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रचना प्रसंग

नवगीत परिसंवाद-२०१३ में पढ़ा गया शोधपत्र
 

नवगीत में नारी संघर्ष का चित्रण
-डॉ. ओमप्रकाश सिंह


आज नवगीत अपनी अनुभूति की नवता और शिल्प की ताजगी लेकर आंचलिकता की खनक के साथ काव्य के धरातल पर उतरा है। मेरा मानना है कि गीत का विकसित और संश्लिष्ट रूप ही नवगीत है। भारतीय पर्यावरण में साँस लेकर ये नवगीत लोक धुनों से भरपूर जीवन के यथार्थ को सामाजिक धरातल पर उतारते हैं। वैश्विक जगत के प्रति इनकी उदारीकरण की प्रवृत्ति ने ही उन्हें सच्चे अर्थों में जनचेतना से जोड़ा भी है। नवगीत के दरवाजे पर युगीन संवेदना के न जाने कितने स्वर दस्तक देते हैं। वे अपनी अस्मिता की तलाश में भीतरी छटपटाहट लेकर सर्जना की उजली पर्तें उकेरने के लिए बेताब हैं। ऐसी स्थिति में नवगीतकार के लिए सामाजिक सतह पर साँस लेना और उसके सच को खंगालकर मूल्यों की तलाश करना जरूरी है। इसीलिए आज ये नवगीत लोक वेदना लेकर वैश्वीकरण या भूमण्डलीकरण के बाजारूपन तक चिंतन के लिए तत्पर हैं। नारी-विमर्श और दलित विमर्श भी इसी युगबोध की महती देन हैं।

सच तो यह है कि जिस युग में भी कविता समृद्ध हुई हैं वहाँ अशांति, संघर्ष और युद्ध के बादल मँडराये हैं। उस युग की चेतना का इतिहास भी हर क्षण बदलता रहा है। वहाँ संघर्ष और शौर्य ने अपना बड़ा खाता खोला है। तथा एक बृहत् रचनात्मक धरातल तैयार कर युगीन रचनाकारों को लेखनी चलाने का अवसर प्रदान किया है। इसीलिए नवगीत संघर्षशील समत्वबोध का काव्य है जो आदर्शोन्मुख यथार्थ के साथ लोक जीवन की आचार संहिता भी रचता है। नवगीत में सामाजिक रूढ़ियों, आडम्बरों एवं जड़वत परम्पराओं को उखाड़ फेंकने की क्षमता है। अतएव नवगीत जिन्दगी के निकष पर जनमानस की अर्न्तपीड़ा की बाह्य अभिव्यक्ति है। उस मौन अनुभूति को मुखर करना तथा उसे संप्रेषणीय बनाना ही नवगीत की साधना है। स्पष्ट है कि हर युग ने मनुष्य का इतिहास रचा है और परिवर्तन की पीठिका पर मानवीय विकास के अक्षर लिखे हैं, इसी लेखन ने ही नवगीत की विजय-यात्रा का मानचित्र खींचा है।

समकालीन कविता की भाँति नवगीत ने भी अपने अनेक आयामों में दलित विमर्श और नारी विमर्श को चिंता का विषय बनाया है किन्तु समकालीन कविता ने इन दोनों को वस्तु के केंन्द्र में रखकर काव्य-सृजन किया है और उसे वर्गभेद या जातिभेद के धरातल पर लाकर आक्रोश का मुद्दा बनाया है। इधर नवगीत ने निराला की परम्परा का निर्वाह करते हुए नारी पर गहरी चिंता व्यक्त की है और समाज को सचेष्ट करने का भरसक प्रयत्न किया है। महाप्राण निराला ने दलित नारी पर लिखते हुए जातीय दुर्भावना से ऊपर उठते हुए भारतीय समरसता को बनाये रखा है तथा नारी की दुर्दशा का यथार्थ चित्रण किया है।
वह दुष्टदेव के मंदिर की पूजा-सी/वह दीपशिखाई शांतभाव में जीन/वह क्रूर काल-ताण्डव की स्मृति रेखा-सी/वह टूटे तरू की छुटी लता-सी दीन/दलित भारत की विधवाएँ।

