अजीब हाल है इन भारतीय रेलों का भी। बड़े भाई ने
सोचा था कि रिज़र्वेशन है ही, दिल्ली तक का सफ़र सोते हुए कट जाएगा, सो जाते ही
बिस्तर लगाकर लंबलेट हो गए थे। खर्राटे भी ऐसे कि इंजन मात खाए, पर हाय री किस्मत!
सुबह सोकर उठे, तो गाड़ी उनके अपने स्टेशन पर ही अंगद की तरह खड़ी हुई थी, मजाल क्या
कि टस से मस भी हुई हो। दिन भर धक्के खाना उनके नसीब में था, तो कोई करता भी क्या?
यों भी दिल्ली अकसर ही दूर हुआ करती है, कई बार उनके लिए भी, जो दिल्ली में ही रहा
करते हैं। ख़ैर! यह तो हुई बड़े भाई की फजीहत।
अब इन जानिब की सुनिए! अभी पिछले सप्ताह की ही बात
है। कंपनी के 'ताड़न के अधिकारी' तशरीफ़ ला रहे थे। सबको अपने इनक्रीमेंट की चिंता
थी, सो मुझे भी थी। गाड़ी सुबह सात बजे ही प्लेटफ़ार्म पर आ जानी चाहिए थी। मैंने मन
ही मन बॉस के ज़ोरदार स्वागत की तैयारी सुनिश्चित कर ली। मोहल्ले के माली को पकड़ा
और गुलाब की एक आदमक़द माला तैयार करवाई।
सोच में लड्डू फूट रहे थे, सुनहरे भविष्य के।
नेहरू जी के अचकन में तो एक ही गुलाब हुआ करता था, बॉस को अर्पित की जाने वाली माला
में तो गुलाब ही गुलाब थे। पूरी गुलाब की खेती ही मौजूद थी। अपने प्रमोशन का सपना
कुहरे भरी सुबह में देखता हुआ, मैं स्टेशन की राह पर था। हाथ–पाँव सर्दी से गल रहे
थे, मगर दिल में 'हुम–हुम' बज रहा था। बॉस के सामने गुलाब के हार के साथ प्रस्तुत
होने की कल्पना मात्र ही रोमांचित कर रही थी, गर्म कर रही थी मंसूबों को। भाप
छोड़ता मुँह केतली हो गया था, उत्साह आसमान छू रहा था।
स्टेशन पहुँचते ही 'इनक्वायरी' की तरफ़ लपका मगर यह
क्या? गाड़ी पूरे दो घंटे लेट थी। मैंने मायूस होकर हँसते हुए गुलाबों की तरफ़ देखा,
वह जैसे मुँह चिढ़ा रहे थे। मैं बेचारा क्या करता, इंतज़ार करने के सिवा। स्टेशन पर
ही चाय–कॉफी के सहारे समय काटता रहा, सहता रहा पत्र – विक्रेताओं की झिड़कियाँ, फिर
भी उलटता–पलटता रहा मुफ़्त में ही पत्र–पत्रिकाओं के पृष्ठ। ख़रीदने की समाई तो
नहीं रह गई थी, क्यों कि पूरे दस रुपए की माला ख़रीद चुका था।
गाड़ी के लेट से आने का समय भी नज़दीक आ रहा था कि एक खनकती हुई आवाज़ ने
माइक्रोफ़ोन पर खखारा, खड़ी कमबख़्त एक घंटा और लेट हो गई थी। गुलाब के फूल कुम्हला
रहे थे। मन भी कुम्हला रहा था। मैंने गुलाबों के मुँह पर छींटे दिए। अपना मुँह भी
धोया। दोनों तरफ़ थोड़ी–थोड़ी देर के लिए ताज़गी आई। बीतते न बीतते एक घंटा बीता कि
फिर माइक्रोफ़ोन खखार उठा। गाड़ी इस बार डेढ़ घंटे लेट हो गई थी। मेरा चेहरा लटक गया।
गुलाब के ढेर सारे चेहरे लटक गए।
मैं स्टेशन के बाहर आ गया, एक नए और ताज़ा हार की
तलाश में। चारों तरफ़ गर्द–गुबार था। धूल उड़ रही थी। ईट–पत्थर बिछे थे। वहाँ
माला–फूल के लिए कोई गुंजाइश नहीं थीं। मुझे उन्हीं मुरझा रहे फूलों के हार से बॉस
को खुश करना था। कुछ मेरी जैसी व्यथा ही उन युवकों को भी थी, जो उसी ट्रेन से आ रहे
किसी केंद्रीय मंत्री के स्वागतार्थ आए थे। उन्हें भी अपने–अपने भविष्यों की चिंता
थी। इसका–उसका ज़िंदाबाद करने वाले इन युवकों में बहुत से बेरोज़गार थे, जो राजनीति
से ही रोज़गार की आशा लगाए थे। अगले चुनावों में उन्हें एम. एल. ए., एम. पी. का टिकट
मिलने की उम्मीद थीं, पर वे बेचारे क्या करते! उन सबके हार भी मुरझा रहे थे। मैं
मुरझाते हुए हार की फिक्र में था कि फिर माइक्रोफ़ोन खखारा।
जनवासे की चाल से आ रही गाड़ी इस बार पौन घंटे लेट
हो गई थी। गाड़ी रुके हुए डी. ए. की तरह लेट होती जा रही थी। 'जो मंज़िल ये पहुँचे,
तो मंज़िल बढ़ा दी' वाली स्थिति हो गई थी। कभी दो घंटा, तो कभी एक घंटा, कभी पौन
घंटा, तो कभी आधा घंटा, गाड़ी विलंब से आने की सूचना सुनते–सुनते शाम झुक आई थी।
गुलाब के फूलों के चेहरे पूरी तरह से उतर गए थे।
बहुप्रतीक्षित ट्रेन धीरे–धीरे पराजित पोरस की तरह
प्लेटफ़ार्म पर लग रही थी। स्टेशन पर थका–थका, हारा-सा ज़िंदाबाद गूँज रहा था। गाड़ी
हृदयगति की तरह रुक रही थी। इतने में मंत्री महोदय प्रकट हुए, लपककर युवकों ने
मुरझाए फूलों के हार उनके गले में डाल दिए। मंत्री महोदय ने नाक सिकोड़कर उन्हें
उतारकर अपने हाथ में पहन लिया। मालाओं की भूमिका शेष हो चुकी थी। मैं अपनी कुम्हलाई
हुई माला लिए अभी तक प्लेटफ़ार्म पर इस छोर से उस छोर तक भाग रहा था कि इतने में
साहब का 'स्पेशल मेसेंजर' दिखाई पड़ा। ख़बर मिली कि अर्जेंट मीटिंग के कारण
बौस ने
अपना दौरा ही रद्द कर दिया है। मैंने गुलाब का हार अपने हाथों में ही मन की तरफ़
मसोस लिया और भारी कदमों से घर की ओर लौट पड़ा।
प्रमोशन का सपना धूल में मिल चुका था।
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