समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है भारत से
सुदर्शन वशिष्ठ की कहानी-
साहिब है रंगरेज
किस्सा
उस समय का है जब शहर ने अँगड़ाई नहीं ली थी। बस अपने में
सकुचाया और सिमटा हुआ रहता था। ठण्डी सड़कों में जगह जगह झरने
बहते, जहाँ स्कूली बच्चे और राहगीर अंजुली भर भर पानी पीते।
मुख्य बाजार में बहुत कम आदमी नजर आते। गर्मियों में गिने चुने
लोग मैदानों से आते जिन्हें सैलानी नहीं कहा जाता था। कुछ
मेमें छाता लिए रिक्शे पर बैठी नजर आतीं। इन रिक्शों को आदमी
दौड़ते हुए चलाते थे। सर्दियों में तो वीराना छा जाता। माल रोड़
पर कोई भलामानुष नजर नहीं आता। मॉल रोड पर तो बीच से सड़क साफ
कर रास्ता बना दिया जाता, लोअर बाजार में दुकानें बर्फ से अटी
रहतीं। स्कूल कॉलेज बंद। वैसे भी ले दे कर लड़कियों का एक
सरकारी स्कूल, लड़कों का डी.ए.वी. स्कूल और एक प्राईवेट कॉलेज
था। दो चार कांवेंट स्कूल थे, जो संभ्रांत परिवारों की तरह
अपने में ही रहते। इन में ऐसे बच्चे रहते जिनके माता पिता के
पास उन के लिए समय नहीं था। सर्दियों की छुट्टियों में होस्टल
भी ख़ाली हो जाते। आगे-
*
यश मालवीय का व्यंग्य
लेट गाड़ी और
मुरझाता हार
*
डॉ. भावना कुँअर के साथ-
गपशप-
सर्दियों में सर्दी
*
डॉ. अशोक उदयवाल से जानें
सर्दी की दुआ बथुआ
*
डॉ गुरुदयाल प्रदीप के साथ
विज्ञान वार्ता-
गरमा-गरम चाय की
प्याली: आप के स्वास्थ्य के नाम
|