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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से लता शर्मा की कहानी— पेंच पाना


"ये मिक्सी खराब हो गई।'' बेटा मिक्सी मेज पर रख कर जाने वाला था कि बाबू उठ बैठे।
''देखूँ!'' उन्होंने मिक्सी हाथ में ली और सूँघा। न... जलने की गंध नहीं है। अखबार तह कर रख दिया और चश्मा ठीक कर मिक्सी के ब्लेड को हिलाने की कोशिश की। नहीं हिला।
''जरा इसका ब्लेड ओपनर दो।'' आज मिक्सी में त्रिफला पीसा था बाबू ने। तब से ही जाम पड़ी है।

बेटे ने ब्लेड ओपनर पकड़ा दिया। उसके चेहरे पर बड़ी सूक्ष्म सी व्यंग्यात्मक और बड़ी तृप्त सी मुस्कान थी। अब करो इस मिक्सी को ठीक तो जानू। इंजीनियर बेटा मैकेनिक बाप की लिहाड़ी ले रहा था। उनका मजाक उड़ा रहा था।

तंग आ गया था वह उनकी हरकतों से।
हर मशीन के साथ छेड़छाड़। ''ये पंखा आवाज क्यों कर रहा है। जरा स्टूल ला! पंखा उतार! पेंचकस ला। कस के पकड़!'' हलकान हो जाता था बेटा! ऊपर से यह हिकारत भरा जुमला और!
''कैसा इंजीनियर है रे तू। तेरे घर की कोई मशीन ठीक नहीं चलती! आयरन का बल्ब फ्यूज है, पता ही नहीं चलता कब ऑन हुआ, कब ऑफ! सिलाई मशीन में धागा फँसा है। जि का थार्मोस्टेट ढीला है, ठीक काम नहीं करता। क्या फायदा हुआ तुझे इंजीनियरी पढ़ाने का! तुझसे तो हम मैकेनिक ही अच्छे! घर की हर मशीन 'पानी की तरह' चलती है।''

शुरू में तो बहू-बेटे को अच्छा लगता था। होली-दीवाली अम्मा-बाबू चार-पाँच दिन के लिए आगरा आते थे। दोनों खाली बैठना जानते ही न थे। अम्मा तरह-तरह के अचार-मुरब्बे बनाती। साल भर के बड़ी-पापड़ और मसालों का इंतजाम करती। बेटे-बहू के पुराने कपड़ों से बच्चों के नेकर-झबले बनाती। फटी-पुरानी चादरों की कथरी सी देती। बाबू दिन भर पेंचकस और तेल की कुप्पी लिए मशीनें ठीक करने में लगे रहते। घर के सब पंखे बेआवाज चलने लगते। दरवाजे चरमराना भूल जाते। ढीले होल्डर और स्विच मुस्तैदी से 'सावधान' की मुद्रा में आ जाते। सिलाई मशीन पिफर 'पानी की तरह' चलने लगती। इतने पर भी चैन कहाँ। बाबू कूलर के अंजर-पंजर खोल 'रैड-ऑक्साइड' लगाकर रखते। अगर कहीं 'रिवाइडिंग-वेल्डिंग' की जरूरत होती, तो बाजार जाकर खुद करवा लाते!

मुश्किल हुई दिल्ली आने के बाद!
वजह अम्मा-बाबू ही थे। उनका खुद का ही किया धरा है यह सब। दोनों बूढ़े हो चले थे। बाबू ने वर्कशॉप जाना छोड़ दिया था। अम्मा से घर का काम नहीं सम्हलता था। नौकरों का भरोसा नहीं। किरायेदार भी नहीं रखते थे। क्या जाने कब कौन बूढ़े-बूढ़ी का गला घोंट दे। टी.वी. पर कैसी-कैसी खबरें आती हैं।
''बेटा तू घर आ जा। दिल्ली तबादला करवा ले।''
और तो कुछ नहीं, मकान की समस्या गंभीर थी। अम्मा का भतीजा अक्सर आता-जाता रहता था। उसकी बहू हारी-बीमारी में अम्मा की देखभाल करती थी। फरीदाबाद की है। सेवा-एवा तो क्या, मकान पर नजर है।

बेटे ने कॉरपोरेट ऑफिस में तबादला करवा लिया। अम्मा-बाबू निहाल! पर बेटे ने जता दिया। सरकारी मकान मिलते ही चला जाएगा। इस सँकरी अंधी गली के दड़बेनुमा मकान में उसका दम घुटता है।
अम्मा-बाबू एक कमरे में सिमट आए। उनकी हर बात के आगे नतमस्तक। बेटा-बहू और बच्चों से घर में रौनक है।
फिर भी आए दिन खिट-खिट हो ही जाती।
''कैसा इंजीनियर है रे तू। तेरा स्कूटर ठीक नहीं चलता। किचन में गैस स्विच ढीले हैं। यही सिखाया गया है इंजीनियरिंग कॉलेज में? स्क्रू को हथौड़े से ठोंक दिया। अब खुलेगा कैसे?... कितना गंदा कर रखा है जि! झींगुर घुस गए हैं। कभी साफ क्यों नहीं करते।''
फ्रिज साफ किया तो खराब हो गया। अम्मा-बाबू भतीजे के यहाँ सत्यनारायण की कथा में गए थे। उसने बाल्टी भर-भर कर पानी डाला और सर्फ से फ्रिज को नहला-धुला के चमाचम कर दिया। पर वह कम्बख्त तो दुबारा स्टार्ट ही नहीं हुआ।
बाबू बड़े नाराज हुए।
''तुझसे तो मैं मैकेनिक ही अच्छा। कम से कम इतना तो जानता हूँ कि बिजली-पानी में जन्मजात बैर है। बिजली से चलने वाली मशीन पर यूँ पानी नहीं डालते।''

