीं फँस गया 
                      है। इसीलिए पिछले हफ़्ते उसने एशियन पेंट्स में इंटरव्यू भी 
                      दे दिया। एशियन पेंट्स का एरिया मैनेजर पवन को नरूलाज में 
                      मिला था और उससे शान मार रहा था कि तुम्हारी कंपनी छोड़-छोड़ 
                      कर लोग हमारे यहाँ आते हैं। पवन ने चित्रेश की सिफ़ारिश कर 
                      दी ताकि चित्रेश का जो फ़ायदा होना है वह तो हो, उसकी कंपनी 
                      के सिर पर से यह सिरदर्द हटे। वहीं उसे यह भी ख़बर हुई कि 
                      नरूलाज में रोज़ बीस सिलेंडर की खपत है। आई.ओ.सी. अपने एजेंट 
                      के ज़रिए उन पर दबाव बनाए हुई है कि वे साल भर का अनुबंध 
                      उनसे कर लें। गुर्जर गैस ने भी अर्ज़ी लगा रखी है। आई.ओ.सी. 
                      की गैस कम दाम की है। संभावना तो यही है बनती है कि उनके 
                      एजेंट शाह एंड सेठ अनुबंध पा जाएँगे पर एक चीज़ पर बात अटकी 
                      है। कई बार उनके यहाँ माल की सप्लाई ठप्प पड़ जाती है। 
                      पब्लिक सेक्टर के सौ पचड़े। कभी कर्मचारियों की हड़ताल तो 
                      कभी ट्रक चालकों की शर्तें। इनके मुक़ाबले गुर्जर गैस में 
                      माँग और आपूर्ति के बीच ऐसा संतुलन रहता है कि उनका दावा है 
                      कि उनका प्रतिष्ठान संतुष्ट उपभोक्ताओं का संसार है। पवन पांडे को इस नए शहर और 
                      अपनी नई नौकरी पर नाज़ हो गया। अब देखिए बिजली चार बजे गई 
                      ठीक साढ़े चार बजे आ गई। पूरे शहर को टाइम ज़ोन में बाँट 
                      दिया है, सिर्फ़ आधा घंटे के लिए बिजली गुल की जाती है, फिर 
                      अगले ज़ोन में आधा घंटा। इस तरह किसी भी क्षेत्र पर ज़ोर 
                      नहीं पड़ता। नहीं तो उसके पुराने शहर यानी इलाहाबाद में तो 
                      यह आलम था कि अगर बिजली चली गई तो तीन-तीन दिन तक आने के नाम 
                      न ले। बिजली जाते ही छोटू कहता, ''भइया ट्रांसफार्मर दुड़िम 
                      बोला था, हमने सुना है।'' परीक्षा के दिनों में ही 
                      शादी-ब्याह का मौसम होता। जैसे ही मोहल्ले की बिजली पर 
                      ज़्यादा ज़ोर पड़ता, बिजली फेल हो जाती। पवन झुँझलाता, ''माँ 
                      अभी तीन चैप्टर बाकी हैं, कैसे पढूँ।'' माँ उसकी 
                      टेबल के 
                      चार कोनों पर चार मोमबत्तियाँ लगा देती और बीच में रख देती, 
                      उसकी क़िताब। नए अनुभव की उत्तेजना में पवन, बिजली जाने पर 
                      और भी अच्छी तरह पढ़ाई कर डालता। छोटू इसी बहाने बिजलीघर के 
                      चार चक्कर लगा आता। उसे छुटपन से बाज़ार घूमने का चस्का था। 
                      घर का फुटकर सौदा लाते, पोस्ट ऑफ़िस, बिजलीघर के चक्कर लगाते 
                      यह शौक अब लत में बदल गया था। परीक्षा के दिनों में भी वह 
                      कभी नई पेंसिल ख़रीदने के बहाने तो कभी यूनीफार्म इस्तरी 
                      करवाने के बहाने घर से ग़ायब रहता। जाते हुए कहता, ''हम अभी 
                      आते हैं।'' लेकिन इससे यह न पता चलता कि हज़रत जा कहाँ रहे 
                      हैं। जैसे मराठी में, घर से जाते हुए मेहमान यह नहीं कहता कि 
                      मैं जा रहा हूँ, वह कहता है 'मी येतो' अर्थात मैं आता हूँ। 
                      यहाँ गुजरात में और सुंदर रिवाज है। घर से मेहमान विदा लेता 
