किस्सा उस समय का है जब शहर ने
अँगड़ाई नहीं ली थी। बस अपने में सकुचाया और सिमटा हुआ रहता था।
ठण्डी सड़कों में जगह जगह झरने बहते, जहाँ स्कूली बच्चे और
राहगीर अंजुली भर भर पानी पीते। मुख्य बाजार में बहुत कम आदमी
नजर आते। गर्मियों में गिने चुने लोग मैदानों से आते जिन्हें
सैलानी नहीं कहा जाता था। कुछ मेमें छाता लिए रिक्शे पर बैठी
नजर आतीं। इन रिक्शों को आदमी दौड़ते हुए चलाते थे। सर्दियों
में तो वीराना छा जाता। माल रोड पर कोई भलामानुष नजर नहीं आता।
मॉल रोड पर तो बीच से सड़क साफ कर रास्ता बना दिया जाता, लोअर
बाजार में दुकानें बर्फ से अटी रहतीं। स्कूल कॉलेज बंद।
वैसे भी ले दे कर लड़कियों का एक
सरकारी स्कूल, लड़कों का डी.ए.वी. स्कूल और एक प्राईवेट कॉलेज
था। दो चार कांवेंट स्कूल थे, जो संभ्रांत परिवारों की तरह
अपने में ही रहते। इन में ऐसे बच्चे रहते जिनके माता पिता के
पास उन के लिए समय नहीं था। सर्दियों की छुट्टियों में होस्टल
भी खाली हो जाते। कभी कोई बदनसीब बच्चा पेरेंट्स की व्यस्तता
से स्कूल में रह जाता जो अकेला डोरमेटरी से नीचे झाँकता रहता।
हाँ, कभी कभार कोई अंग्रेज परिवार मॉल रोड पर उसी शान से
चहलकदमी करता। ऊँची-ऊँची गोथिक शैली की इमारतों से सर्दियों
में बड़े दिन को कुछ यूरोपियन चेहरे उदासी से झाँकते। गिरजाघरों
की घण्टियाँ बज उठतीं और रात को पादरी मुर्गे की टाँग चबाते।
मुख्य बाजार से घर जाना हो तो समय रहते ही जाना होता। सर्दियों
में जब शाम दौड़ती हुई आती है, घने जंगल, चुड़ैल बाबड़ी और भुतहा
कोठियों का भय बना रहता जिनमें अभी भी अंग्रेजों के पुरखे रहते
थे।
ऐसे माहौल में एक पहाड़ी के बीचोंबीच था मेरे यार का घर। जंगल
और बाग के अजीब वातावरण में मौन प्रहरी सा खड़ा वह गेट, लम्बा
अकेला रास्ता, कोठी के बाहर लम्बा बरामदा, भीतर खामोश कमरे।
किसी की आहट पाते ही यार की बिल्ली म्याऊँ- म्याऊँ करती, पूँछ
हिलाती आ जाती और पुराने सोफों पर हौले हौले पीठ मलती हुई
चलती। बहुत बार ऐसा हुआ कि दोस्त के कमरे में जाने तक कोई आदमी
नहीं मिला। न बूढ़ी नौकरानी, न माली, न खानसामा, न गोरखा।
हाँ, कभी दोस्त भी कमरे में न हो तो बड़ी मायूसी हाथ लगती और
दबे पैर वापिस लौटना पड़ता। कहीं रायसाहिब न देख लें। ऐसा होता
कम था। दोस्त के भीतर होने पर एकदम पूरा घर जैसे ठाठें मार
गाने और नाचने लगता।
प्रेम की तरह दोस्ती भी यकदम हो जाती है, पहली ही नज़र में।
स्कूल या कॉलेज के दिनों में प्रेम और दोस्ती के मायने एक ही
होते हैं। बहुत बार प्रेम से दोस्ती प्रगाढ़ होती है। यह
जातपाँत, ऊँच-नीच, दीन-धर्म, अमीर-गरीब कुछ नहीं देखती।
मेरा और पुष्कर का साथ हो नहीं सकता था, पर हो गया। रोज सुबह
साथ जाना, साथ आना। दिन भर कॉलेज में साथ रहना। यहाँ तक कि
बहुत बार मैं रात को भी उसी के घर रहने लगा।
