विभिन्न प्रांतों में मकर संक्रांति
- सौरभ पांडेय
सूर्य का उत्तरायण या दक्षिणायण होना ऋतुओं के एक चक्र
को परे हटा कर एक नये ऋतु-चक्र के आगमन का कारण होता
है। सूर्य का दक्षिणायण होना मानव की तमसकारी
प्रवृतियों के उत्कट होने का द्योतक है। समस्त प्रकृति
और प्राकृतिक गतिविधियाँ एक तरह से ठहराव की स्थिति
में आ जाती हैं। सकारात्मक वृत्तियाँ निष्प्रभावी सी
हो जाती हैं या कायिक-मानसिक दृष्टि से सुषुप्तावस्था
की स्थिति हावी रहती है। इस के उलट सूर्य का उत्तरायण
होना कायिक, मानसिक तथा प्राकृतिक रूप से सकारात्मक
वृत्तियों के प्रभावी होने का द्योतक है। मानव-मन के
चित्त पर सद्-विचारों का प्रभाव काया पर तथा मानवीय
काया का सुदृढ़ नियंत्रण समस्त क्रियाकलाप पर स्पष्ट
दीखने लगता है।
अतः, सूर्य का उत्तरायण होना उत्साह और ऊर्जा के
संचारित होने का काल है। यही कारण है कि यह समय सूर्य
की खगोलीय स्थिति पर निर्भर होने के कारण सौर-तिथि
विशेष के सापेक्ष नियत होता है। संक्षेप में कहें तो
'मकर-संक्रान्ति’ सूर्य के दक्षिणी गोलार्द्ध से
उत्तरी गोलार्द्ध में स्थानान्तरित हो कर स्थायी होने
का परिचायक है। पूरे भारतवर्ष में यह पर्व सोत्साह
मनाया जाता है। भाषायी रूप से इसका नाम चाहे जो हो,
किन्तु, पर्व की मूल अवधारणा मनस-उत्फुल्लता,
चैतन्य-चित्त और कृषि-प्रयास को ही इंगित करती है।
उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश में इस दिन को 'खिचड़ी’ के नाम से जानते
हैं। पवित्र नदियों, जैसे कि गंगा, में प्रातः स्नान
कर दान-पुण्य किया जाता है। तिल का दान मुख्य होता है।
तिल आर्युवेद के अनुसार गर्म तासीर का होता है। अतः
तिल के पकवान-मिष्टान्न का विशेष महत्त्व है। प्रयाग
क्षेत्र में संगम के घाट पर एक मास तक चलने वाला
'माघ-मेला’ विशेष आकर्षण हुआ करता है। वाराणसी,
हरिद्वार और गढ़-मुक्तेश्वर में भी स्नान का बहुत ही
महत्त्व है। जो लोग नदियों में स्नान नहीं करते वे भी
प्रातः काल उपवास रखते हुए स्नान करते हैं और 'ऊँ
विष्णवै नमः’ कह कर तिल, गुड़, अदरक, नया चावल, उड़द
की छिलके वाली दाल, बैंगन, गोभी, आलू और क्षमतानुसार
धन का दान करते हैं जो कि इस पर्व का प्रमुख कर्म है।
इसके बाद ही सुबह की चाय या नाश्ता होता है। दोपहर को
भोजन में निश्चित तौर पर सबके घर में नये चावल-दाल की
स्वादिष्ट खिचड़ी का भोजन होता है। यह कहते हुए
-'खिचड़ी के चार यार, दही पापड़ घी अचार’! खिचड़ी के
साथ इन चारों की उपस्थिति शुभ मानी जाती है। मिष्ठान्न
में तिल और गुड़ के बने विशेष पकवान खाए जाते हैं
जिनमें तिल के लड्डू, बर्फी और तिलकुट प्रमुख हैं।
बिहार
बिहार में भी पवित्र नदियों के स्नान और दान-पुण्य की
परंपरा है। मिथिलांचल और बज्जिका क्षेत्र
(मुज़फ़्फ़रपुर मण्डल) में इस दिन 'दही-चूड़ा’ खाने का
विशेष महत्त्व है, और खिचड़ी का सेवन तो है ही! बिहार
में इस दिन अगहनी धान से प्राप्त चावल और उड़द की दाल
से खिचड़ी बनाई जाती है। कुल देवता को इसका भोग लगाया
जाता है। लोग एक-दूसरे के घर खिचड़ी के साथ विभिन्न