उसी का बदला लिया है बेटे ने
लो जी! मैकेनिक साहब! ये मिक्सी खराब कर दी आपने। बहू दहेज में लाई थी। लाख कहा त्रिफला मत पीसो! पिसा-पिसाया मिलता है बाजार में! पर नहीं! हम तो हर चीज घर की कुटी-पिसी ही खाते हैं। कर दी न मिक्सी खराब! रहे होंगे अपने जमाने में फस्ट क्लास मैकेनिक। आजकल की नफीस मशीनें आपने देखी ही कहाँ हैं जो ठीक कर दोगे।
बाबू उठे। ब्लेड ओपनर से ब्लेड खोलने की कोशिश की, नहीं खुला। तब बाबू ने थोड़ा पानी खौला कर मिक्सी में डाला और कुछ देर यूँ ही हिलाते रहे। फिर ब्लेड खोलने की कोशिश की। जरा जोर लगाने से ब्लेड खुल गया। अब बाबू थोड़ा रुके और पुराना टूथब्रुश ले, मिक्सी अच्छी तरह साफ की। ब्लेड कस के चलाया तो मिक्सी 'पानी की तरह' चलने लगी।
''ये लो। ठीक हो गई तुम्हारी मिक्सी। कुछ खराबी नहीं थी। कभी साफ तो करते नहीं हो! इसीलिए ब्लेड जाम हो गया था।''
मैकेनिक बाप ने फिर इंजीनियर बेटे को पटखनी दे दी।
लेकिन बाबू अंदर ही अंदर कराह उठे।

ये क्या हो रहा है? बेटे की इतनी हिम्मत! ...न... यह हिम्मत नहीं, सरासर बदतमीजी है। दो-चार हजार की मिक्सी के लिए बाप पर तोहमत लगाने चला आया। भूल गया कैसे मैकेनिक बाप ने बेटे को इंजीनियरी पढ़ाई। मामूली बात है? मोटर गाड़ियाँ ठीक करने वाले पंजाबी सेठ के गैराज शक्ति इंजीनियरिंग वर्क्स में काम करने वाले मैकेनिक ने यह खर्चा कैसे झेला, सरकारी नौकरी वाले इंजीनियर को क्या मालूम? अफसर बेटे की शान में बूढ़ा बाप बदनुमा दाग के अलावा कुछ नहीं।
''बरामदे में बैठकर तेल मत लगाओ। नंगे बदन घर भर में मत घूमा करो। दफ्तर के लोग मिलने-जुलने आते हैं। चपरासियों से बातचीत मत करो। नौकरों को मुँह लगाना ठीक नहीं।''
मुख्तसर सी बात है-अपने कमरे में रहो। चाय-पानी, खाना-वाना सब वहीं मिल जाएगा।
क्यों? अपने कमरे में क्यों बैठे रहे? सारा घर उनका है।
तब बहू खुलकर मैदान में आई! और जोरू का गुलाम 'मौन व्रत' धरे रहा।
''अम्मा से कहो, अपने कमरे में बैठे। ये सिर पर सवार रहती है तो मेरे हाथ-पाँव काँपने लगते हैं। हर समय टोक-टाक! चाय बनाते ही चलनी धोकर क्यों नहीं रखी! चकला-बेलन हाथों-हाथ धोकर रखो। रसोई कितनी गंदी कर रखी है। मार कॉकरोच भर गए हैं!''
''दाल में पानी ज्यादा है अब फेंकोगी क्या? सारा सत्‌ बह जाएगा। आटा ठीक से गूँधों, रोटी नरम बनेगी।''
''हे, भगवान! मैं तो तंग आ गई!''
अम्मा-बाबू चुप!
आखिरी वक्त में कोई तो चाहिए। सो चुप रहना ही ठीक है।

विमला भाग्यवान थी। जल्दी स्वर्ग सिधार गई। बदनसीब है वह! अपने ही घर में बनवास भुगत रहा है!
विमला के जाने के बाद बहू-बेटे का उत्पात ज्यादा ही बढ़ गया। दिन-रात की बक-झक।
''घर कितना छोटा है। अब बच्चे बड़े हो रहे हैं। उन्हें अलग कमरा चाहिए। बाबू से कहो, ऊपर परछत्ती में चले जाएँ! उन्हें करना ही क्या है? दिन भर टी.वी. ही तो देखना है। कहाँ मकान बनवाया है।...
न धूप आए न हवा!
एक दिन सीधे-सीधे बाबू को ही हुक्म सुना दिया।
''आपका क्या है? न कहीं आना न जाना। लेटे-लेटे टी.वी. ही तो देखना है। बच्चों का स्टडी रूम होना चाहिए। हमारे बेडरूम में स्टडी टेबल किताबों की अलमारी की जगह ही कहाँ है? आप ऊपर वाले कमरे में शिफ्रट हो जाएँ तो...''
''नहीं'' उन्होंने बेटे की बात बीच में ही काट दी। ''परछत्ती को कमरा बना रहे हो? तो वहीं क्यों नहीं स्टडी टेबल लगा देते।''
''बच्चे कैसे ऊपर जाएँगे।'' अब बहू भी मैदान में कूद पड़ी। मुझे किचन से निकल कर बार-बार उनका होमवर्क देखना पड़ता है। घर के हजार काम करते-करते उनसे पढ़ाई करवाती हूँ। घर इतना छोटा...
''तुम्हें घर छोटा पड़ता है तो दूसरा मकान ढूँढ़ लो! मैं अपना कमरा छोड़, कहीं नहीं जाने वाला।''
उन्होंने टी.वी. की आवाज ऊँची कर दी।

