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मकर संक्रांति में चलें मंदार
- कुमार कृष्णन
अनेक पौराणिक किंवदंतियों से जूझता मंदार
पर्वत शांत, अविचल खड़ा है। काले पहाड़ पर उकेरी हुई कलाकृतियाँ
सहज ही अतीत में खो जाने को विवश करती हैं। मधुकैटभ का विशाल
चेहरा, जिस पर नजर पड़ते ही कल्पना तेज उड़ान भरने लगती है।
पपहरणी यानी पापहारिणी मैली हो चुकी है, लेकिन पाप का हरण करने
में उसका जल आज भी पूर्ण सक्षम है शायद...। तभी तो हर साल मकर
संक्रांति के दिन उसमें अनगितन डुबकियाँ लगती हैं। लोगों के
रेल-पेल के बीच ‘मधुसूदन’ यानी ‘मधु’ का ‘सूदन’ करने वाले
भगवान विष्णु की रथ यात्रा-बौंसी स्थित मंदिर से मंदार पहाड़
तक। आगे-आगे रथ पर सवार मधुसूदन और पीछे-पीछे उनकी जय बोलती
भीड़। कब से शुरू हुआ यह सिलसिला? दावे के साथ कोई कुछ बताने की
स्थिति में नहीं है फिर भी एक नजर कभी समुद्र का मंथन करनेवाले
मंदार के अतीत-वर्तमान पर। क्योंकि मकर संक्रांति पर लगने वाला
यह बिहार का महत्वपूर्ण मेला है और यह वही क्षेत्र है, जहाँ
‘मधु’ का संहार कर भगवान विष्णु मधुसूदन कहलाए।
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने मधुकैटभ राक्षस को
पराजित कर उसका वध किया और उसे यह कहकर विशाल मंदार के नीचे
दबा दिया कि वह पुनः विश्व को आतंकित न करे। पुराणों के अनुसार
यह लड़ाई लगभग दस हजार साल तक चली थी। दूसरी तरफ महाभारत में
वर्णित है कि समुद्र मंथन में देव और दानवों के पराजय के
प्रतीक के रूप में ही हर साल मकर संक्रांति के अवसर पर यह मेला
लगता है।
इसके विपरीत पापहरणी से जुड़ी किंवदंती के मुताबिक कर्नाटक के
एक कुष्ठपीड़ित चोलवंशीय राजा ने मकर संक्रांति के दिन इस तालाब
में स्नान कर स्वास्थ लाभ किया था और तभी से उसे पापहरणी के
रूप में प्रसिद्धि मिली। इसके पूर्व पापहरणी ‘मनोहर कुंड’ कुंड
के नाम से जानी जाती थी। एक अन्य किंवदंती है कि मौत से पहले
मधुकैटभ ने अपने संहारक भगवान विष्णु से यह वायदा लिया था कि
हर साल मकर संक्रांति के दिन वह उसे दर्शन देने मंदार आया
करेंगे। कहते हैं, भगवान विष्णु ने उसे आश्वस्त किया था। यही
कारण है कि हर साल मधुसूदन भगवान की प्रतिमा को बौंसी स्थित
मंदिर से मंदार पर्वत तक की यात्रा कराई जाती है, जिसमें लाखों
लोग शामिल होते हैं। किंवदंतियों और पौराणिक कथाओं से उपजी यही
आस्था हर साल मकर संक्रांति पर मंदार की गोद हरी करती है।
साल-दर-साल मेले में बढ़ती भीड़ गहरी होती चली जा रही आस्था का
प्रतीक है।
समुद्र मंथन के प्रतीक मंदार पर्वत की हकीकत क्या है? क्या
वास्तव में देवासुर संग्राम में इसे मथानी बनाया गया था? और उस
क्रिया में जिस नाग को रस्सी की तरह प्रयोग में लाया गया था,
पहाड़ पर अंकित लकीरें क्या उसी का साक्ष्य हैं या कि यह पर्वत
एक प्रतीक है आर्य-अनार्य टकराव का? यदि इस पहाड़ से जुड़े सिर्फ
धार्मिक पक्ष को ही स्वीकार करें, तब भी इस सच्चाई की तीव्रता
जरा भी कम नहीं होती। समुद्र मंथन से निकले गरल का पान भगवान
