गीतकार मुक्तिबोध
-डॉ. देवव्रत जोशी
‘‘आजकल मैं गीत लिख रहा हूँ... महादेवी, पंत और
माखनलालजी को पढ़ा है, प्रभावित हुआ हूँ।’’ लगभग पाँच
दशक पूर्व उज्जैन के मॉडल हाईस्कूल के टीचर गजानन माधव
मुक्तिबोध अपने साथियों से बड़े ललककर बात कर रहे थे।
मैं तब आठवीं-नवीं कक्षा का छात्र रहा होऊँगा।
उत्सुकतापूर्वक उनकी चर्चाएँ सुना करता था। कुछ बातें
समझ में आतीं, कुछ नहीं आतीं। वे मेरे अभिभावक श्रीयुत
श्रीनिवास पुरोहित के घर शाम को अकसर आते। लगभग अनवरत
बीड़ी पीते हुए मुक्तिबोध अपने चिंतन-क्षितिज को नये
आयाम देने में मशगूल रहते, होटल, रेस्तराँ, पान की
दूकान या किसी मित्र के निवास पर। निस्संदेह वे
मानव-मुक्तिकामी, नये संसार की कल्पना करने वाले एक
ऐसे शलाका काव्यपुरुष हैं, जिनकी कतिपय रचनाएँ काल को
अतिक्रमित कर जाने के सामर्थ्य से संपन्न हैं।
छायावाद से मुक्त नहीं
लेकिन आज मैं आपको मुक्तिबोध के आंतरिक गीत-जगत में ले
जाना चाहता हूँ। शायद बहुत से पाठक न जानते हों कि
आरंभ में मुक्तिबोधजी ने कुछ अच्छे गीत लिखे थे।
यों तो मुक्तिबोध का पूरा काव्य जगत रागात्मकता
और लय की अर्थवती धारा से संपृक्त है, क्योंकि मूलतः
वे करुणा के कवि हैं। उनका हिंदी साहित्य-संसार में
आगमन एक रूमानी कवि के रूप में हुआ। सन् १९३५ से १९३९
के मध्य लिखी उनकी कविताएँ छायावादी प्रभाव से मुक्त
नहीं हैं। यह अलग बात है, कि फिर भी वे अपनी पृथक
पहचान बनाये रखने में सफल हुए हैं। प्रत्येक कवि शायद
गीत-विधा से आरंभ करता है। लीजिए मुक्तिबोध की कुछ
गीत-पंक्तियों का आस्वाद लीजिए-
प्रिय नाम कोकिल बोल, री।
आज स्मृति के बंधनों से
तू हृदस निज खोल री।
आज शूलों में बिंधा यह
सुमन व्याकुल हासवाला
प्यास आँखों में भरी
तू आज जल मत ढोल री
प्रिय नाम कोकिल बोल री। इस गीत में महादेवी की
अनुगूँज है, किंतु यह गीत प्रतिच्छवि या प्रतिकृति
नहीं है।
सहज प्राप्य
यौवन की चाह और प्रेम का उच्छवास; वेदना और कल्पना,
आकर्षण और वियोग मुक्तिबोध की इन प्रारंभिक
गीत-कविताओं में सहज प्राप्य है। प्रिय को संबोधित
करते हुए वे अपने हृदय की प्यास इस प्रकार अभिव्यक्त
करते हैं-
कौन मदिरा माँगता हूँ?
...यह हृदय की प्यास आली
और यौवन के खिले
अरमान हैं, मधुमास आली
या तो ज्वाला ही जगा दो
और तिनके जल उठे ये
किंतु प्यासे इन दृगों को-
है बड़ा विश्वास आली।
वे आशा और निराशा, संकल्प और विकल्प के मध्य झूलते, एक
भावुक रचनाकार हैं इन गीतों में। कहीं कोई दुराव नहीं,
छल नहीं। एक आत्मानिर्भर आत्मनिवेदन ही दृष्टिगत होता
है-
आज असफल राग फूटा
मैं बनी अनुभूति आली
आज जीवन शुद्ध आली
शब्द भी अवरुद्ध आली।
कल्पना की उड़ान
जीवन में कल्पना और वायवीयता का भी स्थान है और
मुक्तिबोध ने अपनी आरंभिक गीत-रचनाओं में कल्पना की
उड़ानें भी भरी हैं। ‘संगिनी’ को संबोधित, उनकी निम्न
गीत-पंक्तियाँ हमें उनके कल्पना संसार में ले जाती
हैं:-
आलोक-हंसिनि कल्पने
री सजनि, तू उन्मन न बन
चिर-तरुणि! तू गीले न कर
वरदान-से नीले नयन
तू चंद्र-सी आ सामने
दृग-तारकों में झूम ले
उमड़ते इस वेदना का
वारिधि मृदु चूम ले।
लेकिन इन प्रारंभिक गीत-रचनाओं में सिर्फ
प्रणय-व्यापार, हर्ष-वियोग ही नहीं है। वे कुछ
दार्शनिक चिंताओं से भी दो-चार होते हैं। यहीं वह
संधिस्थल है, जहाँ वे न केवल जीवन की क्षणभंगुरता या
‘मरण के नश्वर संसार’ से परिचित होते हैं, अपितु विश्व
की सनातन समस्याओं और प्रश्नों के प्रति जिज्ञासाभरे
नेत्रों से देखते हैं, हमें परिचित कराते हैं-
मरण का संसार सजनी!
हृदय का उद्गार सजनी!!
हृदय का ही भार लाया
प्यार, तेरा प्यार लाया!
मुक्तिबोध की ‘गद्य-कविताएँ’ जहाँ एक ओर ऊँचा स्थान
रखती हैं, वहीं उनकी आरंभिक गीति-परकता भी रोचकता और
जिज्ञासा जगाती है पाठक के मन में।
७
अप्रैल २०१४ |