                      है तो मेज़बान कहते हैं, ''आऊ जो।'' यानी फिर आना। 
                       यह ठीक है कि पवन घर से 
                      अठारह सौ किलोमीटर दूर आ गया है। पर एम.बी.ए. के बाद कहीं न 
                      कहीं तो उसे जाना ही था। उसके माता पिता अवश्य चाहते थे कि 
                      वह वहीं उनके पास रह कर नौकरी करे पर उसने कहा, ''पापा यहाँ 
                      मेरे लायक सर्विस कहाँ? यह तो बेरोज़गारों का शहर है। 
                      ज़्यादा से ज़्यादा नूरानी तेल की मार्केटिंग मिल जाएगी।'' 
                      माँ बाप समझ गए थे कि उनका शिखरचुंबी बेटा कहीं और बसेगा। फिर यह नौकरी पूरी तरह पवन 
                      ने स्वयं ढूँढ़ी थी। एम.बी.ए. अंतिम वर्ष की जनवरी में जो 
                      चार पाँच कंपनियाँ उनके संस्थान में आई उनमें भाईलाल भी थी। 
                      पवन पहले दिन पहली इंटरव्यू में ही चुन लिया गया। भाईलाल 
                      कंपनी ने उसे अपनी एल.पी.जी. यूनिट में प्रशिक्षु सहायक 
                      मैनेजर बना लिया। संस्थान का नियम था कि अगर एक नौकरी में 
                      छात्र का चयन हो जाए तो वह बाकी के तीन इंटरव्यू नहीं दे 
                      सकता। इससे ज़्यादा छात्र लाभान्वित हो रहे थे और कैंपस पर 
                      परस्पर स्पर्धा घटी थी। पवन को बाद में यही अफ़सोस रहा कि 
                      उसे पता ही नहीं चला कि उसके संस्थान में विप्रो, एपल और 
                      बी.पी.सी.एल जैसी कंपनियाँ भी आई थीं। फिलहाल उसे यहाँ कोई 
                      शिकायत नहीं थी। अपने अन्य कामयाब साथियों की तरह उसने सोच 
                      रखा था कि अगर साल बीतते न बीतते उसे पद और वेतन में उच्चतर 
                      ग्रेड नहीं दिया गया तो वह यह कंपनी छोड़ देगा। सी.पी. रोड चौराहे पर खड़े 
                      होके उसने देखा, सामने से शरद जैन जा रहा है। यह एक 
                      इत्तफ़ाक़ 
                      ही था कि वे दोनों इलाहाबाद में स्कूल से साथ पढ़े और अब 
                      दोनों को अहमदाबाद में नौकरी मिली। बीच में दो साल शरद ने 
                      आई.ए.एस. की मरीचिका में नष्ट किए, फिर कैपिटेशन फीस दे कर 
                      सीधे आई.आई.एम. अहमदाबाद में दाखिल हो गया।उसने शरद को रोका, ''कहाँ?''
 ''यार पिज़ा हट चलते हैं, भूख लग रही है।''
 वे दोनों पिज़ा हट में जा बैठे। पिज़ा हट हमेशा की तरह 
                      लड़के-लड़कियों से गुलज़ार था। पवन ने कूपन लिए और काउंटर पर 
                      दे दिए।
 शरद ने सकुचाते हुए कहा, ''मैं तो जैन पिज़ा लूँगा। तुम जो 
                      चाहे खाओ।''
 ''रहे तुम वहीं के वहीं साले। पिज़ा खाते हुए भी जैनिज़्म 
                      नहीं छोड़ेंगे।''
 अहमदाबाद में हर जगह मेनू 
                      कार्ड में बाकायदा जैन व्यंजन शामिल रहते जैसे जैन पिज़ा, 
                      जैन आमलेट, जैन बर्गर। पवन खाने के मामले में 
                      उन्मुक्त था। उसका मानना था कि हर व्यंजन की एक ख़ासियत होती 
                      है। उसे उसी अंदाज़ में खाया जाना चाहिए। उसे संशोधन से चिढ़ 
                      थी।मेनू कार्ड में जैन पिज़ा के आगे उसमें पड़ने वाली चीज़ें का 
                      खुलासा भी दिया था, टमाटर, शिमला मिर्च, पत्ता गोभी और तीखी 
                      मीठी चटनी।
 शरद ने कहा, ''कोई ख़ास फ़र्क तो नहीं है, सिर्फ़ चिकन की 
                      चार-पाँच कतरन उसमें नहीं होगी, और क्या?''