निराला जी ने सम्पूर्ण भारतीय नारी के विधवा जीवन की विसंगति को 'दलित' शब्द से सम्बोधित किया है, न कि जाति विशेष की नारी को दलित कहा है। हालाँकि इस पुरुष वर्ग ने सदियों से नारी को देवी, सती, साध्वी, अर्द्धांगिनी, दासी, सेविका, मोहिनी, प्रिया, इत्यादि अनेक प्रकार के सम्बोधन दिया है जो अनेक कालखण्डों में उच्चारित हुए हैं। आज नारी वेश्या, भोग्या इत्यादि सम्बोधन पाकर पुरुष के भोग की वस्तु बन गई है किन्तु ये सम्बोधन भारतीय परिवारों के प्रेमिल आँगन में न होकर बाजार के विषय हैं। आजकल जातियों, वर्गों, धर्मों, वर्णों तथा उपजातियों में बँटे भारतीय समाज में पाश्चात्य की नकल से नारी देह एक वस्तु होकर बाजार में खड़ी है। इसके परिप्रेक्ष्य में केवल रूढ़ियाँ एवं परम्पराएँ ही नहीं, बल्कि वर्तमान आर्थिक व्यवस्थाएँ, सांस्कृतिक ढाँचे और सामाजिक संगठन भी जिम्मेदार हैं।

रोजगार खोजने तथा आर्थिक तंगी से मुक्त होने की लड़ाई में जूझते युवा (लड़के-लड़कियाँ एवं परिवार) अपनी शारीरिक एवं आर्थिक भूख की सड़क पर मनुष्य या समाज की आचार संहिता के पृष्ठ-पृष्ठ नोचकर फेंकने के लिए विवश लगते हैं। इस दौड़ में नारी से सबल पुरुष (शारीरिक दृष्टि से) उसे भोग की वस्तु समझकर उसके अस्तित्व को पैरों तले रौंदता रहा है। दूसरी ओर नारी की सौंदर्य धर्मी प्रवृत्ति, रूप के अहंकार में उत्तेजित होकर पुरुष को आमंत्रण देती रही है। इसमें आधुनिक संसाधनों, पहनावा, दूरदर्शन, मोबाइल और नेट के साथ-साथ हमारे घरेलू उत्सवों-महोत्सवों की वृद्धि भी सहायक है। इन स्थितियों में मधुसूदन साहा की लेखनी सच बोलती है- "जिस दिन माँ ने/ बेटी को साड़ी पहनाई उस दिन से ही/उस दिन से ही/नींद नहीं आँखों में आई/मोड़-मोड़ पर नागफनी के फन फैलाये/गली-गली से/खतरों के संदेशे आये/जिस दिन से ही/लगी घूरने नजर पराई/उस दिन से ही/नींद नहीं आँखों में आई।" (शब्दों की पीड़ाः मधुसूदन साहा, पृ. ९३)

समकालीन नवगीत नारी के सम्पूर्ण जीवन की विसंगतियों, असमानताओं एवं विद्रूपताओं को रेखांकित ही नहीं करता वरन् उसके हिमालयन व्यक्तित्व के जीवन सत्यों एवं मूल्यों की विवेचना करते हुए नारी समाज को प्रोत्साहित भी करता है। वह पुरुष एवं आज की नारी के मध्य एक सामंजस्य बनाये रखने का सेतु है जो उन दोनों की हकीकत को उजागर करते हुए एक नये समाज के निर्माण के लिए सत् संकल्पित है। वह भारतीय नारी के मानक-मूल्यों- प्रेम, समर्पण, सहनशीलता, कर्तव्यनिष्ठा, करूणा, सेवा और त्याग की भावना को स्वीकार भी करता है और घर के भीतर से बाहर तक नारी अस्तित्व एवं सुरक्षा के लिए चिंतित भी है। वह भ्रष्टाचार, दुराचार, व्यभिचार और अन्य कुप्रवृत्तियों पर हथौड़ा चलाने के लिए खड़ा भी है। यहाँ उसकी वैयक्तिक संवेदना का भी सामाजीकरण होता चलता है, यही नवगीत का वैशिष्ट्य है। इसीलिए नवगीतकार दबे-कुचले दलित की पीड़ा से मर्माहत है और युग सापेक्ष दलित की समस्याओं एवं घटनाओं से सीख लेते हुए उन्हें न्याय दिलाने के लिए बेताब भी है। रमेश रंजक के शब्दों में-
'इतिहास दुबारा लिखो सिद्ध सांमतों का/इतिहास दुबारा लिखो दलित मानवता का/इतिहास दुबारा लिखो आदमी क्यों टूटा/मानवता ने लाठी खाई है कहाँ-कहाँ? (इतिहास दुबारा लिखो, पृ. २४)