प्रकार के अन्य व्यंजनों का आदान-प्रदान करते हैं। साथ
में गन्ना खाने की भी परिपाटी है। लोग चूड़ा-दही, गुड़
एवं तिल के लड्डू भी खाते हैं। चूड़े, मुरमुरे और गया
के तिलकुट घर में आते हैं।
मकर संक्रांति से एक माह पूर्व (१४ दिसंबर से १४
जनवरी) तक मलमास माना जाता है। इन दिनों मांगलिक कार्य
नहीं होते। मकर संक्रांति के दिन मलमास के अंत पर भव्य
मेला लगता है। मान्यता है कि मकर संक्रांति के दिन
शरीर का त्याग करने वालों का पुनर्जन्म नहीं होता,
भगवान अपने चरणों में शरण देते हैं। महाभारत में भीष्म
ने इसी दिन अपने शरीर का त्याग किया था। मगध, विशेष कर
राजगीर की पहाड़ियाँ अपने आँचल में कई महाभारतकालीन
प्रसंगों को सँजो कर रखे हुए हैं। सूर्योपासना की
अद्भुत पद्धति मगध की ही देन है। मकर संक्रांति के दिन
राजगीर के गर्म कुंड में स्नान कर आबाल-वृद्ध नवजीवन
प्राप्त करते हैं।
बंगाल
गंगा-सागर, जहाँ पतित-पाविनी गंगा का समुद्र से
महा-मिलन होता है, में बहुत बड़ा मेला लगता है। बड़ी
संख्या में श्रद्धालु इकट्ठा होते हैं और सूर्य देव को
अर्घ्य देकर मकर राशि में उनके प्रवेश और उत्तरायण का
स्वागत करते हैं। ऐसा माना जाता है कि 'सारे तीर्थ
बार-बार, गंगासागर एक बार'। कुम्भ के मेले के बाद
गंगासागर का मेला ही देश का दूसरे स्थान पर सबसे
प्रसिद्ध मेला है। गंगासागर के मेले के पीछे पौराणिक
कथा है कि मकर संक्रांति के दिन गंगाजी स्वर्ग से
उतरकर भगीरथ के पीछे -पीछे चलकर कपिलमुनि के आश्रम में
जाकर सागर में मिल गई। गंगा के पावन जल से ही राजा सगर
के साठ हजार श्रापित पुत्रों का उद्धार हुआ था। यह
कल्पना कर के अनेक यात्री स्वयं को भावुक महसूस करते
हैं। यों तो सवा दो लाख की आबादी वाला यह सागर द्वीप
पूरे साल सूना पड़ा रहता है लेकिन मकर संक्रांति के
आते ही पूरा गंगासागर रोशनी में नहा उठता है।
गंगासागर का एक और मुख्य आकर्षण है यहाँ कपिल मुनि का
विशाल मंदिर। इस मंदिर में कपिल मुनि के अलावा
भागीरथी, राम और सीता की भी मूर्तियाँ विद्यमान हैं,
जिन्हें जयपुर राजा के संरक्षण में गुरु संप्रदाय ने
प्रतिष्ठित किया था। अब रामनंदी सम्प्रदाय के लोगों ने
इससे अपना आराध्य स्थल बना लिया है। स्नान के बाद कपिल
मुनि के मंदिर में पूजा-अर्चना भी की जाती है। इस दिन
किसान अपनी फसलों की भी पूजा करते हैं। तिल का दान जो
इस पर्व का मुख्य कर्म है, यहाँ भी किया जाता है।
तमिलनाडु
मकर-संक्रान्ति पर्व को तमिलनाडु में 'पोंगल’ के नाम
से जानते हैं, जोकि एक तरह का पकवान है। पोंगल चावल,
मूँगदाल और दूध के साथ गुड़ डाल कर पकाया जाता है। यह
एक तरह की खिचड़ी ही है। तमिलनाडु में पोंगल सूर्य,
इन्द्र देव, नयी फसल तथा पशुओं को समर्पित पर्व है
जोकि चार दिन का हुआ करता है और अलग-अलग नामों से जाना
जाता है। इसकी कुल प्रकृति उत्तर भारत के 'नवान्न’ से
मिलती है।
पर्व का पहला दिन भोगी पोंगल के रूप में मनाते हैं।
भोगी इन्द्र को कहते हैं। इस तड़के प्रातः काल में
कुम्हड़े में सिन्दूर डाल कर मुख्य सड़क पर पटक कर
