समय
बहता हुआ
- दुर्गा प्रसाद
शुक्ला
सुबह छह के अंक से चलकर
जब घड़ी का छोटा काँटा किसी कोल्हू के बैल की तरह शाम
को पुन: छह के अंक पर पहुँचता है और जब धरती का यह
हिस्सा सूरज की ओर अपनी पीठ करने लगता है, पश्चिमी
क्षितिज के तट पर अंधकार की काली लहरों की मौजूदगी
नज़र आने लगती है तो अक्सर एक शेर - शायद मीर का है -
याद आ जाता है -
सुबह होती है, शाम होती
है,
उम्र यों ही तमाम होती है!
ऐसी ही एक शाम, जो
सुनसान तट पर रेत में धँसी नौका की तरह उदास लग रही
थी, मन की व्यथा कुछ इस तरह हो उठी थी:
शाम हुई, सूरज गया
क्षितिज पार परदेस
जाने क्या, कल लाएगा, सुख, दुख-पीड़ा-क्लेश?
शाम होती है तो लगता
है, जीवन का एक शिखर रूपी दिन और ढल गया, ध्वस्त हो
गया, जीवन के रहट का एक डोल फिर रीत गया!
दिन ढलता है, रात आती
है, और फिर सुबह! कैलेंडर के मास विशेष की एक तारीख और
आगे सरक जाती है, फिर तीस या इकत्तीस की गिनती के बाद
मास पूरा हो जाता है, कैलेंडर का पृष्ठ - सुंदर चित्र
हुआ तो पीछे कर दिया जाता है, अनाकर्षक हुआ तो फाड़
दिया जाता है और एक दिन वह पूरा कैलेंडर ही निरर्थक हो
जाता है। तथाकथित नए वर्ष के पहले दिन एक दूसरा, नया
कैलेंडर उसकी जगह ले लेता है। फिर वही जनवरी, वही पहली
तारीख - बधाइयों की औपचारिकता - कभी-कभी कुछ इस भाव से
कि 'हम भी तो पड़े हैं राहों में!'
एक सज्जन थे, जब तक
पद पर मैं रहा, पहली जनवरी को सुबह ही उनका फ़ोन आ
जाता - जनाब शुक्ला साहब, नए साल की मुबारकबाद! उत्तर
देता - 'आपको भी!' जानता था, उन्हें और भी कई जगह
मुबारकबाद की सौग़ात देनी है, अत: 'अच्छा' कहकर फ़ोन
रख देता- उन्हें एक असमंजस से बचा लेता! इधर कई वर्षों
से न पहली जनवरी को न होली-दिवाली को उनकी मुबारकबाद
मिलती है! मैं सेवानिवृत्त जो हो गया हूँ। लोग कहते
हैं, यह दुनियादारी है पर मुझे आज तक नए वर्ष की पहली
तारीख कुछ विशेष नहीं लगी। सब कुछ तो पहले जैसा ही
होता है!
जीवन वैसे ही चलता
रहता है, कोल्हू के बैल की तरह! सोचता हूँ, काश कोल्हू
के बैल की तरह मेरी आँख पर भी पट्टी बँधी होती, तब यह
भान ही नहीं होता कि कितना सफ़र किया। ज़िंदगी का, दिन
का कौन-सा पहर है - सुबह, दोपहर या शाम! यह विचार आता
है कि प्रबुद्धता चिंतन के आँगन में पैर जितने ज़्यादा
पसारती है, सरल-सहज ज़िंदगी में वह उतना ही अधिक
अतिक्रमण करने लगती है। अतिक्रमण सदा दुखदायी होता है।
बुद्धि को समय का भान और सामाजिक सरोकारों के प्रति
ओढ़ी गई प्रतिबद्धता की, मन की, मध्यमवर्गीय विवशता!
सिवाय व्यथित होने के मिलता भी क्या है!