हमारा याराना तो दूसरे दिन ही हो गया। जैसे मैं शाख से टूटा
खुश्क पत्ता था जिसे जमीन पर गिरने से पहले पुष्कर ने थाम
लिया। नजदीकी प्रेम को बढ़ाती है, दूरी कम करती है, यह सच है।
हमारे घर एक ओर थे। इसलिए एक ही रास्ते से साथ साथ कॉलेज जाते,
साथ साथ वापिस आते। जाने से पहले मैं उसके घर पहुँच जाता। आने
से पहले मैं उसके घर पहुँच जाता। साथ साथ चलने से ही हम साथी
बन गए। मैं तो गाँव से आ कर पढ़ाई के कारण चाचा के साथ उनके
सरकारी र्क्वाटर में जबरदस्ती टिका हुआ था। पुष्कर का अपना घर
था। घर कहना तर्कसंगत नहीं होगा। घर क्या ऊँचे देवदारुओं से
घिरी लम्बी चौड़ी कोठी थी। ‘तारा वियू’ एस्टेट नाम था जिसमें
पूरी पहाड़ी पर सेब का बागीचा था। शहर में अब यह एक ही बागीचा
था जिसमें सेब की फसल लगती थी। दादा रायबहादुर थे। खिताब मिला
था अंग्रेजों से। लगते भी अंग्रेज ही थे। चूड़ीदार पेंट और हैट
लगाए रहते। शहर में एक सिनेमा घर, कई दूकानें।
कोठी पहाड़ी के बीचोंबीच धरती पर बिछी हुई थी। साथ में सर्वेंट
क्वार्टरज। मुख्यद्वार सड़क के साथ था जहाँ एक ओर गुमटी थी।
यहाँ कभी पुलिस के नौजवान चौबीस घण्टे पहरे पर खड़े रहते थे।
अंग्रेजी राज खतम होने के बाद इन्हें देसी सरकार ने हटा लिया।
पिता के होम गार्ड्ज का कमांडैंट बनने पर उनकी जगह होम गार्डज
के सिपाहियों ने ले ली।
कॉलेज में हमारी अपनी ही दुनिया थी। औरों से अलग, हो हल्ले,
राजनीति से दूर अपने में ही मस्त। हड़तालों, जलसे जुलूसों में
हम शामिल नहीं होते। किसी को हमें कहने की हिम्मत भी नहीं
होती। कॉलेज में बहुत सी लड़कियाँ पुष्कर से बात करने, याराना
करने के लिए तरसती थीं। वह किसी को घास नहीं डालता। औरों की
तरह लड़कियों के पीछे भागना या उनके आगे पीछे रहना हमारी
दिनचर्या में नहीं था। वैसे भी उस जमाने में किसी लड़की से बात
कर पाना बड़ी हिम्मत और जोखिम का काम था। बड़ों बड़ों के पसीने
छूट जाते। इस फील्ड में हम भीरू थे।
ऐसे में समय ने मदहोश अँगड़ाई ली।
वह गुलाब की पंखुरी की तरह गिरी धीरे धीरे-धीरे। हवा में तितली
के पंख की तरह उड़ी हौले हौले हौले...।
हवा में न जाने कितने पंख, रुई पहने बीज, सूखे पत्ते उड़ते रहते
हैं। हमें दिखलाई नहीं पड़ते। मौसम बदलने पर पतझड़ में, वसंत के
बाद गर्मियाँ आते ही इस तरह की कई चीजें पेड़ों से नीचे गिरती
रहती हैं।
जब भी कोई ऐसी चीज हवा में तैरती हुई नज़र आती, नीचे गिरने से
पहले वह इसे हवा में थामने के लिए दौड़ता। यह उसकी पुरानी आदत
थी। रास्ते में जाते हुए जब भी हवा में कोई पंख तैरता नजर आता,
वह उसे हाथ में पकड़ने के लिए दौड़ता। कई बार ऊँचे देवदारों से,
बान के पेड़ों से, पंख लगी कोई चीज तेजी से गोलाकार घूमती हुई
नीचे उतरती। हवा में झपट्टा मार वह फुर्ती से मुट्ठी में बंद
कर तेजी चिल्लाताः "लो पकड़ लिया!.. इसे जमीन पर गिरने से पहले