इतिहास साक्षी है कि आज से दो दशक पूर्व का स्त्री-विमर्श कुछेक का था परन्तु यह अब सामूहिक रूप धारण कर चुका है। आज सभी-लेखन स्त्री विमर्श की सीमा अतिक्रमण कर के सभी के संकल्पात्मक संघर्ष के रूप में उभर रहा है। आज की कवयित्रियाँ विमर्श की भाषा त्यागकर अपने अस्तित्व के लिए युद्ध-भाषा का प्रयोग करने लगी हैं। क्योंकि धार्मिकों एवं राजसत्ताधारियों ने उन्हें बाजारू वस्तु, उपकरण, विलास-सेवा और गृहणी से अधिक कुछ समझने की कोशिश नहीं की। मैथिलीशरण गुप्त ने उसके बारे में लिखा-
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।

किन्तु आज नारी सबला होने के लिए संघर्षरत है जिसे नवगीतकारों ने वैचारिक सम्बला प्रदान किया है। यथा-
"उपले पाथेगी/बासन माँजेगी/पारवती अपने दिन/यों ही काटेगी/तुलसी के बिरवे को/पानी देगी/धौरी को/श्यामा को/सानी देगी/आटा गूँथेगी/चूल्हा फूँकेगी/रात गये मुर्दे-सी/पड़ सो जायेगी।" (नवगीत दशक-३ पृ.२६ अखिलेश कुमार सिंह)

हालाँकि नारी का दूध और आँसू से मानसिक एवं दैहिक रिश्ता है जो उसके साथ सदैव रहेगा। किन्तु आज का दोमुँहा आदमी उसके स्नेहिल एवं संघर्षशील रिश्ते को भी नहीं समझ पाता। उसे रोटी, कपड़ा और मकान तक ही सीमित नहीं किया जा सकता बल्कि उसके भीतर स्थित महनीय शक्तियों का उद्घाटन भी होना चाहिए। उसके संघर्ष, द्वन्द्व और शौर्य के द्वारा समाज की विशुद्ध संरचना का उत्स भी फूटना चाहिए। आज नारी की असुरक्षा का प्रश्न बड़ा ही ज्वलंत है। जो उसके रक्षक हैं वही भक्षक बन बैठे हैं। यथा-
"नहीं बचेगी अब मर्यादा/रक्षाकर्मी पंजों से/द्वार खड़ा आदर्श/घसीटा जाता क्रूर-शिकंजों से/पथराई लगती मानवता/इन पशुवत व्यवहारों से।" (ये समय के गीत हैः ओमप्रकाश सिंह, पृ. ३८)

स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था- 'पश्चिम की नारी पहले प्रेयसी है, फिर पत्नी और फिर माँ जबकि भारत की नारी पहले माँ है, फिर पत्नी इसके बाद प्रेयसी। यह एक बुनियादी अन्तर है।" परन्तु आज भारत की नारी ने पश्चिम की नकल में अपनी बुनियादी नारी-मूल्यों की चिंता उतार फेंकी है। उसने नये आभूषणों, वस्त्रों और रिश्तों की लपालप में जीवन-मूल्यों को ताक पर रख दिया है। परिणामतः डॉ. मधुकर गौड़ लिखते हैं-
‘‘संस्कार की नथ के मोती बिखरे हैं/टिकुली की बातों ने संयम तोड़ दिये/अब कंगन पर दोष लगाना ठीक नहीं/घूँघट के घेराव ने ही दम तोड़ दिये/मर्यादा की पलकें/अश्रु बहाती हैं/विश्वासों के/काले चित्र बनाती हैं।’’ (नये-पुराने: गीत अंक-५ पृष्ठ-९९)
अथवा-
‘‘आज पूरी देह का संगीत/हिलती डाल पर/छूटते हैं कण हवा के/ज्यों किसी रूमाल पर/भौंह-आँखें, बाँह-नाभि तक रची कत्थक अदाएँ/कण फूलों के लिए/उतरी सुरों की अप्सराएँ/फँस गईं ऋतुएँ कुँवारी/केश खोले जाल पर।’’ (लौट आये सगुन पंक्षी: अनूप अशेष, पृष्ठ-१२०)