आज से बीस बरस पहले
इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ को देख पाना, एक अनिश्चिय की
भावना से भरा होता था। इच्छा बलवती होती जाती थी कि
इक्कीसवीं सदी में ज़रूर कुछ वर्ष रहा जाए - बीसवीं
सदी में चाँद पर मनुष्य का उतरना सबमें एक नए उत्साह
और आत्मविश्वास की सृष्टि कर गया था। इक्कीसवीं सदी के
शुरुआती दौर में मंगल पर मनुष्य के उतरने की योजनाएँ
पढ़-पढ़कर प्रौढ़ मन बच्चों जैसा हो जाता था। इक्कसवीं
सदी सबके लिए सुख-समृद्धि का सिंहद्वार प्रतीत होती
थी। उन दिनों बीस वर्ष बीस युग लगा करते थे। अब जब
2000 ईस्वी शुरू हो गई है
तो मेले में घूम रहे साधनहीन पिता के बच्चे-जैसा मन हो
गया है। नई शती की शुरुआत - नई सहस्राब्दी का शुभारंभ!
पर यह खुशी दुनिया के साधन-संपन्न वर्ग तक ही, जो
समूची जनसंख्या का बहुत थोड़ा हिस्सा है, सीमित है।
शेष हिस्से के कुछ लोगों के लिए यह सारा जश्न एक
'विंडो शापिंग' ही सिद्ध हो रहा है। अधिकांश लोगों के
लिए जो ग़रीबी की रेखा के नीचे या उससे कुछ ऊपर जी रहे
हैं, यह कोई मायने नहीं रखता। समय उनके लिए जैसे स्थिर
हो गया है। और सच पूछा जाए तो समय स्थिर ही है।
'पैरोडॉक्स ऑफ टाइम' में ए.डाब्सन ने सही ही लिखा है:
आप कहते हैं, समय
जाता है? ओह नहीं!
समय तो बना रहता है, हम चले जाते हैं
क्या समय को अनुपल,
विपल, पल या सेकेंड, मिनट, घंटों और फिर दिवस, सप्ताह,
मास, वर्ष युग, शताब्दी, सहस्राब्दी में बाँटा जा सकता
है!
और इस विभाजन में
पेच-दर-पेच ईस्वी के अलावा और भी सन है। विक्रम संवत,
शक संवत, हिजरी, और फिर हमारे विभिन्न प्रदेशों में
माने जाने वाले अनेक नव वर्ष! एक वर्ष में कितने नव
वर्ष!
समय की सदियों पुरानी
अवधारणा से हम सभी परिचित हैं लेकिन उसका दार्शनिक या
वैज्ञानिक विवेचन विरोधाभासी चिंतन का सूत्रपात करता
है। विज्ञान विशेषकर सापेक्षवाद किसी विशेष समयावधि को
अंतरिक्ष की दूरी के समान नापता है। वह उसे 'चतुर्थ
आयाम' कहता है। लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई शेष तीन आयाम है।
पर कुछ दार्शनिक इस अवधारणा से असहमत है। उनका कहना
है, चतुर्थ आयाम में इस तरह अग्रसर होने का अर्थ होगा
कि भविष्य पूर्व निर्धारित है और 'स्वतंत्र इच्छा'
द्वारा उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता।
समय तो समय है - काल!
वेदांत के परब्रह्म की तरह सर्वव्यापी, आदि-अंत से
शून्य। विष्णु पुराण में तो काल को ब्रह्म का रूप ही
माना गया है। हारीत के अनुसार, काल तीन प्रकार का
जानना चाहिए - अतीत(भूत), आगत(भविष्य) और वर्तमान! काल
सर्वत्र व्याप्त है। वह लोक की, जगत की, विश्व की गणना
करता है, इसीलिए काल कहलाता है। वह परमेश्वर है। उसका
अतिक्रमण कोई नहीं कर सकता।
लेकिन जिस तरह हमने
परब्रह्म को निराकार, सर्वव्यापी मानकर उसे अपनी
मानसिक संतुष्टि के लिए तरह-तरह के विग्रहों में ढाल
लिया है, उसी तरह शायद हमने समय को, काल को भी पल से
लेकर शती तक में तो विभाजित कर दिया है।
कभी-कभी सोचता हूँ,
यदि समय दिवस, मास, वर्ष में विभाजित न होता तो समय के
मानदंड के कारण अपनी उम्र के बढ़ते (दरअसल घटते!)