पकड़ लेना शुभ होता है।" वह कहता और उसे कोट या जैकेट की जेब
में सम्भाल कर रखा लेता।
जब मौसम ने अँगड़ाई ली, बर्फ पिघली, सर्दियों के बाद अप्रैल में
कॉलेज खुले तो लक्कड़ बाजार के आगे लकड़ी की पुरानी बिल्डिंगों
में जैसे फूलों की क्यारियाँ महक उठीं। कॉलेज के प्रांगण में
लड़कियाँ तितलियों की तरह उड़ने लगीं।
ऐसे में एक दिन हम खाली पीरियड होने से टहलते हुए लक्कड़ बाजार
की ओर जा रहे थे, तो वह ऊपर से उतरी धीरे धीरे।
साधारण वेशभूषा में वह असाधारण थी। जैसे पर्वत की रूखी सूखी
चट्टानों में खिला ब्रह्मकमल। जैसे कोई राजकुमारी दासी के
कपड़ों में प्रजा का हाल जानने चोरी से निकली हो। सफेद सारस सी
उठी हुई गर्दन, हिरणी सी बड़ी बड़ी आँखें, लम्बी पतली काया... हम
देखते ही रह गए।
"बहुत मेजेस्टिक बॉडी है यार इसकी...।" पुष्कर भी देखता रह
गया। एक दो नोट बुक्स छाती से लगाए वह धीमे धीमे हमारे सामने
से गुजर गई। बात आई गई हो गई।
कभी कभार वह उसी साधारण वेशभूषा में दिखती तो पुष्कर के मुँह
से निकलता- "बड़ी मेजेस्टिक बॉडी है यार!"
हम उस समय बी.ए. पार्ट टू में थे। पता चला उसने प्री
यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया है। अतः हमारा उससे कोई नाता नहीं
था सिवाय इसके कि कभी सामना हो जाता।
पार्ट वन के एक लड़के ने एक बार पुष्कर से कहा कि वह उसकी
इंट्रो किसी से करवाना चाहता है। पुष्कर ने मेरे साथ एक दो बार
इसका जिक्र किया। मैंने सोचा किसी आदमी से इंट्रो करवाना चाहता
होगा, "तो क्यों नहीं मिलते, किसी दिन मिल लो।" मैंने कहा।
"हाँ, मिल लेंगे। ऐसी भी क्या जल्दी है... पर वह होगा कौन!"
पुष्कर इस बात को मजाक में ही लेता रहा। यह मजाक नहीं था। एक
दिन वह लड़का पुष्कर को क्वालिटी रेस्तराँ में ले गया। यहाँ
बैठने के लिए कुछ केबिन बने थे जिनमें हमेशा पर्दे लटके रहते।
उसने पुष्कर को एक केबिन में भीतर भेज दिया। वह लड़का कहीं
रफूचक्कर हो गया। मैं बाजार के चक्कर लगाता रहा। अंत में खीज
कर अकेला घर आ गया।
दूसरे दिन बड़ी बेसब्री से मैं उसके घर जल्दी ही पहुँच गया। वह
अभी अपने कमरे में सोया हुआ था।
"कौन था! क्या बात हुई!" मैंने उतावली में पूछा।
"बैठो बैठो, बताते हैं...ऐसी भी क्या जल्दी है!" उसने अँगड़ाई
लेते हुए कहा।
मेरे सब्र की जैसे वह परीक्षा ले रहा था।
"वही थी यार वही..." "वही कौन!" मैं फिर चौंका।
"वही.... मेजेस्टिक बॉडी...मुझ से मिलना चाहती थी।" चहका
पुष्कर।
मुझे कुछ धक्का सा लगा। संयत हो बोलाः "ये कैसे हुआ! वह लड़का
कौन है उसका।"
"कजिन बता रहा था। जो भी हो हमें क्या।" उसने लापरवाही से कहा।
इसके बाद वे तोता मैना हो गए।
शहर की सुनसान ठण्डी सड़कों से ले कर होटल रेस्तराँ तक वे कभी
छिप कर और कभी सरेआम इकट्ठे नज़र आने लगे। उस जमाने में यह कम