तिलमिला कर रह गए बेटा-बहू। दिल्ली में इतना बड़ा मकान तो क्या, इसका आधा भी पाँच-छह हजार से कम किराए में नहीं मिलेगा। चारदीवारी में दरवाजा निकाल दें तो आँगन में भी दो कमरों का मकान बन सकता है। पर बाबू ने साफ मना कर दिया। उन्हें आँगन में खेलते बच्चे अच्छे लगते हैं। सिर्फ उनके घर में आँगन है। इसीलिए शाम को गली भर के सारे बच्चे उनके यहाँ इकट्ठे हो जाते हैं। उनका मन लगा रहता है। वरना बेटा-बहू तो उनसे बोलते नहीं। नाते-रिश्तेदार भी उनसे ही मिलने आते हैं। बच्चों तक को बाबू के कमरे में फटकने नहीं दिया जाता। छोटा पिंटू शैतान है। माँ-बाप की बात नहीं मानता। शाम को अक्सर उनके जहाज जैसे बड़े पलंग पर चढ़ आता है। दुनिया-जहान के किस्से सुनाता है। उनके हाथ से रिमोट छीन लेता है और कार्टून चैनल लगा देता है। तब उसकी माँ गुर्रा कर कहती है।
''पिंटू... चलो ...होमवर्क करो।''
एक बार वो आता हूँ... आता हूँ कहकर घंटे भर तक नहीं गया। बहू ने भीतर से दरवाजा बंद कर लिया और पिंटू को आधे घंटे बाहर खड़ा रखा। बच्चा रोता रहा पर उनके खटखटाने पर भी बहू ने दरवाजा नहीं खोला। अब वो खुद ही कह देते हैं।
''जाओ ...बेटा... होमवर्क करो!''
सारा झगड़ा उनके बड़े से कमरे को लेकर ही था। दिन रात छोटे मकान का रोना!
तंग आकर एक दिन कड़क उठे बाबू।
''यह मकान छोटा है तो जहाँ अच्छा लगे, बड़ा मकान ले लो। मैं श्याम सुंदर और उसकी बहू को यहाँ बुला लूँगा।''

कुछ दिन घर में शांति रही!
फिर मोहरों ने घर बदलने शुरू कर दिए। बिसात पर नित नई चाल! बहू ने किसी स्कूल में नौकरी कर ली। सुबह आठ बजे घर खाली। सब अपने-अपने काम से निकल जाते। रसोई घर में ताला! बाबू गैस खुली छोड़ दे तो? फ्रिज में ताला। बाबू के हाथ काँपते हैं, दूध का भगौना गिरा दें तो? यानी कि सारे घर में ताला। एक उनका कमरा खुला है! चाहें, तो ताला जड़ कर बाहर घूम आएँ!
आज जब घर की हर आवाज छुप गई, तब बाबू धीरे से उठे। अपने कमरे से बाहर आए। उनके लिए डाइनिंग टेबल पर खाने की थाली ढकी रखी थी और ढक्कनदार जग में पानी। उन्हें मालूम था फिर भी उन्होंने फ्रिज खोलने का प्रयत्न किया। नहीं खुला। ताला बंद था। अपनी थाली की ओर मुड़े। चार ठंडी रोटियाँ, पनीली दाल, कोई नामालूम किस्म की सूखी सब्जी, जरा सा नमक, प्याज के दो टुकड़े! बस्स! सब कुछ ठंडा। ऐसे घनघोर जाड़ों में ये बर्फ सा ठंडा खाना। वीरान आँखों से उन्होंने लोहे की जाली के पार फैले आँगन की तरफ देखा। जब विमला थी, तब इसी आँगन में, धूप में बैठकर खाना खाते थे। लहक कर जलते चूल्हे के सामने बैठ, गर्म-गर्म रोटी। आँगन में हरी मिर्च, धनिया पौदीना और नींबू का पेड़। गर्मियों में यही बरामदा और रसोईघर से आती गर्म-गर्म रोटियाँ। ...गहरी साँस ली उन्होंने। ...नींबू के पेड़ के नीचे दो-चार सुनहरे नींबू पड़े थे। मन किया, उठा लाएँ! प्याज और दाल का स्वाद बढ़ जाएगा। दरवाजा खोलने बढ़े तो देखा, वहाँ भी ताला लटक रहा है। अच्छी मुसीबत है। हर जगह ताला। बस एक ही कसर रह गई है। उन्हें भी ताले में बंद कर जाएँ ये लोग। उनके कमरे में ताला इसलिए नहीं लग सकता कि गुसलखाना वगैरह बरामदे के एक कोने पर है। जब यह मकान बनवाया था, तब हर कमरे के साथ बाथरूम बनवाने का फैशन कहाँ था! विमला ने तो आँगन के एक कोने पर बनवाने को कहा था। उन्होंने ही बरसात और जाड़े का ख्याल कर, यहाँ बरामदे के कोने पर बनवा लिया। ...अगर आँगन में बनवाया होता, तो इन लोगों को मजबूरन यह दरवाजा खुला रखना पड़ता। तब वो धूप में बैठते, नमक लगाकर नींबू चाटते! थोड़े नींबू इकट्ठे कर च्यवनप्राश के डिब्बे में अचार डाल लेते। ...वो धीरे-धीरे अपने कमरे में लौट आए। एक नजर चारों तरफ डाली। खूब बड़ा सा कमरा। बड़ी-बड़ी अलमारियाँ, पल्लों पर शीशे जड़े हैं। बड़ी-सी खिड़की, सामने वाले बरामदे में खुलती है। मकान का रुख पूरब की तरफ है। और एक दरवाजा उधर भी खुलता है। पर यह घर के बाहर जाने का रास्ता है। घर के अंदर के सब दरवाजों पर ताला है।
ठंडी साँस ली बाबू ने।

