धीरे
धीरे दोपहर से शाम हो गयी। पंडित जी को बुलाया था आज मकर
संक्रांति की मनसी हुयी खिचड़ी ले जाने के लिये, पर उनको ना
आना था और ना ही वे आये। बेटा कहने लगा "माँ मनसी हुयी
खिचड़ी का क्या करना है? मैं दे आऊँ क्या पंडित जी को ?"
"अभी थोड़ी देर और देखते हैं फिर तुम चाहो तो दे आना।"
शाम को जब मेरी काम वाली बाई शकुन्तला बर्तन साफ करने आयी
तो उसको देख कर लग रहा था कि वह कोई अनहोनी देख कर आयी है।
मैंने ही पूछा "अरे! क्या हुआ इतना हाँफ क्यों रही है?"
"वो मेमसाब अपने पंडित जी चले गये"
"क्या कह रही है तू? कल तक तो भले चंगे थे ऐसा क्या हुआ
मैं तो कल शाम को ही मिली थी उनसे"
"हाँ लोग कह रहे हैं बहू बेटों के साथ कुछ कहा सुनी हुयी
थी लगता है कुछ उल्टा सीधा खा लिया शायद"।
"ओह!"
मैंने सोचा अब पंडित जी तो रहे नहीं और ऐसी हालत में उनके
घर में भी कोई मनसा हुआ सामान नहीं लेगा।
मैंने ही शकुन्तला से पूछा "शकुन्तला तुम यह मनसी हुयी
खिचड़ी ले जाओगी?"
"अरे मेम साब हम कहाँ लेंगे यह मनसी हुयी खिचड़ी और वह भी
आपने पंडित जी के लिये निकाली थी।" वह लेने से साफ मना
करके चली गयी।
मैंने बेटे को बुलाया और वह सारी खिचड़ी उसमें थोड़ा सामान
और मिला कर सड़क पर बैठे हुये भिखारियों में बँटवा दी।
असली पुण्य तो अब मिला था मुझे।
१२ जनवरी २०१५ |