कविता की मिथकीय भंगिमा
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कुमार रवीन्द्र
कविता और मिथक का रिश्ता उतना ही पुराना है, जितनी
पुरानी कविता स्वयं है। किसी भी देश या क्षेत्र की
कविता को लें, उसमें प्रारंभ से ही मिथकों की उद्भावना
हुई है। वस्तुतः मानुषी संज्ञा में कविता की पहली
उपस्थिति किसी-न-किसी मिथक से जुड़कर ही हुई है।
भारतीय साहित्य में वेदों की अपौरुषेय ऋचाओं में
किसिम-किसिम के मिथकों की संरचना हुई। ऋषि-वाणी में
बार-बार मिथक अवतरित हुए। आदिकवि वाल्मीकि के मुख से
पहला श्लोक एक मिथक की निर्मिति करता हुआ उपजा। बाद
में आदिकवि ने अपने महाकाव्य में एक मिथक-चरित्र की ही
परिकल्पना की और अयोध्या के राजा रामचन्द्र की एक
मिथक-पुरुष के रूप में जन-मानस में स्थापना की। एक
स्वानुशासित मर्यादित समाज की वह परिकल्पना आज भी एक
अपौरुषेय मिथक बनी हुई है।
असलियत में कविता के दो प्रमुख प्रयोजन प्रारंभ से ही
रहे हैं - एक तो आत्मीय अंतरंग मनोरंजन का और दूसरा,
जो, मेरी राय में अधिक महत्त्वपूर्ण है, वह है एक
आदर्श मानुषी संज्ञान की समाज में स्थापना। यह आदर्श
मानुषी आस्तिक भाव मिथक के माध्यम से ही कविता में
अधिकांशतः उपस्थित हुआ है। कविता स्वभावतः मिथक के
माध्यम से ही अपनी सर्वोत्कृष्ट स्थिति प्राप्त कर
पाती है। वास्तव में कविता में जो अप्रस्तुत का विधान
होता है, मिथक उसकी प्रस्तुति का एक अनिवार्य उपकरण
है। मनुष्य की कल्पना में उद्भूत हुए तमाम सूक्ष्म एवं
अदेह भाव-प्रसंग मिथक से ही परिभाषित हो पाते हैं।
क्योंकि मिथक मनुष्य के आदिम एवं सनातन आस्था-बिम्बों
से बनते हैं, वे रहते तो वही हैं, किन्तु उन्हें
कालक्रमानुसार पुनःपरिभाषित करते रहना पड़ता है।
समय-समय पर उन्हें पुनर्व्याख्यायित करते रहने से उनके
माध्यम से उद्घाटित होते जीवन-यथार्थ बासी नहीं पड़ते।
इससे आस्थाओं की पूर्वापर संगति बनी रहती है और
काल-सापेक्ष अर्थों को समझने, उन्हें शाश्वत बनाने में
भी सहयोग मिलता है। कई बार इन्हीं मिथकों के बीच से
अर्थ की नई संभावनाएँ भी प्राप्त हो जाती हैं और आहत
मानुषी आस्तिकता नये सन्दर्भों से जूझने, उन्हें
आस्थापरक आधार दे पाने का उपक्रम करती है। नये मिथक
सनातन मिथकों के संस्कार से ही बनते हैं। इसी प्रकार
परंपरा का विस्तार होता जाता है और वह जीवंत बनी रहती
है।
प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक ब्रानिस्लाव मेलिनावस्की ने
मिथक को मानवीय सभ्यता का एक जीवंत उपक्रम कहा है।
उसके अनुसार, मिथक मात्र बौद्धिक व्याख्या या कलात्मक
बिम्बाकृति नहीं होता, बल्कि वह मनुष्य की आदिम आस्था
और नैतिक प्रज्ञा का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज होता है।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल युंग ने इसे
मानव-पूर्वजों के अनगिनत प्रतिनिधि-अनुभवों से उपजी
'आद्य-आकृतियों' और 'अतीन्द्रिय अवशिष्टों' का, जो
मनुष्य के सामुदायिक अवचेतन में परंपरा से उपस्थित
रहते हैं, हिस्सा कहा है। आधुनिक मिथकों में, युंग के
अनुसार, उन्हीं की भाव-व्याख्या मिलती है। प्रख्यात
मनोचिकित्सक फ्रायड ने मिथक-कथानकों को अवचेतन में
अवस्थित मूल प्रवृत्यात्मक वासनाओं एवं भाव-संवेगों का
प्रारूप माना है, जबकि युंग ने इन्हें मनोवैज्ञानिक
पुनरावर्तन का स्थायीभावीकरण कहा है। नृवंशशास्त्री
इसके सांस्कृतिक स्वरूप को महत्त्व देते हैं। उनके
अनुसार आज का मनुष्य आदिमानव से बहुत अलग नहीं है।
हमारे गहन अनुभव, आवश्यकताएँ, अभीप्साएँ और वासनाएँ भी
वैसी ही हैं, जैसे हमारे जैविक तथा मानसिक परिवर्तन।
और ये सब मिलकर हमारी सांस्कृतिक संचेष्टता को
सौन्दर्यबोधात्मक स्वरूप देते हैं। विख्यात आधुनिक
साहित्यिक चिंतक नोर्थ्रोप फ्राई के मतानुसार 'आस्था
के रूप में मिथक उन क्रियाओं का अनुकरण हैं, जिन्हें
हम यहाँ अथवा अपनी इच्छाओं की कल्पनीय सीमाओं में
अनुभूत करते हैं" यानी मिथक एक बारंबार प्रत्यावर्तित
होने वाला संरचनात्मक साहित्यिक प्रारूप है।
यह सच है कि मिथक के प्रयोग से किसी भी साहित्यिक कृति
को अर्थ का विशद विस्तार मिल जाता है। उसके अर्थात
फ़िलवक्त के धरातल का संधान करते हुए भी सनातन मानुषी
संवेदना से जुड़ जाते हैं। मिथकीय भाषा में शब्द और
अर्थ का विभेद नहीं रह जाता - 'गिरा अर्थ जल बीचि सम'
की वह स्थिति प्राप्त हो जाती है, जो सर्जना के चरम
धरातल पर कृतिकार को पहुँचा देती है। वहाँ सारी
विभेद-रेखाएँ विलुप्त हो जाती हैं। सर्जना का वह
