छुटपन में भाई के साथ फ़िल्में
देखने जाता तो मुझे मारधाड़ वाली डाकुओं की फ़िल्में खूब पसंद आतीं। डाकू जब नकाब
डाले किसी मझोले कस्बे के किसी कसाईनुमा सेठ के घर के पिछवाड़े में घोड़े को स्टेंड
कर घर का छप्पर फाड़ कमरे में कूदता तो सिनेमाहाल तालिओं से गूँज उठता। सेठ नकाबधारी
डाकू को बारह बोर के राईफल के साथ देख सहम जाता और फिर जब डाकू नकाब उठाता तो सेठ
थर्रा जाता, बुदबुदाता उठता -"संगाम सिंह" और उसकी हवा निकल जाती। वह हाथ जोड़े
घिघिया कर रह जाता। डाकू ईमानदारी के साथ उसकी तिजोरी तोड़, सारे गहने-जेवर छोड़,
केवल अपनी माँ की गिरवी रखी एक जोड़ी सोने के कंगन कमर में खोंस घोड़े पर कूद निकल
जाता।
कभी- कभी दृश्य दूसरा भी होता, डाकू सोना-चाँदी, हीरे-जवाहारात नहीं, केवल सेठ या
मालगुजार की इकलौती बेटी को उठा ले जाता और बेटी भी बड़े चाव से घोड़े के पीछेवाली
सीट पर छलांग लगा, डाकू की कमर थामे बिना किसी सेफ्टी बेल्ट के नौ-दो ग्यारह हो
जाती। तब इतना सोचने का माद्दा मुझमें नहीं था कि डाकू नकाब क्यों डालते हैं?
मैं सोचता डाकू कौम में ऐसा चलन होगा। घोडा ड्राईव करने हेलमेट की जगह नकाब डालना
होता होगा। वो तो होश सम्हालने के बाद नकाब का मर्म जाना और ये भी जाना कि
नेता-मंत्री बिना नकाब के बरसों से देश को लूट-खसोट रहे, डाकुओं को भी शायद बहुत
बाद में इस बात का इल्म हुआ कि बेवजह नकाब डालें हैं जबकि बिना नकाब के भी
नेताओं-मंत्रियों, ठेकेदारों की तरह इस पुनीत काम को अंजाम दे सकते हैं न पुलिस का
कोई खौफ न ही किसी मुखबिरी का खतरा। इसी सोच के चलते कितने ही डाकू चम्बल का बीहड़
छोड़ चुनाव में कूद संसद में समा गए। वो कहते हैं ना...एक मछली सारे तालाब को गन्दा
कर देती है, ऐसा ही कुछ हुआ होगा तभी कोलगेट, टूजी, थ्रीजी, के घपले-घोटाले-हवाले
हुए।
सारी! मैं हमेशा की तरह विषयांतर हो रहा हूँ, तो बातें नकाब की हो रही थीं। बचपन
में बड़ी इच्छा थी कि एक बार किसी डाकू के दिव्य-दर्शन करूँ और उसके नकाब को बेनकाब
कर पूछूँ कि ये किसलिए? किसलिए मुखौटा ओढ़ते हैं? किससे अपना चेहरा छिपाना चाहते
हैं? पुलिस से, बीबी से, माशूक से, खुद से, घरवालों से, या समाज से? यदि इन्हीं
सबका डर है तो फिर डाकूगिरी क्यों? “जो डर गया-वो मर गया" खुद डाकुओं का यह
अमृत-वचन है। हमारे देश में डाकुओं को हमेशा दिलेर और दुस्साहसी माना गया। नकाब डाल
ये खुद को लम्बे अरसे तक क्यों डरपोक साबित करते रहे, यह शोध का विषय है और दुःख का
विषय ये है कि जब मैं कुछ बड़ा हुआ तो लगभग सारे डाकू आत्मसमर्पण कर 'बड़े घर' में
थे। चम्बल जाने की मेरी साध धरी की धरी रह गई क्योंकि बचे-खुचे डाकू तब तक राजनीति
के दल-दल में फँस दलगत दंगल में 'बिज़ी' थे। अतः मैं अंत तक नहीं जान सका कि वे मुँह
पर गमछा क्यों लपेटते थे? नकाब क्यों पहनते थे?