जिस दिन से उन्होंने अपना कमरा खाली करने से इंकार किया है, घर का माहौल हिमालय की बपर्फीली चोटियों को मात कर रहा है।
अब? अब क्या करें। उस पनीली दाल को देखकर ही उन्हें उबकाई आने लगी थी। मगर भूख थी कि हंटर मार-मार कर उन्हें खाने की ओर खदेड़ रही थी।
''उठ नामुराद। ...कुछ कर मेरे लिए!'' भूख लगातार चीख़ रही थी।
वो उठे। जूते-मोजे पहने। बड़ी मुश्किल से तस्मे बाँधे। ठंड से अकड़ी उँगलियाँ उनका साथ नहीं दे रही थी। फिर भी... किया किसी तरह! पाजामे पर ही पैन्ट चढ़ा ली। पूरी बाँह के स्वेटर पर कोट। कनटोप, मफलर, दस्ताने... सब पहने। मगर बाहर निकलते ही दिसंबर की ठंड ने उन्हें कंपा डाला। तेज हवा थप्पड़ मार-मार कर उन्हें वापिस अंदर जा छुपने का हुक्म सुना रही थी।
गली में बदस्तूर आवाजाही थी। जाड़ा है तो क्या? लोग अपना काम-काज थोड़े ही छोड़ देंगे। बड़ी हिम्मत कर वो बड़ी सड़क तक पहुँच गए। अब दाहिने मुड़ना है और चौथी गली में 'जय जगदंबे ढाबा' है। एक-एक कदम रखते पहुँच ही गए।
तंदूर में रोटी लगाने की पट्-पट् आवाज। सिकती रोटी की सौंधी खुशबू। मसालों का मनभावन स्वाद-जुबान पर आ गया।
वो ढाबे में दाखिल हुए और एक खाली कुर्सी पर जम गए।
बैरा पानी ले आया और रटा-रटाया पाठ दुहराने लगा। दाल फ्राई, दाल मक्खनी, दाल महारानी, दाल तुअर, चिली पनीर, पालक पनीर, कढ़ाई पनीर, बेबीकोर्न पनीर, बटर मसाला पनीर और पसंदा पनीर। पेशावरी चने, लाहौरी चने, काबुली चने, गोभी-आलू-मटर, बैंगन का भरता, दही... बोलो, क्या लगाना है।
''खस्ता रोटी या मिस्सी रोटी मिलेगी?''
''हाँ जी, मिलेगी। और क्या?''
''पनीर बटर मसाला, गोभी-आलू-मटर, बून्दी का रायता और मिस्सी रोटी।''

