| 
                    
					 धर्म 
					को लेकर उस ने कभी कोई पूर्वाग्रह या रूढ़ि नहीं पाली। न उस ने 
					कोई कट्टरता का कुत्ता ही पाल रखा है। वह खुले मन से, खुले दिल 
					से स्वीकारती है कि कोई जैसा है ठीक है। जब तक आप किसी पर अपने 
					हिंसक धर्म की लाठी नहीं ठोकते सब ठीक है। फिर यह तो सब हमारे 
					ही गढ़े हुए हथकंडे हैं जिन से हम धर्म को ईश्वर का रास्ता बना 
					कर चलाते हैं या आपसी वैमनस्य की नींव दृढ़ करते है। यों अंततः 
					सब जानते हैं कि धर्म का ईश्वर से कुछ लेना-देना नहीं है। हम 
					ने धर्म को ईश्वर के द्वार की कुण्डी बना रखा है और गाहे-बगाहे 
					उसे टंकारते रहते हैं। भगवान अगर धर्म के रास्ते से ही मिलता 
					है तो किस रास्ते से और कौन है भगवान- हिन्दू,
					सिख, ईसाई या 
					मुसलमान या कोई और! किसी के पास इस का उत्तर नहीं है फिर हम 
					क्यों इसे अपना प्रश्न-चिह्न बना कर दीवार से अपना माथा फोड़ते 
					रहें। धर्म को ईश्वर का मुगालता हो सकता है पर ईश्वर को धर्म 
					का मुगालता नहीं है। 
 पर शायद यह सब खोखली बातें हैं। जब अपने द्वार की कुण्डी पर सच 
					खटखटाता है तो हम कितने भी सजग और विशाल ह्रदय हों एक बारगी 
					काँप जाते हैं। हमारा अस्तित्व हिल जाता है और कहीं हमारी 
					अहमन्यता घायल हो जाती है। तब ये सब धारणाएँ, भावनाएँ, खुलापन 
					धरा का धरा रह जाता है। तभी तो उसे लगता है, फोन खटखटाता रहता, 
					उठाया ही क्यों उस ने।
 
 पर उठाना तो पड़ता ही, कैसे न उठाती! उस ने नंबर देख लिया था, 
					फोन ऋषभ का था।
 वह सोचती है अगर उस समय न उठाती तो कम से कम पिछली शाम से जो 
					मन-प्राण का एक एक जर्रा आहत हुआ है, छलनी हुआ है, वह कम हो 
					जाता या नहीं होता।
 
 पर जब भी फोन उठाती, यह छिलना तो उस क्षण भी वैसा ही तार -तार 
					करने वाला होता।
 
 आज सब वह सोचती है तो पाती है कि पलने में पैर न पहचानने की 
					गलती तो उस से भी हुई है। जब ऋषभ ने पहली बार बताया था कि लड़की 
					तो मुझे पसंद है माँ! हर लिहाज से ठीक है, पर एक बात पर अड़ी है 
					कि बच्चे क्रिश्चियन बन कर बड़े होंगे। इस बारे में आप क्या 
					कहती हैं?
 
 'तुम क्या सोचते हो?' उस ने पलट कर ऋषभ पर ही उत्तर का 
					उत्तरदायित्व डाल दिया था।
 "नहीं मुझे आप की राय और सहमति चाहिए।"
 देखो बेटा! जब दो दिल मिल रहे हैं तो यह ऊपर वाले की इच्छा 
					होती है, उसी का आदर करना चाहिए। ये बातें बहुत छोटी हैं इन को 
					मैं उतनी अहमियत नहीं देती जितनी इस बात को कि दो आत्माएँ मिल 
					रही हैं। जब प्रेम की भावना सच्ची होती है तो ये बातें अपने आप 
					सुलझने का रास्ता ढूढ़ लेती हैं।
 