सर्वोच्च बिंदु प्राप्त करना वैसे आसान नहीं है। सिद्ध
कृती की वाणी, किन्तु इसी से ब्रह्मनाद की स्थिति
प्राप्त करती है। मैक्सम्यूलर ने मिथक-कथन को भाषा की
विकृति माना है, क्योंकि इसमें भाषा के अर्थात-स्वरूप
विविध हो जाते हैं यानी उनमें विविध अर्थों का समावेश
हो जाता है। वे विविध अर्थात-स्वरूप यथा, प्रतीक,
स्वैरकल्पना अथवा भ्रान्ति, अनुष्ठान, रूपक,
निर्देशक-चिह्न एवं पदार्थ अथवा वस्तु, भाषा को
अनेकानेक अर्थों में विभाजित कर देते हैं। वस्तुतः रूप
और उसकी प्रस्तुति में जो पारस्परिक द्वन्द्वात्मक
तनाव होता है, उसी से मिथक की उद्भावना होती है। लेखक
किंवा कोई भी कलाकार इसी के माध्यम से सूक्ष्म अयथार्थ
को भी एक ठोस स्थानिक रूप-नाम वाली संज्ञा में
परिवर्तित कर लेता है।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि मिथक कविता का एक
स्वाभाविक उपकरण अथवा उपांग है और सनातन काल से इसका
प्रयोग कविता में होता रहा है, किंतु आधुनिक काल में
कविता ने जिस प्रखर रूप में प्रतीक-मिथकों का प्रयोग
किया है वैसा संभवतः पहले कभी नहीं हुआ था।
पुरा-मिथकों के प्रयोग ने आधुनिक कविता की अभिव्यंजना
सामर्थ्य को नये आयाम प्रदान किये हैं। पाश्चात्य
चिंतन-दर्शन में पुरातन ग्रीक मिथकों की प्रचुर मात्रा
में नये संदर्भों में अभिव्यक्ति हुई है। अल्पज्ञात
मिथक-आख्यानों के द्वारा मनुष्य की आज की विडंबनाओं
एवं विसंगतियों की सटीक व्याख्या बड़े ही सशक्त रूप
में हुई है। 'सिसिफिस' का मिथक आज के तथाकथित सभ्य
मनुष्य की त्रासक नियति का प्रतीक बन गया है। बीसवीं
सदी के श्रेष्ठतम माने जाने वाले अंग्रेजी कवि टी. एस.
एलियट की महाकाव्यात्मक कृति 'वेस्टलैंड' यानी
बंजरभूमि में पूरे विश्व के सनातन पुरा-मिथकों का
प्रचुर और बड़ा ही सशक्त प्रयोग हुआ है। मध्य
एशियाई-अरब-ईसाई पुराख्यानों के साथ-साथ
मिस्री-हिन्दू-बौद्ध औपनिषदिक आख्यानों के माध्यम से
आज की तथाकथित सभ्यता की एक बंजर मरुभूमि में भटकन और
उसकी उस मरुभूमि में अमृत-जल की निरर्थक तलाश का
प्रतीकात्मक कथन करती यह कविता, सच में, हमारे आज के
पदार्थवादी किंतु नपुंसक एवं बंजर आशयमुक्त जीवन-दर्शन
की व्यर्थता का सर्वोत्कृष्ट आख्यान है। उसमें नये
मिथकों की भी संरचना हुई है। स्वातन्त्र्योत्तर हिंदी
कविता को भी टी. एस. एलियट की उस महाकृति ने भारतीय
पुरा-मिथकों की समकालीन व्याख्या की ओर प्रेरित किया।
मिथकों के माध्यम से हमारे वर्तमान परिवेश की
विसंगतियों की प्रस्तुति के असंख्य उदाहरण पिछले
साठ-सत्तर साल की हिंदी कविता में मिल जायेंगे। हमारे
सांस्कृतिक अवचेतन में अवशिष्ट मिथकों का बहुसंख्य
प्रयोग आज की हिदी कविता की एक प्रमुख विशिष्टता है।
हिंदी कविता की नवगीत विधा इस दृष्टि से संभवतः सबसे
संपन्न है।
मिथक क्योंकि हमारे जातीय संस्कार को व्याख्यायित करते
हैं, कविता में उनका प्रयोग समग्र जातीय किंवा समूची
मानुषी अन्तश्चेतना से जुड़ने की, परंपरा को पुनर्नवा
करने की प्रक्रिया का ही अंग है। मेरी राय में, आज के
संदर्भ में कविता की यही प्रमुख भूमिका है। जब और सब
पुल टूटने लगे हैं, तब हमें अपनी पूर्व-पीठिका, अपनी
जड़ों से जोड़े रखने का, उन्हें जीवित रखने का उपक्रम
कविता के माध्यम से ही करना होगा और मिथकों का, इस
दृष्टि से, कविता में एक अहम स्थान है। एक और बात -
क्योंकि मिथक भाषा से उपजते हैं और आधुनिक साहित्य में
उनकी उपस्थिति प्रतीकाख्यान अथवा तार्किक, सचेतन एवं
सर्जनात्मक रूप में अधिक है, नवगीत में मिथकीयता की
जीवंत उपस्थिति की पड़ताल और परख करना ज़रूरी होगा।
नवगीत की मूल भावभूमि लोक-संवेदना की है। लोकगीतों में
यह संवेदना जातीय संस्कार से जुड़कर सहज उपलब्ध होती
रही है। नवगीत ने लोकगीतों के उसी जातीय संस्कार को
अपना आधार-बिंदु बनाया। लोक-संचेतना एक ओर आदि-मिथकों
की संवाहक होती है तो दूसरी ओर पीढ़ी-दर-पीढ़ी
संदर्भानुसार उनकी पुनर्रचना भी करती चलती है। बीच-बीच
में नए-नए मिथकों की, जो अधिकांशतः आंचलिक एवं स्थानिक
होते हैं, उद्भावना भी होती रहती है, जो सनातन मिथकों
को समृद्ध करते रहते हैं। नवगीत इसी लोक-संचेतना का
काव्य है और इसी से अपनी ऊर्जा प्राप्त करता है।
उमाकांत मालवीय का एक गीत है, जिसमें गंगा को एक मिथक
का स्वरूप दिया गया है और उसके माध्यम से समूची भारतीय
अस्मिता का बड़ा ही मनोरम रूपक रचा गया है।
लोक-संचेतना में परिव्याप्त यह मिथक गंगोत्री में
गंगा-दर्शन से लेकर उसके पूरे देश की 'मइया' हो जाने
की आस्था से जुड़ा है। और उसी की आख्या बड़े ही