जब तक उनका खाना आए, वो आस-पास का जायजा लेने लगे। यहाँ ज्यादातर लोग अपने काम से आते हैं। सरकारी दफ्रतर है और स्टेशनरी के थोक गोदाम। फुटकर दुकाने भी हैं। कमीशन एजेंट किस्म के लोग ही ढाबे में बैठे हैं। यह फैशनेबुल रेस्तराँ नहीं है। पर खाना अच्छा और सस्ता मिलता है।
यह क्या हो रहा है? उनकी पास वाली मेज पर बैठा आदमी धीरे से बैरे को बीस का नोट पकड़ा रहा था। बैरा फुर्ती से नोट और बर्तन समेट ले गया। ''एक दाल फ्राई, एक चना पेशावरी और छह नॉन।'' बैरे ने चिल्लाकर मैनेजर को बताया।
अरे! इसके सामने तो चार प्लेटें थी। यानी दो डिश के पैसे गोल कर गया बैरा! यह कमाल बीस के नोट का था।
उनका खाना लग गया। सामने गर्म गर्म पनीर बटर मसाला और मक्खन लगी रोटियाँ देख उनका रोम-रोम जाग उठा। दो रोटियाँ तो उन्होंने ऐसे खाई जैसे बरसों से भूखे हों। फिर स्वाद ले-लेकर खाने लगे। और आस-पास चलता बैरों का व्यापार भी देखते रहे। मैनेजर साला उल्लू का पट्ठा है। इसकी नाक के नीचे सब कुछ हो रहा है और इसे खबर नहीं है! बैरों को कार्बन लगी नोट बुक पकड़ा और अपने दस्तखत ठोक एक कॉपी अपने पास रख! बात खत्म! उनके अंदर का कर्मठ सुपरवाइजर जाग उठा। वो पेंच-पाना पकड़े धीरे-धीरे सुपरवाइजर की कुर्सी तक जा पहुँचे थे। वहाँ भी यही हाल था। मैकेनिक बड़ी 'फॉल्ट' दर्ज करा देगा और छोटी-मोटी फॉल्ट छुपाने लगा। बिल कम बनेगा। पाँच सौ में दो सौ मैकेनिक के! गाड़ी वाले को फिर भी तीन सौ का फायदा। ऐसी गड़बड़ी उन्हें रास नहीं आती थी। वहाँ भी 'जॉब स्लिप' बनाना और गाड़ी की 'फाइनल चैकिंग' पर उनकी कड़ी नजर रहती थी। मालिक का नुकसान उन्हें अपना नुकसान लगता था। उनका हुनर तो उनके अपने हाथ में था। पेंच-पाना हो तो उनका हाथ लगते ही अड़ियल से अड़ियल गाड़ी भी पानी की तरह चलने लगती थी। पेंच-पाना हो तो रुपया हाथ का मैल है। मोबाइल आ जाने से काम सौ गुना बढ़ गया था। मेमसाब लोग गाड़ी चलाना सीख लेती हैं पर स्टेपनी बदलना उनके बस का रोग नहीं। इसलिए दिन रात उनका फोन बजता रहता।
''गाड़ी रिंग रोड पर पार्क्ड है। जरा जल्दी पहुँचा दीजिए।''
सारी दिल्ली का नक्शा उनके जेहन में था। ईमानदारी से तसल्लीबक्श काम, यही उनका औजार था। मालिक को उन पर पूरा भरोसा था। अच्छी तनखा के साथ हर गाड़ी पर दस परसेन्ट कमीशन भी देता था।
कैसे अच्छे दिन थे! कितना नाम था उनका। जब मारुति कार बाजार में आई तो कैसा हल्ला मचा था। कैसी कार है, कैसे कल-पुरजे हैं! हमारे हाथ लगेगी या उनके ही गैराज में जाएगी। अभी तक तो एम्बेसेडर और फिएट पर ही काम किया था। देखें! यह नई गाड़ी समझ में आती है या नहीं! शुरू में तो मारुति के गैराज में ही गई, फिर इधर-उधर भी जाने लगी।
नई गाड़ी को अच्छी तरह समझा उन्होंने। एक बार हाथ लगी तो मजे में ठीक कर दिया। फिर तो आए दिन नए मॉडल और नई गाड़ी। उनके हाथ में पेंच-पाना हो तो कोई भी गाड़ी सामने हो, चुटकी बजा के ठीक कर देंगे। खाना खत्म हुआ। बाबू उठे और हाथ धोने वॉश बेसिन के पास गए। नल खोलने में दिक्कत हुई। पास खड़े बैरे ने मदद की।
वो हार गए। बढ़ती उम्र से हार गए!

वक्त ने शह दी, बेटे ने मात। गहरी साँस ली बाबू ने। नये छोकरों पर काम छोड़ना ही पड़ा। और एक वक्त आया जब न चाहते हुए भी घर बैठना पड़ा। अब उनकी कलाइयों में वह दम-खम कहाँ? आँखें भी दगाबाजी पर उतारू हैं।
जेब टटोल कर बटुआ निकाला। सत्राह-अठ्ठारह साल का लौंडा गल्ले पर बैठा था। यह मैनेजर है! कान में डाटें लगाए, गले में रेडियो डाले, पाँव से ठुमका लगा रहा है। मैनेजरी इस तरह होती है! इससे क्या सम्हलेगा धंधा! छह महीने में सब डुबो देगा।
''पैंतीस रुपये।'' बैरे ने चिल्ला कर कहा।
लौंडेनुमा मैनेजर ने कानों से डाटें निकाली।
''क्या? कितना हुआ।''
''तीस रुपये।'' मैनेजर साहब बोले और फिर डाटें लगाने में मशगूल हो गए।

बाबू ने तीस रुपये काउंटर पर रख दिए। उन्हें मालूम था बैरा उनके पीछे-पीछे आएगा। लौंडा मैनेजर डाटें लगाए पैर से ठुमका लगा रहा था, आँखें भी बंद कर ली। वाह! क्या कहने।
''दो रुपये मुझे दो!'' गली के मुहाने पर बैरे ने उन्हें पकड़ लिया।
''जरा शर्म कर। जिस थाली में खाता है उसी में छेद करता है?''
बैरा कंधे झटक, नामालूम सा सलाम झाड़, चला गया।
जाने क्या सोच बाबू मुड़ गए। वापिस ढाबे पर पहुँचे।
लौंडे मैनेजर का कंधा पकड़ जरा सा हिलाया।
डाटें निकाल लौंडा बोला- ''हाँ... जी!''
''आपसे काम है जरा ...उधर बड़ी सड़क तक चलिए।''
लौंडा सकते में आ गया। बुजुर्गों का खौफ है इसके दिल पर! बाबू ने सोचा!
ढाबे से जरा दूर हटते ही बाबू खड़े हो गए।
''मैं आपके ढाबे में नौकरी करना चाहता हूँ।''
''नौकरी!' लौंडे ने सिर से पाँव तक उन्हें देखा। सत्तर के आस-पास होंगे! पढ़ा-लिखा बंदा लगता है। ढाबे में क्या करेगा।
''आप ढाबे में क्या काम करेंगे!'' लौंडा हैरान था।
''मैनेजर का काम। माफ करना ...आपको ढाबा चलाना नहीं आता। एक हफ्ते के लिए मुझे मैनेजरी देकर देखो। गल्ला दुगना न कर दूँ तो कहना। तनखा वगैरह मत देना...
''बस! एक वक्त दो रोटी...'' न जाने क्यों उनका गला भर आया।
लौंडे ने उनके काँपते हाथ पकड़ लिए।
''ओ जी! दो रोटी दी कोई गल नईं है! आप आओ... पर मैनेजरी...।'' लौंडा परेशान। क्या कहे इस बूढ़े से।
''आप एक हफ्ते देकर देखो तो सही!'' फिर गला रूँध गया।
''मैं मानदा हाँ मैंनू ढाबा चलाण दा कोई शौक नई! साडे नाल तो धोक्का हो गया। वड्डे भ्रावाँ ने दुकानाँ दा बिजनेस लै लिया, मैंनू फड़ा दित्ता ऐ ढाबा। ...दारजी।...'' अब लौंडा चुप था।
''कोई बात नहीं। मैं आपको बड़ी सड़क की दुकान तक पहुँचाऊँगा!''
''ठीक है! आ जाओ तुसी...'' लौंडा लौट चला। कानों में डाटें फिट करता...।