नवगीतकारों ने इन सभी की विसंगतियों और स्थापनाओं को अपनी लेखनी का विषय बनाया है। गाँव की खेतिहर और शहर की मजदूरनियों के मध्य अन्तर कुछ भी हो परन्तु वे दोनों भारतीय संस्कृति को समेटे हुए अपनी भारतीयता की पोषक जरूर हैं। वे सभी होली, दीपावली, दशहरा और कजरी के रंग-पर्व में डूबी रहती हैं उनके मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारे का देवता राष्ट्रीय सामंजस्य बनाये रखने के लिए प्रेमिल पाठ जरूर पढ़ाता है। यदि गाँवों की नारियों पर अविद्या का अंधकार है तो शहर की नारियों के ऊपर अर्धनग्नता की होड़ में फैशनपरस्ती सिर पर चढ़ी हुई है। गाँव की जूझती नारी वर्तमान यथार्थ के संघर्ष में गुथी हुई नजर आती है। जिंदगी उसके लिए बोझ है, रोटी उसकी इज्जत का सौदा करती है। यथा-
‘‘बड़ी हवेली में चौका-चूल्हा करने जाती हर दिन/अपने नन्हे-मुन्ने को कुछ नशा चटाकर रमरतिया/केवल जिंदा रहने की खातिर संघर्ष किया करती/बर्तन, बासन, झाड़ू, पोंछा, लोढ़ बनाकर रमरतिया/अपने सौहर की खातिर दो रोटियाँ बचा लेती/कुत्ते के हिस्से की बासी रोटी खाकर रमरतिया/मालिक के भूखे बच्चे को दूध पिलाया करती है/अपनी आँतों की ऐंठन का दर्द भुलाकर रमरतिया।" (आईना दरका हुआ: नचिकेता, पृष्ठ-१०२)

शहर की सड़कों पर पनपती संस्कृति ने भूख, अपराध और पशुता का पोषण किया हैं चौराहों की भीड़, बाजारों की धक्का-मुक्की, और स्टेशनों की मारा-मारी ने हमें दो-दो हाथ करने को मजबूर कर दिया। दुकानों, नशीले अड्डों और जेबकतरों के आस-पास की जिन्दगी बेरोजगार युवकों के लिए अभिशाप है। यहाँ की आबोहवा में जहर घुल गया है और लोग जहरीले जल तक को पीने के लिए विवश हैं। यथा-
‘‘मुस्कानों में शिकन दबाये/हम अपनेही डर के मारे/गाँवों से बेदखल घूमते/इधर-उधर जैसे बनजारे/ताजा माल बिकाऊ हम तो/खरीददार हैं दाएँ-बाएँ/रंगी हुई कौड़िया। हैं पहने/हम हैं वध स्थल की गाएँ/हमें सालते राखी टीके/इस अवघट से कौन उबारे।’’ (भीतर-भीतर आग: शांतिसुमन, पृष्ठ-६९)
‘‘बुधिया की आँखें भर आईं/छोरी तेरे गाँव में/दरबारों की/भरी कमाई पर/जीना सिखलाया/कभी हाथ खुजलाती उसकी/भूखी-प्यासी काया/चूल्हे बुझे-बुझे लगते हैं। महँगाई की छाँव में। (दीप जलाने दो: डॉ. ओमप्रकाश सिंह पृष्ठ-६१)

इस तरह शहर और गाँव की नारी सामयिक समस्याओं एवं घटनाओं में जूझती रही है। ये यातनाएँ छल-कपट से जन्म लेकर सम्बन्धों को रेत बना डालती हैं। उनका पथरीला पथ हमें निश्चित रूप से छीलता है। इस यांत्रिक दुनिया के खतरे भी हमें चूर-चूर कर देते हैं। अतएव इस माहौल में नारी की अस्मिता भला खतरे से खाली कहाँ? हर कदम और घर-सड़क का हर कोना उसे क्रूर दृष्टि से घूर रहा है और वह समय की आँखों से सशंकित एवं भयातुर है। यथा-
‘‘युग बदला पर अभी आँख में/खटक रही है लड़की/गहराई तो/सूरज ने सब पानी सोखा/लहराई तो किया समय ने इससे धोखा/खुली सतह पर पपड़ी बनकर/चटक रही है लड़की।’’ (नये-पुराने गीत अंक-५ गीतकार-श्रीरंग पृष्ठ-१२५)