फोड़ा जाता है। आशय यह होता है कि इन्द्र बुरी दृष्टि
से परिवार को बचाये रखे। घरों और गलियों में सफाई कर
जमा हुए कर्कट को गलियों में ही जला डालते हैं। पर्व
का दूसरा दिन सुरियन पोंगल के रूप में जाना जाता है।
यह दिन सूर्य की पूजा को समर्पित होता है। इसी दिन नये
चावल और मूँगदाल को गुड़ के साथ दूध में पकाया जाता
है। तीसरा दिन माडु पोंगल कहलाता है। माडु का अर्थ
'गाय’ या 'गऊ’ होता है। गाय को तमिल भाषा में पशु भी
कहते हैं। इस दिन कृषि कार्य में प्रयुक्त होने वाले
पशुओं को ढंग-ढंग से सजाते हैं। और पशुओं से सम्बन्धित
तरह-तरह के समारोह आयोजित होते हैं। यह दिन हर तरह से
विविधता भरा दिन होता है। इस दिन को मट्टू पोंगल भी
कहते हैं। आखिरी दिन अर्थात् चौथा दिन कनिया पोंगल के
नाम से जाना जाता है। इस दिन कन्याओं की पूजा होती है।
आम्र-पलल्व और नारियल के पत्तों से दरवाजे पर तोरण
बनाया जाता है। महिलाएँ इस दिन घर के मुख्य द्वारा पर
कोलम यानी रंगोली बनाती हैं। आखिरी दिन होने से यह दिन
बहुत ही धूमधाम के साथ मनाते हैं। लोग नये-नये वस्त्र
पहनते है और उपहार आदि का आदान-प्रदान करते हैं।
आंध्र प्रदेश
आंध्र में इस पर्व को पेड्डा पांडुगा कहते हैं, यानि
बहुत ही बड़ा उत्सव! पहले दिन को भोगी पोंगल कहते हैं,
दूसरा दिन संक्रान्ति कहलाता है। तीसरे दिन को कनुमा
पोंगल कहते हैं जबकि चौथा दिन मुक्कनुमा पोंगल के नाम
से जाना जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह फसलों की
कटाई का त्योहार है। आम की पत्तियों और गेंदे के फूलों
से सजे घरों, पतंगों, मुर्गो की लड़ाई, साँडों की
लड़ाई और अन्य ग्रामीण खेलों के साथ ग्रामीण क्षेत्रों
में हर ओर उत्सव का वातावरण दिखाई देता है। अधिकतर
गावों में महिलाएँ घरों के बाहर गाय के गोबर, फूलों और
आम के पत्तों से रंगीन मुग्गू या रंगोली बनाती हैं।
फसलों में बैलों के योगदान के लिए उनकी पूजा की जाती
है।
पर्व के मौके पर महिलाएँ नए चावल, गुड़ और दूध से
'चक्कर पोंगल' या चावल की खीर बनाती हैं। भोगी अग्नि
में लोग पहले दिन कृषि और घर की पुरानी चीजों और कचरे
का अलाव जलाते हैं। महिलाएँ, पुरुष और बच्चे उत्साह के
साथ रस्मों में भाग लेते नजर आते हैं। हैदराबाद और
अन्य शहरों में आसमान पतंगों से भर जाता है। हैदराबाद
की गलियों में बच्चों को पतंगबाजों की कटी पतंगों को
लूटने के लिए दौड़ते देखा जा सकता है।
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र में मकर-संक्रान्ति को तिलगुल पर्व के नाम
से जाना जाता है। नाम के अनुसार ही इस दिन तिल और गुड़
का विशेष महत्त्व है। लोग एक-दूसरे को 'तिल-गुळ घ्या,
गोड़-गोड़ बोला’ यानि 'तिल-गुड़ लीजिये, मीठा-मीठा
बोलिये’ कह कर शुभकामनाएँ देते हैं। नवविवाहित महिलाओं
के लिए यह पर्व विशेष महत्व रखता है। जिन स्त्रियों की
शादी के बाद पहली मकर संक्रांति होती है वह अपने सुहाग
की लंबी उम्र की कामना करते हुए खुशहाल दांपत्य जीवन
के लिए कपास, तेल व नमक अन्य सुहागिन स्त्रियों को दान