बाबू दिन भर जबानी जमा खर्च बैठाते रहे। ढाबा बहुत अच्छी जगह है। पर रखरखाव एक दम थर्ड क्लास है। वहीं गली में बड़े-बड़े भगौनों में दाल-चावल-चने वगैरह भीगते रहते हैं सारी सब्जियाँ भी वहीं छीली-काटी जाती हैं। गंदगी फैली रहती है। ढंग का कस्टमर वहाँ आना नहीं चाहेगा। खाना अच्छा है, माहौल खराब है। अच्छा कुक इसलिए टिका हुआ है कि काम कम है और ऊपरी आमदनी ज्यादा है? सौ का माल बिकता है तो लौंडे की जेब में कुल सत्तर रुपये जाते हैं। पचास लागत के निकाल दो तो कुल बीस रुपये का मुनाफा।
आज उनकी थाली वैसी ही ढकी रखी है। किसी ने नहीं पूछा क्या बात है। खाना क्यों नहीं खाया!
दूसरे दिन फिर वही थाली। वही बर्फीली पनीली दाल। वो तैयार होकर निकल पड़े।
ढाबे पर जाने से पहले दो कार्बन और एक नोट बुक खरीदी। ढाबे के अंदर ही एक मेज पर डट गए बाबू।
''आर्डर पहले मेरे पास लाओ।'' वो आर्डर लिखते, हाथोंहाथ कीमत लिख, टोटल भी कर देते और दस परसेंट सर्विस भी। पहले ही दिन बैरों में तनाव बढ़ गया।
बाबू ने अपने असली तेवर दिखाए।
''चुपचाप अपना काम करो। धंधे में मुनाफा होगा तो सबका फायदा होगा। ...जरा सबर करो।''

यहाँ दफ्तर बंद होते ही धंधा भी मंदा पड़ जाता है। रात नौ बजते-बजते सड़कें सूनी, गलियाँ खाली!
आज गल्ला डेढ़ गुना था।
लौंडा हक्का-बक्का रह गया। एक दिन में डेढ़ गुना गल्ला। यह कैसे हो गया।
''कुछ नहीं जी! सब तरफ नजर रखनी पड़ती है। आज सर्विस टाइट की। जल्दी-जल्दी सर्व करो। कस्टमर बाहर खड़ा इंतजार क्यों करें। सब अपने काम से इधर आते हैं। उन्हें भी जल्दी रहती है। जिन्हें ज्यादा जल्दी थी, उन्हें 'पैक लंच' दे दिया। ज्यादा कस्टमर, ज्यादा गल्ला! मानी हुई बात है।''
''खाना कम नहीं पड़ा।''
''नहीं जी। आज तो निबट गया किसी तरह। शंकर से कहिए कल के लिए ठीक अंदाज से भिगोए।'' नहीं बताया बाबू ने कि खाना रोज ही इतना बनता है। बैरे और कुक प्राइवेट सप्लाई करते हैं, घर ले जाते हैं।
''आपने रोटी नहीं खायी?''
''शंकर'', उन्होंने सीधे कुक को आवाज लगाई। ''मेरा खाना पैक करवा दो। घर जाकर खाऊँगा।''
मैनेजर का रौब चलना चाहिए।
क्या उनके देर से घर पहुँचने पर कोई परेशान था?
नहीं! सब टी.वी. के सामने थे।
हाँ ...आहट सुनकर बेटा आया।
''कहाँ गए थे आप?''
''कहीं नहीं।'' बाबू ने फूला-फूला थैला मेज पर रखा।
''इसमें क्या है?'' बेटा अचंभे में था।
''खाना है! मैंने नौकरी कर ली है। मैनेजरी की।''
बिना आवाज दिए बहू और बच्चे आ गए।
बिना कहे थैला भी खुल गया। पनीर बटर मसाला और दाल-मक्खनी देख बच्चे प्लेट लाने दौड़े।
''ठहरो।'' बाबू कड़के! उन्होंने सुबह की रखी थाली पर ढकी हुई थाली उठाई और उसमें अपने लिए खाना निकाल लिया। पनीर बटर मसाला, दाल मक्खनी, मिस्सी रोटी, रायता और सलाद।
''बाकी ये सब उधर ले जाओ।'' अपना टी.वी. चला, वो स्वाद ले-लेकर खाना खाने लगे।
किसी ने नहीं कहा इस उम्र में क्यों नौकरी करते हो। हाँ! सुबह का खाना कमरे में आना बंद हो गया।