उसी भाँति कस्बे की मध्यवर्गीय नारियों की दिलचस्पी बाजार में अधिक होती जा रही है। अपनी पीड़ा, खीझ, आक्रोश को ढँके हुए एक-दूसरे को मुँह बिचकाती, अँगुलियाँ फोड़ती और गाली-गलौज करती हुई शहर की सीढ़ी चढ़ने को उत्सुक हैं। उनकी वस्तुगत इच्छाएँ उनकी मनोविकृति का परिचय भी देती हैं। यथा-
‘‘दादी को सतनाम सुमरनी/अम्मा को गुड़चनियाँ/नई बहू को कच्ची अमियाँ/मुन्नी को पैजनियाँ/यह न मिले तो हाट-बाट में/आग लगाना जी।’’ (नये-पुराने गीत अंक-५ महेश अनघ, पृ॰-१२४)

दूसरी ओर समकालीन नवगीत में नारी सौंदर्य और उसके अपनेपन का बोध कराने वाला पुरुष कहीं न कहीं उस पर मुग्ध लगता है। निराला की ‘जुही की कली’ और ‘संध्या सुन्दरी’ से लेकर कामायनी तथा उर्वशी की काम-भावना आधुनिकता की पैंजनी पर जीवन यात्रा करती हुई नवगीत के घराने तक अपने प्रेमिल स्वर सुनाती रही है। यथा-
‘‘साँझ सोयी/धर हथेली/फिर गुलाबी गाल पर/चाँदनी विपटा/हँसी कुहरा/उतरता ताल पर/कोहबर में/चूड़ियाँ खनकीं/इशारों से हो उठी फिर/संधि तन-मन की/रात आयी/चाँद का टीका लगाये/भाल पर।’’ (यात्रा में साथ-साथ -देवेन्द्र शर्मा इन्द्र पृ. ३३)
अथवा-
निष्प्राण से/ज्यों प्राण को/संजीवनी अनुपम मिले/कुछ इस तरह से तुम मिले/टूटे न युग-युग/सांस भर मन को/मधुर बंधन मिले/तपती धरा को/धन मिले/सावन मिले/हमदम मिले/कुछ इस तरह से/तुम मिले।’’ (न जाने क्या हुआ मन को- मधुकर अष्ठाना, पृ. १०४)

यहाँ गीत कार की लेखनी के द्वारा नारी सौंदर्य और वासना के रंग की फुहार पड़ती दिखाई देती है। डॉ. रामबिलास शर्मा के अनुसार-‘‘समाज के भीतर जो जीर्ण औ मरणशीला तत्व है, जो जीवन्त और उदीयमान तत्व हैं, इनसे बाहर सौंदर्य की सत्ता नहीं है। जो जीर्ण और मरणशील हैं उनके लिए सुन्दरता मृत्यु में है, अन्याय और अत्याचार के फरेब को ढँकने में हैं। जो जीवित और उदीयमान हैं, उनके लिए सुन्दरता सत्य में है, मृत्यु को जीतने में है।’’ (लोकजीवन और साहित्य- रामविलास शर्मा, पृ. १५)