देती हैं। सधवा महिलाओं द्वारा हल्दी-कुंकुम की रस्म
भी मनायी जाती है, जिसके अनुसार एक स्थान की सभी
सुहागिनें जुट कर एक-दूसरे को सिन्दूर लगाती हैं और
सदा-सुहागिन रहने का आशीष लेती-देती हैं। इस अवसर पर
तिल और गुड़ से बना एक विशेष प्रकार का हलवा खाया जाता
है। नये-नये वस्त्र पहनना आज की विशेष परिपाटी है।
महाराष्ट्र में पतंग उड़ाने की परिपाटी है। आकाश
पतंगों से भर जाता है। मराठी समाज में मान्यता है कि
मकर संक्रांति से माघ सप्तमी तक सूर्य देव रथ पर सवार
होकर सूरज की किरणों के साथ सुख-समृद्धि फैलाते हैं।
इसलिए महाराष्ट्र में सात दिन तक मुख्य रूप से सूर्य
देव की पूजा होती है।
कर्नाटक
मकर संक्रांति को कर्नाटक में सुग्गी कहा जाता है. इस
दिन यहाँ लोग स्नान के बाद संक्रांति देवी की पूजा
करते हैं जिसमें सफेद तिल खास तौर पर चढ़ाए जाते हैं।
पूजा के बाद ये तिल लोग एक दूसरे को भेंट करते हैं। इस
प्रदेश में यह पर्व सम्बन्धियों और रिश्तेदारों या
मित्रों से मिलने-जुलने के नाम समर्पित है। यहाँ इस
दिन पकाये जाने वाले पकवान को एल्लु कहते हैं, जिसमें
तिल, गुड़ और नारियल की प्रधानता होती है। उत्तर भारत
में इसी तर्ज़ पर काली तिल का तिलवा बनाते और खाते
हैं। पूरे कर्नाटक प्रदेश में एल्लु और गन्ने को उपहार
में लेने और देने का रिवाज़ है। इस पर्व को इस प्रदेश
में संक्रान्ति ही कहते हैं। यहाँ भी चावल और गुड़ का
पोंगल बना कर खाते हैं और उसे पशुओं को खिलाया जाता
है। यहाँ 'एल्लु बेल्ला थिन्डु, ओल्ले मातु आडु’ यानि
'तिल-गुड़ खाओ और मीठा बोलो’ कह कर सभी अपने परिचितों
और प्रिय लोगों को एक दूसरे को शुभकामनाएँ देते हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में बैलों और गायों को सुसज्जित कर
उनकी शोभा यात्रा निकाली जाती है। नये परिधान में सजे
नर-नारी, ईख, सूखा नारियल और भुने चने के साथ एक दूसरे
का अभिवादन करते हैं। पतंग बाज़ी इस अवसर का लोकप्रिय
परम्परागत खेल है।
गुजरात
गुजरात में मकर संक्रांति का पर्व उत्तरायण पर्व के
नाम से जाना जाता है क्योंकि सूर्य इस दिन दक्षिणायन
से उत्तरायण होता है। इस पर्व को यहाँ पतंग महोत्सव के
रूप में मनाया जाता है। स्नानादि कर बाल-वृद्ध,
स्त्री-पुरुष सभी मैदान या छत पर पतंग और लटाई ले कर
निकल पड़ते हैं। पतंगबाजी गुजरात प्रदेश की पहचान बन
चुकी है और प्रदश के कई जगहों पर इसकी प्रतियोगिताएँ
होती हैं। अब तो पतंगबाजी की अंतर्राष्ट्रीय
प्रतियोगिताएँ भी आयोजित होने लगी हैं। पूरे गुजरात
प्रदेश में पतंग उड़ाना शुभ माना जाता है। लोग सुबह से
लेकर शाम तक पतंगबाजी में मस्त रहते हैं। खिचड़ी, गजक,
तिल के लड्डू खाते हुए छोटे-बड़े सभी पतंग उड़ाते हैं।
पतंग उड़ाने के साथ पतंग को काटने की भी प्रतिस्पर्धा
होती है। पतंग कटने पर लोग ढोल एवं थाली बजाकर अपनी
खुशी का इजहार करते हैं। मकर संक्रांति के दिन पूरा
आसमान रंग-बिरंगे और आकर्षक पतंगों से गुलजार रहता है।
खान-पान में एक विशेष प्रकार की सब्जी बनायी जाती है
जिसे "उधीयु" कहा जाता है। इसे बहुत सी सब्जियों को