बात नहीं थी। हालाँकि आज की तरह चोंच से चोंच नहीं जोड़ते थे।
कॉलेज में तो सब को पता था। एम्बेसी में उन दिनों नई नई बार
खुली थी। अंदर के कमरे में दीवार पर उमर खैय्याम का बड़ा सा
चित्र बना दिया था। बैठने के लिए लम्बा तख्तपोश। इसके आगे दो
टेबल भी थे। पुष्कर पूरे कमरे को बुक करवा कर तख्तपोश पर उसके
साथ बैठा रहता। बहुत बार मैं भी कुछ देर बार में बैठता और
उन्हें अकेला छोड़ बाहर आ जाता।
बात बहुत आगे बढ़ने पर उसे समझाया भी- "तुम तो दीवानगी की हद तक
जाने लगे हो... वह तुम्हारे काबिल नहीं है। उतना ही रखो जितना
जरूरी है, बहुत आगे न बढ़ो।"
इन बातों पर पुष्कर गुनगुनाने लगता... सुराहीदार गर्दन कोयल सी
है आवाज....तेरी हर एक बात पर मुझ को है बड़ा नाज।
सच ही उसकी आवाज बहुत मीठी और सुरीली थी, एकदम कोयल सी। खास
अनुरोध कर वह बहुत बार गा देती। हम आँखें बंद किए सुनते रहते।
अब उसका कॉलेज आना कम हो गया। पुष्कर पहले ही अगले दिन का मिलन
कार्यक्रम तय कर लेता। वैसे भी कॉलेज में उस पर कोई रिमार्क
कसे तो वह मार पिटाई पर उतारू हो जाता। मुझे बहुत बार बीच बचाव
करना पड़ता।
"इतना साथ न करो भाई। ये ठीक नहीं।" मैंने कई बार समझाया।
"मुझे पता है तुम क्यों तिंगड़े हुए हो।" वह उलाहना देता।
"ऐसी बात नहीं है। मैं ठीक कह रहा हूँ। ये तुम्हारे काबिल नहीं
है।" वह उसके बारे में मेरी भली बुरी बातें भी सुन लेता था, यह
उसकी शालीनता और सहनशीलता थी।
रायबहादुर साहिब ने पार्टी रखी थी, तुम भी आना यार रात को। घर
में रात यहीं रहने की बात करके आना...पुष्कर ने अनुरोध और आदेश
से कहा था।
रायबहादुर साहिब की बैठक बहुत बड़ी थी जिसमें पर्शियन कारपेट
बिछी हुई थी। ऊपर बड़ा सा फानूस लटका हुआ था। दीवारों पर बंदूक
हाथ में लिए बड़े बड़े फोटो सलीके से तारों से लटके हुए थे। बीच
में दोनों ओर हिरण के लम्बे सींगों वाले मुँह। रायबहादुर की
बड़ी सी कुर्सी के नीचे शेर की खाल। किनारों पर लकड़ी के कलात्मक
स्टैंड।
आसपास के राजे रजवाड़ों को आमन्त्रित किया गया था। महँगी और
विदेशी शराब का इंतजाम था। सूखा मीट, बोनलेस चिकन, सीख कबाब का
माकूल इंतजाम। बूढ़े राजाओं के शौक को देखते हुए नाच गाने का
विशेष इंतजाम था। लोक गायक, तूरी और नट मण्डलियाँ बुलाई गई
थीं।
गर्मियों के दिनों में शाम देरी से होती है। अतः आठ बजे तक लोग
सजधज कर पहुँचने लगे। सेवकगण ठण्डा और गर्म ट्रे में लिए
मुस्तैदी से घूम रहे थे। बाहर से ठण्डा मगर तासीर में गर्म झट
से उठाया जा रहा था। पार्टी में सरूर होने के बाबजूद भी सयंम
और गरिमा थी।
थोड़ी देर बाद एक ओर बिछे दीवान पर गायक बैठ गए। दो लड़कियाँ या
औरतें भी उनके साथ थीं जो चुनरी से मुँह ढँके हुए थीं। तबले और
हारमोनियम वालों ने सुर आजमाए और मूँछों वाले बूढ़े गायक ने
गाना शुरू कियाः
"साहिब हैं रंगरेज चुनरी मोहि रंग डारी।"