समकालीन नवगीत में नारी के विविध रूपों एवं आकारों पर लेखनी चलाई गई है। उनमें शिक्षित-अशिक्षित, गृहस्थ-बाजारू, रोजगार-बेरोजगार तथा ग्रामीण एवं शहरी नारी के इन्द्रधनुषी रंग देखकर नवगीत की शब्द-सामर्थ्य का आकलन किया जा सकता है। नवगीत के प्रारम्भिक चरण में इसके दो-एक पक्ष ही उद्घाटित हो सके है। इस समय की नवगीत कवयित्रियों में इंदिरा मोहन, ज्ञानवती सक्सेना, सावित्री परमार तथा शैल रस्तोगी को मुख्यतः याद किया जा सकता है। इस युग की नारी की मनोदशा को गहराई से समझते हुए पुरुष-स्त्री के सौंदर्य प्रसंग पर ज्ञानवती सक्सेना लिखती हैं-
‘‘कंचन काया कंचन काया/सुनते सुनते ऊब गई/भँवर चीरकर तैर रही थी/नाव देखकर डूब गई मैं... /झुककर नहीं, चलूँगी तन कर/ऐसी है मेरी गुरुदीक्षा/संघर्षों से/गोद गोदकर बना दिया मुझे बाँसुरी/उँगली रखते ही गूँजूँगी/पर न जपूँगी नाम तुम्हारा।’’ (बीसवीं सदी के श्रेष्ठ गीत सं. मधुकर गौड़, पृ. ५१)
दूसरे, इंदिरा मोहन नारी के प्रेम-प्यास की वीणा के स्वर सुनाती दिखाई पड़ती हैं जिसमें है नारी की प्रेमिका चाह, व्याकुलता और समता। यथा-
"तुम न आये/ याद आई/ रात गुमसुम सो गई/ कल मिलन है / खत तुम्हारा/ कुछ तसल्ली हो गई/ शोर चारों ओर घेरे/ भीड़ लिए पर आ पड़ी/ काटता है घर अकेला/ धूप आँगन धो गई।’’ (शब्दपदी: अनुभूति एवं अभिव्यक्ति: सं. निर्मल शुक्ला, पृ.१२६)

उत्थान काल की नारी की वैचारिक दृष्टि विकासशील देशों की सामाजिक विद्रूपता और पुरुष-नारी की संधि को उजागर करती है। इस युग की नवगीत कवयित्रियों में शांति सुमन, शरद सिंह, अरुणा दुबे, रमा सिंह इत्यादि ने नारी-विमर्श को चिंतन का विषय बनाते हुए उसके यथार्थ का खुलासा किया है। शांति सुमन समाज की गंदी मानसिकता को खोलती हुई लिखती हैं-
"शव किसी युवती का है/इसलिए भीड़ है देखने वालों की/उठाने वालों की नहीं/कोई नयी बात नहीं/जहाँ वह मिली है। वहाँ सैकड़ों किस्सों की/ सैकड़ों मुँह/वह सिर्फ देह थी/देह के साथ रही/देह लेकर मर गई/मनुष्य होने की आदिम परिभाषा पर भी/पत्थर रख गई।’’ (शांति सुमन की गीत-रचना और दृष्टि: दिनेश, पृ.३७१)
अथवा-
"धूप हैं पानी, हवा हैं/बिजलियाँ हैं औरतें/हैं शिला जैसी अडिग/तो तितलियाँ है औरतें।’’ (दैनिक जागरण: शरद सिंह, जून २००४)
रमा सिंह लिखती हैं- ’’अब नारी सामाजिक बंधन से विद्रोह करने लगी है। आज नारी नये दौर की दहलीज पर खड़ी शाश्वत कर्तव्य बोध के बोझ से झुकी हुई नहीं है। उसके पास चिंतन है, एहसास है, और उसे प्रकट करने के लिए कलम।’’ (नारी: एक सफर-दिनेश नंदिनी, पृ.१९८)

उत्कर्ष काल में नवगीत ने नारी के समूचे जीवन- संघर्ष और विसंगतियों को विमर्श का विषय बनाया है। इस युग की नारी चेतना सम्पन्न और मुक्ति के प्रश्न उठाने लगी है। वह पुरुष सत्ता का विकल्प नहीं ढूँढ़ती मगर वह उसके स्नेह के साथ रहकर एक साझे का सम्मानजनक जीवन जीना चाहती है। वह समकालीन कविता की कवयित्रियों की भाँति साहित्यिक गाली-गलौज की भाषा प्रयोग कर अपने आक्रोश को व्यक्त नहीं करती बल्कि वह उसके साथ मैत्री भाव बनाकर जीना चाहती है। यशोधरा राठौर लिखती हैं। यर्था- 'गीली लकड़ी-सी हूँ/रोज सुलगती मैं/कीचड़ में चलाने से/पाँव हुए गंदे/आदमखोर चलाते/रन्दे पर रन्दे/मगर दूब-सी/पाकर नमी उगलती मैं।’’ (उस गली की मोड़ पर-यशोधरा राठौर पृ.७९)