शंकर ने किया। वह भगवान शंकर आज भले ही सर्वत्र पूजनीय हों,
लेकिन समुद्र मंथन तक वे अनार्यों (आसुरों) के देवता के रूप
में ही मान्य थे। यही नहीं, आज भले ही मंदार की भौगोलिक सीमा
में मधुसूदन की जयजयकार लगती हो, समुद्र मंथन के वक्त तक वहाँ
भगवान शिव के ही त्रिशूल चमकते थे। इसका प्रमाण भागवत पुराण
में वर्णित तथ्य में भी है कि मंदरांचल की गोद में देवताओं के
आम्रवृक्ष हैं, जिसमें गिरि शिखर के समान बड़े-बड़े आम फलते हैं।
आमों के फटने से लाल रस बहता है। यह रस अरूणोदा नामक नदी में
परिणत हो जाता है। यह नदी मंदरांचल शिखर से निकलकर अपने जल से
पूर्वी भाग को सींचती है। पार्वती जी की अनुचरी यक्ष पुत्रियाँ
इस जल का सेवन करती हैं। इससे उनके अंगों से ऐसी सुगंध निकलती
है कि उन्हें स्पर्श कर बहने वाली हवा चारों ओर दस-दस योजन तक
सारे देश को सुगंध से भर देती हैं। गौरतलब है कि पार्वती की
मौजूदगी, शिव की उपस्थिति का संकेत देती है।
अगर ऐसा सच था तो फिर मंदार के भूगोल पर वैष्णव मत का परचम
क्यों और कैसे लहराया? यह ऐसा सवाल है, जो तमाम किंवदंतियों,
पौराणिक कथाओं से हटकर गौर करने को मजबूर कर देता है कि मंदार
कहीं अनार्य-आर्य बनाम शैव-वैष्णव मतों के टकराव का प्रतीक तो
नहीं। जहाँ तक भगवान शिव का सवाल है, तो प्रारंभ में वह
अनार्यों के देवता के रूप में ही मान्य थे, जबकि विष्णु आर्यों
के देवता के रूप में। इस प्रकार यह सच्चाई अपनी जगह कायम है कि
सभ्यता के श्रृंगार का श्रेय भले ही आर्यों को ज्ञात हो, उसे
विनाश से बचाने में अनार्यों का त्याग काफी सराहनीय रहा है।
यदि समुद्र मंथन के ही दृष्टांत को लें तो विषपान भगवान शंकर
ने ही किया। किसी अन्य देवता ने वही साहस क्यों नहीं किया?
इसका मतलब है कि विश्व रक्षा ओर मानव कल्याणार्थ वह कदम भी
अनार्यों के प्रतिनिधि देवता शंकर ने उठाया और उसी सरजमीन पर
आगे चलकर आर्य सभ्यता का विकास हुआ। इसका प्रमाण है वैष्णव मत
का प्रचार-प्रसार। मधुकैटभ नामक असुर का संहार कर भगवान विष्णु
मधुसूदन कहलाए, अर्थात मधुकैटभ की मौत के साथ ही मंदार पर शैव
मत का प्रभाव भी खत्म हो गया। असुर का तात्पर्य अनार्य से है।
क्या यही अनार्य आज की भाषा में आदिवासी कहकर पुकारे जाते हैं।
आज मंदार पर्वत वैष्णव मत का प्रतीक बनकर रह गया है, क्योंकि
आदिम सभ्यता इतिहास की मोटी परतों तले दफन होकर रह गयी है।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आज जो कुछ दिखाई दे रहा है, वही सच
है। क्योंकि सच्चाई यह भी है कि मनुष्य के कदम जब इस धरती पर
पड़े, तभी से इतिहास की गंगोत्री भी फूटनी शुरू हुई।
इसमें दो मत नहीं कि यहाँ आर्य-अनार्य के टकराव होते रहे और
मतों की लड़ाई भी बार-बार हुई। सच्चाई यह भी है कि वैष्णव मत के
प्रचार-प्रसार से पूर्व यहाँ शैव मत का ही बोलबाला था। यह
सच्चाई सिर्फ अंग जनपद की ही नहीं, विश्व की प्राचीन सिंधु
सभ्यता भी कुछ यही जाहिर करती है। सिंधु सभ्यता के मूल निवासी
आर्य थे या अनार्य, इस पर भले ही विद्वानों में मतभेद हो,
