अमावस की
काली रात ने गाँव को धर दबोचा था। चौधरियों के मोहल्ले में से
बल्बों की रोशनी दूर से गाँव का आभास करवाती थी। आठ बजते-बजते
तो सर्दी की रात जैसे मधरात की तरह गहरा जाती है। कहीं कोई
कुत्ता भौंकता तो कभी कोई गाय रंभाती पर आदमी तो जैसे सिमट कर
अपनी गुदड़ी का राजा हो गया हो। कभी-कभी बूढ़े जनों की खराशकी
आवाज़ आती थी।
जसोदा ने
ढीबरी जला दी। लखिया अभी तक घर नहीं आया था। वैसे भी उसको कहाँ
पड़ी थी जसोदा की... जब देखो तब चौधरी हरी राम की बैठक में जमा
रहता था। कई दिनों से अफीम भी लेने लगा है। लखिया की ये बात
जसोदा को पसंद नहीं। इसी बात पर दोनों के बीच तू-तू मैं-मैं
होती रहती हैं। दूर खेतों से सियार की डरावनी आवाज़ सुनाई देने
लगी तभी मोर चीखे, जसोदा का कलेजा दहल गया। रोटी को तवे से
उतारते हुए उसने आह भरी, ''हे राम! सब की रक्षा करना कौन जाने क्यों
आज की शाम उसे मनहूस लग रही थी। अनिष्ट से पहले की खामोशी उसे
डरा रही थी। दो-तीन बार दरवाज़े पर जाकर रास्ता देख आई लखिया
का कहीं कोई पता नहीं। मन ही मन
लखिया को कोस रही थी पर मोरों की डरावनी चीख पुकार सुन भगवान
से बार-बार लखिया भी सलामती की प्रार्थना करती थी। झोंपड़ी में
जी घुटने लगा तो आँगन में बैठ गई। |