इन नवगीतों में कुछ नया विस्तार, नया उम्मेष और नये आयाम देखे जा सकते हैं। विषय या प्लेटफार्म भले ही बदले हों मगर नारी की पीड़ा उतने ही परिमाण में घनीभूत होकर इन गीतों में उतरी है। राजकुमारी 'रश्मि’ का लिखना है-
"युग बदला, गाथाएँ बदलीं/पर सीता की पीर वही है/धान कूटती आँगन-आँगन/धनिया की तकदीर वही है। कहाँ गये वे ऊँचे बरगद?/होती जिनकी गहरी छाया/पीड़ाएँ हैं, अमरबेल-सी सूख रही कलियों की काया/परिभाषा बदली है केवल/पाँवों की जंजीर वही है।’’ (साहित्य सागर जून २००३,पृ.२७)

नारी विमर्श करते हुए मृणाला पाण्डे लिखती हैं-’’हमें यह अत्यन्त हास्यास्पद लगता है कि वस्तुस्थिति से नजरें हटाकर सभा सोसाइटी के ऊँचे मंचों से देश की माताओं-बहनों को देश के निर्माण में पुरुषों के कंधों से कंधा मिलाकर आगे आने का आह्वान देना।’’ (परिधि पर स्त्री पृ. १०२)। प्रभा खेतान कहती हैं- स्त्री सत्ता के सबसे करीब रहती है, पुरुष की उस पर निर्भरता है। स्त्री के माध्यम से पुरुष संसार में अपना नैरन्तर्य कायम रखना चाहता है। यह अलग बात है कि स्त्री को पुरुष ने स्वयं से कमतर माना।’’ (प्रगतिशील वसुधर ६४)

मृदुला गर्ग का मानना है- ’’पति कितना क्रूर या कितना सह्रद है? या नैतिक-अनैतिक बल्कि हमें यह पूछना चाहिए कि औरत घर क्यों नहीं छोड़ती? नौकरी पेशा औरत-आदमी भी अकेले घर खोजने और चलाने में भयंकर आर्थिक अवरोधों का सामना करते हैं।’’ (स्त्री-अस्मिता: साहित्य और विचारधारा: सुधा सिंह, पृ. २१५)

स्पष्ट है कि इन सभी नवगीत कवयित्रियों एवं समीक्षकों ने जोखिम उठाते हुए स्त्री के यौन अस्तित्व को ही नहीं, इंसानी और सामाजिक गरिमा को भी शब्द देने की नम्र कोशिश की है। इस मार्ग में भू-स्खलन भी हुए, आँधियाँ आई, वृक्ष भी टूटे परन्तु मनुष्य ने पुनः पुनः जीवन के वट वृक्ष की रक्षा करते हुए उसे नये-नये कोपलों से सँवारा भी है। मधुप्रसाद लिखती हैं-
"तुम छुओ/मैं बिखरती रहूँ/तुम समाते रहो/मैं सिमटती रहूँ/तब तक/जब तक/मैं 'तुम’/और तुम 'मैं’ न बन जाऊँ/मन के द्वार न आ जाएँ/समय के पार न हो जाएँ।’’ (जिजीविषा: मधुप्रसाद, पृ.६६-६७)

इस प्रकार सामाजिक विसंगति, राजनीतिक विभाजन आर्थिक असमानता, और सांस्कृतिक आडम्बर और अंध-विश्वास ने नारी के अस्तित्व एवं सुरक्षा के कवच को उतारने की भरपूर कोशिश की है। सचमुच सामाजिक एवं पारिवारिक रिश्ते बड़े नाजुक और कोमल होते हैं। यदि कहीं भी चूक हुई या आलस्य हुआ तो वे शीशे की तरह गिरकर टूट जाते हैं। इसलिए मेरा मानना है कि इन टूटनों, विघटनों, पीड़ाओं और अन्य विसंगतियों पर दृष्टि रखते हुए हमें उन्हें, प्रेम, सेवा, सह-अस्तित्व और आत्मीय भावना को स्मरण कराते हुए दिशा-निर्देश करना अत्यन्त जरूरी है। आचरण और मूल्यों को आज हमारे सामने रखने की जरूरत है न कि अपराध और विद्वेष को। ये दोनों नारी और पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे के अस्तित्व और समृद्धि की कल्पना करना नितान्त मूर्खता होगी। सौंदर्य सामंजस्य में ही है, इसलिए उसके प्रति सजग रहना होगा। यथा-