वर्षों की अनुभूति ही नहीं होती। अश्वत्थ के फल की तरह
जीवन की कोंपल फूटती, बढ़ती, हरीतिमा लिए हवा से
अठखेलियाँ करती और फिर धीरे-धीरे पीत वसन पहनकर एक दिन
डाल से बिछुड़ जाती।
अश्वत्थ की इन्हीं
पत्तियों ने तपस्यारत सिद्धार्थ को बुद्ध बना दिया और
निरगुनिया कबीर ने सदियों बाद कहा:
उड़ जाएगा
हंस अकेला!
जग दर्शन का मेला,
जइसे पात गिरे तरुवर के
मिलना नहीं दुहेला,
ना जानूँ कब किधर गिरेगा
लग्या पवन का मेला!
कुमार गंधर्व द्वारा
गाई गई इन पंक्तियों को जब भी सुनता हूँ, मन वीतरागी
हो जाती है। पर यह सब क्षणिक होता है- श्मशान-वैराग्य
की तरह वर्षों पूर्व पहली बार उस भजन को सुना था तो
रोमांचित हो उठा था- वीतराग ने मेरी छगुनिया पकड़ ली
थी, पर पारिवारिक दायित्व, सेवा-निवृत्ति की ओर ले
जाती हर तारीख, उम्र का एक अध्याय समाप्त होने की
भावना और फिर प्रतीक्षा में बाट जोहते अधूरे काम- ये
सब उस वीतरागी मन को सांसारिक बनाने के लिए पर्याप्त
थे। यदि समय को वर्षों के फंदों में न बाँधा जाता और
साँस के साथ-साथ स्वास्थ्य भी संग-संग चलता तो शायद
काम करता रहता। लेकिन मैं यह भी जानता और मानता हूँ कि
यह एक नितांत वैयक्तिक ही नहीं, असामाजिक सोच भी है,
यदि पुराने पत्ते न झड़ें, तो नई कोंपलें कहाँ से आएँ?
ऐसे क्षण में समय का विभाजन ज़रूरी ही नहीं, अनिवार्य
भी लगता है।
लेकिन कब, कैसे और
क्यों, मनुष्य ने अगोचर, अनुभूत भी न किए जा सकने वाले
समय को सूक्ष्म खंड में बाँटकर उसे पल के सहस्रांश से
लेकर सहस्राब्दी तक में किस खूबसूरती से तराश दिया है!
कितनी अवधि ली होगी इस सामूहिक उपक्रम ने! कितना
प्रबुद्ध चिंतन किया होगा, प्राचीन खगोल शास्त्रियों
और वैज्ञानिकों ने!
भास्कराचार्य ने लिखा
है - अनाद्यनन्त: काल:।
काल का आद्यंत निरूपण
नहीं हो सकता। उसे भूचक्र का परिधिनिष्ठ अनिर्वचनीय
बिंदुजन्य स्पंदन भी कहा गया है। काल संबंधी यह चिंतन
अध्यात्मिकता के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है - आम
आदमी तो शायद सोचता भी नहीं कि समय की अवधारणा कब बनी,
कैसे प्रहर, दिवस, वर्ष का सिद्धांत स्वीकारा गया, वह
तो कलाई पर बँधी घड़ी पर नज़र डालता है और समय जान
जाता है। दीवार पर टँगे कैलेंडर उसे दिवस-नाम और मास
का बोध करा देते हैं। यही नहीं, वह अपनी सुविधा के लिए
घड़ी के समय को आगे-पीछे भी कर लेता है। द्वितीय
विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों ने घड़ियों का समय ही
एक घंटा आगे बढ़ा दिया था। वर्षों तक वही समय मानक रहा
और दिनचर्या भी उसी तरह ढल गई। घड़ियों के युग में समय
के साथ ऐसी मनमानी चल सकी लेकिन जब मनुष्य ने सूर्य,
चंद्रमा और तारों की सहायता से समय-निर्धारण करना सीखा
होगा, तब ऐसी सुविधा नहीं थी।
आकाश के चरागाह में
सदियों से गौओं के झुंड़ों की तरह उपस्थित तारों ने
मनुष्य को, समय को गतिवान बनाने की प्रेरणा दी होगी।
उसने कुछ तारों के समूह चुने, उन्हें नाम दिए, फिर इन
समूहों में मेष, वृष आदि आकृतियों की कल्पना की।
सत्ताइस नक्षत्रों से बारह राशियाँ बनाई और प्रतीत
होने वाली आकृति के नाम पर उनका नामकरण किया। इसी के
साथ विकास का सिलसिला चल पड़ा।
ये तारे शायद सृष्टि
के आरंभ से ही हैं - वे साक्षी हैं मनुष्य के
उत्थान-पतन के। मुझे तो कुछ तारे बालसखा की तरह लगते
हैं - यों कि बचपन से उन्हें देखता आया हूँ - सप्तर्षि
और एक सीध से खड़े, तीन तारे जिनके अलग-अलग नाम हैं-
बचपन में माँ कहती थी कि हिरण, हिरणा और हिरणी है - दो
भाई और एक बहन!
