इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
कृष्ण सुकुमार, मनोहर
विजय, दिगंबर नसवा, प्रवीण कुमार अग्रवाल तथा अरुणा घवाना की रचनाएँ। |
कलम गही नहिं
हाथ- |
पिछले एक माह में फेसबुक के अपने पन्ने को
ध्यान से देखते हुए कुछ रोचक तथ्यों से सामना हुआ। लगा कि इसे साझा
करना रोचक रहेगा।...आगे पढ़ें |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- हमारी
रसोई-संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत है- एक अत्यंत लोकप्रिय
व्यंजन विधि- चाहें दावत के लिये बनाएँ या छुट्टी के दिन-
पिंडी छोले। |
आज के दिन
कि आज के दिन (१४ अप्रैल को) १८९१ मे बाबा भीमराव अंबेडकर, १९१९ में गायिका
शमशाद बेगम, १९२२ में संगीतकार अली अकबर खान...
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हास
परिहास
के अंतर्गत- कुछ नये और
कुछ पुराने चुटकुलों की मजेदार जुगलबंदी
का आनंद...
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घर परिवार के अंतर्गत-
मिट्टी के बर्तनों को सौदर्य को
सहेजने का अनुपम जादू सिखा रही हैं गृहलक्ष्मी-
माटी कहे पुकार के... |
सप्ताह का विचार में-
कुछ प्रलोभन परिश्रमी व्यक्ति को हो सकते हैं, किंतु सारे प्रलोभन तो केवल आलसी व्यक्ति पर ही आक्रमण करते हैं। --मुक्ता |
वर्ग पहेली-१८१
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि-आशीष
के सहयोग से |
सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य एवं
संस्कृति में-
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समकालीन कहानियों में भारत से
एस आर हरनोट की कहानी-
आभी
हिमाचल प्रदेश के जिला कुल्लू के दुर्गम आनी
क्षेत्र में ११,५०० मीटर की ऊंचाई पर स्थित जलोरी पास से लगभग
५ किलोमीटर दूर सरेऊलसर झील के निर्मल जल को सदियों से ‘आभी‘
नामक एक चिड़िया निर्मल रखे हुए है जो झील में किसी भी तरह का
तिनका पड़ने पर उसे अपनी चोंच से उठा कर दूर फेंक देती है। इस
चिड़िया के इस कारनामे को यहाँ आने वाले विदेशी तथा अन्य पर्यटक
देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं। इस झील के किनारे बूढ़ी नागिन
माँ का प्राचीन मन्दिर स्थित है। स्थानीय लोग इस चिड़िया को
‘आभी‘ के नाम से पुकारते हैं।
-------यह कहानी उसी ‘आभी‘ के लिए--------
आभी सदियों से व्यस्त है। कितनी सदियाँ बीत गईं हैं पर आभी का
काम खत्म नहीं हुआ है। इक्कीसवीं सदी में तो और बढ़ गया है।
सूरज उगने से पहले वह उठ जाती है। झील के किनारे पड़े शिलापट्ट
पर बैठ कर पानी में कई डुबकियाँ लगाती है। फिर अपने छोटे-छोटे
रेश्मी पंखों को फैलाकर झाड़ती है। नहा-धोकर फारिग होती है तो
कई पल कुछ गाती रहती है।...
आगे-
*
प्रमोद यादव का व्यंग्य
रहम करो नकाब वालियों
*
सोती वीरेन्द्र चंद्र का आलेख
सब धर्मों के प्रतीक ऊधम सिंह
*
डॉ. ओमप्रकाश सिंह की कलम से
नवगीत मे नारी संघर्ष का चित्रण
*
पुनर्पाठ में- लंदन पाती
के अंतर्गत
शैल अग्रवाल का आलेख- वृहद आकाश
1 |
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पिछले
सप्ताह-
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१
महेश द्विवेदी का व्यंग्य
किराये का पंच बैग
*
डॉ. हरिमोहन के साथ
पंचकेदार की ओर पर्यटन
*
डॉ. देवव्रत जोशी का आलेख
गीतकार
मुक्तिबोध
*
पुनर्पाठ में- उषा राजे
सक्सेना के
कहानी संग्रह 'प्रवास
में' से परिचय
*
समकालीन कहानियों में यू.एस.ए. से
सुदर्शन प्रियदर्शिनी की कहानी-
सेंध
धर्म को लेकर उस ने कभी कोई
पूर्वाग्रह या रूढ़ि नहीं पाली। न उस ने कोई कट्टरता का कुत्ता
ही पाल रखा है। वह खुले मन से, खुले दिल से स्वीकारती है कि
कोई जैसा है ठीक है। जब तक आप किसी पर अपने हिंसक धर्म की लाठी
नहीं ठोकते सब ठीक है। फिर यह तो सब हमारे ही गढ़े हुए हथकंडे
हैं जिन से हम धर्म को ईश्वर का रास्ता बना कर चलाते हैं या
आपसी वैमनस्य की नींव दृढ़ करते है। यों अंततः सब जानते हैं कि
धर्म का ईश्वर से कुछ लेना-देना नहीं है। हम ने धर्म को ईश्वर
के द्वार की कुण्डी बना रखा है और गाहे-बगाहे उसे टंकारते रहते
हैं। भगवान अगर धर्म के रास्ते से ही मिलता है तो किस रास्ते
से और कौन है भगवान- हिन्दू ,सिख , ईसाई या मुसलमान या कोई और!
किसी के पास इस का उत्तर नहीं है फिर हम क्यों इसे अपना
प्रश्न-चिन्ह बना कर दीवार से अपना माथा फोड़ते रहें। धर्म को
ईश्वर का मुगालता हो सकता है पर ईश्वर को धर्म का मुगालता नहीं
है। पर शायद ये सब खोखली बातें हैं।
आगे- |
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