 उस के मन की धारणा है कि जिस के पास रहते हैं या रहना चाहते 
					हैं, केवल वही सत्य है उस के आगे-पीछे सब छलावा है। जरा सा इस 
					धरातल से ऊपर उठो तो सब कुछ एक बादल के नीचे ढक जाता है, तब न 
					रंग दिखायी देता है न जाति, न धर्म। जरा सा विमान में बैठ कर 
					ही सारी दुनिया एक महा तिलस्म में बदल जाती है। कुछ भी 
					वास्तविक नहीं रहता, सब कुछ वायवी हो जाता है। लेकिन हमारी 
					अज्ञानता रोज हमारा झोंटा घसीट -घसीट कर हमे एक चौखटे में 
					बाँधती रहती है। किसी भी धर्म को अपनाओ या उस में जन्मो, 
					रंग-रूप, सोच, डील-डौल वही रहता है। सारी दुनिया को इसी गुल्लक 
					में डाल कर देखो तो सब इसी तरह अपने ही घेरे में गोल-गोल घूम 
					रहें हैं। वहीं के वहीं, जड़ के जड़ - मूढ़-मतियों की तरह। गांधारी 
					की पट्टी बँधी है सारी दुनिया की आँखों पर ।
 पर बात आगे बढ़ गई और विवाह हो गया था।
 
 उस ने सोचा था पर शायद इतना लम्बा नहीं सोचा था। उसे बेटे की 
					पसंद को धार्मिक झमेला नहीं बनाना था। यों भी वह रोज धर्म के 
					नाम पर होने वाली त्रासदियाँ सुन-सुन कर त्रसित होती और सोचती 
					कि इस सब का एक समाधान दो विभिन्न धर्मो का मिलन ही हो सकता 
					है। जब दो धर्म मिलेंगे, दो रास्ते मिलेंगे, तभी तो एक दिन ठौर 
					मिलेगा!
 
 वह यह भी जानती थी कि उस ने अपने बच्चेों को मंदिर में घंटे 
					बजाना, दूर -दूर तक नंगें पाँव देवी-देवताओं के दर्शनार्थ पैदल 
					चलना, मिन्नतें करना, हर समय मुँह में राम-राम की रट लगाना, 
					साधु-संतों के पैरों में लोटना, पुजारिओं के इर्द -गिर्द घूमना 
					जैसा कोई धर्म नही सिखाया। इसलिए आने वाली बहु यह सब नहीं 
					करेगी तो कौन से धर्म को ठेस लग जायेगी, इस समय बेटे के मन की 
					लड़की मिल रही है तो होने दो। कल को उन के बच्चे हिन्दू होंगे 
					या क्रिश्चियन, कौन इतना लम्बा बैठना है उसे यह सब देखने के 
					लिए। भविष्य में बच्चे जो सोचें, जो समझे वही ठीक है। इस सब से 
					उस के किस महल की कोई मीनार ध्वस्त हो जायेगी। वह जानती है कि 
					वह कट्टर नहीं है पर ये लोग तो हैं। एक बार वह सेक्टर २३ में 
					बनी एक चर्च में गई थी। उसे उन के साथ काम करने का फितूर चढ़ा 
					था। उस चर्च के साथ मदर टेरेसा का नाम जुड़ा हुआ था, जहाँ अनाथ 
					बच्चों को पाला जाता था। उस दिन वह वहाँ से बहुत निराश लौटी 
					थी। उस से कहा गया था कि उसे पहले कलकत्ता जाकर उन के मुख्य 
					केंद्र में स्वयं को बेपट-टाइज़ करवाना होगा।
 
 उस का मन कच्चे धागे सा छितर गया था। इस का अर्थ था इस के पीछे 
					भी सारी राजनीति थी। उन के अपने स्वार्थ छिपे थे। किसी को सड़क 
					से उठा कर पालने के लिए उसे वैसा ही रहने देने में क्या क्या 
					बुराई है। उस के मन में कई सवालों ने सर उठाये थे यह कैसी सेवा 
					है इन की।
 
 सब कुछ वैसा नहीं होता जैसा हम सोचते हैं। कहीं हर चीज के 
					आगे-पीछे, दायें-बाँयें भी बहुत कुछ होता है जो दृष्टि से ओझल 
					होता है पर झेलना पड़ता है।
 