ये तीनों तारे मुझे
बेहद आत्मीय लगते हैं - रक्त-संबंधियों या सच्चे
मित्रों की तरह। वे आत्मविश्वास से भर देते हैं -
आश्वस्त करते हैं - 'घबराना कैसा -हम तो हैं!'
कई वर्षों पहले
द्वारका के एक निर्जन समुद्र तट पर एक बेहद आत्मीय
फ़ोटोग्राफर मित्र अरनेजा साहब के साथ था। चारों ओर
गहरा, काला अंधियारा! शायद कृष्ण पक्ष की रात थी!
समुद्र का गर्जन-तर्जन ही सुनाई पड़ रहा था! दूर
लाइटहाउस की रोशनी किसी भयावह प्रेतात्मा-सी, चमगादड़
की तरह चक्कर काटती लग रही थी। मन आतंकित हो उठा था।
सहसा आकाश पर नज़र गई। तारों की भीड़ में हिरण, हिरणा
सदी की तरह साथ-साथ खड़े थे - एक कतार में। अपरिचित
जगह और निर्जनता के कारण भयभीत मन पल भर में आश्वस्त
हो गया था।
इन तारों ने मनुष्य
को कितने चिंतन, कितनी साहसिक शोध-यात्राओं के लिए
प्रेरित किया, कैसे मनुष्य ने घड़ी, पल, चंद्रमास और
सौर-मास, काल, महाकाल की कल्पना की, कितने निरंतर,
पीढ़ियों-दर-पीढ़ियों प्रयोग किए, यह सब पढ़ा आदरणीय
पं.काशीराम शर्मा की एक कृति 'भारतीय वांग्मय पर
दृष्टि' में। द्रविड़ देश में भक्ति के उदय की चर्चा
करते हुए वह लिखते हैं - द्रविड़ मानव को मध्याह्न के
समय छाया के पूर्ण लोप का अद्भुत दृश्य दिखा। यह
छायालोप न तो कर्क रेखा के उत्तर के देशों में होता, न
मकर रेखा के दक्षिण में स्थित देश में।
द्रविड़ मानव ने
उत्तर में यह सीमा ढूँढ़ ली पर दक्षिण में सिंहल द्वीप
के आगे समुद्र की अगाध जलराशि थी। समुद्र तट के निवासी
द्रविड़ मानव ने नाव का आविष्कार करके दक्षिण की सीमा
भी खोज ली। कुछ साहसी लोग तारों की सहायता से रात में
भी सफ़र करने लगे और कुछ मैदानों में शोधरत रहे।
समय-समय पर दोनों अर्थात मैदानवासी और जल प्रवासी अपने
निष्कर्षों की तुलना करते।
स्थल पर बड़े-बड़े
अक्षवाट मैदान बनाए गए। उनमें काठ के तीन खोखले गोले,
जो सूर्य, चंद्र और धरती के प्रतीक थे, रखे गए। पृथ्वी
के गोलक को एक विशेष यंत्र से इस प्रकार घुमाया जाता
कि एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक उसका एक चक्र
पूरा हो जाता। फिर उस समय का विभाजन किया जाता - विशेष
माप की हंडिया या घटी की सहायता से। उसमें एक विशेष
माप का छेद करके पानी में छोड़ दिया जाता। जितनी अवधि
में यह घटी भर जाती, वह घड़ी कहलाती। फिर उस अवधि का
विभाजन करने के लिए साठ छोटे-छोटे घड़े लेकर घटी का
पानी उन में बराबर-बराबर डाला जाता। उनके अवरुद्ध
छिद्रों को एक-एक करके खोला जाता। इस तरह पल का
निर्धारण हुआ और फिर इसी क्रम से पल के साठवें अंश को
विपल और उसके साठवें अंश को अनुपल माना गया। इस तरह
समय का सूक्ष्म विभाजन किया गया।
अंग्रेज़ी विश्वकोश
'सनडायल' को ही प्रारंभिक घड़ियाँ मानते हैं। इसमें एक
