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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
माधव नागदा की लघुकथा- अभिलाषा


सर्दी का मौसम। गुनगुसी धूप। लान में मखली दूब। एक तरफ रंग-भिरैगे फूलो वाले गमले तो दूसरी तरफ मोगरे की बल खाती बेल। ऐसे में पत्नी मूँगफलियाँ सेंक कर ले आई। गरमागरम।

वे बरसों पहले की एक घटना से दुड़ गे। उस दिन भी पत्नी इसी तरह मूँगफलियाँ सेंककर कर लाई थी। नई ऩई शादी थी। मकान भी ढंग का कहाँ, खपरैल का एक कमरा और सेहन बस। सब तरफ गरीबी और बेरोजगारी के निशान। परन्तु पत्नी मानो इस सबसे अनजान। वह फलियाँ फोड़ती और एक एक दाना उसके मुँह में रख देती । उसका उल्लास देखने लायक था और तभी जो उसने कहा वह उनकी जिन्दगी में ताउम्र गूँजता रहा, "हर जनम में मुझे आप जैसा ही पति मिले।"

तब से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है। नौकरी-धंधा... बंगला-गाड़ी... बच्चे... बच्चों की पढ़ाई... उनकी शादियाँ... फिर एक एक कर के सबका चले जाना... दूर, अपने अपने कर्मक्षेत्र में। वे स्वयं भी एक स्थान पर टिक कर कहाँ रह पाए। नौकरी ऐसी थी कि भटकते रहे। पूरे देश का चक्कर काट-कूटकर अब वापस घर आए हैं। रिटायरमेंट के बाद फिर से पति पत्नी यों अकेले जैसे अभी-अभी शादी की हो। फर्क यही कि चेहके पर समय की छाप। अनुभव की आड़ी तिरछी रेखाएँ।

वे सम्मोहित से पत्नी को देखते रह गए।
क्या देख रहे हो-
कितनी अच्छी लग रही हो सुंदर
वह मुस्करा दी। फीकी-सी, इस अंदाज में जैसे उसे या तो पति की बात पर विश्वास नहीं है या फिर सुंदर होने न होने का अब कोई मतलब ही न रह गया।
अच्छा एक बार फिर वही बात कहो न।
कौन-सी समृतियों पर जमी धूल को झड़ने की कोशिश करते हुए पत्नी ने पूछा।
वही जो उस दिन कही थी। हर जन्म में मुझे आप जैसा ही पति मिले। पति ने याद दिलाया।
वह चुपचाप मूँगफलियाँ तोड़ती रही। मैनो छलके हटाकर जिंदगी का असल मकसद ढूँढ रही हो।
कहो न पति ने आग्रह किया।
क्या कहूँ पत्नी ने लंबी साँस छोड़ी। बल्कि घुट गई अनायास ही। आगे कहा- मैं अगले जन्म में औरत नहीं आदमी बनना चाहती हूँ।

२८ नवंबर २०११

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