''बाबू तो वहीं खाएँगे।'' बहू ने सुना कर कहा। सुबह चाय-नाश्ता ढंग का मिलने लगा। शायद रात को आने वाले बढ़िया खाने के एवज में।
हफ्ते भर में ढाबे की काया-पलट कर दी उन्होंने। कबाड़ी के यहाँ से पुराना तिरपाल ले आए। उसे टाँग, रसोई का एक हिस्सा अलग कर दिया। अब सब्जी वगैरह उसके पीछे छीलो-काटो! दाल वगैरह के भगोने भी उसके पीछे! दीवार के सहारे-सहारे फोल्डिंग काउंटर लगवा दिया। जिन्हें ज्यादा जल्दी है, खड़े-खड़े खा लें। ओवर टाइम देकर रातों-रात रंग-रोगन करवाया। सुबह आने-जाने वालों ने देखा, धुएँ से स्याह पड़े ''जय जगदंबे ढाबा'' की जगह ''जय जगदंबे कैटरिंग सर्विसेज'' का बोर्ड लटका था। दीवार पर सूचना लिखी थी, ''यहाँ ताजा खाना मिलता है। घर/दफ्तर पहुँचाने की व्यवस्था है। शादी-ब्याह-जन्मदिन पर सेवा का मौका दें।''
यह लो जी। ढाबा कैटरिंग सर्विस बन गया।
पर इस बार लौंडा भिनभिनाया।
''साडे बंदे दफ़तराँ -घराँ दे विच खाण देण जाणगे तो इत्थे कम्म कौन करेगा। होर...ऐ बिसलरी दी बोतलाँ, प्लास्टिक दे डिब्बे-डुब्बे...'' लौंडा परेशान था।
''देखिए... हमारा असली मुनाफा ज्यादा खाना बिकने से होता है। ज्यादा खाना, ज्यादा मुनाफा। दफ्तरों में सप्लाई करने के लिए दिहाड़ी पर अलग बंदे रख लेंगे। आधा मुनाफा आप बैंक में डालो, आधा वापिस धंधे में लगाओ। मुनाफा चौगुना हो जाएगा। हाँ... तो बंदे बढ़ा देंगे। और ये बिसलरी की बोतलें, कप प्लेट। ये सब हम बिल में लगा देंगे कटलरी, चार्जेज। बिसलरी की हर बोतल पर हम दो रुपये कमाते हैं। थोक के भाव आठ में लाते हैं, कस्टमर को दस की देते हैं। जाड़े के दिन है, ठंडा रखने की भी झंझट नहीं।''
''दफ़तराँ विच पाणी दे कूलर नै... बोतलाँ दी की लोड...'' लौंडा अब भी अनमना था।
पर चौथे दिन से जब धड़ाधड़ आर्डर आने शुरू हुए तो लौंडा डाटें लगा, गाने सुनना भूल गया। गल्ले पर बैठा 'ओए बल्ले... बल्ले' करता रहा।
मान गया बाबू को
''आप जी ...ग्रेट हो।''

वो बैरों की यूनीफार्म के लिए तुरंत राजी हो गया। और थोड़ी हील-हुज्जत के बाद तनखा का नया फार्मूला भी मान गया।
''जो बंदा यहाँ साल भर से है उसे आधे पैसे की पत्तीदारी और कुक को एक पैसे की।
''मतलब?''
''मतलब... अगर रात तक बीस हजार का गल्ला बना तो बैरे को सौ रुपये और कुक को दो सौ? इस तरह हर बंदे को 'इंसेन्टिव' रहेगा धंधा बढ़े। उधर ...काम से गायब रहा तो सौ रुपये रोज का नुकसान।...''
लौंडा हिचकिचाया
''दे दीजिए! कह रहा हूँ न... आधा मुनाफा वापिस इन्वेस्ट कीजिए। बीस हजार में दस हजार कच्चा माल, तनखा-बोनस, मेन्टीनेन्स में गए, तब भी दस हजार रोज के हिसाब से तीन लाख महीने के बने। यह तब, जब गाड़ी बीस पर ही अटकी रहे।''
पर नहीं अटकी बाबू की गाड़ी। दो सौ किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ पड़ी।
शादी-ब्याह और बर्थ-डे पार्टी के आर्डर भी आने लगे। साँस लेना मुश्किल। लोग घर पर भी आने लगे।
''शादी है- डिनर का आर्डर है। आजकल घर पर खाना कौन बनाना चाहता है। पिछली गली में मकान है। करीब पाँच-छह दिन तीस लोगों का खाना सप्लाई कर दीजिए।''
मीनू डिस्कस होता...
बाबू किताबों की दुकान से 'कुकरी बुक्स' ढूँढ़-ढूँढ़ कर खरीद लाए और शंकर के साथ बैठकर डिस्कस करने लगे। जब धंधा करना है जो बाजार में आई नई गाड़ी-नहीं! गाड़ी नहीं- नई चाल को समझना है।
धड़ल्ले से चल निकली ''जय जगदंबे कैटरिंग सर्विस।'' क्यों न चलती। स्टाफ वरदी और बोनस से खुश। वो खुद भी आर्डर लेने में मेहनत करते। ज्यादा काम, ज्यादा बोनस।
लौंडा हक्का-बक्का। बस, एक ही बात...
''तुसी ग्रेट हो जी''