सम्मोहक बिम्बों में उमाकांत जी के गीत में कही गयी
है। पूरा भारतीय जीवन- दर्शन इस गीत में जैसे रूपायित
हो आया है। गंगा इस गीत में हमारी आस्तिकता, हमारी
आस्था की नदी बनकर प्रवाहित हुई है। लोकभाषा के सार्थक
एवं अत्यंत मनमोहक प्रयोग की दृष्टि से भी यह गीत
मिथकीय संभावनाएँ प्राप्त करता है। गंगोत्री में गंगा
'परबत' पुत्री पार्वती है - चंचला और शोख-शरारती।
देखें इस चंचला गंगा की यात्रा-कथा का चित्र -
'गंगोत्री में पलना झूले, आगे चले बकइयाँ
भागीरथी घुटुरवन डोले शैल-शखर की छइयाँ
छिन छिपती, छिन हौले किलके, छिन ता झाँ वह बोले
अरबराय के गोड़ी काढ़े, ठमकत-ठमकत डोले
घाटी-घाटी दही-दही कर चहके सोन चिरइया
पाँवों पर पहुड़ा कर परबत गाये खंता-खइयाँ'
गंगा के शैशव की ये बिम्बाकृतियाँ अवध प्रदेश की लोक
शिशु क्रीडाओं और तदनुसार प्रयुक्त अवधी भाषा के
शब्दों-वाक्यांशों में उस रसवन्ती आस्था को परिभाषित
करती हैं, जिससे भारतीय मानस अपनी धरती, अपनी नदियों,
अपने परबतों आदि से साकार रूप में जुड़ता है।
'सोनचिरइया' केवल नदी नहीं है, वह भारत भूमि भी है, वह
सोनल माटी भी है, जिसका गान वेदों के पृथिवी सूक्त से
लेकर अब तक के हमारे तमाम लोक-बिम्बों में व्याप्त है
- 'आमार सोनार बांगला' की आख्या कहता यह गीत गंगा के
मिथक का आगे विस्तार करता हुआ उसे 'लरकइयाँ' से
'मुग्धा' और फिर 'लहराये अँगड़ाई' के साथ 'दोनों तट
प्रियतम शांतनु की फेर रही दो बहियाँ / छूट गया मायका
बर्फ का बाबुल की अँगनइयाँ' की प्रियतमा नारी के रूप
में अंकित करता है। किन्तु गीत का चरम बिंदु आता है
वहाँ, जहाँ शिशु से मुग्धा हुई यह देवी-स्वरूपा नदी
मातृत्व प्राप्त करती है -
भूखा कहीं देवव्रत टेरे
दूधभरी है छाती
दौड़ पड़ी ममता की मारी
तजकर सँग-संघाती
गंगा नित्य रँभाती फिरती
जैसे कपिला गइया
सारा देश क्षुधातुर बेटा
वत्सल गंगा मइया
गंगा के सर्व-वत्सला मातृरूप की सारी मिथकीय संभावनाएँ
गो-स्वरूप धरती के बिम्ब में समाहित हो गयी हैं।
मालवीय जी का यह गीत, मेरी दृष्टि में, नवगीत में मिथक
के समेकित प्रयोग का एक श्रेष्ठ उदाहरण है। पूरे देश
की राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक के रूप में गंगा का
बिम्बांकन इस गीत में जिस सहज भाव से हुआ है, वह मेरी
राय में, अनूठा है। गंगा के सारे मिथक इसमें एक अछूती
भाव-सृष्टि के साथ जिस सार्थकता से उद्भावित हुए हैं,
उसका कोई जवाब नहीं है। नवगीत में मिथक की उद्भावना
अधिकांशतः इसी सार्थक संश्लिष्ट ढंग से हुई है। और
शायद ही कोई ऐसा नवगीतकार हो, जिसने भारतीय मिथकों का
प्रयोग कहीं-न-कहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से न किया
हो। मिथकों के व्यापक सार्थक प्रयोग की दृष्टि से जो
कुछ नाम प्रमुख रूप से उभर कर सामने आये हैं, उनमें
देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' और विष्णु विराट के नाम विशेष
उल्लेखनीय हैं। इन दोनों नवगीतकारों ने पौराणिक
आख्यानों और मिथकों, विशेष रूप से महाभारत के प्रसंगों
से अपनी अपनी रचनाओं की कहन को और अधिक पैना और मारक
बनाया है, किन्तु दोनों के मिथक-प्रयोग में एक मौलिक
अंतर है। 'इंद्र' के गीतों में मिथक कथ्य के समग्र
रूपक बन कर उद्भावित नहीं होते, जबकि विष्णु विराट के
गीतों में अक्सर पूरा-पूरा गीत एक मिथक से बँधा होता
है। 'इंद्र' का मिथक-प्रयोग अधिक सूक्ष्म, अधिक गहन
है. कई बार वह संकेतार्थों में ही झलकता है। 'इंद्र'
ने अपनी कविताओं को सुक्तियाँ कहा है। इन सूक्तियों
में उनकी समग्र सांस्कृतिक चेतना का अभिन्न हिस्सा
बनकर ही मिथक प्रस्तुत होते हैं। 'ऊसर में बहते
गंगाजल', 'कुंद धवल पूजा के पारिजात', 'जड़ से उखड़े
कल्पवृक्ष', 'काँपती गोरोचना-से आरती के फूल', 'ध्वस्त
अलकापुरी के अभिशप्त गन्धर्व की किंवदंती', 'पाँवों के
नीचे कुचले जाते हाथ के लीलाकमल', 'तिमिरपंखी
क्षितिज', 'झुक गये...सूर्यरथ के ध्वज' 'ऋचाओं की
उलझती नागवेणी', 'मूक हुई गीत-बाँसुरी', 'औंधे मुँह
पड़े हुए...वेदी पर सिन्दूरी मन्त्र कलश' जैसे समृद्ध
एवं अछूते मिथक-बिम्बों का प्रयोग 'इंद्र' के नवगीतों
को निश्चित ही अन्य नवगीतकारों से अलगाता है। दीर्घ
मिथकीय रूपक-रचना कहीं-कहीं ही हुई है 'इंद्र' के
गीतों में। एक उदाहरण देखें -
फिर कोई शरशायी देवव्रत भीष्म - मन्द्र
करता ज्यों अभ्रघोष
मुक्त हुई धरती यह द्रुपदा-सी
भीमादिक चारों पुरुषार्थों को धारण कर
भेदातीत भावों से बनी आज पूर्ण-पुरुष धर्मराज
तुमको ही नयी मनुज-संस्कृति की कुंती की