 ''सारी लज़्ज़त तो उन कतरनों की है यार।'' पवन हँसा।
 ''मैंने एक दो बार कोशिश की पर सफल नहीं हुआ। रात भर लगता 
                      रहा जैसे पेट में मुर्गा बोल रहा है कुकडूँकूँ।''
 ''तुम्हीं जैसों से महात्मा गांधी आज भी साँसें ले रहे हैं। 
                      उनके पेट में बकरा में-में करता था।''
 शरद ने वेटर को बुला कर पूछा, ''कौन-सा पिज़ा ज़्यादा बिकता 
                      है यहाँ।''
 ''जैन पिज़ा।'' वेटर ने मुसकुराते हुए जवाब दिया।
 ''देख लिया,'' शरद बोला, ''पवन तुम इसको एप्रिशिएट करो कि 
                      सात समंदर पार की डिश का पहले हम भारतीयकरण करते हैं फिर 
                      खाते हैं। घर में ममी बेसन का ऐसा लज़ीज़ आमलेट बना कर 
                      खिलाती हैं कि अंडा उसके आगे पानी भरे।''
 ''मैं तो जब से गुजरात आया हूँ बेसन ही खा रहा हूँ। पता है 
                      बेसन को यहाँ क्या बोलते हैं? चने का लोट।''
 पता नहीं यह जैन धर्म का 
                      प्रभाव था या गाँधीवाद का, गुजरात में मांस, मछली और अंडे की 
                      दुकानें मुश्किल से देखने में आतीं। होस्टल में रहने के कारण 
                      पवन के लिए अंडा भोजन का पर्याय था पर यहाँ सिर्फ़ स्टेशन के 
                      आस-पास ही अंडा मिलता। वहीं तली हुई मछली की भी चुनी दुकानें 
                      थीं। पर अक्सर मेम नगर से स्टेशन तक आने की और ट्रैफ़िक में 
                      फँसने की उसकी इच्छा न होती। तब वह किसी अच्छे रेस्तराँ में 
                      सामिष भोजन कर अपनी तलब पूरी करता।  
                      
                      वे अपने पुराने दिन याद करते 
                      रहे, दोनों के बीच में लड़कपन की बेशुमार बेवकूफ़ियाँ कॉमन 
                      थीं और पढ़ाई के संघर्ष। पवन ने कहा, ''पहले दिन जब तुम 
                      अमदाबाद आए तब की बात बताना ज़रा।''''तुम कभी अमदाबाद कहते हो कभी अहमदाबाद, यह चक्कर क्या 
                      है।''
 ''ऐसा है अपना गुजराती क्लायंट अहमदाबाद को अमदाबाद ही बोलना 
                      माँगता, तो अपुन भी ऐसाइच बोलने का।''
 ''मैं कहता हूँ यह एकदम व्यापारी शहर है, सौ प्रतिशत। मैं 
                      चालीस घंटे के सफ़र के बाद यहाँ उतरा। एक थ्री व्हीलर वाले 
                      से पूछा, ''आई.आई.एम. चलोगे?'' किदर बोलने से, उसने पूछा। 
                      मैंने कहा, ''भाई वस्त्रापुर में जहाँ मैनेजरी की पढ़ाई होती 
                      है, उसी जगह जाना है। तो जानते हो साला क्या बोला, टू 
                      हंड्रेड भाड़ा लगेगा। मैंने कहा तुम्हारा दिमाग़ तो ठीक है। 
                      उसने कहा, साब आप उदर से पढ़ कर बीस हज़ार की नौकरी पाओगे, 
                      मेरे को टू हंड्रेड देना आपको ज़्यादा लगता क्या?''
 ''तुम्हारा सिर घूम गया था?''
 ''बाई गॉड। मुझे लगा वह एकदम ठग्गू है। पर जिस भी थ्री 
                      व्हीलर वाले से मैंने बात की सबने यही रेट बताया।''
 ''मुझे याद है, शाम को तुमने मुझसे मिल कर सबसे पहले यही बात 
                      बताई थी।''
 ''सच्ची बात तो यह है कि अपने घर और शहर से बाहर आदमी हर 
                      रोज़ एक नया सबक सीखता है।''
 ''और बताओ, जॉब ठीक चल रहा है?''