अतएव नारी की संवेदना बस्ती-जंगल, गाँव-शहर और झोपड़ी-महल तक एकजुटता एवं समरसता का द्योतक बनी है क्योंकि भारत की सामाजिक व्यवस्था अन्य देशों से भिन्न है। इसलिए आयातित विदेशी विचार धाराएँ हमारे समाज के लिए घातक ही होंगी। नारी की अस्मिता पर लेखनी-चलाने वाले नवगीतकारों में प्रमुखतः कुमार रवीन्द्र, सत्यनारायण, मधुसूदन साहा, अवध बिहारी श्रीवास्तव, विधाभवन राजीव, अनूप अशेष, गुलाब सिंह, नचिकेता, विष्णु विराट, माधव कौशिक, माहेश्वर तिवारी, वीरेन्द्र आस्तिक, मधुकर अष्ठाना, राजेन्द्र गौतम, भारतेन्दु मिश्र, जगदीश व्योम, पूर्णिमा वर्मन, यश मालवीय, कुँवर वेचैन मधुशुक्ला इत्यादि के साथ अनेक नाम भी हैं जिन्हे स्थानाभाव के कारण लिख पाना सम्भव नहीं है।

नामवर सिंह का कहना है कि "स्त्री-विमर्श के नाम पर स्त्री-पुरुष संघर्ष चलाना गलत है। मुक्ति अकेलों की नहीं होती वर्तमान समय में स्त्री-विमर्श के नाम पर द्वन्द्व और संघर्ष का ही माहौल है।’’ परमानन्द श्रीवास्तव लिखते हैं- पुरुष सत्तात्मक वर्चस्व का आतंक सारी दुनिया में है जबकि स्त्रियाँ सभी क्षेत्रों में स्वाधीनता सहित बहुत कुछ पाने के लिए संघर्ष कर रही हैं।’’ इस तरह समकालीन कविता के नुमाइंदों ने नारी-चेतना के बंद दरवाजे खोलने का दावा किया है किंतु नारी के ढोलों में सम्मिलित होकर उसकी समस्याओं का निदान नहीं खोजा है जो नवगीतकारों ने तलाशने की कोशिश की है।

आचार्य शुक्ला मानते हैं कि स्त्रियों की भी सत्ता उनकी सज्जा के समान रसिकों के मनोरंजन की वस्तु रही है।’’ निराला और महादेवी जी ने स्त्री और पुरुष में सह-अस्तित्व की भावना को देखा है। सह स्वच्छंदतावादियों की विचारधारा है। मार्क्सवादियों के विचारों में पुरुष और नारी के मध्य शोषक और शोषित का अन्तर दिखाई पड़ता है। मनोविश्लेषणवादी चिंतकों-इलाचन्द जोशी, भाष्म साहनी, अज्ञेय, धर्मवीर भारती इत्यादि के विचारों में नारी की कुण्ठा, अतृप्ति आक्रोश, कुढ़न, संघर्ष व्याप्त है। परन्तु समकालीन नवगीत में वैचारिक समन्वय और वैश्विक नारी की प्रेम-भावना पर अधिक जोर दिया गया है। यह लोकमंगल की भावना की महत्तम कड़ी है। यह मानवतावादी सोच और धारणा भारतीय चिंतन के धरातल पर पल्लवित हुई है।

इस प्रकार घर हो, परिवार हो, समाज हो या विश्व हो- नारी की भूमिका अतुलनीय है। वह कहीं अपाला है तो कहीं गार्गी, कहीं मीरा है तो कहीं महादेवी और कहीं एनीवेसेंट है तो कहीं मदर टेरेसा। वह अपनी हर भूमिका में पुरुष के साथ ही संतुलित जीवन जीना चाहती है जिसमें कभी उससे भूल हो जाती है तो कभी वह पुरुष की क्रूरता और छद्म का शिकार हो जाती है। यशोधरा राठौर के शब्दों में वह सिर्फ इतना चाहती है-
"मैं कनेर की कली/फूलने दो मुझको/अपनी खुशबू से/मौसम को रंग दूँगी/प्यार मुझे दो/मैं ढाई अक्षर दूँगी/मुझे सहेजो/नहीं भूलने दो मुझको।’’ (उस गली के मोड़ पर: यशोधरा राठौर पृ.३०)
स्पष्ट है कि वर्तमान नारी की आधारशिला मजबूत है।

 

१४ अप्रैल २०१४

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