लेकिन वहाँ के लोग शिव के उपासक थे, यह बात आइने की तरह साफ हो
चुकी है। कुछ विद्वानों के मुताबिक आर्य निश्चित रूप से
शिवलिंग की पूजा की निंदा करते थे, जबकि मूर्ति पूजा सिंधु की
तराई में प्रचलित थी।
यह भी पता चलता है कि धीरे-धीरे आर्य सभ्यता का विस्तार उन
क्षेत्रों में भी हुआ, जहाँ अनार्य सभ्यता का बोलबाला था। जहाँ
तक मंदार का सवाल है, मिलने वाले प्रमाणों से जाहिर है कि वहाँ
भी कभी आसुरों का साम्राज्य कायम था, जो शिव के उपासक थे और
आर्यों के यज्ञ प्रधान धर्म से घृणा करते थे। जहाँ तक आर्यों
के यहाँ आगमन का प्रश्न है तो यह काल अथर्ववेद की रचना के
पूर्व का ही होने का संकेत मिलता है क्योंकि अथर्ववेद में मगध
की चर्चा मिलती है। उस समय इस क्षेत्र में आर्य सभ्यता फैल रही
थी। आर्य सभ्यता के इस फैलाव में निष्चित ही अनार्यों की पराजय
हुई होगी और चूंकि मंदार पर असुरों का कब्जा था, इसलिए आर्य
हमलावरों से पराजित होकर न केवल उन्हें राज्य गँवाना पड़ा होगा,
बल्कि उसके बाद वहाँ वैष्णव मत का प्रचार-प्रसार भी हुआ होगा।
तब जो अनार्य थे, वही आज आदिवासी हैं और बदली हुई सच्चाई यह है
कि शिव और विष्णु दोनों ही देवता आज हिंदूओं के पूज्य है, जबकि
आदिवासियों की आसक्ति आज भी शिव के प्रति ही है।
बहरहाल अटकलों और सवालों की गहमा-गहमी के बावजूद खामोश खड़ा
मंदार पर्वत आज भी सांस्कृतिक गरिमा बिखेर रहा है। पोर-पोर में
उकेरी हुई कलाकृतियाँ अपने अतीत से रू-ब-रू करा रही हैं। मंदार
भागलपुर प्रमंडल के बाँका जिला के बौसी में है। मंदार पर्वत के
मध्य में शंखकुंड अवस्थित है। कुछ वर्ष पूर्व इस कुंड में करीब
बीस मन का शंख देखा गया था। मान्यता है कि शंकर की ध्वनि से
भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। मंदार पर्वत पर चढ़ने के लिए
करीने से पत्थर की सीढ़ियाँ तराशी हुई हैं। कहते हैं ये सीढ़ियाँ
उग्र भैरव नामक राजा ने बनवायी थीं। मंदार पर्वत पर चढ़ने के
साथ ही सीताकुंड मिलता है। पर्वत के ऊपर एक काफी बड़ी मूर्ति है
जिसकी पहचान लोग विभिन्न रूपों में करते हैं। थोड़ा आगे आने एक
स्तंभ पर छोटी-मोटी मूर्तियाँ हैं, जो सूर्य देवता की हैं।
थोड़ा ऊपर जाने पर एक काफी बड़ी मूर्ति है जिसे तीन मुख और एक
हाथ है। यह मूर्ति महाकाल भैरव की बतायी जाती है, यहीं पर एक
छोटी मूर्ति गणेश की तथा दूसरी सरस्वती की थी। ये मूर्तियाँ
भागलपुर के संग्रहालय में रखी हुई हैं। अभी भी गुफा में कुछ
मूर्तियाँ रखी हुई हैं। मध्य में नरसिंह भगवान का एक मंदिर है।
जहाँ पूजा पाठ के लिए राज्यांश की राशि सरकार द्वारा दी जाती
है। पहाड़ के बीचों-बीच छह फीट की दूरी पर दो समानान्तर गहरे
दाग हैं। मान्यता है कि समुद्र मंथन के दौरान नागनाथ अैर
साँपनाथ के लपेटे जाने का यह प्रतीक है। मंदार की तलहटी में
स्थित पापहरणी सरोवर के मध्य में बाँका के तत्कालीन जिला
पदाधिकारी तेज नारायण दास के प्रयास एवं सहयोग से अष्टकमल
मंदिर का निर्माण कराया गया, जो सरोवर को भव्यता प्रदान करते