 ''ठीक क्या यार, मैंने कंपनी ही ग़लत चुन ली।''
 ''बैनर तो बड़ा अच्छा है, स्टार्ट भी अच्छा दिया है?''
 ''पर प्रॉडक्ट भी देखो। बूट पॉलिश। हालत यह है कि हिंदुस्तान 
                      में सिर्फ़ दस प्रतिशत लोग चमड़े के जूते पहनते हैं।''
 ''बाकी नब्बे क्या नंगे पैर फिरते हैं?''
 ''मज़ाक नहीं, बाकी लोग चप्पल पहनते हैं या फ़ोम शुज़। 
                      फ़ोम के 
                      जूते कपड़ों की तरह डिटरजेंट से धुल जाते हैं और चप्पल 
                      चटकाने वाले पॉलिश के बारे में कभी सोचते नहीं। पॉलिश बिके 
                      तो कैसे?''
 पवन ने 
                      कौतुक से रेस्तराँ में कुछ पैरों की तरफ़ देखा। अधिकांश 
                      पैरों में फ़ोम के मोटे जूते थे। कुछ पैरों में चप्पलें थीं।''अभी हेड ऑफ़िस से फ़ैक्स आया है कि माल की अगली खेप भिजवा 
                      रहे हैं। अभी पिछला माल बिका नहीं है। दुकानदार कहते हैं वे 
                      और ज़्यादा माल स्टोर नहीं करेंगे, उनके यहाँ जगह की किल्लत 
                      है। ऐसे में मेरी सनशाइन शू पॉलिश क्या करें?''
 ''डीलर को कोई गिफ़्ट ऑफ़र दो, तो वह माल निकाले।''
 ''सबको सनशाइन रखने के लिए वॉल रैक दिए हैं, डीलर्स कमीशन 
                      बढ़वाया है पर मैंने खुद खड़े हो कर देखा है, काउंटर सेल 
                      नहीं के बराबर है।''
 पवन ने सुझाव दिया, ''कोई रणनीति सोचो। कोई इनामी योजना, 
                      हॉलिडे प्रोग्राम?''
 ''इनामी योजना का सुझाव भेजा है। हमारा टारगेट उपभोक्ता 
                      स्कूली विद्यार्थी हैं। उसकी दिलचस्पी टॉफी या पेन में हो 
                      सकती है, हॉलिडे प्रोग्राम में नहीं।''
 ''हाँ, यह अच्छी योजना है।''
 ''बाइ गॉड, अगर पब्लिक स्कूलों में चमड़े के जूते पहनने का 
                      नियम न होता तो सारी बूट पॉलिश कंपनियाँ बंद हो जातीं। 
                      इन्हीं के बूते पर बाटा, कीवी, बिल्ली, सनशाइन सब ज़िंदा 
                      हैं।''
 ''इस लिहाज़ से मेरी प्रॉडक्ट बढ़िया है। हर सीज़न में हर 
                      तरह के आदमी को गैस सिलेंडर की ज़रूरत रहती है। लेकिन यार जब 
                      थोक में प्रॉडक्ट निकालनी हो, यह भी भारी पड़ जाती है।''
 पवन उठ खड़ा हुआ, ''थोड़ी देर और बैठे तो यहाँ डिनर टाइम हो 
                      जाएगा। तुम कहाँ खाना खाते हो आजकल।''
 ''वहीं जहाँ तुमने बताया था, मौसी के। और तुम?''
 ''मैं भी मौसी के यहाँ खाता हूँ पर मैंने मौसी बदल ली है।''
 ''क्यों?''