देर तक वह एक ही बोल...साहिब है रंगरेज और एक ही राग अलापता
रहा तो रायबहादुर ने फरमाईश की-
"माठूराम! कोई प्हाड़ी राग सुणा यरा... ए पक्के राग तो बोत
सुणे। कोई देसी ठुमका लगाओ यरा।" उन्होंने घूँघट में छिपी
औरतों की ओर देखते हुए कहा।
माठूराम ने खुद हारमोनियम सम्भाला,सुर साधा और घूँघट काढे एक
औरत गाने लगी-
"उड़ी जाणा बसंतिए तेरा रूमाल
ऐस खद्दरे री कुरती रा इतणा कमाल...उडी जाणा...।"
महफिल गरमाने लगी तो एक औरत ने फर्राटी लगाई। उस पर नोटों की
बारिश होने लगी। नाचते हुए उसका आधा घूँघट खुल गया। माठूराम ने
मौका ताड़ लिया और हारमोनियम पर धुन बजा कर दूसरी से गाना शुरू
कराया-
"तेरी तेरी खातर खाणा बणाया, खाई के खुल़ाई के तू लंघी जाणा
पार
तू हो जानी मेरे गलो रा हार...।"
यह क्या! यह तो जानी पहचानी आवाज है...मैं चौंका। वही आवाज,
वही अंदाज।
मगर यह किसकी आवाज है... तीन पैग लगाने पर मेरा दिमाग घूमने
लगा था। मैंने पुष्कर की ओर देखा। होंठ तो उसके वैसे ही लाल
रहते थे। इस समय गाल भी अंगारे की तरह सुर्ख थे। माथे पर पसीने
की बूँदें थीं...शायद ज्यादा लगा ली है।
ढोलक की थाप के बाद गाने के अगले बोल कानों में पड़े:
"तेरी तेरी खातर सेज बछाई
सेज बछाई ओ बलमा सेज बछाई
सोई के सुआई के तू लंघी जाणा पार... तू ओ जानी मेरो...
गाते गाते वह नाचने लगी। एक अधेड़ ने आगे बढ़ कर नोट हवा में
लहराए और उसकी चुनरी खींच ली।
यह क्या...नाच एक क्षण को थम गया। वह जैसे वहीं फ्रीज हो गई।
वह खड़ी थी जैसे शिकारियों के बीच बड़ी बड़ी आँखों वाली चकित
हिरणी...वह खड़ी थी जैसे जंगल में उगी नाग छतरी...वह खड़ी थी
जैसे पर्वत पर चट्टानों में खिला ब्रह्मकमल!
छत पर लगे झाड़ फानूसों में जैसे एकाएक बिजली का लोड बढ़ गया।
चारों ओर जगमगाहट सी छा गई।
मैं अवाक् रह गया। पुष्कर न जाने कब आगे आया और अधेड़ को धक्का
मार परे धकेल दिया। वह एक ओर लुढ़क गया। मैं भी यन्त्रवत आगे आ
खड़ा हुआ।
"इन लड़कों को किसने लाया भई यहाँ!.....चढ़ गई है भई इसको। टल्ली
हो गया है...ले जाओ यहाँ से...," रायबहादुर की आवाज थी। पुष्कर
को दो आदमी कठिनाई से पकड़ कर ले गए। उसका चेहरे से जैसे लहू
टपक रहा था। मेरा सारा नशा जाता रहा। मैं छिपता छिपाता उसके
कमरे में कब आ कर सो गया, सुबह ही पता चला।
रात का हादसा एक बुरे सपने की तरह याद था। सुबह उठा तो पुष्कर
सामान्य था।
उसके
बारे में हमारे बीच कोई बात नहीं हुई। अगले दिन वह कॉलेज में
नहीं दिखी। पुष्कर ने उस लड़के को पकड़ कर पीट डाला जिसने इंट्रो
करवाई थी। लड़के ने मार खा कर भी कुछ नहीं बताया।
आज, बहुत दिनों बाद शाम को हम साथ साथ घर लौटे। रास्ते में
देवदार झुरमुट के नीचे से गुजर रहे थे तो पुष्कर तेजी से भागा।
उसने झपट्टा मार ऊपर से गिरता हुआ एक पंख मुट्ठी में पकड़ लिया
और फट से कोट की जेब में डाल लिया। |