करनी है स्थापना
सत्य-गीति-शक्ति की उपासना
दुर्मद दुःशासन का अंत हुआ
हार गया शकुनि जुआ
दर्पदीप्त दुर्योधन मात्र विगत सम्बोधन
ध्यातव्य हो उपर्युक्त गीतांश का सांस्कृतिक सन्दर्भ
मिथकीय होते हुए भी इनमें आधुनिक कथ्य ही व्यक्त हुआ
है। विष्णु विराट के गीतों की मिथकीय संरचना सीधी-सीधी
है, कई बार एकदम सपाट भी। किन्तु उसकी एक विशिष्टता
है। जाने -पहचाने स्वीकृत सन्दर्भों से अलग, कई बार
लगभग उलटबासी ढंग की मिथक-प्रस्तुति उनकी कहन को रोचक
बनाती है। इस विरोधाभासी प्रयोग के देखें कुछ उदाहरण-
रावण ने पाँव जमाया ऐसा
अंगद से हिला नहीं रंच
पांडव कुल लाक्षागृह में बैठा
दीपदान दुःशासन करता
अंधायुग स्वर्ण जयंती योजे
धर्मराज रोज़-रोज़ मरता
हार गया अर्जुन इस बार
दुःशासन मीन बेधता है
पांचाली नग्न है स्वयं
अंधा धृतराष्ट्र देखता है
रावण को राम का निमंत्रण
सिंहासन अवध का समर्पित
रामराज्य दस्युदल प्रशासें.
इस प्रकार के मिथक-प्रयोगों की सीमा यह है कि ये एक
दिशा-आकृति से बँधे होते हैं। किन्तु जहाँ कहीं विष्णु
विराट ने अपने मिथक-चिन्तन को मुक्त विचरण करने दिया
है, वहीँ-वहीँ उसकी आकलन-क्षमता का अद्भुत विस्तार हुआ
है.
इसी संदर्भ में मुझे याद आ रहे हैं सत्यनारायण के तीन
गीत, जो 'बोधगया', 'पाटलिपुत्र' एवं 'वैशाली' के
बुद्धकालीन मिथक-संदर्भों का समकालीन चिंताओं के
बरअक्स पुनरावलोकन करते हैं। देखें 'बोधगया' एवं
'वैशाली' से दो गीतांश-
(१)
बोधिसत्त्व से बोधगया ने
नाता तोड़ लिया
सिसक रही है महाबुद्ध की
करुणा सूने में
आखिर यहाँ सुजाता ने
क्यों आना छोड़ दिया
बोधगया में अब उलटी
चल रही हवाएँ हैं
झुलस रहीं जातक की
सब नीतिकथाएँ हैं
कौन गहे पच्छिम निकाय
अब इस दावानल में
बोधगया ने उग्रवाद से
खुद को जोड़ दिया
(२)
वैशाली को ढूँढ रही है
कब से वैशाली
गणाध्यक्ष, गणतन्त्र, सभासद
सबके मेले हैं
वैशाली में वैशाली के
लोग अकेले हैं
नगरवधू होकर जीने को
विवश आम्रपाली
पौराणिक मिथकों के प्रयोग से कथ्य को पैना करते इन
उद्धरणों से एक बात साफ है कि नवगीत में मिथक की
उद्भावना अधिकांशतः समसामयिक चिंताओं को अधिक शिद्दत
से आम आदमी के अहसासों से जोड़ने के लिए की गयी है।
कुमार रवीन्द्र के एक गीतांश में देखें, कैसे मिथक
फिलवक्त से जुड़कर अपनी पुनर्व्याख्या करता है -
सावधान! लाक्षागृह में आकर
टिकें नहीं, भील- बंधु
पांडव हैं चतुर और उनको है
बाट बस तुम्हारी
आहुति हो इस घर में तुम सबकी
इसकी है सारी तैयारी
छली बड़ी मीनारें जो तुमको
टेर रहीं, भील-बंधु
कविता में किसी भी समुदाय की जातीय स्मृति में संचित
पुरातन मिथक-प्रसंगों का प्रयोग कविता की मिथकीय
भंगिमा का केवल एक अंश है। वस्तुतः कविता के माध्यम से
जो मिथकीय भंगिमाएँ विरची जाती हैं, वही हैं कविता की
वास्तविक मिथकीय उपलब्धियाँ। नवगीत इस दृष्टि से
अत्यंत समृद्ध रहा है। माहेश्वर तिवारी का एक गीत है,
जिसमें समकालीन मानुषी संत्रास को वैदिक ऋचात्मक कहन
में अभिव्यक्ति मिली है और एक अछूते मिथक की संरचना
हुई है। दो पदों का यह लघु गीत हमें ऋषि-संस्कृति के
बिम्बों के माध्यम से आज के 'आड़े-तिरछे लगाव' से
रू-ब-रू करता है -
आसपास जंगली
हवाएँ हैं मैं हूँ
पोर-पोर जलती
समिधाएँ हैं, मैं हूँ
आड़े-तिरछे लगाव
बनते जाते स्वभाव
सिर धुनती होंठ की
ऋचाएँ हैं, मैं हूँ
अगले घुटने मोड़े
झाग उगलते घोड़े
जबड़ों में कसती
वल्गाएँ हैं, मैं हूँ
जंगली हवाओं और जलती समिधाओं के बीच सिर-धुनती ऋचाओं
की मारक संचेतना एक ओर तो हमारी सांस्कृतिक सामूहिक
अवचेतना के आहत, संभवतः हत होने की गाथा कहती है, तो
दूसरी ओर इस बिम्ब के माध्यम से वेदान्तिक ऋचा-दृष्टि
भी परिभाषित होती है। दूसरे पद में, 'घुटने मोड़े झाग
उगलते' घोड़ों के जबड़ों में कसी वल्गाओं का अहसास
परोक्ष रूप से मानुषी अस्मिता की मज़बूरी को बिम्बायित
करता है। पुराने मिथक-बिम्बों यथा, यज्ञभूमि की
समिधाओं और अश्वमेध और दिग्विजयी अश्वों को अपनी
अस्मिता से जोड़कर एक सर्वकालिक-सर्वव्यापक आयाम दे
दिया है इन पंक्तियों में।
एक नवगीतकार कैसे परंपरा और फ़िलवक्त से प्राप्त
बिम्बों को एक मिथकीय आकृति देता है, इसका सटीक उदाहरण
डॉ. शम्भुनाथ सिंह के एक गीत में हमें मिलता है -
एक ओर हैं
राजा से हाथी-घोड़े
रानी से सोने के बाल
मुझको क्या-क्या नहीं मिला
मन ने सब कुछ रखा सँभाल
चंदा से हिरनों का रथ
सूरज से रेशमी लगाम
पूरब से उडनखटोले
पश्चिम से परियाँ गुमनाम
रातों से चाँदी की नाव
दिन से मछुए वाला जाल...आदि-आदि
तो दूसरी ओर हैं....