 ''वह क्या है यार मौसी कढ़ी और करेले में भी गुड़ डाल देती 
                      थीं और खाना परोसने वाली उसकी बेटी कुछ ऐसी थी कि झेली नहीं 
                      जाती थी।''
 ''हमारी वाली मौसी तो बहुत सख़्त मिज़ाज है, खाते वक्त आप 
                      वॉकमैन भी नहीं सुन सकते। बस खाओ और जाओ।''
 ''यार कुछ भी कहो अपने शहर का खस्ता, समोसा बहुत याद आता 
                      है।''
 शहर में जगह-जगह घरों में 
                      महिलाओं ने माहवारी हिसाब पर खाना खिलाने का प्रबंध कर रखा 
                      था। नौकरी पेशा छड़े (अविवाहित) युवक उनके घरों में जा कर 
                      खाना खा लेते। रोटी सब्ज़ी, दाल और चावल। न रायता न चटनी न 
                      सलाद। दर तीन सौ पचास रुपए महीना, एक वक्त। इन महिलाओं को 
                      मौसी कहा जाता। भले ही उनकी उम्र पचीस हो या पचास। रात साढ़े 
                      नौ के बाद खाना नहीं मिलता। तब ये लड़के उडुपी भोजनालय में 
                      एक मसाला दोसा खा कर सो जाते। इतनी तकलीफ़ में भी इन युवकों 
                      को कोई शिकायत न होती। अपने उद्यम से रहने और जीने का संतोष 
                      सबके अंदर। घर गृहस्थी वाले साथी 
                      पूछते, ''जिंदगी के इस ढंग से कष्ट नहीं होता?''''होता है कभी-कभी।'' अनुपम कहता, ''सन 84 से बाहर हूँ। पहले 
                      पढ़ने की ख़ातिर, अब काम की।'' कभी-कभी छुट्टी के दिन अनुपम 
                      लिट्टी चोखा बनाता। बाकी लड़के उसे चिढ़ाते, ''तुम अनुपम 
                      नहीं अनुपमा हो।''
 वह बेलन हाथ में नचाते हुए कहता, ''हम अपने लालू अंकल को 
                      लिखूँगा इधर में तुम सब बुतरू एक सीधे सादे बिहारी को सताते 
                      हो।''
 जब आप अपना शहर छोड़ देते 
                      हैं, अपनी शिकायतें भी वहीं छोड़ आते हैं। दूसरे शहर का हर 
                      मंज़र पुरानी यादों को कुरेदता है। मन कहता है ऐसा क्यों है 
                      वैसा क्यों नहीं है? हर घर के आगे एक अदद टाटा सुमो खड़ी है। 
                      मारुति 800 क्यों नहीं? तर्क शक्ति से तय किया जा सकता है कि 
                      यह परिवार की ज़रूरत और आर्थिक हैसियत का परिचय पत्र है। पर 
                      यादें हैं कि लौट-लौट आती हैं सिविल लाइंस, एलगिन रोड और 
                      चैथम लाइंस की सड़कों पर जहाँ माचिस की डिबियों जैसी कारें 
                      और स्टियरिंग के पीछे बैठे नमकीन चेहरे तबियत तरोताज़ा कर 
                      जाते। ओफ, नए शहर में सब कुछ नया है। यहाँ दूध मिलता है पर 
                      भैसें नहीं दिखतीं। कहीं साइकिल की घंटी टनटनाते दूध वाले 
                      नज़र नहीं आते। बड़ी-बड़ी सुसज्जित डेरी शॉप हैं, एयरकंडीशंड, 
                      जहाँ आदमकद चमचमाती स्टील की टंकियों में टोटी से दूध निकलता 
                      है। ठंडा, पास्चराइज्ड। वहीं मिलता है दही, दुग्ध ना पेड़ा 
                      और श्रीखंड। यही हाल तरकारियों का है। 
                      हर कालोनी के गेट पर सुबह तीन चार घंटे एक ऊँचा ठेला 
                      तरकारियों से सजा खड़ा रहेगा। वह घर-घर घूम कर आवाज़ नहीं 
                      लगाता। स्त्रियाँ उसके पास जाएँगी और ख़रीदारी करेंगी। उसके 
                      ठेले पर ख़ास और आम तरकारियों का अंबार लगा है। हरी शिमला 
                      मिर्च है तो लाल और पीली भी। गोभी है तो ब्रोकोली भी। सलाद 
                      की शक्ल का थाई कैबेज भी दिखाई दे जाता है। ख़ास तरकारियों 
                      में किसी की भी कीमती डेढ़ दो सौ रुपए किलो से कम नहीं। ये 
                      बड़े-बड़े लाल टमाटर एक तरफ़ रखे हैं कि दूर से देखने पर 