''आज बाबूजी ने खाना नहीं खाया।'' शंकर ने चने भिगोते हुए बताया।
''कि होया बाबूजी! खाणा क्यूँ नई खाया।''
''ऐसे ही... कोई खास बात नहीं है। बस, भूख ही नहीं लगी।''
''ओए शंकर, छोटे कुकर विच खिचड़ी बना दे। छेत्ती कर।''
जब तक वो हिसाब-किताब करें। गरम-गरम खिचड़ी बन कर आ गई।
''ओए, मक्खन पा जरा। होर पापड़ वी ला।''
इतनी जरा सी बात!... उनकी आँखें भर आई।
महीने भर बाद बड़ी सड़क के एसटीडी बूथ पर 'फोर सेल' बोर्ड लटका दिखा बाबू को। अंदर गए। बातचीत की। तब लौंडे को पकड़ा।
''आप बिल्कुल दिलचस्पी मत दिखाना। यही कहते रहना बाबूजी कहाँ फँसा रहे हो। मोबाइल के जमाने में कौन एसटीडी करने आता है।''
''जदों एसटीडी चलदा ही नई तो मैं क्यों खरीदूँ?''
''कौन साला एसटीडी बूथ खरीद रहा है? हम बड़ी सड़क पर जगह खरीद रहे हैं। आप वहाँ साइबर कैफे डालना। आजकल साइ...''
लौंडा उछल पड़ा।
''साइबर कैफे। ओ जी तुसी ग्रेट हो। कम्प्यूटर दा कम्म मैं नू आँदा नै! नेट सरफिंग वी जाणदा हूँ। चलो ...अभी चलो।''
''बात याद रहे! आपको ना ना ही करना है। दिलचस्पी दिखाई, उसने दाम बढ़ाए।''
लौंडा अच्छी एक्टिंग कर गया।
पास की जमा पूँजी, ढाबे की कमाई और बैंक लोन लेकर साइबर कैफे खुल गया।
लौंडा ए सी कैफे में बैठने लगा। कैटरिंग सर्विस पूरी तरह बाबू के हाथ में।

उन्होंने 'चाइनीज फूड' का काउंटर और खोल दिया। क्या सचमुच उनके हाथ में जादू था कि मिट्टी को छू दे तो सोना बन जाए। इधर बरसों से तो वो खुद मिट्टी का ढूह बने पड़े थे।
अब यह सब कैसे हजम हो रहा है उन्हें। ये मिस्सी रोटियाँ। पनीर बटर मसाला और पेशावरी चने। कुछ तो ताजा गर्म खाने का कमाल था, और कुछ नियमित दिनचर्या और मेहनत का।
नए साल पर लौंडा ज़िद करके साथ ले गया। रेडीमेड कपड़े की दुकान से सूट-कमीज-स्वेटर, सब दिलवाए। सूट खरीदने का उनका मन न था। बेकार का खर्च।
''ओ जी मनीजर साब... थ्वानू मनीजर जंचना वी चाइंदा है कि नी?''
''दूसरे दिन जब लक-दक कपड़े पहन कर चले तो खुद को ही न पहचान पाए। जमाने ने जो किया सो किया। उन्होंने खुद भी कोई कसर न छोड़ी थी। ये क्या हाल बना रखा था अपना!''
अब रास्ते में लोग उन्हें नमस्ते करते हैं। बेकार नौजवान आगे-पीछे घूमते हैं ''बाबूजी कहीं हमारा भी जुगाड़ बैठा दीजिए!'' आस-पास के दुकानदार धंधे के बारे में उनसे सलाह माँगते हैं। कई जगह से मैनेजरी के ऑफर आ चुके हैं।
बुझते दिए में किसी ने तेल डाल दिया है। मकर संक्रांति पर एक महीने की तनखा और बोनस पन्द्रह हजार रुपये।
क्या करेंगे इस रुपये का।

जरूरत रुपये की कतई नहीं थी। जरूरत थी अपनी पहचान की, जरा से प्यार और सम्मान की। इस अहसास की वो इंसान है, रद्दी का ढेर नहीं!
घर पहुँचकर बेटे को आवाज दी, बहू बिना आवाज दिए ही आ गई।
बाबू ने दस हजार रुपये मेज पर रख दिए। ''अपने और बच्चों के कपड़े वगैरह बनवाओ। जो चाहे करो- तुम सबके लिए ही है यह सब।''
बहूजी ने झुककर ससुर के चरण छू लिए।
दूसरे दिन घर लौटे तो अपने कमरे का नक्शा देख, ठगे से खड़े रह गये।
नए पर्दे, नई चादर, नया नर्म गुदगुदा गद्दा-तकिया। नई नकोर फूली-फूली रजाई। और तो और लकड़ी की पुरानी गंदी मेज पर भी नया मेजपोश था। कमरे की सफाई भी हुई थी। ...कोई खुशबू छिड़की गई थी। पुरानेपन की बोसीदा चीकट बदबू गायब थी।
उनकी मुट्ठियाँ कस गई। जैसे कभी पेंच-पाने पर कसती थीं। पैसा... पैसा...पैसा
इक्कीसवीं सदी की गाड़ी इसी पेंच-पाने के दम पर 'पानी की तरह' चलती है।

१२ जनवरी २०१५

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