मिलाकर बनाया जाता है। घर के मुखिया अपने परिवारिक
सदस्यों को कुछ न कुछ उपहार देते हैं। तिल-गुड़ के
तिलवे या लड्डू को मुख्य रूप से खाते हैं।
पंजाब
इस समय पंजाब प्रदेश में अतिशय ठंढ पड़ती है। यहाँ इस
पर्व को 'लोहड़ी’ कहते हैं जो कि मकर संक्रान्ति की
पूर्व संध्या को मनाते हैं। इस दिन अलाव जला कर उसमें
नये अन्न और मूँगफलियाँ भूनते हैं और खाते-खिलाते हैं।
ठीक दूसरे दिन की सुबह संक्रान्ति का पर्व मनाया जाता
है। जिसे 'माघी’ कहते हैं। पंजाब के सिक्खों में
ऐतिहासिक कारणों से भी संक्रांति का विशेष महत्व है-
श्री गुरुगोविंद सिंह जी के प्राय: सभी साथियों ने
हताश होकर उन्हें छोड़ दिया था, तब माई भागो नामक एक
वीर महिला की प्रेरणा से उनमें से ४० ने महासिंह नामक
सरदार के नेतृत्व में फिर उनके साथ चलने का संकल्प
लिया। जब मुगल सेना ने अकेले गुरुजी को घेर लिया था,
तब उस पर हमलाकर इन वीरों ने ही गुरुजी की प्राणरक्षा
की थी। इस युद्ध में माईभागो सहित उन सबको वीरगति
प्राप्त हुई। १७०५ ई. की मकर संक्रांति को खिदराना के
ढाब नामक स्थान पर हुए उस संग्राम का साक्षी वह तालाब
आज भी मुक्तसर कहलाता है। संक्रांति के दिन यहाँ बहुत
बड़ा मेला लगता है और चालीस मुक्तों की याद में यहाँ
हर वर्ष श्रद्धालु पवित्र मुक्तसर सरोवर में स्नान
करते हैं, लंगर होता है तथा दान पुण्य के काम होते
हैं। यह दिन श्री हरिमंदिर साहिब, अमृतसर का स्थापना
दिवस होने के कारण भी पंजाब के जन जीवन में बहुत महत्व
रखता है।
असम (अहोम)
इस पर्व को भोगली
बिहू या माघ बिहू के नाम से जाना जाता है। बिहू असम
प्रदेश का बहुत ही लोकप्रिय और उत्सवभरा पर्व है। इस
दिन कन्याएँ विशेष नृत्य करती हैं जिसे बिहू ही कहते
हैं। भोगली शब्द भोग से आया है, जिसका अर्थ है
खाना-पीना और आनन्द लेना। खलिहान धन-धान्य से भरा होने
का समय आनन्द का ही होता है। रात भर खेतों और खुले
मैदानों में अलाव जलता है जिसे मेजी कहते हैं। उसके
गिर्द युवक-युवतियाँ ढोल की आनन्ददायक थाप पर बिहू के
गीत गाते हैं और बिहू नृत्य होता है जो कि असम प्रदेश
की पहचान भी है। संक्रांति के पहले दिन को ''उरूका''
कहा जाता है और उसी रात को गाँव के लोग मिलकर खेती की
जमीन पर खर के मेजी बनाकर विभिन्न प्रकार के व्यंजनों
के साथ भोज करते हैं। उसमें ''कलाई की दाल'' खाना
जरूरी होता है। कलाई की दाल इस क्षेत्र की प्रमुख फसल
है। इसी रात आग जलाकर लोग रात भर जागते रहते हैं और
सुबह सूर्य उगने से पहले नदी, तालाब या किसी कुंड में
स्नान करते हैं। स्नान के बाद खर से बने हुए मेजी को
जला कर ताप लेने का रिवाज है। उसके बाद नाना तरह के
पेठा, दही, चिवड़ा खाकर दिन बिताते हैं। घरों में
महिलाएँ स्वादिष्ट मिठाइयाँ बनाती हैं। इसमें विशेष
रूप से बनाई जाने वाली मिठाई पीठा शामिल है जिसे लाल
बोरा धान, नारियल और तिल से बनाया जाता है।
उड़ीसा
उड़ीसा के नागफेनी गाँव में प्रतिवर्ष मकर संक्रांति
के दिन चौदह जनवरी को रथयात्रा का आयोजन पिछली शताब्दी
के प्रारंभिक वर्षों से किया जा रहा है। नागफेनी के