हैं। इस मंदिर में विष्णु, महालक्ष्मी, ब्रह्मा की आकर्षक
मूर्तियाँ २६ नवंबर २००१ को जगतगुरू शंकराचार्य के करकमलों
द्वारा प्रतिष्ठापित की गईं।
हर साल मकर संक्रांति के दिन पाप धोने के लिए, पापहरणी में
डुबकियाँ लगाने वालों की भीड़ निरंतर बढ़ती चली जा रही है। और
गैर-आदिवासी अगर ‘मधुसूदन’ की यात्रा में शामिल होते तो अतीत
को याद कर ‘मंदारबुरू’ मंदार देवता को नमन करने वाले सहज ही
देखे जा सकते हैं। पद्म श्री चितु टुडू बताते हैं कि संथाली
गीतों में भी मंदार की महिमा का जिक्र है। संथाल जनजति के महान
पर्व सोहराय के अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीतों में मंदार का
वर्णन आता है। वहीं मंदार में जैन धर्म के बारहवें भगवान
वासुपूज्य ने कैवल्य प्राप्त किया और संसार की प्रवृतियों पर
पूर्ण विजय प्राप्त कर कर्म के बंधन से मुक्त हो गए। तदोपरांत
संसार के समस्त जीवों को घूम-घूमकर धर्मोपदेश देते हुए भाद्रपद
शुक्ला की चतुर्दशी को मंदार शिखर पर इन्हें निर्वाण प्राप्त
हो गया। आज भी भगवान वासुपूज्य के तपकल्याणक के प्रतीक गुफा
मंदार पर्वत पर विराजमान है, जिसकी प्राकृतिक छटा मनमोहक है।
यह गुफा युगों-युगों से मौन रहकर मंदार पर्वत पर आने वाले
सैलानियों को भगवान वासुपूज्य की सत्य, अहिंसा, अस्तेय और
अपरिग्रह की शिक्षा दे रहा है। यहाँ सालभर जैन धर्मावलंबियों,
तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की भीड़ रहती है। वेदव्यास,
बाल्मीकि, तुलसीदास, जयदेव, कालिदास जैसे साहित्य सृष्टाओं ने
अपनी लेखनी से मंदार या मंदरांचल को चिरअमरत्व प्रदान किया है,
तो फ्रांसिस बुकानन, सेरविल, सर जॉन फेथफल, फ्लीट, मौटगोमेरी
मार्टिन जैसे पाश्चात्य विद्वानों को मंदार ने आकर्षित किया
तभी तो उन्होंने मंदार का जिक्र अपनी लेखनी में किया है।
मंदार को केंद्र में रखकर हर वर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर
सरकारी स्तर पर मंदार महोत्सव का आयोजन किया जाता है और इस
अवसर पर तरह-तरह की सरकारी घोषणाएँ भी होती हैं। लेकिन उन
घोषणाओं को अब तक अमलीजामा नहीं पहनाया गया। लिहाजा आज भी
मंदार का विकास पर्यटन के लिहाज से नहीं हो पाया है, जबकि मेले
के अलावा अन्य दिनों में पर्यटकों का आना-जाना लगा रहता है।
तात्कालीन रेल राज्य मंत्री दिग्विजय सिंह के प्रयास से रेलवे
ने यहाँ यात्री निवास का निर्माण कराया है। लेकिन अन्य
सुविधाएँ इस क्षेत्र में उपलब्ध नहीं हैं। पहाड़ पर जाने के लिए
रज्जू मार्ग का निर्माण होना था लेकिन वह भी अभी अमल में नहीं
आ सका। त्रासदी तो यह है कि सरकारी घोषणा के बावजूद इस महोत्सव
को राजकीय महोत्सव का दर्जा नहीं मिल पाया है। स्थानीय जिला
प्रशासन द्वारा गठित कमेटी के आधार पर महोत्सव का आयोजन किया
जाता है। फिर भी, संस्कृति किसी सरकारी संरक्षण का मोहताज नहीं
होती, यह तो जनता के द्वारा पुष्पित और पल्लवित होती है। अचल
और अविचल खड़ा मंदार हमें सदियों से यही बता रहा है।
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