गलियों से मुर्दों की गंध
प्रेत का कुआँ
घर से दानव का पिंजड़ा
द्वार से मसान का धुआँ
खिड़की से गूँगे उत्तर
देहरी से चीखते सवाल
कवि ने इस गीत में एक ऐसे मानसिक परिवेश की संरचना की
है, जिसमें उसकी अनुभव-अनुभूतियाँ एक मिथकीय संभावना
के साथ प्रस्तुत हुईं हैं। ऐसे ही मिथकीय सम्प्रेषण
'धूप-दिन कहाँ बाँटूँ' शीर्षक गीत है नईम का -
छाया-दिन चितकबरे
धूप-दिन कहाँ बाँटूँ
पुरखों से मिले हुए संस्कार
नाट्य-बीज
चैती से फागुन तक
ढेरों त्योहार-तीज
मंच पर धँसे कुहरे
कैसे बढ़कर काटूँ
आधा श्रद्धाविहीन
आधा मन हवन हुआ
अजब कशमकश में मैं
जीते-जी दफ़न हुआ
मन की यह खाई
लाशों से कैसे पाटूँ
'पुरखों से मिले हुए संस्कार' आधा श्रद्धाविहीन' मन और
लाशों से खाली मन भरने की विवशता - यही है वह रागात्मक
मिथक जिसकी रचना उपर्युक्त पंक्तियों में हुई है। सोम
ठाकुर के एक नवगीत की पंक्तियाँ हैं -
नीले इस ताल पर
झूल गया सूर्यमुखी फूल
उलझी है एक याद
बरगद की डाल पर
इस टूटी ख़ामोशी में फिर से
रख दो यह
गरम-गरम फूल
बुझे गाल पर
ठंडे इस भाल पर
निजी और वैयक्तिक अनुभूतियों की मिथकीय अभिव्यक्ति का
यह गीतांश एक अच्छा उदाहरण है। एक अन्य गीत में सोम जी
ने 'बीते कल' के बिम्बों से सांस्कृतिक विखंडन के एक
त्रासक मिथक की संरचना की है -
कहाँ गये बड़ी बुआ वाले वे आरते
कहाँ गये गेरू-काढ़े सतिये द्वार के
कहाँ गये थापे वे जीजी के हाथ के
कहाँ गये चिकने पत्ते बन्दनवार के
टूटे वे सेतु जो रचे कभी अतीत ने
मंगल त्योहार-वार बीते कल के हुए
यह 'बीते कल' के प्रति सम्मोह या 'नास्टेल्जिया' आज के
नवगीत का एक प्रमुख स्वर है। राजेन्द्र गौतम अपने गाँव
में आये बदलाव को मिथकीय भंगिमा में यों व्यक्त करते
हैं -
तुम भी कितना बदल गये
ओ पिता सरीखे गाँव
जिसकी वत्सलता में डूबे
कभी सभी संत्रास
पच्छिम वाले उस पोखर की
सड्ती है अब लाश
किसमें छोड़ूँ सपनों की यह
कागज़ वाली नाव
इस नक्शे से मिटा दिया है
किसने मेरा घर
मंदिर वाली इमली की भी
घायल है अब छाँव
डॉ. सुरेश आज के समय के छल की आख्या भी इसी मिथकीय
अंदाज़ में करते हैं -
देवी हों याकि देवता
दोनों ने है हमें छला
दोनों से एक शिकायत
दोनों से एक ही गिला
हाथों से छीन बाँसुरी
थमा दिए प्रश्न दहकते
ये दहकते प्रश्न आज की पीढ़ी के नवगीत की प्रमुख चिंता
हैं - किन्तु ऐसा नहीं है कि ये पहले नहीं थे। स्व०
भगवान स्वरूप पिछली पीढ़ी के नवगीत के एक प्रमुख
हस्ताक्षर रहे हैं। उनके एक गीत में यह चिंता उतनी ही
शिद्दत से व्यक्त हुई है, जितनी डॉ. सुरेश की
उपर्युक्त पंक्तियों में -
इस तरह दिन कट रहे हैं
भागवत के पृष्ठ से हम
महाभारत रट रहे हैं
दूर से आता हवन का धुआँ
मंत्रोच्चार
बुझे चूल्हे पढ़ रहे हैं
धर्म का आधार
भीड़ से होकर गुज़रते हुए रिश्ते
मोड़ पर नींबू निचोड़े
दूध जैसे फट रहे हैं
एक और गीत में वे 'दर्द भी गा राग से' और 'मत अलग कर
दूध-पानी / भेद मत कर गीत हो या मर्सिया' की सात्त्विक
अभिव्यंजना करते हैं।
नवगीत एक ओर तो भारतीय अस्मिता का काव्य है, दूसरी ओर
उसमें वर्तमान में उपस्थित तमाम किसिम के जटिल
जीवन-प्रसंगों और सरोकारों से रू-ब-रू होने का आग्रह
भी है। वैश्वीकरण के इस युग में, जब युग-युगों से
प्राप्त जीवन-मूल्य बिखराव की स्थिति में हैं, नवगीत
आस्तिकताओं के संरक्षण, उनके पुनर्संयोजन और
पुनर्वर्धन की बात करता है। समाज के तेजी से बदलते
स्वरूप के बीच वह ऐसे मूल्यों की तलाश में निरंतर लगा
हुआ है, जो मानुषी आस्था को स्थायित्त्व दे सकें और
समाज को बिखरने से बचा सकें। अस्तु, नवगीत की एक
वैचारिक मुद्रा स्पष्टतः है। इस वैचारिकता की
प्रस्तुति नवगीत में अधिकांशतः प्रतीक-बिम्बों में हुई
है। ये प्रतीक-बिम्ब मिथक-कथन से अभिन्न रूप से जुड़े
हुए हैं। स्फुट रूप में मिथक-कथन सभी नवगीतकारों में
मिलेगा। उद्धरण मेरे इस वक्तव्य को स्पष्ट करने हेतु