                      प्लास्टिक की गेंद लगते हैं। ये टमाटर क्यारी में नहीं 
                      प्रयोगशाला में उगाए गए लगते हैं। कीमत दस रुपए पाव। टमाटर 
                      का आकार इतना बड़ा है कि एक पाँव में एक ही चढ़ सकता है। दस 
                      रुपए का एक टमाटर है। भगवान क्या टमाटर भी एन.आर.आई. हो गया। 
                      शिकागो में एक डॉलर का एक टमाटर मिलता है। भारत में टमाटर 
                      उसी दिशा में बढ़ रहा है। तरकारियाँ विश्व बाज़ार की जिन्स 
                      बनती जा रही हैं। इनका भूमंडलीकरण हो रहा है। पवन को याद आता 
                      है उसके शहर में घूरे पर भी टमाटर उग जाता था। किसी ने पका 
                      टमाटर कूड़े करकट के ढेर पर फेंक दिया, वहीं पौधा लहलहा उठा। 
                      दो माह बीतते न बीतते उसमें फल लग जाते। छोटे-छोटे लाल 
                      टमाटर, रस से टलमल, यहाँ जैसे बड़े बेजान और बनावटी नहीं, 
                      असल और खटमिट्ठे। शहर के बाज़ारों में घूमना 
                      पवन, शरद, दीपेंद्र, रोज़विंदर और शिल्पा का शौक भी है और 
                      दिनचर्या भी। रोज़विंदर कौर प्रदूषण पर प्रोजेक्ट रिपोर्ट 
                      तैयार कर रही है। कंधे पर पर्स और कैमरा लटकाए कभी वह एलिस 
                      ब्रिज के ट्रैफ़िक जाम के चित्र उतारती है तो कभी बाज़ार में 
                      जैनरेटर से निकलने वाले धुएँ का जायज़ा लेती है। दीपेंद्र कहता है, ''रोजू तुम्हारी रिपोर्ट से क्या होगा। 
                      क्या टैंपो और जेनरेटर धुआँ छोड़ना बंद कर देंगे?''
 रोजू सिगरेट का आख़िरी कश ले कर उसका टोटा पैर के नीचे 
                      कुचलती है, ''माई फुट! तुम तो मेरे जॉब को ही चुनौती दे रहे 
                      हो। मेरी कंपनी को इससे मतलब नहीं है कि वाहन धुएँ के बग़ैर 
                      चलें। उसकी योजना है हवा शुद्धिकरण संयंत्र बनाने की। एक 
                      हर्बल स्प्रे भी बनाने वाली है। उसे एक बार नाक के पास 
                      स्प्रे कर लो तो धुएँ का प्रदूषण आपकी साँस के रास्ते अंदर 
                      नहीं जाता।''
 ''और जो प्रदूषण आँख और मुँह के रास्ते जाएगा वह?''
 ''तो मुँह बंद रखो और आँख में डालने को आइ ड्राप ले आओ।''
 पवन के मुँह से निकल जाता है, ''मेरे शहर में प्रदूषण नहीं 
                      है।''
 ''आ हा हा, पूरे विश्व में प्रदूषण चिंता का विषय है और ये 
                      पवन कुमार आ रहे हैं सीधे स्वर्ग से कि वहाँ प्रदूषण नहीं 
                      हैं। तुम इलाहाबाद के बारे में रोमांटिक होना कब छोड़ोगे?''
 रोजू हँसती है, ''वॉट ही मीन्स इज वहाँ प्रदूषण कम है। वैसे 
                      पवन मैंने सुना है यू.पी. में अभी भी किचन में लकड़ी के 
                      चूल्हे पर खाना बनता है। तब तो वहाँ घर के अंदर ही धुआँ भर 
                      जाता होगा?''
 ''इलाहाबाद गाँव नहीं शहर है, कावल टाउन। शिक्षा जगत में उसे 
                      पूर्व का ऑक्सफोर्ड कहते हैं।''
 शिल्पा काबरा बातचीत को विराम देती है, ''ठीक है, अपने शहर 
                      के बारे में थोड़ा रोमांटिक होने में क्या हर्ज़ है।''
 पवन कृतज्ञता से शिल्पा को 
                      देखता है। उसे यह सोच कर बुरा लगता है कि शिल्पा की ग़ैर 
                      मौजूदगी में वे सब उसके बारे में हल्केपन से बोलते हैं। पवन 
                      का ही दिया हुआ लतीफ़ा है शिल्पा काबरा, शिल्पा का ब्रा।
                       'विश्वास नी जोत घरे-घरे— 
						गुर्ज़र गैस लावे छे' यह नारा है पवन की कंपनी का। इस 
						संदेश को प्रचारित प्रसारित करने का अनुबंध शीबा कंपनी को 
						साठ लाख में मिला है। उसने भी सड़कें और चौराहे रंग डाले 
						हैं।  |