थोडा और बड़ा हुआ तो पहली बार जब कुछ मोहतरमाओं को बुरके में देखा तो एकबारगी फिर
डाकुओं का ख्याल आ गया। ऐसा लगा कि पैंतीस एम.एम.फिल्म की जगह सत्तर एम.एम. की
फिल्म देख रहा हूँ। पर न जाने क्यों कहीं कुछ अधूरा- अधूरा सा लगा, फिर ख्याल आया
कि इनके हाथों में बारह बोर की बन्दुक नहीं, वैसे इन्हें इसकी क्या जरुरत? मारने का
काम तो युवतियाँ बगैर राईफल के कर लेती हैं। एक दोस्त ने जानकारी दी कि बुरके में
रहना इनका नियम है, ईमान है, धरम है। तब सहज तौर पर मैंने पूछा था कि इससे दिक्कतें
तो काफी आती होंगी। मसलन आपस में एक-दूजे को पहचानते कैसे होंगे? तब उसने समझाया कि
घर में तो इनकी खिड़कियाँ खुली रहती हैं मतलब कि पर्दा नहीं होता, केवल बाहर का रुख
करती हैं तो बुरके पहनती हैं। हाँ बाहर गेस करना थोडा मुश्किल होता है कि इन बुरकों
के भीतर कौन अमीना है और कौन नगीना। खैर इससे तुझे क्या? तब मैंने एक और शंका का
निवारण चाहा कि काले ही क्यों पहनती हैं, इससे तो रात में एक्सीडेंट का खतरा होता
होगा। लेकिन शायद इन्हें किसी को पहचनाने की जरूरत नहीं।
आइये फिल्मों की ओर चलें। दुनिया गोल है घूम-फिरकर फिर वहीँ आ जाते हैं जहाँ से चले
थे। हर क्षेत्र में ऐसा होता है। पहले बहुत ही साधारण सामान्य फुलपैंट का चलन था।
दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार स्टाइल का, फिर ‘नेरो फुलपैंट’आया, फिर
‘बेलबाटम’,’पैरेरल’ और न जाने क्या-क्या, आखिर में फिर उसी फुलपैंट में आ गए जो
दिलीप कुमार- राजेंद्र कुमार छोड़ गए थे, पर नकाब के मामले में कुछ उल्टा-पुल्टा हो
गया है। पहले डाकुओं में चलन था, अब डाकिनो में, मतलब कि युवतियों में आया। जेंडर
ही बदल गया है। इनकी वजह से इतनी सारी परेशानियाँ और दिक्कतें आ रहीं हैं कि इन्हें
तो होश नहीं, पर ताज्जुब है युवाओं को भी कोई होश नहीं। ना कोई धरना, न अनशन ना कोई
विरोध। भगवान जाने कैसे इन्हें खूबसूरती निहारने का कोई शौक नहीं। निहारें भी तो
कहाँ से, चौबीसों घंटे तो आँखें मोबाईल-स्क्रीन पर टिकी होती हैं।
पुराना जमाना ही अच्छा था। 'अपनी' को जी-भर तको ही, दूसरी को निहारने पर भी कोई
प्रतिबन्ध नहीं। आते-जाते चौबीसों घन्टे फ्री टोल फ्री की तरह। पहले लड़कियाँ
कहाँ-जाती हैं,कहाँ आती हैं, तुरंत पता चल जाता, कोई न कोई बता देता था। 'कक्काजी
.तुम्हारी लड़की आजकल पड़ोस के आवारा प्रेमलाल के साथ ज्यादा दिखती है, प्रेम से उसे
समझाओ, जल्दी कहीं शादी कर दो, प्रेमलाल के प्रेम में कहीं पगली न हो जाए।' कभी कोई
किसी बाप को सूचना देता - 'शर्माजी, अपने लड़के पर ध्यान दो, कल उसे जमुनाबाई के साथ
देखा, जल्दी उसका लगन करा दो नहीं तो हाथ से निकल जाएगा।’ और फिर लगन तक लड़के का घर
से निकलना बंद हो जाता। आज की भाँति जमुनाबाई अगर नकाब में होती तो बतानेवाला क्या
पूरा ब्यौरा दे पाता? या प्रेमलाल की प्रेमिका गर नकाब में होती तो कोई किसी बाप को
क्या बता पाता? अब बताएँ नकाब का दौर अच्छा या बे-नकाब का? निश्चित ही बे-नकाब
वाला। अब तो युवतियों के चहरे से नकाब हटना ही चाहिए। समझ ही नहीं आता कि महेंद्र
के पीछे उसकी मौसी बैठी है कि माशूका? समझ नहीं आता कि बगीचे में बबलू के साथ घूमती
बालिका उसकी जीजी है या जान! और समझ में ये भी नहीं आता कि आजकल के मम्मी-पापा अपनी
पप्पियों को बे-नकाब रहने का प्रवचन क्यों नहीं देते? पुलिस से उम्मीद पालते हैं जो
खुद ना-उम्मीदों से भरे हैं। उनका तो केवल ‘खाना-पूर्ति’ का काम होता है। दो दिन
समझाइश दी और चलते बने। जिस काम में 'खाने-पीने' की कोई गुंजाइश नहीं उसमें सिर दे
के क्यों पुलिस महकमे को बदनाम करे?
वैसे सरकार चाहे तो मिनटों में इस समस्या का समाधान कर सकती है। निराश्रितों को ,
बे-रोजगारों को जिस तरह भत्ता देती है वैसा ही कुछ ‘बे-नकाबी भत्ता’ प्रति युवती-
प्रति माह दो हजार रुपये देना शुरू करे। नारी-शक्ति के नाम पर अरबों तो यूँ ही
खर्चे जा रहे हैं, दस-बीस करोड़ और सही। सरकार इसका क्रियान्वयन करे तो कल ही सारे
चेहरे बे-नकाब हो जाएँ और हर सिम्त ‘हँसता हुआ नूरानी चेहरा’ नजर आये, अन्यथा हाथ
जोड़ यही कह सकते हैं, नकाबवालिओं, रहम करो! |