प्रस्तुत हैं -
"पाहुन गाम की कहो
गुबरीले हाथों में
झाड़ू थामे सीता
भीगते पसीने में
राम की कहो" (विद्यानंदन राजीव)
"लक्ष्मण रेखाओं में वैदेही ज्वालाएँ
भोग रहीं निर्मम वनवास
छलिया कंचनमृग-सा मेघखंड आवारा
टेर रहा प्यास-प्यास-प्यास
इंतज़ार कल्पों का टूटा संकल्पों-सा
निर्वसना वेगवती एक और कालिदास
सिरजे मंदाक्रांता छंद" ( घनश्याम अस्थाना )
"रावण को सौंपकर सिया
जपता मारीच राम-राम
खुनियाई खबरों से रोज़ मुलाकातें
बिछाने लगा शकुनि फिर नई बिसातें
अधूरी-अधूरी सी कसकती तपस्या
खड़े रहे अगणित जाबालि
प्रश्न लिए एक सत्यकाम" ( मधुकर अष्ठाना )
"धर्मनिष्ठ युयुत्सु अपमानित
हो गया कौरव सभा जीवन
युधिष्ठिर-सा विवश हर क्षण
दाँव पर है विश्वास की द्रुपदा
स्वप्न है अभिमन्यु-सा बेबस
मोह जागा है धनंजय-सा
आत्मबल का शंख टूटा" ( श्याम निर्मम )
"सोये इतिहास-पुरुष
तीरों की शैया पर
बर्फ की शिलाओं पर
सिर धुनता वैश्वानर
चिथड़ों-से हिलते हैं
ध्वज जो कल तक फहरे" (योगेन्द्र दत्त शर्मा )
"चेतना के द्वार जाकर
व्यूह-भेदन सीख लो प्रिय
अन्यथा कौरव करेंगे
मन्यु-वध फिर से समर में
क्योंकि अर्जुन फिर
भटक कर दूर जायेंगे ज़रूर"
"हो सके पापी परिधि पर
फिर धरो अंगार प्रिय तुम
और सुलगे देवघाती
लाक्षागृह, इस शहर में" ( ओमप्रकाश सिंह )
"सामवेद की मूल ऋचा या
तुलसी की चौपाई तुम
सतगुण की तुम कीर्ति- पताका
तुममें व्याकुल हृदय माँ का
पावनता जैसे गंगा की" ( अश्वघोष )
"बाज-सुआ बाँच रहे
वैदिक ऋचाएँ
कामिनियाँ बाँध रहीं
वट-तरु में धागे
सावित्री बनकर के
वर यम से माँगे
पोर-पोर गुँथी-हुईं
पर्व की कथाएँ" (बृजनाथश्रीवास्तव)
"सीख नहीं पाये
कबीर की 'सबद-रमैनी'
रामचरितमानस का 'समरस'
घूँट न पाये
जला न पाये सोने की
लंका नगरी को
चक्रव्यूह रह गये देखते
शीश झुकाये
जाति-धर्म की बँधी
संहिता में खोये यों
इंसानी भाषा का
पढ़ना भूल गये" ( शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान )
"पूजाघर क़त्लघर हुए
मज़हब ने घाव यों दिये
शब्दों के पंख काटकर
हम जटायु की तरह जिये" ( राधेश्याम बंधु )
उपर्युक्त गीत-उद्धरणों में पुरामिथकों, विशेष रूप से
वैदिक-पौराणिक आख्याओं के मिथक-बिम्बों की नये
संदर्भों में पुनर्व्याख्या हुई है। नवगीत की
मिथक-भंगिमा के विशद आयाम की इनमें बानगी मिलती है।
हमारी सनातन और पूरी तरह भारतीय सांस्कृतिक चेतना से
यह अनन्य जुड़ाव नवगीत की विशिष्टता रही है। वस्तुतः
नवगीत के माध्यम से ही उस सांस्कृतिकता को नवबोध मिला
है। भारत के सांस्कृतिक संज्ञान का एक और विशिष्ट पहलू
है और वह है हमारी जातीय स्मृति में संचयित हमारे
तीज-त्योहार, उनसे जुड़े रीति-रिवाज़ एवं सांस्कृतिक
चिह्न यथा- सतिया, रोली, अक्षत, दूब, दही, गोरोचन,
घृत, तुलसी आदि। इनकी मिथकीय उपस्थिति हमारे सामूहिक
अवचेतन में रही है। बुद्धिनाथ मिश्र के एक गीत में
इनसे जुड़ा तपोवनीय संज्ञान माँ की आकृति और उससे
जुड़ी स्मृति में समाहित हुआ है - माँ पूरी परंपरा और
संस्कार की संवाहक बनकर इस गीत में उपस्थित हुई है।
प्रस्तुत है उस गीत का एक अंश -
कभी देख एकांत सुनाती
कथा पुरा-नूतन
ऋषियों ने किस तरह जिये
श्रुति-मन्त्रों के दर्शन
कैसे हुआ विकास सृष्टि का
हरि-अवतारों से
वाल्मीकि ने रचा द्रवित हो
कैसे रामायण
कहते-कहते कथा
शोक-विह्वल हो जाती है
और तपोवन में अतीत के
वह खो जाती है
अतीत का यह तपोवन नवगीत की पृष्ठभूमि में निरंतर
उपस्थित रहा है, किंतु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि
नवगीत अतीतजीवी काव्य है। वर्तमान की सारी बेचैनियाँ,
अकुलाह्टें इस अतीत को नये तात्पर्यों से निरंतर
संयुक्त करती चलती है। नीचे दिये कुछ गीतांशों में
अतीत और वर्तमान की इस टकराहट को कैसे आकृति मिलती है,
इसका बखूबी अंकन हुआ है -
"सांकेतिक लिपियों में
लिखी नियति गाथाएँ