 किन्तु उस ने अपने बच्चों को किन्ही पिछड़ी कट्टर मान्यताओं पर 
					नहीं पाला। बच्चे जब बड़े हो जाते हैं वह अपनी जड़ें खुद ढूँढ 
					लेते हैं। क्या ठीक है और क्या गलत का निर्णय अपने बलबूते पर 
					करते हैं। उस के बच्चे भी जहाँ से जो ठीक मिलेगा, स्वयं बटोर 
					लेंगे।
 
 धीरे-धीरे टीना का रंग बदलता गया। वह ऋषभ को भी खींच-खींच कर 
					चर्च ले जाने लगी। ऋषभ उस से विवाद करता और शायद अपने नीम-हकीम 
					खतरे जान वाला धार्मिक ज्ञान भी उस के सामने बघारता। दोनों 
					शायद अपने अपने धर्म की मीमांसा भी करते, पर उस के सामने कभी 
					ऐसी बात ऋषभ ने नहीं रखी, इस लिए वह अपने आप में आश्वस्त थी कि 
					सब ठीक चल रहा है, ठीक वैसा ही जैसा ऋषभ को चाहिए।
 
 फिर एक दिन राजू पैदा हुआ। बहुत लाड-प्यार और उस के हिस्से के 
					जो पल बच्चे के साथ उसे मिलते उस के तन-मन को नया करते रहते। 
					वह सोचती- तो यह होता है मूल से ज्यादा ब्याज से प्यार। बड़ों 
					की कहावतें चरितार्थ हो रही थीं। बेटे पर या बेटे की ख़ुशी से 
					इतर उस की आंतरिक स्थितियों पर कभी ध्यान नहीं गया। बस आँखों 
					का तारा था तो राजू। वह उसे राजू ही कहती जब कि उस का नाम 
					निकोलुस रखा गया। थोड़ा खटका भी, पराया भी लगा पर चुप रही। उन 
					का जीवन, उन की सोच, उन के विचार, कभी कुछ नहीं कहा। उस के 
					राजू बुलाने पर भी टीना ने कभी आँख नहीं तरेरी तो उस के लिए 
					इतना ही बहुत था। अगर हम सभी एक ही प्रभु के अंश हैं तो फिर 
					नामों के ढकोसलों में भी क्या रखा है।
 
 ऋषभ का बहुत मन था और कुछ-कुछ उस का भी कि राजू का नाम संस्कार 
					हो या और नही तो मुंडन संस्कार तो अवश्य। ऋषभ फोन पर पूछता 
					रहता, मुंडन कैसे किये जाते हैं और कब किये जाते हैं। वह बताती 
					रहती कि पहले या तीसरे साल करने की रीति है, पर तुम जब भी 
					करवाना चाहो करा सकते हो, यह कोई ऐसा कट्टर नियम नहीं है। ऋषभ 
					का मन था एक छोटा सा आयोजन करने का, क्यों कि कहीं उस की आँखों 
					में अपने चचेरी बहन के बेटे के मुंडन का भव्य समारोह तैरता रहा 
					होगा और मन ही मन वह वही सपना बुन रहा था।
 
 धर्म या संस्कार साँप की केंचुल तो नहीं कि एक दिन उतार कर 
					अलगनी पर टाँग दो और उस से अलग हो जाओ। यह तो शरीर की चमड़ी की 
					तरह एक परत बन कर उम्र भर साथ चिपकी रहती है।
 
 एक दिन फोन पर ऋषभ ने कहा था- "माँ क्या हम वहाँ आकर राजू के 
					मुंडन कर सकते हैं !"
 "क्यों नहीं बेटा, मेरे लिये तो यह मुँह माँगी मुराद होगी।" और 
					उस ने उसी उछाल में हाल बुक करवा दिया। पंडित जी से तारीख ले 
					ली, नाई का अनुबंध किया और मेहमानों की सूची तैयार करने में लग 
					गई।
 