ऐतिहासिक जगन्नाथ मंदिर में भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र
एवं बहन सुभद्रा सहित भगवान मकर ध्वज की मूर्ति है।
मकर संक्रांति के दिन भगवान मकरध्वज के विशेष पूजा
होती है और रथ यात्रा निकाली जाती है। नागफेनी में
होने वाले मेला में भाग लेने वाले श्रद्धालु कोयल नदी
में स्नान कर मंगल कामना करते हैं, गरीबों के बीच दान
करते हैं और इसके बाद दही चूड़ा, गुड़, तिलकुट आदि का
सेवन करते हैं।
भगवान मकरध्वज के नाम पर, मकर संक्रांति को दोस्ती के
पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। महिलाएँ एक दूसरे
को उपहार देकर दोस्ती की नई शुरूआत करती हैं। जिन
लोगों को दोस्त बनाया जाता है उनका व्यक्तिगत नाम नहीं
लिया जाता है। दोस्त का एक नाम 'मकर' रखा जाता है। इसी
नाम से एक दूसरे को पुकारा जाता है। माना जाता है कि
इस दिन की गयी दोस्ती गहरी होती है।
मकर संक्रांति के दिन सूर्योदय से पूर्व औषधि स्नान की
भी परंपरा उड़ीसा में है। लोग प्रातः उठकर एक बर्तन
में सरसों तेल, तिल और हल्दी मिलाकर शरीर पर लगाते
हैं। इसके बाद नदी अथवा पवित्र सरोवर में डुबकी लगाते
हैं। खिचड़ी और तिल-गुड के साथ ही इस दिन यहाँ कच्चे
चावल की खिचड़ी बनाकर इष्ट देवता एवं सूर्य देव को भोग
लगाया जाता है। इसके बाद लोग खिचड़ी खाते हैं।
केरल
केरल में संक्रांति के दिन अत्तुकल पोंगल मनाया जाता
है। अत्तुकल भगवती मंदिर पर महिलाएँ ईंटों और लकडि़यों
के चूल्हों पर पूजा में चढ़ाया के लिये प्रसाद बनाती
हैं। भारी संख्या में महिलाओं की भागीदारी होने के
कारण इसका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज
किया गया है। संक्रांति के दिन सबरीमलै पर अयप्पा
देवता का भी बड़ा ही महात्म्य है। उनकी पूजा-प्रक्रिया
चालीस दिनों तक चलती है। चालीसवाँ दिन संक्रान्ति के
दिन होता है जिसे बहुत ही धूमधाम से मनाते हैं। यहाँ
पर एक पहाड़ी पर से मकर ज्योति को देखना शुभ माना जाता
है। लोगों का विश्वास है कि मकर ज्योति एक तारा है
जिसके दिव्य एवं आलौकिक प्रकाश में पूजन-अर्चना करने
से जीवन में खुशियां आती हैं। सारे दुख दूर हो जाते
हैं।
संक्रांति के अवसर पर केरल के मंदिरों में रोशनी की
सजावट की जाती है और लोग वहाँ दिया जलाने पहुँचते हैं।
पशुओं की सजावट और उनकी दौड़ तथा प्रतिद्वंदिता आदि
अनेक प्रकार के खेल खेले जाते हैं। इस दिन पोंगल नामक
एक विशेष प्रकार की खीर बनाई जाती है जो मिट्टी के
बर्तनमें नये धान से तैयार चावल मूँग दाल और गुड़ से
बनती है। पोंगल तैयार होनेके बाद सूर्य देव की विशेष
पूजा की जाती है और उन्हें प्रसाद रूप में यह पोंगल व
गन्ना अर्पण किया जाता है, साथ ही फसल देने के लिए
कृतज्ञता व्यक्त की जाती है।
इस तरह से देखें तो मकर-संक्रान्ति का पर्व पूरे भारत
में सोल्लास मनाया जाता है। दूसरे, यह भी देखा जाता है
कि तिल, नये चावल, गुड़ और गन्ने का विशेष महत्त्व है।
सर्वोपरि, भारत के पशुधन की महत्ता को स्थापित करता यह
पर्व इस भूमि का पर्व है।
१२ जनवरी
२०१५ |