अर्थायित कर पाया कौन है
पूजा में डूबा हुआ बुद्धगया
मन किसी पिरामिड-सा मौन है
दिशाभ्रष्ट अध्ययन दल
बालू पर आज तक पढ़ रहा ककहरा" ( नीलम श्रीवास्तव )
"ग्रह-उपग्रह टूटते टकरा सपन के
जबकि आकर्षण पुराने पड़े हैं सौर-मंडल के" (श्रीकृष्ण
शर्मा)
"भीलों ने बाँट लिए वन
राजा को खबर तक नहीं
एक रात काल-देवता
प्रजा को स्वप्न दे गये
राजमहल खण्डहर हुआ
छत्र-मुकुट चोर ले गये
सिंहासन का हुआ हरन
राजा को खबर तक नहीं" ( श्रीकृष्ण तिवारी )
"ह्वेनसांग! पुल के उद्घाटन का
शिलालेख पढ़कर
इतिहास नहीं लिखना
अभी राज्यश्री के अन्वेषण में
हर्ष जुटे रेवा के तट पर तुम
कल तक तो टिकना
बाणभट्ट को सौंपी
इस अपूर्ण कृति में
अपने युग के अक्षर दो अक्षर
लिख लूँ तो साँस लूँ" (श्यामनारायण मिश्र )
"मंगल-ग्रह-घाटी से
नीलकंठ हाथ लिये
आ गये बहेलिये
फिर-फिर संयम के पुल टूटे
जाने कितनी बार
अश्वमेध के घोड़े छूटे
जाने कितनी बार" ( भारतेंदु मिश्र )
"चौड़े-चौड़े चौराहे
सिमटे-सिमटे-से आँगन
खोते सिक्कों में बिकते
उजले-उजले वृंदावन
अपने-अपने घाटों पर
हम सब काशी के पंडे" ( कुँअर बेचैन )
"अवतरण होगा
बहेगी धार गंगा की नई
गीत की पगडंडियों में
राजपथ होंगे कई
छाप नंगे पाँव की
अब शहर में लगती बड़ी
उपनिषद के छंद पहने
धूप वाले गाँव" ( शांति सुमन )
"दूध-भात लेकर आयेगा
चाँद कटोरी में
अब डिस्को-म्यूजिक होगा
हर माँ की लोरी में
करमा-गरबा बिहू-पंडवानी-नट बासी हैं" ( नचिकेता )
"स्याह चट्टानें समय की
जिस्म जलते पत्थरों के
तोड़ने को हैं
गर्म मौसम के बहाने
साँप अपनी नर्म केंचुल
छोड़ने को हैं
और हम शातिर दरिंदों की ख़ुशी पर हैं
चीरघर में आदमी की बात क्या होगी ( उमाशंकर तिवारी )
" 'घोटुल' के रस-भीने चन्दनवन छूटे
गले मिले वृक्ष और साथ-साथ टूटे
रिश्ते-संबंध हुए काठ का भगौना " (अमरनाथ श्रीवास्तव )
"शब्दों के हाथी पर
ऊँघता महावत है
गाँव इधर लाठी और
भैंस की कहावत है
घोड़ा के लिए उगी
घास है, बगीचा है
कुर्सी के पाँव तले
गुदगुदा गलीचा है
हर पंचवे साल
प्रजातंत्र की सजावट है" (गुलाब सिंह )
"सिर धुन रहीं वनस्पतियाँ
पत्ते-पत्ते बन गये भगोड़े
इस पर भी पछुआ कारिन्दा
पकड़-पकड़कर बाँह मरोड़े
धान-पान-से दिन
फुहार-सी रातें
झेलें रेत" ( राधेश्याम शुक्ल )
"हल्दी-रँगे सगुन के चावल
राख हो गये हवनकुंड में
उजले-धुले शहर गीतों के
झुलस रहे हैं धुआँ-धुंध में
नये पराशर हुए अवतरित
कुहरे में भिनसार खो गये" (कैलाश गौतम )
"जब कभी दिग्विजय को निकला समय
रौशनी के पाँव के छाले छिले
देखकर संसक्ति की मीठी हवा
खण्डहर के होंठ पर उपहास है" (यश मालवीय )
आज के समय से संवाद करते उपर्युक्त गीत-अंश उस मानुषी
आस्था की कहानी कहते हैं, जी आहत एवं अभिशप्त है इस
दुष्काल में। प्रतिरोध का यह स्वर नवगीत का मुख्य स्वर
है, इसमें कोई शक नहीं है। किंतु सकारात्मक एवं
उद्बोधात्मक स्वर भी नवगीत में उभरे हैं, हालाँकि उनकी
गूँज बहुत मुखर नहीं है। मुकुट सक्सेना ने नवगीत की
इसी स्वप्नशील आस्था को यों व्यक्त किया है -
"सूर्यमुखी सपने हैं
चन्द्रमुखी आस्थाएँ
देखना इन्हें कहीं
ग्रहण नहीं लग जाएँ
पारिजात बोए तो जल भी
देना होगा
ऋतुओं के परिवर्तन को भी
सहना होगा
बीज वृक्ष बनने तक
ओ मेरे वात्सल्य
देखना इन्हें कहीं
ताप नहीं झुलसाएँ"
ऐसी ही मिथकीय भविष्य आस्था से संप्रेरित है रवीन्द्र
भ्रमर की ये पंक्तियाँ -
"तिमिर का आतंक गहरा है
अग्निवीणा बजाओ रे, बन्धु
रक्षकों की पहनकर वर्दी
राजपथ पर खड़े हैं बटमार
भेड़ियों के मुँह लगा है खून
चल रहा है मरण का व्यापार
राक्षसों के हाथ पहरा है
जगो, सबको जगाओ रे, बन्धु"
नदी को संबोधित अनूप अशेष की निम्न पंक्तियाँ हमारे
आस्तिक नेह-भाव को हमारी गृह-आस्था से जोडती हैं -
"दरवाज़ों में अँजोर
देखना जुन्हैया जोत का
एक बार दो छींटे दे देना
गाँव मेरा नेह के कपोत का
पीपल में बाँचना शुभागते
