इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-1
संक्रांति के अवसर पर सूर्य को केंद्र में रखते हुए विभिन्न रचनाकारों की ढेर सी रचनाओं का सुंदर संकलन। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- मकर संक्रांति के अवसर पर हमारी रसोई-संपादक शुचि
लाई हैं स्वाद और स्वास्थ्य से भरपूर-
खजूर और जई के लड्डू। |
वास्तु विवेक
के
अंतर्गत-- घर के
निर्माण से संबंधित उपयोगी जानकारी से भरपूर विमल झाझरिया की लेखमाला-
वास्तु विवेक में- दिशाएँ
और उनके लाभ |
जीवन शैली में-
१५ आसान सुझाव जो जल्दी वजन घटाने में सहायक हो सकते हैं-
१. मांसाहार पर नियंत्रण रखें।
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सप्ताह का विचार-
उत्तरदायित्व में महान बल होता है,
जहाँ कहीं उत्तरदायित्व होता है, वहीं विकास होता है।
- दामोदर सातवलेकर |
- रचना व मनोरंजन में |
क्या-आप-जानते-हैं-
आज के दिन (१२ जनवरी को) माता जीजाबाई, स्वामी विवेकानंद,
महर्षि महेश योगी, अरुण गोविल, साक्षी तँवर का जन्म...
विस्तार से |
लोकप्रिय
लघुकथाओं
के
अंतर्गत-
अभिव्यक्ति के पुराने अंकों से- ९
फरवरी २००५ को प्रकाशित अन्तरा करवड़े की लघुकथा — 'प्रेम' |
वर्ग पहेली- २१९
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि-आशीष
के सहयोग से |
हास परिहास
में पाठकों
द्वारा
भेजे गए चुटकुले |
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साहित्य एवं
संस्कृति
में- मकर संक्रांति के अवसर पर |
समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है भारत से
लता शर्मा की कहानी-
पेंच पाना
"ये मिक्सी खराब हो गई।'' बेटा मिक्सी मेज पर रख कर जाने वाला
था कि बाबू उठ बैठे।
''देखूँ!'' उन्होंने मिक्सी हाथ में ली और सूँघा। न... जलने की
गंध नहीं है। अखबार तह कर रख दिया और चश्मा ठीक कर मिक्सी के
ब्लेड को हिलाने की कोशिश की। नहीं हिला। ''जरा इसका ब्लेड
ओपनर दो।'' आज मिक्सी में त्रिफला पीसा था बाबू ने। तब से ही
जाम पड़ी है। बेटे ने ब्लेड ओपनर
पकड़ा दिया। उसके चेहरे पर बड़ी सूक्ष्म सी व्यंग्यात्मक और बड़ी
तृप्त सी मुस्कान थी। अब करो इस मिक्सी को ठीक तो जानू।
इंजीनियर बेटा मैकेनिक बाप की लिहाड़ी ले रहा था। उनका मजाक उड़ा
रहा था। तंग आ गया था वह उनकी हरकतों से।
हर मशीन के साथ छेड़छाड़। ''ये पंखा आवाज क्यों कर रहा है। जरा
स्टूल ला! पंखा उतार! पेंचकस ला। कस के पकड़!'' हलकान हो जाता
था बेटा! ऊपर से यह हिकारत भरा जुमला और!
''कैसा इंजीनियर है रे तू। तेरे घर की कोई मशीन ठीक नहीं चलती!
आयरन का बल्ब फ्यूज है, पता ही नहीं चलता कब ऑन हुआ, कब ऑफ!
आगे-
*
आभा सक्सेना की लघुकथा
मनसी हुई खिचड़ी
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कुमार कृष्णन के साथ
मकर संक्रांति में
चलें मंदार
*
सौरभ पांडेय का आलेख
विभिन्न प्रांतों
में मकर संक्रांति
*
पुनर्पाठ में समसामयिक आलेख
सूर्य उपासना का
पर्व मकर संक्रांति |
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रघुविन्द्र यादव की
लघुकथा- झूठ
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डॉ. संतोष गौड़
राष्ट्रप्रेमी का दृष्टिकोण
नया
साल- मूल्यांकन व नियोजन का अवसर
*
आज सिरहाने में इला प्रसाद की
दृष्टि में
नरेन्द्र मोदी का कविता
संग्रह- आँख ये धन्य है
*
पुनर्पाठ में दुर्गा प्रसाद
शुक्ला का आलेख
समय बहता हुआ
*
साहित्य संगम में देवकांतन की
तमिल कहानी का
हिंदी रूपांतर-
मनसा वाचा
पिच्चैमुत्तु ठेले में सब्जियाँ
लेकर गली-गली घूमकर बेचा करता था। उस छोटे बाजार की मछली की
दुकान के पास खड़े होकर हर दिन दो बजे तक खड़े होकर बेचता था।
शाम को साढ़े छः-सात बजे चौथे एवेन्यू में घर-घर जाकर
फेरी लगाता।
धीरे-धीरे इस पेशे में भी प्रतिद्वंद्विता बढ़ती गई। कठिन
परिश्रम करने पर भी पिच्चै का जीना मुश्किल होता गया। जीवन भर
उसे मुसीबतें झेलनी पड़ीं और कटु अनुभवों का सामना भी करना
पड़ा।
दिन में दस बारह घंटे अविरल काम करने पर भी आमदनी में बढ़ोत्तरी
न होते देख पिच्चैमुत्तु को एक अद्श्य पीड़ा सताने लगी। वह
सोचने लगा कि क्या सारी की सारी पीड़ाएँ मुझे ही झेलनी हैं? उसे
इस दरिद्रता कठिनाइयों से जकड़े हुए जीवन में आशा मिटती दिखाई
दी।
पिच्चैमुत्तु को पौ फटने के पहले ही सब्जियाँ लेने माँवलस
बाजार दौड़ना पड़ता था। उसी गति से लौटकर आठ बजे से ही सब्जियों
से लदा ठेला लेकर बेचने निकल जाना होता था।
आगे- |
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