लकड़ी की छाया की सहायता से समय विभाजन किया गया। अरब
के रेगिस्तान में तो बहु आधुनिक घड़ियों की बजाय
सदियों से चले आ रहे इसी तरीके से और रात को तारों की
सहायता से समय मापते हैं। यंत्र की घड़ियों पर उनका
विश्वास नहीं! यंत्र के साथ तो अपनी सुविधा के लिए
मनमानी की जा सकती है, पर सूर्य, चंद्र और तारों से
मनमानी संभव नहीं। ख़ैर! 'सन डायल' के बाद बनी पेंडुलम
घड़ियाँ। यह गेलीलियो के इस सिद्धांत पर आधारित था कि
पेंडुलम के डुलने की गति की अवधि सदैव एक-सी होती है।
इसी सिद्धांत के आधार पर ह्यूजन ने 1656 में पेंडुलम
क्लाक बनाई। लगभग पौने तीन सौ वर्षों बाद 1929 में
क्वार्ज घड़ियाँ बनीं। और फिर आण्विक घड़ियाँ।
समय का यह काल्पनिक
विभाजन आज कितना यथार्थ और उपयोगी हो गया है, जीवन के
हर क्षेत्र में आज समय-सूचक घड़ियों के बिना जीवन की
कल्पना ही नहीं की जा सकती। भले मैं अवसाद के क्षणों
में समय-विभाजन का रोना रोता रहूँ, समय के विभाजन की
शिकायत हास्यास्पद ही है! पर भावुक को छूट तो मिलनी ही
चाहिए। हर समय वैज्ञानिक दृष्टि से जीवन के क्षण-क्षण
को देखना, कार्य-कलापों को इसकी कसौटी पर कसना,
अतिरंजना लगती है। कवि, लेखक, दार्शनिक एक दूसरी
दृष्टि भी लिए होते हैं। चाँद पर नील आर्मस्ट्रांग के
पहुँचने के बाद भी चाँद में चरखा कातती बुढ़िया को ही
देखना मन को हल्का करता है। इसी तरह समय काल भी है।
समय को हम कालदंड कह लेते हैं - जो सबके साथ बराबर
न्याय करता है। वैशेषिक दर्शन के दार्शनिक ने काल को
नौ द्रव्यों में छठा स्थान दिया है - वही सभी क्रिया,
गति एवं परिवर्तन को उत्पन्न करने वाली शक्ति के रूप
में प्रयुक्त होता है। और इस तरह वह दो समयों के अंतर
को प्रकट करने का आधार है। तंत्र मत अंतरिक्ष में काल
की अवस्थिति मानता है। इसी काल से जरा की उत्पत्ति
होती है। वाल्तेयर ने एक जगह लिखा है - हर मनुष्य अपने
समय की सृष्टि है, बहुत कम लोग, होते हैं, जो अपने समय
के विचारों से ऊपर उठ पाते हैं।
अपने समय के विचारों
से ऊपर उठना, सबके बस की बात नहीं। लेकिन फिर यह भी
सोचता हूँ कि जो एक के बस की बात है, वह दूसरे के बस
की क्यों नहीं! केवल इकबाल की यह बात याद रखना ज़रूरी
है कि -
खुदी को कर बुलंद
इतना कि हर तक़दीर से पहले
खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है!
अपनी तरुणाई के बेहद
संघर्ष भरे दिनों में मैंने स्वयं से ही कहा था:
समय की बाँसुरी है,
परिस्थितियों के बने हैं छिद्र
रख दो अंगुलियाँ
और फूँक दो तुम
राग जीवन का
समय की बाँसुरी है,
हाथ सब कुछ है तुम्हारे।
यही श्रेयस्कर भी है
कि समय को बाँसुरी समझा जाए। उस पर मनचाहा राग बजाना
तो हमारे अधिकार में हैं! |