ओ बहना नदी
अभी घर होंगे जागते"
इसी नदी को अपने पूरे सांस्कृतिक परिवेश के प्रतीक रूप
में ओम प्रभाकर देखते हैं -
"आओ, ये चिह्न गिनें
कहें सूख गयी नदी की कथा
पल-दो-पल को ही फिर लौट चलें
जीवित नावों वाली धार
एक बार फिर हो लें फेन-जल
फिर झलके दियना उस पार
आओ, इतिहास बनें
यहीं एक मन्दिर भी था"
नवगीत की यह मिथक-कथा अधूरी रह जायेगी, यदि उसके एक
अति-विशिष्ट हस्ताक्षर ठाकुर प्रसाद सिंह का उल्लेख न
किया जाये। ठाकुर भाई ने संथाल लोकधुनों का
पुनःसंस्कार कर उनके माध्यम से लोक-संस्कृति की जिस
थाती को अपने लघु-आकार गीतों में सँजोया, वह नवगीत के
इतिहास की एक अनूठी उपलब्धि है। लोक-संसक्ति की वह
रसीली अनुभूति आज के नवगीत में कहीं नहीं दिखाई देती।
ठाकुर भाई ने जिस सहजता से संथालों की भावभूमि को
आत्मसात कर उसके आदिम उद्वेग को अपने गीतों में मिथकीय
आयाम दिया, वह अभूतपूर्व है। बतौर बानगी दो गीत-अंश
यहाँ प्रस्तुत हैं -
"घनी-घनी पाँत है खजूर की
राह में हुजूर की
तानें खींच लाईं मुझे दूर की
वंशी नहीं दिल ही गलाकर
तेरी गली में हम बहा रहे
कब से हम गा रहे"
* "कोयलें उदास मगर फिर-फिर वे गायेंगी
नये-नये चिह्नों से राहें भर जायेंगी
खुलने दो कलियों की ठिठुरी ये मुट्ठियाँ
माथे पर नई-नई सुबहें मुस्कायेंगी
गगन-नयन फिर होंगे भरे
पात झरे फिर-फिर होंगे हरे"
इस कालखंड के अपने इस सहज रस-प्रवाह को न तो वे फिर
कभी प्राप्त कर सके और न ही नवगीत को कहीं और से
उपलब्ध हो सके।
उनके समकक्ष है एक और नाम - वीरेंद्र मिश्र का। नवगीत
को शास्त्रीय भंगिमा देने में उनका प्रमुख योगदान रहा
है। पुरा-मिथकों का प्रयोग उनके गीतों में भी प्रचुर
मात्रा में हुआ है। उनका गीतकार 'गन्धर्व शांति का
विहाग गाता है' और वह एक पूरा मिथक रच डालता है गीत की
सांगीतिक मुद्रा का -
"महफिल है, संगत है, गत है सुरमंडल की
कोमल गांधार की गमक है हल्की-हल्की
होती ही जायेगी छेड़छाड़ साज़ों से
देगा मदहोशी यह छानकर रियाज़ों से
जब तक रसरंग जग नहीं जाये"
आज के विपरीत समय में कवि वीरेंद्र मिश्र का गीत एक
सात्त्विक आग्रह से प्रेरित है -
युद्धों के लिए बने कितने ही सेतु
और वे टूट गये
मुकुटों के लिए लड़े कितने ही बन्धु
और वे खेत रहे
अनगिनत चक्रवर्ती डूबे
रुक नहीं सका इतिहासों का धारा-प्रवाह
संकल्प भगीरथ का ही उसको मोड़ सका
धाराएँ जो विपरीत दिशा में प्रवहमान
तुम ही मोड़ोगे उनको सूर्य-दिशाओं में
मिथक की ''आद्य आकृतियों' और 'अतीन्द्रिय अवशिष्टों'
से अनन्य रूप से जुड़ा नवगीत अवध बिहारी श्रीवास्तव की
निम्न पंक्तियों के अनुरूप वह सब कुछ है, जो हमारी
आस्था के मिथक-रूपक हैं -
ये गीत गोपियों की पीड़ा
ये यक्षप्रिया के बादल हैं
मरुथल में बहता पानी है
पत्ती पर पड़े ओसजल हैं
ये अक्षत अविनाशी हैं
पढ़ना इन्हें जतन से पढ़ना
ज्यों का त्यों इनको धर देना
चित्रकूट के ये चंदन हैं
इनसे कभी तिलक कर लेना
ये कबीर के मगहर हैं तो
ये तुलसी के काशी हैं
ये मंदिर हैं ये मस्जिद हैं
ये गिरजा हैं गुरुद्वारा हैं
ये सबकी प्यास बुझाते हैं
ये गंगा की जलधारा हैं
बेर खोजते फिरते जूठे
ये अब तक वनवासी हैं
नवगीत की मिथकीय भंगिमा का यह संक्षिप्त आकलन हमें
कविता के उस आद्य स्वरूप से रू-ब-रू करने के लिए है,
जब वह ऋषि-वाणी बनकर पहली बार धरती पर अवतरित हुई थी।
नवगीत ने काफी हद तक उसी आदिम काव्य-भंगिमा को अपनाने
की चेष्टा की है। यही क्लासिकी मिथकीय अंदाज़ नवगीत को
काव्य की अन्य विधाओं से अलगाता है। जब तक यह भगीरथ
प्रयास ज़ारी रहेगा, नवगीत की रससिक्त धारा हमारी
बंजरभूमि हो रही आस्तिकता को सींचती रहेगी।
पुरा-मिथकों के नवीकरण और नये मिथकों की संभावनाओं की
खोज हमारी सांस्कृतिक संचेतना को जाग्रत करने, जाग्रत
रखने के ही सारस्वत अनुष्ठान हैं और नवगीत इस अनुष्ठान
को निरंतर सक्रिय रखने की शाश्वत प्रक्रिया है। |