 बीच-बीच में फोन पर छोटी-मोटी नोक-झोंक करता रहा, इसे ऐसे 
					करें, वैसे करें। किस को बुलाएँ, किस को न बुलाएँ। मैं बहुत 
					बड़ा हंगामा भी नहीं करना चाहता। मेहमानों के चुनाव में थोड़ी 
					दुविधा थी पर उस ने ऋषभ को समझा दिया कि एक ही सर्कल के लोगों 
					में भेदभाव नहीं किया जा सकता और वह बात को समझ गया था।
 
 उस ने जब निमंत्रण पत्र का अंतिम ड्राफ्ट बना कर भेजा तो दो 
					दिन तक कोई फोन नहीं आया। फिर उस ने दो दिन और प्रतीक्षा की और 
					फिर स्वयं ही फोन किया और पूछा- कैसा लगा निमंत्रण पत्र!
 वह चुप हो गया।
 क्या बात है ऋषभ?
 ऋषभ की बड़ी डूबी हुई सी आवाज आई- "माँ मेरे विचार से तो रहने 
					देते हैं यह सारा ताम -झाम। मुझे सब कुछ बड़ा आडंबरी लगता है।"
 उसे लगा, ऋषभ अंदर की किसी टीस को दबा रहा है पर ओठों से 'सी' 
					नहीं निकालना चाहता। वह भी कुरेदना नहीं चाहती थी।
 
 "आडंबर कम कर देते हैं।"
 वह चुप रहा -
 फिर जैसे अंदर से साहस जुटा रहा हो- "नहीं रहने ही देते हैं 
					माँ!"
 वह तो जैसे आसमान से गिरी। पिछले एक महीने से उस का उठना-बैठना 
					राजू के इस मुंडन की काल्पनिक ख़ुशी और सारे ताम-झाम की तैयारी 
					में बीत रहे थे।
 
 बच्चे जब अपने-अपने घरों में रम जाते हैं तब माँ-बाप के लिए ये 
					छोटी -छोटी खुशियाँ ही फुलझड़ियों की तरह उन्हें उदीप्त करती 
					रहती हैं ।
 "टीना ने कुछ कहा क्या?"
 "आप छोडो, वह क्या कहेगी और क्या नहीं कहेगी।" एक बार लगा 
					सामने दीवार उठ आयी है उस के और बेटे के बीच, एक ठोस परदा तिर 
					आया था।
 उस के बाद उस ने कभी मुंडन की बात ही नहीं उठाई।
 
 * * *
 पर आज का यह फोन! न चाहते हुए भी जैसे उस पुराने घाव को अंदर 
					तक कुरेद गया।
 
 "माँ आप को तीन दिसम्बर को यहाँ आना है।"
 
 "क्यों! तम्हें पता है न हम पिंकी के जन्म दिन पर जा रहें हैं, 
					तुम्हें भी तो कार्ड आया होगा ।"
 "आया है पर आप के लिए राजा ज्यादा महत्व पूर्ण है या पिंकी।" 
					एक सिसकती सी चुनौती थी जिस के पीछे प्रगट से कुछ अधिक था।
 "पर बात क्या है ऋषभ! राजा का जन्म दिन तो हो चुका, अब क्या 
					विशेष करने जा रहे हो !"
 "माँ, राजा का बेपटिस्म करवा रहें हैं।" साहस का विस्फोटक 
					गोला, जैविलियन थ्रो की तरह फेंक दिया था ऋषभ ने। "मैं चाहता 
					हूँ आप यहाँ अवश्य हों पर आप सर्किल में इस बात का जिक्र न 
					करें।"
  जान 
					गई कि कहीं अंदर तक आहत है और बँधी हुई छटपटाहट छिपा रहा है। 
					ऋषभ को भी कहीं यह मंजूर नहीं था, यह वह जान गई थी। 
 आज मालूम हुआ कि जिन आस्थाओं के चौखटे पर हम जन्मते हैं वे 
					इतनी अंदर तक धँस जाती हैं कि उन की सीमा लाँघना किसी 
					चक्रव्यूह से निकलने से कम नहीं होता।
 
 वह समझ गई कि इस बार टीना ने बड़ी गहरी सेंध लगाई है।
 |